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नोट - यहाँ प्रकाशित साधनाओं, स्तोत्रात्मक उपासनाओं को नियमित रूप से करने से यदि किसी सज्जन को कोई विशेष लाभ हुआ हो तो कृपया हमें सूचित करने का कष्ट करें।

⭐विशेष⭐


23 अप्रैल - श्रीहनुमान जयन्ती
10 मई - श्री परशुराम अवतार जयन्ती
10 मई - अक्षय तृतीया,
⭐10 मई -श्री मातंगी महाविद्या जयन्ती
12 मई - श्री रामानुज जयन्ती , श्री सूरदास जयन्ती, श्री आदि शंकराचार्य जयन्ती
15 मई - श्री बगलामुखी महाविद्या जयन्ती
16 मई - भगवती सीता जी की जयन्ती | श्री जानकी नवमी | श्री सीता नवमी
21 मई-श्री नृसिंह अवतार जयन्ती, श्री नृसिंहचतुर्दशी व्रत,
श्री छिन्नमस्ता महाविद्या जयन्ती, श्री शरभ अवतार जयंती। भगवत्प्रेरणा से यह blog 2013 में इसी दिन वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को बना था।
23 मई - श्री कूर्म अवतार जयन्ती
24 मई -देवर्षि नारद जी की जयन्ती

आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष।
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त्रिपुरभैरवी महाविद्या जगत् के मूल कारण की अधिष्ठात्री देवी हैं

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क्षी यमान विश्व के अधिष्ठान श्री  दक्षिणामूर्ति कालभैरव हैं। त्रिपुरा माँ या भगवती त्रिपुरभैरवी उनकी ही शक्ति हैं। ये ललिता या महात्रिपुरसुन्दरी की रथवाहिनी हैं। ब्रह्माण्डपुराण में इन्हें गुप्त योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में चित्रित किया गया है। मत्स्यपुराण में इनके  त्रिपुरभैरवी, कोलेशभैरवी, रुद्रभैरवी, चैतन्यभैरवी तथा नित्याभैरवी आदि स्वरूपों का वर्णन प्राप्त होता है। इन्द्रियों पर विजय और सर्वत्र उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु  त्रिपुरभैरवी महाविद्या की उपासना का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। महाविद्याओं  में इनका छठा स्थान है। मुख्यतः घोर कर्मों में  त्रिपुरभैरवीजी के मंत्रो का प्रयोग किया जाता है।

श्रीदत्तात्रेय-जयन्ती - भगवान दत्तात्रेय जी की महिमा

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म हायोगीश्वर दत्तात्रेय जी भगवान विष्णुजी के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को को प्रदोषकाल में हुआ था। अतः इस दिन बड़े समारोह से दत्तजयन्ती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत (२।७।४) में आया है कि पुत्रप्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रि के तप करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः ' “ मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया ” - श्रीविष्णुजी के ऐसा कहे जाने से भगवान् विष्णु ही अत्रि के पुत्ररूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाये। अत्रिपुत्र होने से ये ‘ आत्रेय ’ कहलाते हैं। दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका ' दत्तात्रेय ' नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनुसूया है, जो सतीशिरोमणि हैं तथा उनका पातिव्रत्य संसार में प्रसिद्ध है। 

गीता-जयन्ती पर जानें श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा

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ज यन्ती तिथियों का हमारे हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्व रहा है। विश्व के किसी भी ग्रन्थ का जन्म - दिन नहीं मनाया जाता , जयन्ती मनायी जाती है तो केवल श्रीमद्भगवद्गीता की ; क्योंकि अन्य ग्रन्थ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किये गए हैं जबकि हमारे हिन्दू धर्म के इस पवित्रतम ग्रन्थ गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ है - या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥

भैरव जयंती पर जानें भैरवाष्टमी व्रत की विधि

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मि त्रों, मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को होती है भक्तों की हर प्रकार से रक्षा करने वाले भगवान  भैरवनाथजी की जयन्ती ।   भगवान शिव के दो स्वरूप हैं- १- भक्तों को अभय देने वाला विश्वेश्वर स्वरूप और २- दुष्टों को दण्ड देने वाला कालभैरव स्वरूप।  जहाँ विश्वेश्वर अर्थात् काशी विश्वनाथ जी का स्वरूप अत्यन्त सौम्य और शान्त है , वहीं उनका भैरवस्वरूप अत्यन्त रौद्र , भयानक , विकराल तथा प्रचण्ड है। श्री आनन्द भैरव श्री कालभैरव

प्रबोधिनी एकादशी पर करें तुलसी विवाह

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आ ज कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तुलसी - विवाह   का भी आयोजन किया जाता है। हिन्दू धर्मग्रन्थों की मान्यता के अनुसार तुलसी श्रीहरि को अतिप्रिय है जिस कारण तुलसी चढ़ाए बिना मधुसूदन भगवान की  कोई भी पूजा अधूरी मा नी जाती है। तुलसी के पत्ते मंगलवार, शुक्रवार, रविवार, संक्रांति (नये महीने या वर्ष का पहला दिन), अमावास्या, पूर्णिमा, द्वादशी, श्राद्ध तिथि (पूर्वजों की पुण्यतिथि)  और   दोपहर [12बजे] के बाद नहीं तोड़ने चाहिए अन्यथा भगवान के सिर को काटने का पाप मिलता है। तुलसी पत्र/दल तोड़ना यदि बहुत आवश्यक हो तो फिर निम्न मंत्र पढ़कर तोड़ लेना चाहिये- तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया। चिनोमि केशवस्यार्थे वरदा भव शोभने।। अथवा [और] त्वदंगसंभवै: पत्रै: पूजयामि यथा हरिम्। तथा कुरु पवित्राङ्गि! कलौ मलविनाशिनी।।

देवोत्थापनी एकादशी - सुप्तावस्था से जगने का पर्व

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य द्यपि भगवान् क्षणभर भी नहीं सोते , फिर भी भक्तों की भावना- ‘ यथा देहे तथा देवे ’ के अनुसार भगवान् चार मास तक शयन करते हैं। भगवान् विष्णु के क्षीरसागर में  शयन के विषय में कथा है कि भगवान ने  भाद्रपदमास की शुक्लपक्षीय एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को मारा था और उसके बाद थकावट दूर करने के लिये क्षीर-सागर में जाकर सो गये। वे वहाँ चार मास तक सोते रहे और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे। इसी से इस एकादशी का नाम ‘ देवोत्थापनी ’ या ‘ प्रबोधिनी एकादशी ’ पड़ गया। 

दीपावली का महत्व

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भा रतवर्ष में मनाये जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टियों से अप्रतिम महत्व है। समाजिक दृष्टि से इस पर्व का महत्व इसलिए है कि दीपावली आने से पूर्व ही लोग अपने घर-द्वार की स्वच्छता पर ध्यान देते हैं, घर का कूड़ा-करकट साफ़ करते हैं, टूट-फूट सुधारवाकर घर की दीवारों पर सफेदी, दरवाजों पर रंग-रोगन करवाते हैं, जिससे उस स्थान की न केवल आयु ही बढ़ जाती है, बल्कि आकर्षण भी बढ़ जाता है। वर्षा-ऋतु में आयी अस्वच्छता का भी परिमार्जन हो जाता है।

नरक चतुर्दशी हर लेती है नरक का भय

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का र्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी ' नरक चतुर्दशी ' कहलाती है। सनत्कुमार संहिता के अनुसार इसे पूर्वविद्धा लेना चाहिये। इस दिन अरुणोदय से पूर्व प्रत्यूषकाल में स्नान करने से मनुष्य को यमलोक का दर्शन नहीं करना पड़ता । यद्यपि कार्तिकमास में तेल नहीं लगाना चाहिये, फिर भी इस तिथिविशेष को शरीर में तेल लगाकर स्नान करना चाहिये । जो व्यक्ति इस दिन सूर्योदय के बाद स्नान करता है, उसके शुभ कार्यों का नाश हो जाता है । स्नान से पूर्व शरीर पर अपामार्ग/चिरचिटा का प्रोक्षण करना चाहिये। निम्न मन्त्र पढ़कर अपामार्ग को अथवा लौकी को मस्तक पर घुमाकर नहाने से नरक का भय नहीं रहता - सीतालोष्ठसमायुक्तं सकण्टकदलान्वितम् । हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणःपुनः पुनः ॥

श्रीहनुमत्स्तुति का महापर्व - हनुमान जयन्ती [द्वादश नाम स्तोत्र]

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ह नुमान जी की श्रीराम भक्ति जग प्रसिद्ध है। पञ्चमुखी -एकमुखी- एकादशमुखी और गदा धारण करने वाले महापराक्रमी अखण्ड ब्रह्मचारी हनुमान जी को उनकी अनन्य श्री राम जी की भक्ति ने समस्त जगत में पूजनीय अमर भगवान बना दिया। सूर्यदेव के शिष्य एवं  बल-बुद्धि-सिद्धि देने वाले हनुमान जी के विषय में जितना कहा जाय कम ही है। कलयुग में इन्हीं महाबलशाली बजरंगबलीजी का सान्निध्य प्रत्यक्ष और सहज ही प्राप्त हो जाता है। अन्य सभी भगवान के लीलावतार तो अपनी लीला करके वापस अपने धाम को लौट चुके हैं, परन्तु रुद्रावतार हनुमान जी ही एक ऐसे अजर-अमर देव हैं जो अब तक राम नाम का जप करते हुए इसी धरा पर उपस्थित हैं। यदि मन में सच्ची श्रद्धा   हो तो हनुमान जी की कृपा सहज ही प्राप्त हो जाती है। जिनके कृपाकटाक्ष मात्र से सभी भूत-प्रेत बाधाओं, त्रिविध कष्ट, भय-दुर्घटना, बुरे तन्त्र-अभिचार कर्मों का कुप्रभाव साधक पर क्रियाहीन हो जाता है, इन्हीं हनुमान जी की जयन्ती आज मनाई जाती है।

धनतेरस, श्रीधन्वन्तरि जयन्ती एवं गोत्रिरात्र व्रत का पावन महत्व

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दी पावली के दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही दीपमालाएं सजने लगती हैं। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी ' धनतेरस ' कहलाती है। आज के दिन नयी वस्तुएँ विशेषकर चाँदी का बर्तन खरीदना अत्यन्त शु भ माना गया है, परंतु वस्तुतः यह यमराज से संबंध रखने वाला व्रत है। इस दिन सायंकाल घर के बाहर मुख्य दरवाजे पर एक पात्र में अन्न रखकर उसके ऊपर यमराज के निमित्त दक्षिणाभिमुख दीपदान करना [दक्षिण दिशा की ओर दिया रखना] चाहिये। दीपदान करते समय निम्न प्रार्थना करनी चाहिये - मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह। त्रयोदश्यां  दीपदानात्सूर्यजः प्रीयतामिति।

शरत्पूर्णिमा पर जानिये कोजागर व्रत का महत्व

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श रद ऋतु की शीतल हवाओं के साथ ही आगमन होता है आश्विन पूर्णिमा का, जो दीपावली आने वाली है ऐसी एक सूचना-सी दे जाती है। हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार मान्यता है कि आश्विनमास की पूर्णिमा को भगवती महालक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिये पृथ्वी पर घूमती हैं कि कौन जाग रहा है। लक्ष्मी जी के ' को जागर्ति ? ' कहने के कारण इस दिन किए जाने वाले व्रत का नाम कोजागरी है। निशीथे वरदा लक्ष्मीः को जागर्तीति भाषिणी। जगति भ्रमते तस्यां लोकचेष्टावलोकिनी॥ तस्मै वित्तं प्रयच्छामि यो जागर्ति महीतले॥ अर्थात कोजागरी की रात्रि को लक्ष्मी माँ " कौन जागता है? " ऐसा बोलती हुईं संसार में उनके निमित्त कौन जागने की चेष्टा कर रहा है यह देखने हेतु जगत में भ्रमण करती हैं। साथ ही जो भी जागता है उसे धन-प्राप्ति का आशीर्वाद माँ कमला दे जाती हैं।

सिद्धि-प्रदा सिद्धिदात्री जी की महिमा - नवरात्र का नवम दिन

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माँ सिद्धिदात्री   दुर्गाजी की  नवीं शक्ति हैं। माता सिद्धिदात्री सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। मार्कण्डेयपुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व - ये आठ सिद्धियाँ होती हैं। ब्रह्मवैवर्त्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय छः में महादेव शिव जी द्वारा सिद्धियों की संख्या अट्ठारह बतायी गयी है। इन अट्ठारह तरह की सिद्धियों के नाम इस प्रकार कहे जाते हैं-       १- अणिमा , २- लघिमा , ३- प्राप्ति , ४- प्राकाम्य, ५- महिमा , ६- ईशित्व और वशित्व , ७- सर्वकामावसायिता , ८- सर्वज्ञत्व , ९- दूरश्रवण , १०- परकायप्रवेशन , ११- वाक्सिद्धि , १२- कल्पवृक्षत्व , १३- सृष्टि , १४- संहारकरणसामर्थ्य , १५- अमरत्व , १६- सर्वन्यायकत्व , १७- भावना और १८- सिद्धि ।

महागौरी जी की महिमा - नवरात्र का आठवां दिन महाष्टमी

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म हागौरी माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति हैं। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार माता महागौरी का वर्ण पूर्णतः गौर है। महागौरी माता की इस गौरता की उपमा शङ्ख, चन्द्र और कुन्द के फूल से दी गयी है। ' अष्टवर्षा भवेद् गौरी ' के अनुसार  महागौरी भगवती की आयु सर्वदा आठ वर्ष  की ही मानी गयी है। महागौरी जी के समस्त वस्त्र एवं आभूषण भी श्वेत हैं। देवी महागौरी की चार भुजाएँ हैं। महागौरी माँ का वाहन वृषभ है। महागौरी जी के ऊपर के दाहिने हाथ में अभय-मुद्रा और नीचे के बायें हाथ में वर-मुद्रा है। महागौरी माता की मुद्रा अत्यन्त शान्त है।

शुभङ्करी कालरात्रि माता की महिमा - नवरात्र का सप्तम दिन

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का लरात्रि माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति हैं जो नवरात्र की सप्तमी तिथि को पूजी जाती हैं। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार माता कालरात्रि के शरीर का रंग घने अन्धकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश गोल हैं। कालरात्रि जी से विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। इनकी नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयङ्कर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। माँ कालरात्रि का वाहन गर्दभ है। कालरात्रि माँ के ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा सभी को वर प्रदान करती है। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में हाथ में खड्ग (कटार) है-  एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता। लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त-शरीरिणी॥ वामपादोल्लसल्लोह-लताकण्टक-भूषणा। वर्धनमूर्ध-ध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥ अर्थात् एक वेणी (बालों की चोटी) वाली, जपाकुसुम (अड़हुल) के फूल की तरह लाल कर्ण वाली, उपासक की कामनाओं को पूर्ण करने

कात्यायनी जी की महिमा - नवरात्रों का छठा दिन

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दु र्गविनाशिनी भगवती के छठवें स्वरूप का नाम कात्यायनी है। इनका नाम कात्यायनी पड़ने के पीछे हिंदू धर्म-ग्रन्थों में वर्णित एक कथा है कि कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं के कात्य गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए। इन्होंने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी। कात्यायन ऋषि की इच्छा थी कि माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। माँ भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली थी। कुछ काल पश्चात् जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बहुत बढ़ गया था तब भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिये एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इन देवी की पूजा की। इसी कारण से ये देवी कात्यायनी कहलायीं।

करुणामयी स्कन्दमाता जी की महिमा - नवरात्रि का पंचम दिवस

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दु र्गतिनाशिनी दुर्गाजी के पाँचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार भगवान् स्कन्द जो ' कुमार कार्त्तिकेय ' के नाम से भी जाने जाते है, प्रसिद्ध देवासुर-संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में कार्तिकेय जी को  कुमार और शक्तिधर कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। कार्तिकेय जी का वाहन मयूर होने के कारण इनको मयूरवाहन के नाम से भी अभिहित किया गया है। इन्हीं भगवान स्कन्द की माता होने के कारण  माँ दुर्गा जी का यह पाँचवां स्वरूप स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है।

त्रिविध-ताप-नाशिनी कूष्माण्डा जी की महिमा - नवरात्र का चतुर्थ दिन

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प रम वात्सल्यमयी माँ दुर्गाजी के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मन्द हलकी हँसी द्वारा अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार परिव्याप्त था, तब इन्हीं देवी ने अपने ' ईषत् ' हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। अतः कूष्माण्डा माता सृष्टि की आदि स्वरूपा आदि शक्ति हैं।   कूष्माण्डा माँ के पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व था ही नहीं।  हमारे हिंदू धर्म-ग्रंथों में कहा भी गया है - " कुत्सितः ऊष्मा कूष्मा " अर्थात् कुत्सित ऊष्मा [त्रिविध ताप/कष्ट] से कूष्मा शब्द बना। हिन्दू धर्मग्रन्थों में माता कूष्माण्डा के विषय में कहा गया है कि - " त्रिविधतापयुत: संसार: स अण्डेमांसपेश्यामुदररुपायां यस्या: सा कूष्माण्डा। " अर्थात् त्रिविध तापयुक्त [ पहला कष्ट/ताप है आध्यात्मिक ताप जो शारीरिक व मानसिक दो तरह का होता है , दूसरा कष्ट है भौतिक पदार्थों/जीव-जंतुओं के कारण मनुष्य को होने वाला आधिभौतिक ताप और तीसरा आधिदैविक ताप जो बाह्य कारण से उत

कल्याणकारिणी चन्द्रघण्टा देवी की महिमा - नवरात्रि का तृतीय दिवस

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आ दिशक्ति माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम ' चन्द्रघण्टा ' है। नवरात्र-उपासना में तीसरे दिन इन्हीं भगवती के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। माँ चन्द्रघण्टा का स्वरूप परम शान्तिदायक और कल्याणकारी है। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार चंद्रघण्टा माँ के  मस्तक में घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है, इसी कारण से इन्हें चन्द्रघण्टा देवी कहा जाता है। चंद्रघंटा माता के शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। चन्द्रघण्टा माँ के दस हाथ हैं जिनमें खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है। चन्द्रघण्टा माँ की मुद्रा युद्ध के लिये उद्यत रहने की होती है। इनके घण्टे के समान  भयानक चण्डध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य-राक्षस सदैव प्रकम्पित रहते हैं । इसी कारण इनको चण्डघण्टा माता भी कहा जाता है।

तपश्चारिणी देवी ब्रह्मचारिणी जी की महिमा - नवरात्रि का द्वितीय दिन

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माँ दुर्गा की नव शक्तियों में दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी जी का है जिनका नवरात्र के द्वितीय दिन अर्चन किया जाता है। हिंदू धर्मग्रन्थों के अनुसार ब्रह्मचारिणी में 'ब्रह्म' शब्द का अर्थ तपस्या है। ब्रहमचारिणी अर्थात् तप की चारिणी-तप का आचरण करने वाली। कहा भी है- वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म - वेद, तत्त्व और तप ' ब्रह्म ' शब्द के ही अर्थ हैं। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यन्त भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला और बायें हाथ में कमण्डलु रहता है। अपने पूर्वजन्म में जब ये हिमालय के घर पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई थीं तब नारद के उपदेश से इन्होंने भगवान् शङ्करजी को पति-रूप में प्राप्त करने के लिये अत्यन्त कठिन तपस्या की थी । इसी दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी के नाम से अभिहित किया गया।

मूलाधार-रूपिणी माँ शैलपुत्री की महिमा - नवरात्रि का प्रथम दिन

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न वरात्रों के प्रथम दिन दुर्गाजी के पहले स्वरूप में भगवती ' शैलपुत्री ' की आराधना की जाती है। हिंदू धर्मग्रन्थों के अनुसार पर्वतराज हिमालय के वहाँ पुत्री के रूप में उत्पन्न होने से ही ये देवी ' शैलपुत्री ' के नाम से जानी जाती हैं। वृषभ पर सवार इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। यही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं।   अपने पूर्वजन्म में ये प्रजापति  दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम ' सती ' था। इनका विवाह भगवान् शङ्करजी से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिये निमन्त्रित किया। किन्तु  शङ्करजी को उन्होंने उस यज्ञ में नहीं निमन्त्रित किया। सती ने जब यह सुना कि उनके पिताश्री एक अत्यन्त विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिये उनका मन विकल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने शङ्करजी को बतलायी। सारी बातों पर विचार करके शिवजी ने कहा-" प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंन

शारदीय नवरात्र में शक्ति आराधना [सप्तश्लोकी दुर्गा]

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ह मारे हिन्दू धर्म के अनुसार मुख्य रूप से दो नवरात्र होते हैं- वासन्तिक और शारदीय । इनके अलावा दो गुप्त नवरात्रियाँ भी होती हैं। जहाँ वासन्तिक नवरात्रि में विष्णुजी की उपासना का प्राधान्य होता है वहीं शारदीय नवरात्र में शक्ति की उपासना की प्रधानता रहती है। वस्तुतः दोनों ही नवरात्र मुख्य एवं व्यापक हैं और दोनों में विष्णु जी व शक्ति की उपासना उचित है। आस्तिक जनता दोनों नवरात्रियों में दोनों की उपासना किया करती है। इस उपासना में वर्ण, जाति की विशिष्टता भी अपेक्षित नहीं है, अतः सभी वर्ण एवं जाति के लोग अपने इष्टदेव की उपासना करते हैं। देवी की उपासना व्यापक है ।

महाकाली महिमा तथा काली एकाक्षरी मन्त्र पुरश्चरण

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का ल अर्थात् समय/मृत्यु की अधिष्ठात्री भगवती महाकाली हैं। यूं तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि योगमाया भगवती आद्याकाली के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाई जाती है। परंतु तान्त्रिक मतानुसार आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन ' काली जयंती ' बतलायी गयी है। जगत के कल्याण के लिये वे सर्वदेवमयी आद्या शक्ति अनेकों बार प्रादुर्भूत होती हैं, सर्वशक्ति संपन्न वे भगवान तो अनादि हैं परंतु फिर भी भगवान के अंश विशेष के प्राकट्य दिवस पर उन स्वरूपों का स्मरण-पूजन कर यथासंभव उत्सव करना मंगलकारी होता है। दस महाविद्याओं में प्रथम एवं मुख्य महाविद्या हैं भगवती महाकाली। इन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविद्याएँ हैं। विद्यापति भगवान शिव की शक्तियां ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टि से  भी कालतत्व की प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओं की आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकाल की प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपों में दस महाविद्याओं के नाम से विख्य

महालय पर जानिये श्राद्ध एवं पितृपक्ष के महत्व को

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जी वन का अन्तिम पड़ाव है मृत्यु। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार मनुष्य मृत्यु के पश्चात पितर(मृत पूर्वज) होकर पितृलोक जाते हैं। पितृलोक के पश्चात कर्मानुसार या तो वह व्यक्ति स्वर्ग/नरक/मुक्ति पाता है या उसका पुनर्जन्म होता है। श्राद्ध से तात्पर्य है पितृगणों की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म। पितरों का ऋण श्राद्धों द्वारा चुकाया जाता है। दिवंगत हुए व्यक्ति का सपिण्डीकरण व वार्षिक श्राद्ध किया जाता है। इसके पश्चात भी प्रतिवर्ष उस जीवात्मा की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है। विशेष बात यह है कि अगला जन्म लेकर वह  मनुष्य अपने कर्मानुसार देवता, गंधर्व, मनुष्य या पक्षी आदि जिस भी योनि का हो जाता है, उसी के अनुरूप उसे श्राद्धकर्म तृप्ति देता है।   इसलिए मृत पूर्वज का  श्राद्ध अवश्य करे इस परम्परा को कभी न तोड़े। भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन की अमावास्या तक पितृपक्ष कहलाता है।  दो अवसरों पर मुख्यतः हर वर्ष श्राद्ध किया जाता है; एक बार - जिस मास की जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई हो तब । दूसरी बार पितृपक्ष पर-जिनकी मृत्यु जिस तिथि को हुई हो इस पितृपक्ष के अंतर्गत

वामन जयंती पर जानिये भगवान वामन के अवतार की कथा

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आ ज यानि भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की  द्वादशी तिथि को ही भगवान श्री हरि ने वामन अवतार धारण किया था। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन से महाबाहु बलि का जन्म हुआ। दैत्यराज बलि धर्मज्ञों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, बलवान, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरि के प्रिय भक्त थे।  यही कारण था कि उन्होंने इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्गणों को जीतकर तीनों लोकों को अपने अधीन कर लिया था। इस प्रकार राजा बलि समस्त त्रिलोकी पर राज्य करते थे। इंद्रादिक देवता दासभाव से उनकी सेवा में खड़े रहते थे। परम भक्त तो थे राजा बलि किन्तु बलि को अपने बल का अभिमान था। इन्द्र आदि देवों का अधिपत्य हड़प चुके थे वो। कितना ही बड़ा भक्त हो कोई अभिमान आ जाय तो सारी भक्ति व्यर्थ है। तब महर्षि कश्यप ने अपने पुत्र इन्द्र को राज्य से वंचित देखकर तप किया और भगवान विष्णु से बलि को मायापूर्वक परास्त करके इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य प्रदान करने का वरदान माँगा।