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⭐विशेष⭐


23 अप्रैल - मंगलवार- श्रीहनुमान जयन्ती
10 मई - श्री परशुराम अवतार जयन्ती
10 मई - अक्षय तृतीया,
⭐10 मई -श्री मातंगी महाविद्या जयन्ती
12 मई - श्री रामानुज जयन्ती , श्री सूरदास जयन्ती, श्री आदि शंकराचार्य जयन्ती
15 मई - श्री बगलामुखी महाविद्या जयन्ती
16 मई - भगवती सीता जी की जयन्ती | श्री जानकी नवमी | श्री सीता नवमी
21 मई-श्री नृसिंह अवतार जयन्ती, श्री नृसिंहचतुर्दशी व्रत,
श्री छिन्नमस्ता महाविद्या जयन्ती, श्री शरभ अवतार जयंती। भगवत्प्रेरणा से यह blog 2013 में इसी दिन वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को बना था।
23 मई - श्री कूर्म अवतार जयन्ती
24 मई -देवर्षि नारद जी की जयन्ती

आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष।
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हिंदू नवसंवत्सर मंगलमय हो (2081 - कालयुक्त)

हि
न्दू धर्मग्रन्थों में साठ प्रकार के संवत्सरों का वर्णन मिलता है। चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि से नये संवत्सर का आरम्भ होता है, यह अत्यन्त पवित्र तिथि है । इसी तिथि से पितामह ब्रह्माजी ने सृष्टिनिर्माण प्रारम्भ किया था-

'चैत्रे मासि जगत् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेsहनि।
शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति।।'

नूतन संवत्सर की इस प्रथम तिथि को रेवती नक्षत्र में, विष्कुम्भ योग में दिन के समय भगवान् के आदि अवतार मत्स्यरूप का प्रादुर्भाव भी माना जाता है-
कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा ।
रेवत्यां योगविष्कुम्भे दिवा द्वादशनाडिका: ।।
मत्स्यरूपकुमार्या च अवतीर्णो हरि: स्वयम् । (स्मृतिकौस्तुभ)

नवसंवत्सर के प्रारम्भ में समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि के लिये दुर्गापूजन का क्रम आता है । नवरात्र के लिये घट-स्थापन और तिलकव्रत भी इस दिन किया जाता है। हिन्दू नवसंवत्सर की आप सभी को बहुत-बहुत शुभकामनायें और भगवान् को नए संवत्सर में हमारा अनेकों बार प्रणाम....

      आइये सबसे पहले नव संवत्सर में छिपे गूढ़ रहस्य को समझने का प्रयास करते हैं। नवसंवत्सर के प्रारम्भ में समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि के लिये दुर्गापूजन का क्रम आता है। उसके पश्चात् ही रामनवमी को श्रीरामचन्द्र जी के जन्म का प्रसंग उपस्थित होता है।

     भिन्न-भिन्न देशों एवं कालों के वैचित्र्य से भावों एवं कार्यों का भी भेद होता है। किन्हीं में हठपूर्वक वैराग्य, विवेक एवं शान्ति का तो किन्हीं में बलपूर्वक काम, क्रोध, मद, मात्सर्य का प्राखर्य हो जाता है। यही स्थिति समय की भी है। शिशिर, वसन्त आदि ऋतुओं में धरणी, अनिल और जल से संयोग होने पर भी धान में अंकुरादि की उत्पत्ति नहीं होती; पर वर्षा ऋतु में वही बीज अङ्कुरित हो उठता है। आम तथा नानाविध तरु-लताओं का मुकुलित एवं पुष्पित होना कालविशेष की ही अपेक्षा रखता है । किम्बहुना प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति, स्थिति एवं विनाशादि में भी काल की अवश्य ही हेतुता है ।

     आधिदैविक भावनाओं में भी भिन्न-भिन्न तिथियों में भिन्न-भिन्न शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। किन्हीं कालों में आसुरी शक्तियों का और किन्हीं में दैवी शक्तियों का प्राकट्य होता है। एकादशी प्रभृति तिथियों  में वैष्णवी, शिवरात्रि तिथियों में शैवी, नवरात्रों में दुर्गा और रामनवमी को श्रीराम की शक्तियों का प्राकट्य होता है।

इस तिथि को रेवती नक्षत्र में, विष्कुम्भ योग में दिन के समय भगवान् के आदि अवतार मत्स्यरूप का प्रादुर्भाव भी माना जाता है


     पाशविक कर्मों, पाशविक ज्ञानों से प्राणियों की शक्तियों का क्षय होता है। पवित्र तिथियों व तीर्थों में तप, त्याग, उपवास, स्नानादि से अशुद्धियों का मार्जन एवं दिव्य गुणों की उत्पत्ति होती है। सत्संग-सदाचार जैसे सद्गुण अपनाकर सन्मार्ग की ओर बढ़ने वालों के मन में सकारात्मक व जनकल्याण के भाव उत्पन्न होने लगते हैं । इसी तरह दुराचार तथा दुर्विचारशील प्रमादी पुरुषों के मन में कुत्सित भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। अच्छे और बुरे विचारों एवं कर्मों के समाप्त हो जाने पर भी उनके संस्कार बने रहते हैं। यह बात मनोवैज्ञानिकों ने भी स्वीकार कर ली है कि विचारों का प्रभाव पर्याप्तरूप से देश-काल व व्यक्तियों पर पड़ता है। इन विचारों, संकल्पों का आदान-प्रदान भी हुआ करता है। असत्पुरुषों, अशास्त्रों तथा असत्कर्मों को भुला देने से असद्विचारों का प्रवाह रुक जाता है पर बार-बार स्मरण करने यह प्रचालित हो उठता है। सद्विचारों, शास्त्रों, सत्पुरुषों व सत्कर्मों को बारम्बार स्मरण करना उनका स्वागत करना है और उनको भूलना ही उनका बहिष्कार है।

"योगदर्शन" (१।३७) - में वीतराग शुकादि के ध्यान को भी चित्त-निरोध का साधन कहा गया है- "वीतरागविषयं वा चित्तम्।।"

     जैसा कि ऊपर भी बतलाया, वीतराग की आकृति से साधक के मन में उनके अन्तर्भावों एवं रागादि दोषरहित भगवदाकारित चित्त का स्फुरण होता है। संसार में अनन्त कर्म व विचारों के संस्कार फैले रहते हैं बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि सद्विचारों के आगमन का द्वार खुला व असद्विचारों का बंद रखेंसत्पुरुषों, शास्त्रों व सत्कर्मों का स्मरण या सेवन ही उनका द्वार खोलना व विपरीतों का परिवर्जन, विस्मरण ही उनके संस्कारों का द्वार बंद रखना है। किसी तत्व के संचार से बलात् मन में चाञ्चल्य की सृष्टि होती है और किसी तत्व के संचार से शान्ति, एकाग्रता आदि की प्राप्ति होती है। इसलिये भजन, ध्यान आदि के लिये आकाश या जलतत्त्व तथा सुषुम्णा का संचार अनुकूल समझा जाता है । इसी कारण विभिन्न मासों और तिथियों का माहात्म्य पुराणादि शास्त्रों में मिलता है । श्रुतार्थापत्ति प्रमाणद्वारा यह स्पष्ट होता है कि शिवरात्रि, रामनवमी आदि दिव्य तिथियों में विशेषरूप से शिव, विष्णु आदि शक्तियों का प्राकट्य होता है ।

निखिल ब्रह्माण्डाधीश्वरी माँ का पूजन होते ही विश्वपति भगवान् श्रीराम की जन्मोत्सव नवमी आ जाती है। सदा ही रामनवमी को श्रीरामचन्द्रजी का दिव्य भर्ग[स्वरूप] भूमण्डल में अवतीर्ण होकर विघ्नों एवं दानवी शक्तियों का मर्दन करके सत्पुरुषों का संरक्षण करता है ।


     भजन, ध्यान, उपवास आदि द्वारा शक्तियों का ही संग्रह किया जाता है। अन्नपानादि द्वारा जबतक मनुष्य की शक्ति क्षीण रहती है, तब तक बाह्य शक्तियोंका आकर्षण नहीं होता। किसी कालविशेष में किसी शक्तिविशेष का प्राकट्य होता है। जैसे अमावास्या को पितर प्राणों की व्याप्ति होती है, वैसे ही एकादशी, शिवरात्रि, रामनवमी आदि में भी भिन्न-भिन्न शक्तियों का संचय किया जा सकता है। व्रतों और त्योहारों का यह भी एक रहस्य है।

     नवसंवत्सर के प्रारम्भिक नौ दिनों में आद्याशक्ति भगवती का व्रत और श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करने से आध्यात्मिक, आधिभौतिक दोषों पर विजय प्राप्त करने में बड़ी सहायता मिलती है। निखिल ब्रह्माण्डाधीश्वरी माँ का पूजन होते ही विश्वपति भगवान् श्रीराम की जन्मोत्सव नवमी आ जाती है। सदा ही रामनवमी को श्रीरामचन्द्रजी का दिव्य भर्ग[स्वरूप] भूमण्डल में अवतीर्ण होकर विघ्नों एवं दानवी शक्तियों का मर्दन करके सत्पुरुषों का संरक्षण करता है । रामनवमी का व्रत और रामजन्मोत्सव, भगवान् का पूजन प्राणियों में दिव्य शक्ति प्रदान करता है। इस प्रकार चैत्र शुक्लपक्ष बड़े महत्त्व का है।

     युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारम्भ भी इस तिथि को हुआ था। यह सतयुगादि तिथि ऐतिहासिक महत्त्व की भी है, इसी दिन सम्राट् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त की थी और उसे चिरस्थायी बनाने के लिये विक्रम-संवत् का प्रारम्भ किया था ।

संवत्सर-पूजन

     इस दिन प्रात: नित्यकर्म करके तेल का उबटन लगाकर स्नान आदि से शुद्ध एवं पवित्र होकर हाथ में गन्ध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर देश-काल के उच्चारण के साथ निम्नलिखित संकल्प करना चाहिये-
"श्रीगणपतिर्जयति। श्री विष्णवे नमः, श्री विष्णवे नमः, श्री विष्णवे नम:। श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशति-तमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य भूप्रदेशे--- (प्रदेश का नाम)---प्रदेशे, --(संवत्सर का नाम)-- नाम्नि संवत्सरे, सूर्य उत्तरायणे, वसन्त ऋतुः, चैत्र मासे, --- शुक्ल पक्षे, प्रतिपदायां तिथौ, ---(वार का नाम)--वासरे ....(गोत्र का नाम)...गोत्रीय ...(आपका नाम)....अहं मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य स्वजन-परिजन सहितस्य वा आयु-रारोग्यैश्वर्यादि-सकल-शुभ-फलोत्तरो-त्तराभिवृद्ध्यर्थं ब्रह्मादि-संवत्सर देवतानां पूजनमहं करिष्ये।"

     ऐसा संकल्प कर नयी बनी हुई चौरस चौकी या बालू की वेदी पर स्वच्छ श्वेतवस्त्र बिछाकर उस पर हल्दी या केसर से रंगे अक्षत से अष्टदलकमल बनाकर उस पर ब्रह्माजी की मूर्ति [अथवा चित्र/शालग्राम या शिवलिंग/सुपारी] स्थापित करे। फिर गणेशाम्बिका-पूजन के पश्चात्  'ॐ ब्रह्मणे नम:' अथवा "श्रीब्रह्मा गायत्री मन्त्र" से ब्रह्माजी का आवाहनादि षोडशोपचार पूजन करें।


हम वेदों के अधिपति वेदान्तनाथ को जानते हैं और उन हिरण्यगर्भ का ही ध्यान करते हैं, वे देव हमें ब्रह्म के ज्ञान-ध्यान में प्रेरित करें।


॥वेदान्तनाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्॥

     यह ब्रह्माजी का गायत्री मंत्र है इसके द्वारा ब्रह्माजी की स्तुति की जाती है। इसका भाव है कि हम वेदों के अधिपति वेदान्तनाथ को जानते हैं और उन हिरण्यगर्भ का ही ध्यान करते हैं, वे देव हमें ब्रह्म के ज्ञान-ध्यान में प्रेरित करें।

     पूज़न के अनन्तर विघ्नों के नाश और वर्ष के कल्याणकारक तथा शुभ होने के लिये आज नव वर्ष के दिन ब्रह्माजी से निम्न प्रार्थना की जाती है-

भगवंस्त्वत्प्रसादेन वर्षं क्षेममिहास्तु मे।
संवत्सरोपसर्गा मे विलयं यान्त्वशेषतः॥

     पूजन के पश्चात् विविध प्रकार के उत्तम और सात्विक पदार्थों से ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करना चाहिये ।

     नव संवत्सर के दिन पञ्चाङ्ग- श्रवण किया जाता है। आज इस हिन्दू नव वर्ष के अवसर पर ध्वजारोपण किया जाता है अर्थात् भगवा/केसरिया रंग का ध्वज मंदिरों में घरों में छत पर लहराया जाता है। नवीन पञ्चाङ्ग से उस वर्ष के राजा, मन्त्री, सेनाध्यक्ष आदि का तथा वर्ष का फल श्रवण करना चाहिये। सामर्थ्यानुसार पञ्चाङ्गदान करना चाहिये तथा प्याऊ (पौसला) की स्थापना करनी चाहिये।

     हिंदू नव वर्ष के दिन नया वस्त्र धारण करना चाहिये तथा घर को ध्वज, पताका, वन्दनवार आदि से सजाना चाहिये। आज यानि नए वर्ष के दिन निम्ब के कोमल पत्तों, पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिस्री और अजवाइन डालकर खाना चाहिये, इससे रुधिर विकार नहीं होता और आरोग्य की प्राप्ति होती है। नवरात्र के लिये घट-स्थापन और तिलकव्रत भी इस दिन किया जाता है। इस व्रत में यथासंभव नदी, सरोवर अथवा घर पर स्नान करके संवत्सर की मूर्ति बनाकर [अथवा शालग्राम या शिवलिंग या सुपारी रखकर] उसका-

'चैत्राय नमः' , 'वैशाखाय नमः' , 'ज्येष्ठाय नमः', 'आषाढ़ाय नमः' , 'श्रावणाय नमः' , 'भाद्रपदाय नमः' , 'आश्विनाय नमः' , 'कार्तिकाय नमः' , 'मार्गशीर्षाय नमः', 'पौषाय नमः', 'माघाय नमः' तथा 'फाल्गुनाय नमः'

एवं

 'वसन्ताय नम:', 'ग्रीष्माय नमः', 'वर्षाय नमः', 'शरदाय नमः', 'शिशिराय नमः' और 'हेमंताय नमः'

- इन सभी नाम मंत्रों से पुष्पादि द्वारा पूजन करना चाहिये। अन्त में सम्वत्सर का नाम लेते हुए पुष्प चढ़ा दें - 
"श्री ..... सम्वत्सराय नमो नमः"

60 प्रकार के हैं सम्वत्सर
सनातन ग्रंथों  के अनुसार कुल 60 संवत्सर होते हैं जो क्रम से चलते हैं-
(1)प्रभव, (2)विभव, (3)शुक्ल, (4)प्रमोद, (5)प्रजापति, (6)अंगिरा, (7)श्रीमुख, (8)भाव, (9)युवा, (10)धाता, (11)ईश्वर, (12)बहुधान्य, (13)प्रमाथी,(14)विक्रम, (15)विषु, (16)चित्रभानु,
(17)स्वर्भानु, (18)तारण, (19)पार्थिव, (20)व्यय, (21)सर्वजित्, (22)सर्वधारी, (23)विरोधी, (24)विकृति, (25)खर, (26)नंदन, (27)विजय, (28)जय, (29)मन्मथ, (30)दुर्मुख, (31)हेमलम्ब, (32)विलम्ब, (33)विकारी, (34)शर्वरी, (35)प्लव, (36)शुभकृत्, (37)शोभन, (38)क्रोधी, (39)विश्वावसु, (40)पराभव,(41)प्लवंग, (42)कीलक, (43)सौम्य, (44)साधारण,
(45)विरोधकृत्, (46)परिधावी, (47)प्रमादी, (48)आनन्द,(49)राक्षस, (50)नल, (51)पिंगल, (52)काल, (53)सिद्धार्थ, (54)रौद्री, (55)दुर्मति, (56)दुंदुभि,
(57)रुधिरोद्गारी, (58)रक्ताक्ष, (59)क्रोधन और (60)अक्षय।

साठ संवत्सरों की सूची
60 संवत्सर

किसी वर्ष के संवत्सर का नाम जानने की विधि - शक संख्या को 22 से गुणा करके 4261 जोड़ने से जो प्राप्त हो उसमें 1875 का भाग देने से जो लब्धि मिले उस को शक संख्या में जोड़ कर 60 का भाग देने से जो शेष बचे वह प्रभव आदि क्रम से गत संवत्सर था उससे अग्रिम वर्तमान संवत्सर होता है।

जैसे- शक संवत 1868 में संवत्सर का नाम जानना है।
शक1868 को 22 से गुणा किया तो 41066 हुआ, इस में 4261 जोड़ने से 45307 हुआ। इस में 1875 का भाग दिया तो लब्धि 24 मिली। 24 को शक सं. 1868 में जोड़ने से 1872 हुआ, इसमें 60 का भाग देने से शेष 32 बचे। अतः 32 वाँ विलम्ब नामक गत संवत्सर था उससे अगला हुआ 33 अर्थात् विकारी नामक संवत्सर था शक1868 में।

विक्रम संवत 2077
विक्रमी संवत 2077 प्रमादी नामक संवत्सर था जो कि फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा यानि 28 मार्च 2021 तक ही था लेकिन यह संवत्सर निर्णयसिंधु के अनुसार अपूर्ण सम्वत्सर था इसलिए फाल्गुन पूर्णिमा तक ही रहा। इतना ही नहीं इसके बाद अगला सम्वत्सर आनंद होना चाहिए था लेकिन इसको निर्णय सिंधु के सिद्धांतों के आधार पर विलुप्त सम्वत्सर माना गया । अतः विलुप्त सम्वत्सर चैत्र के कृष्ण पक्ष अर्थात् 29 मार्च 2021 से लेकर 12 अप्रैल 2021 तक ही रहा। इसी कारण से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा 2078 अर्थात् 13 अप्रैल 2021 से शुरू हुए नये सम्वत्सर को राक्षस नामक सम्वत्सर ही कहा जाना सुनिश्चित हुआ।

विक्रमी संवत्सर 2078 
13 अप्रैल 2021 , मंगलवार को 2078 वां संवत हुआ - राक्षस संवत्सर। कहा जाता है कि राक्षस नामक संवत्सर आने पर विश्व में प्रजा में निष्ठुरता निष्क्रियता कि वृद्धि तथा राजाओं(नेता) में युद्ध हो सकता है। इस संवत्सर में जन्म लेने वाला शिशु क्रूर, कुत्सित कर्म करने वाला, दयाविहीन परन्तु साहसी, कलही तथा मांसाहारी हो सकता है।

संवत्सर 2079 - नल
2 अप्रैल 2022 शनिवार से एक वर्ष तक नल नामक संवत्सर प्रारंभ हुआ था। इसका फलादेश धर्म ग्रंथों में कहा गया है-"नलाब्दे मध्य-सस्यार्घे वृष्टिभिः प्रवरा धरा।। नृप-संक्षोभ-संजाता भूरि-तस्कर-भीतय:।’"
(नल संवत्सर में धान्य यानि अन्न आदि का उत्पादन मध्यम। पर्याप्त वर्षा से  पृथ्वी श्रेष्ठ - शस्य श्यामला, किंतु नेताओं में परस्पर क्षोभ/खलबली/वैमनस्य। चोरों /असामाजिक तत्व का भय।)
नल संवत्सर का स्वामी शनि होने से इसमें थोड़ी वर्षा, अनाज भाव सम। बृहस्पति के मंत्री होने से सब नियंत्रण में। 

संवत्सर 2080 - पिंगल
दिनांक 22 मार्च 2023 बुधवार से एक वर्ष तक पिंगल नामक संवत्सर रहा। इस संवत्सर में दो श्रावण मास पड़े, अतएव पुण्यप्रद अधिक मास (पुरुषोत्तम मास) भी पड़ा।
इस संवत का राजा बुध होता है व मंत्री शुक्र।

पिंगलाब्दे त्वीति-भीति-र्मध्यसस्यार्घ-वृष्टयः।
राजानो विक्रमाक्रान्ता भुञ्जन्ते शत्रवो धराम्‌॥

अर्थात् पिंगल नाम के सम्वत्‌ में ईति - अनावृष्टि-अतिवृष्टि /अकाल, एक देश का दूसरे देश पर आक्रमण तथा भीति - प्रजा में अनावश्यक भय बना रहता है। अन्न और वृष्टि मध्यम होती है। राजाओं/नेताओं में लड़ाई संभव है और पराक्रमी राजा शत्रुगण का दमन करके पृथ्वी पर राज्य करते हैं। इसमें शिव उपासना से कल्याण होता है।

पिंगलाब्दे तु सततं दिक्पूरितघनस्वनम्‌।
राजानः स्वभुजाक्रांता भुंजन्ते क्ष्मामनुत्तमाम्‌॥
(नारद संहिता)
अर्थात् पिंगल नामक वर्ष में निरन्तर दिशाओं में मेघ के बरसने का शब्द होता रहता है,  राजा लोग अपनी भुजा के बल से पृथ्वी पर राज करते हैं।

वर्तमान संवत्सर 2081 - कालयुक्त
वर्तमान में 9 अप्रैल 2024 मंगलवार से कालयुक्त नामक संवत्सर होगा।
कालयुक्त संवत का राजा मंगल है व मंत्री शनि हैं।
कालयुक्त संवत्सर का फल -
  • अतिवृष्टिः कालयुक्त वत्सरे सुखिनो जना:।
 सततं सर्वसस्यानि सम्पूर्णाश्च तथा द्रुमाः॥ (नारद संहिता)
कालयुक्त नामक सम्वत्सर में वर्षा अधिक होती है तथा लोग सुखी रहते हैं। सभी प्रकार की फसल उत्पन्न होती है, अनेक प्रकार के वृक्ष भी खूब बढ़ते तथा फलते-फूलते हैं।

  • भविष्य पुराण - कालयुक्त संवत्सर में घोर विवाद, सभी फसलों में महंगाई, प्रजावर्ग को पीड़ा एवं नृप वर्ग को अधिक कष्ट होता है।
  • रुद्रयामल तंत्र के अंतर्गत लघु ग्रन्थ "मेघमाला" में लिखा है -

गोमहिष्यं हिरण्यञ्च रौप्यं ताम्रं विशेषतः।

सर्वस्वं विक्रयित्वा च कर्तव्यो धान्यसंग्रहः।

तेन धान्येन देवेशि दुर्भिक्षं क्रमते जनाः।

माधवो वर्षते देवि सर्वशस्यं प्रजायते॥

अजानां जायते रौग्यं कालयुक्तं विशेषतः।

राजयुद्धं भवेद्घोरं प्रजानाशं वरानने॥

कालयुक्त सम्वत्सर में समय रहते ही सोना, चाँदी, तांबा बेचकर भी अपने व परिवार के भरण पोषण हेतु पर्याप्त धान्यों(अनाजों) का संग्रह कर ले। इससे वे लोग संभाव्य दुर्भिक्ष को मात दे सकेंगे। कालयुक्त सम्वत्सर में राजाओं में परस्पर युद्ध होता है, प्रजा का नाश होता है, विशेषतः बकरियों में रोगों का प्रकोप होता है। कहीं प्रजानां जायते रौग्यं ऐसा भी लिखा है, सब अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें।

  • संग्रह शिरोमणि ग्रंथ में लिखा है-

यत्कालयुक्त तदनेकदोषं -

कालयुक्त वर्ष में अनेक दोषों - ( लूट-पाट, हत्या, अत्याचार, अनाचार) से प्रजा पीड़ित रहती है।

  • वृहज्ज्योतिषसार- वत्सरे कालयुक्ताख्ये सुखिनः सर्वजन्तवः। सन्त्यथापि च सस्यानि प्रचुराणि तथा गदाः॥ कालयुक्त नाम के संवत्सर में सदा जीव सुखी रहते हैं। फसलें अच्छी होती हैं। साथ ही बीमारियां भी विशेष होती हैं।

कालयुक्त संवत्सर में जन्म लेने वालों के लिये मानसागरी ग्रंथ में लिखा है-

कृषि-वाणिज्य-कर्ता च तेल-भाण्डादि-संग्रही। क्रय-विक्रय-कर्ता च कालयुक्ते भवेन्नरः॥

कृषि कर्म एवं व्यापार करने वाला, तेल, बर्तन आदि का संग्रह करने वाला, क्रय एवं विक्रय करने वाला पुरुष कालयुक्त संवत्सर में उत्पन्न होता है और जातकाभरण के अनुसार कालयुक्त संवत्सर में उत्पन्न मनुष्य अधिक निष्प्रयोजन बोलने से आनन्दित होने वाला, कुत्सित बुद्धि वाला, भाग्य हीन, झगड़ा करने के समय कालरूप और दुर्बल शरीर वाला होता है। जातक पारिजात कहता है कि कालयुक्त में उत्पन्न जातक कालज्ञ (ज्योतिषी को भी कालज्ञ कहते हैं; दूसरा अर्थ है जो समय की गति को पहचाने), धनवान, भोगी, अच्छे कर्म करने वाला होता है।


हिन्दू नवसंवत्सर की आप सभी को बहुत-बहुत शुभकामनायें और भगवान् को नए संवत्सर में हमारा अनेकों बार प्रणाम....

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