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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

अक्षय फलदायिनी-चिरंजीवी तिथि-अक्षयतृतीया

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रतवर्ष संस्कृति प्रधान देश है। हिन्दू  संस्कृति में व्रत-त्यौहारों का विशेष महत्त्व है। व्रत और त्योहार नयी प्रेरणा एवं स्फूर्ति का संवहन करते हैं। इससे मानवीय मूल्यों की वृद्धि बनी रहती है और संस्कृति का निरन्तर परिपोषण तथा संरक्षण होता रहता है। भारतीय मनीषियों ने व्रत-पर्वों का आयोजन कर व्यक्ति और समाज को पथभ्रष्ट होने से बचाया है। भारतीय कालगणना के अनुसार, चार स्वयंसिद्ध अभिजित् मुहूर्त हैं- चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ीपड़वा), आखातीज (अक्षय तृतीया), दशहरा और दीपावली के पूर्व की प्रदोष-तिथि। भारतीय लोक-मानस सदैव से ऋतु-पर्व मनाता रहा है । हर ऋतुके परिवर्तन को मंगलभाव के साथ मनाने के लिये व्रत, पर्व और त्योहारों की एक श्रृंखला लोक जीवन को निरन्तर आबद्ध किये हुए है। इसी श्रृंखला में अक्षयतृतीया का पर्व वसन्त और ग्रीष्म के सन्धिकाल का महोत्सव है।



     वैशाख मास के शुक्लपक्ष की तृतीया को अक्षयतृतीया या आखातृतीया अथवा आखातीज भी कहते हैं। 'अक्षय' का शाब्दिक अर्थ है- जिसका कभी नाश(क्षय) न हो अथवा जो स्थायी रहे। स्थायी वही रह सकता है जो सर्वदा सत्य है। सत्य केवल परमात्मा (ईश्वर) ही है जो अक्षय, अखण्ड और सर्वव्यापक है। यह अक्षयतृतीया तिथि ईश्वरतिथि है। चारों युगों (सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग) -में से त्रेतायुग का आरम्भ इस्री आखातीज से हुआ है। जिससे इस तिथि को युग के आरम्भ की तिथि-युगादितिथि भी कहते हैं

     इसी तिथि को चारों धामों में से उल्लेखनीय एक धाम भगवान् श्रीबद्रीनारायण के दर्शन की तिथि भी कहा जाता है। बद्रीनाथ धाम के कपाट आज के दिन खुल जाते हैं और बद्रीनाथ-धाम यात्रा आज से प्रारंभ हो जाती है। इस तिथि को श्रीबद्रीनाथजी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और लक्ष्मीनारायण के दर्शन किये जाते हैं। इस दिन भगवान श्रीविष्णुजी को चन्दन अर्पित करने का बड़ा माहात्म्य है, ऐसा करने से वैकुण्ठलोक की प्राप्ति होती है। आज भगवान को जो भी अर्पित किया जाय निश्चित रूप से भगवान उसे बड़े प्रेम से ग्रहण करते हैं। अक्षयतृतीया को ही वृन्दावन मेँ श्रीबिहारीजी के चरणों के दर्शन वर्ष मेँ एक बा होते हैं। देश के कोने-कोने से श्रद्धालु भक्तजन चरण-दर्शन के लिये वृन्दावन पधारते हैं।

     यह दिन हमें स्वयं को टटोलने के लिये,  आत्मान्वेषण, आत्मविवेचन और अवलोकन की प्रेरणा देने वाला है। यह दिन- 'निज मनु मुकुरु सुधारि' का दिन है। क्षय के कार्यों के स्थन्न पर अक्षय कार्य करने का दिन है। इस दिन हमें देखना-समझना होगा कि भौतिक रूप से दिखायी देने वाला यह स्थूल शरीर, संसार और संसार की समस्त वस्तुएँ क्षयधर्मा हैं, अक्षयधर्मा नहीं हैं। क्षयधर्मा वस्तुएँ- असद्भावना, असद्विचार, अहंकार, स्वार्थ, काम, क्रोध तथा लोभ पैदा करती हैं जिन्हें भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता (१६।१८) - में आसुरीवृत्ति कहा है। जबकि अक्षयधर्मा सकारात्मक चिन्तन-मनन हमेँ दैवीसम्पदा की ओर ले जाता है (गीता १६।१-३ )। इससे हम त्याग, परोपकार, मैत्री, करुणा और प्रेम पाकर परम शान्ति पाते हैं, अर्थात् हमें दिव्य गुणों की प्राप्ति होती है। इस दृष्टि से यह तिथि हमें जीवन-मूल्यों का वरण करने का संदेश देती है- 'सत्यमेव जयते' की ओर अग्रसर करती है।

इसी दिन नर-नारायण, हयग्रीव का अवतार हुआ था, इसीलिये इनकी जयन्तियाँ भी अक्षय-तृतीया को मनायी जाती हैं।

     आखातीज का दिन सामाजिक पर्व का दिन है। इस दिन कोई दूसरा मुहूर्त न देखकर स्वयंसिद्ध अभिजित् शुभ मुहूर्त के कारण विवाहोत्सव आदि माङ्गलिक कार्य सम्पन्न किये जाते हैं। विष्णुधर्मसूत्र, मत्स्य-पुराण, नारदीय पुराण तथा भविष्य आदि पुराणों में इसका विस्तृत उल्लेख है तथा इस व्रत की कई कथाएँ भी हैं। सनातन-धर्मी गृहस्थजन इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं। अक्षय-तृतीया को दिये गये दान और किये गये स्नान, जप, तप, हवन आदि कर्मों का शुभ और अनन्त फल मिलता है-
'स्नात्वा हुत्वा च दत्त्वा च जप्त्वानन्तफलं लभेत्।'

     भविष्यपुराण के अनुसार इस दिन किए गए सभी कर्मों का फल अक्षय हो जाता है, इसलिये इसका नाम 'अक्षय' पड़ा है। यदि यह तृतीया कृतिका नक्षत्र से युक्त हो तो विशेष फलदायिनी होती है। इसमें जलसे भरे कलश, पंखे, चरणपादुकायें(खड़ाऊँ), पादत्राण(जूता), छाता, गौ, भूमि, स्वर्णपात्र आदि का दान पुण्यकारी माना गया है। इस दान के पीछे यह मान्यता है कि इस दिन जिन-जिन वस्तुओँ का दान किया जायगा वे समस्त वस्तुएँ स्वर्ग में गरमी की ऋतु में प्राप्त होंगी।

      किसानों के लिये यह नववर्ष के प्रारम्भ का शुभ दिन माना जाता है। इस दिन किया गया कृषि कार्य का प्रारम्भ शुभ और समृद्धि देगा-ऐसा विश्वास किया जाता है। इस तिथि में गङ्गास्नान को अति पुण्यकारी माना गया है। मृत पितरों का तिल से तर्पण, जलसे तर्पण और पिण्डदान भी इस दिन इस विश्वास से किया जाता है कि इसका फल अक्षय होगा।

इसी दिन गौरीकी पूजा भी होती है। गौरी-विनायकोपेता के अनुसार गौरीपुत्र गणेश की तिथि चतुर्थी का संयोग यदि तृतीया में होता है तो वह अधिक शुभ फलदायिनी होती है।

     इसी दिन गौरीकी पूजा भी होती है। गौरी-विनायकोपेता के अनुसार गौरीपुत्र गणेश की तिथि चतुर्थी का संयोग यदि तृतीया में होता है तो वह अधिक शुभ फलदायिनी होती है। इस तिथि को सुख-समृद्धि और सफलता की कामना से व्रतोत्सव के साथ ही अस्त्र-शस्त्र, वस्त्र-आभूषण आदि बनवाये, खरीदे और धारण किये जाते हैं। नयी भूमि का क्रय, भवन, संस्था आदि का प्रवेश इस तिथि को शुभ फलदायी माना जाता है।

   अक्षयतृतीया में तृतीया तिथि, सोमवार और रोहिणी नक्षत्र तीनों का सुयोग बहुत श्रेष्ठ माना जाता है। किसानों मेँ यह लोकविश्वास है कि यदि इस तिथि को चन्द्रमा के अस्त होते समय रोहिणी आगे होगी तो फसल के लिये अच्छा होगा और यदि पीछे होगी तो उपज अच्छी नहीं होगी।

     इस सम्बन्ध में घाघ भड्डरी की कहावतें भी लोक मेँ प्रचलित हैं-

अखै तीज रोहिणी न होई। पौष अमावस मूल न जोई॥
राखी श्रवणौ हीन बिचारो। कातिक पूनो कृतिका टारो॥
महि माहीं खल बलहिं प्रकासै। कहत भड्डरी सालि विनासै॥

     अर्थात् वैशाख की अक्षयतृतीया को यदि रोहिणी न हो, पौष को अमावास्या को मूल नक्षत्र न हो, रक्षाबन्धन के दिन श्रवण और कार्तिक की पूर्णिमा को कृतिका नक्षत्र न हो, तो पृथ्वी पर दुष्टों का बल बढ़ेगा और उस साल धान की अधिक उपज न होगी।

     इस तिथि पर ईख के रस से बने पदार्थ, दही, चावल, दूध से वने व्यञ्जन, खरबूज, तरबूज और लड्डू का भोग भगवान को लगाकर दान करने का भी विधान है ।

इस तिथि मेँ भगवान परशुराम के आविर्भाव की कथा भी कही-सुनी जाती है। यह अक्षयतिथि परशुरामजी का जन्मदिन होने के कारण 'परशुराम-तिथि' या परशुरामतीज भी कही जाती है। परशुरामजी की गिनती चिरंजीवी महात्माओं में की जाती है। अत: यह तिथि चिरञ्जीवी तिथि भी कहलाती है।


     कोंकण और चिप्लून के परशुराम-मन्दिरों में इस तिथि को परशुराम-जयन्ती बड़ी धूमधाम से मनायी जाती है। दक्षिण भारत में परशुराम-जयन्ती को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इस तिथि मेँ भगवान परशुराम के आविर्भाव की कथा भी कही-सुनी जाती है। यह अक्षयतिथि परशुरामजी का जन्मदिन होने के कारण 'परशुराम-तिथि' या परशुरामतीज भी कही जाती है। परशुरामजी की गिनती चिरंजीवी महात्माओं में की जाती है। अत: यह तिथि चिरञ्जीवी तिथि भी कहलाती है।

     इसी दिन नर-नारायण, हयग्रीव का अवतार हुआ था, इसीलिये इनकी जयन्तियाँ भी अक्षय-तृतीया को मनायी जाती हैं। श्रीपरशुरामजी प्रदोषकाल में प्रकट हुए थे इसलिये यदि द्वितीया को मध्याह्न से पहले तृतीया आ जाय तो उस दिन अक्षयतृतीया, नर-नारायण-जयन्ती, हय-ग्रीव-जयन्ती-सभी सम्पन्न की जाती है। दस महाविद्याओं में से एक महाविद्या मातंगी महाविद्या की प्रादुर्भाव तिथि भी अक्षय तृतीया ही है। इस प्रकार अक्षयतृतीया बड़ी पवित्र और सुख-सौभाग्य देने वाली तिथि है। अक्षयतृतीया पर भगवान के श्रीचरणों में हमारा बारंबार प्रणाम....



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