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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

योग्य अधिकारी को दर्शन देते हैं भगवान परशुराम

गवान् परशुराम स्वयं भगवान् विष्णु के अंशावतार हैं। इनकी गणना दशावतारों में होती है। जब वैशाखमास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र मेँ रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के छ: ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु स्थित था, तब उस योग में माता रेणुका के गर्भ से भगवान् परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ-
वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ।
निशाया: प्रथमे यामे रामाख्य: समये हरि:॥
स्वोच्चगै: षड्ग्रहैर्युक्ते मिथुने राहुसंस्थिते।
रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो विभु: स्वयम्॥

सात्विकं श्वेत-वर्णं च, भस्मोद्धूलित-विग्रहम्। अग्निहोत्र-स्थलासीनं, नाना-मुनि-गणावृतम्॥ कम्बलासनमारूढं, स्वर्ण-तार-कुशाङ्गुलिम्। श्वेत-वस्त्र-द्वयोपेतं, जुह्वन्तं शान्त-मानसम्॥
       इस प्रकार अक्षयतृतीया को भगवान् परशुराम का जयंती महोत्सव मनाया जाता है। परंतु इस तिथि को प्रदोषव्यापिनी रूप में ग्रहण करना चाहियेक्योंकि भगवान् परशुराम का प्राकट्यकाल प्रदोषकाल ही है


     भगवान् परशुराम महर्षि जमदग्नि के पुत्र थे। पुत्रोत्पत्ति के निमित्त इनकी माता तथा विश्वामित्रजी की माता को प्रसाद मिला था, जो दैववशात् आपस में बदल गया था। इससे रेणुकापुत्र परशुराम जी ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे, जबकि विश्वामित्रजी क्षत्रियकुलोत्पन्न होकर भी ब्रह्मर्षि हो गये। भगवान् शिवके दिये अमोघ परशु (फरसे) को धारण करने के कारण इनका नाम परशुराम पड़ा।

     जिस समय परशुरामजीका अवतार हुआ था, उस समय पृथ्वी पर दुष्ट क्षत्रिय राजाओं का बाहुल्य हो गया था। उन्हीं में से एक राजा थे-सहस्रार्जुन। महर्षि जमदग्नि के पास 'कामधेनु' थी, जिस भी पदार्थ की इच्छा हो क्षण भर में उपस्थित हो जाता था। हैहयराज कहलाने वाले सहस्रबाहु-अर्जुन पूरी सेना के साथ महर्षि जमदग्नि के आश्रम के पास से निकले थे। महर्षि ने उनको आतिथ्य के लिए निमंत्रित किया। आश्रम की कामधेनु की कृपा से सबका सत्कार हुआ।

महर्षि ने गौ माँगने पर भी न दी तो बलपूर्वक सहस्रार्जुन ने छीन ली। वह अपने बल के गर्व से उन्मत्त हो रहा था। जब परशुराम वन से लौटे तो पिता से सारी बात सुनी। वे राजा का अन्याय सह न सके। अकेले ही परशु लेकर ससैन्य सहस्रार्जुन का युद्ध में वध करके वे कामधेनु वापस ला गये।

     कामधेनु को देखकर राजा सहस्रार्जुन के मन में लोभ आया। जब महर्षि ने गौ माँगने पर भी न दी तो बलपूर्वक सहस्रार्जुन ने छीन ली। वह अपने बल के गर्व से उन्मत्त हो रहा था। जब परशुराम वन से लौटे तो पिता से सारी बात सुनी। वे राजा का अन्याय सह न सके। अकेले ही परशु लेकर ससैन्य सहस्रार्जुन का युद्ध में वध करके वे कामधेनु वापस ला गये। परंतु इससे पिताश्री सन्तुष्ट नहीं हुए व बोले- 'राम, तुमने अधर्म किया। हम ब्राह्मण हैं। हमें क्षमा करना चाहिए।' और जमदग्नि जी ने पुत्र को वर्ष भर समस्त तीर्थों में प्रायश्चित्तस्वरुप घूमने का आदेश दे दिया।

     भगवान् परशुराम जब तीर्थयात्रा से लौटे तो उन्होंने दूर से ही 'राम, हा राम!' माता रेणुका का ऐसा करुण स्वर सुना। अग्निशाला में ध्यानस्थ महर्षि जमदग्नि को सहस्रार्जुन के पुत्रों ने मार दिया था और उनका मस्तक लेकर भाग गये थे। अब भगवान् परशुराम के नेत्रों ने अग्निवर्ण धारण किया। क्रुद्ध होकर इन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार दुष्ट क्षत्रिय राजाओं से मुक्त कर दिया। समन्तपंचक स्थान में राजाओं के रक्त से नौ सरोवर वन गये । परशुराम-जी ने यज्ञ किया। पिता के मस्तक को लाकर शरीर पर स्थापित करके मन्त्रपाठ किया। महर्षि जमदग्नि जीवित हुए।  सप्तर्षियों में पञ्चम स्थान प्राप्त हुआ

परशुरामजी का धनुष जब सीताजी के स्वयंवर में श्रीरामजी द्वारा तोड़ा गया था। तब अपने धनुष की टंकार सुनकर क्रोध से परशुराम जी वहाँ उपस्थित हो गए, और वह क्रोध श्रीरामजी ने शांत किया था। प्रभु का एक अवतार उनके ही दूसरे अवतार का क्रोध शांत करे, यह भी प्रभु की एक अनूठी ही लीला थी।

     ऋषिगण बार-बार हैहयवंशीय क्षत्रियों के गर्भस्थ बालकों की रक्षा करते। उनको राजा बनाते। परशुराम जी उनका वध कर डालते। इस क्रम का अंत तब हुआ जब कश्यप जी को उन्होंने समस्त पृथ्वी दान कर दी तब महर्षि कश्यप ने उन्हें आदेश दिया कि 'राम! अब तुम मेरी भूमि से चले जाओ। अब कभी मेरी भूमि पर रात्रि वास न करना।' तब से परशुरामजी महेन्द्र-पर्वत पर निवास करते हैं। वे कल्पान्त अमर हैं। परशुरामजी का धनुष जब सीताजी के स्वयंवर में श्रीरामजी द्वारा तोड़ा गया था। तब अपने धनुष की टंकार सुनकर क्रोध करते हुए परशुराम जी वहाँ तुरंत उपस्थित हो गए, और श्रीराम को सहस्रार्जुन के समान शत्रु बतलाकर क्रोध करने की लीला करने लगे। तब उनका क्रोध श्रीरामजी ने ही शांत किया था। प्रभु का एक अवतार उनके ही दूसरे अवतार का क्रोध शांत करे, यह भी प्रभु की एक अनूठी ही लीला थी।

आराधना-विधान
     श्रीपरशुरामावतार नारायण भगवान का प्रादुर्भाव अक्षय तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में हुआ था। इस दिन परशुरामजी की प्रीति हेतु श्रद्धालु व्रत रखते हैं। जिसके अंतर्गत उपासक नित्यकर्म से निवृत होकर प्रात: स्नान करके सूर्यास्त तक यथासंभव मौन रहे और सायंकाल{प्रदोषकाल} में पुन: स्नान करके भगवान् परशुरामजी/विष्णुजी की मूर्ति का षोडशोपचार पूजन करें। यूं तो नारायण का अक्षत(बिना टूटे हुए चावल) से पूजन नहीं करना चाहिए ऐसा हिन्दू शास्त्रों का निर्देश है, परंतु केवल अक्षय तृतीया के दिन अक्षत से श्री विष्णु-पूजन करने की अनुमति है।

ध्यान
     सात्विक, राजसिक व तामसिक तीन प्रकार से भगवान परशुराम जी का ध्यान किया जाता है, तीनों ध्यान विशेष महत्व के हैं। तीनों ध्यान करें तो उत्तम है या मात्र सात्विक ध्यान करें। 
१- श्रीपरशुराम जी का सात्विक ध्यान इस प्रकार है-
सात्विकं श्वेत-वर्णं च, भस्मोद्धूलित-विग्रहम्।
अग्निहोत्र-स्थलासीनं, नाना-मुनि-गणावृतम्॥
कम्बलासनमारूढं, स्वर्ण-तार-कुशाङ्गुलिम्।
श्वेत-वस्त्र-द्वयोपेतं, जुह्वन्तं शान्त-मानसम्॥
     अर्थात् जिनका स्वरूप सात्विक व श्वेत-वर्ण का है। जिन भगवान परशुराम जी का भस्म से विलेपित सुंदर विग्रह है। अग्निहोत्र-स्थल पर जो प्रभु विराजमान हैं बहुत-से मुनि जनों ने जिन प्रभु को घेरा हुआ है। जो कम्बल के आसन पर बैठे हुए हैं, सोने के तार से लिपटी कुशा को अंगुलियों में पवित्री रूप से जिन्होंने धारण किया हुआ है। दो श्वेत वस्त्र पहने हुए शान्त चित्तवृत्ति वाले परशुराम जी का हम ध्यान करते हैं।

२- श्री परशुराम जी का राजसिक ध्यान इस प्रकार है-
ध्यायेच्च राजसं रामं, कुंकुमारुण-विग्रहम् ।
किरीटिनं कुण्डलिनं, परश्वब्ज-वराभयान् ॥
करैर्दधन्तं तरुणं, विप्र - क्षत्रौघ - सम्वृतम् ।
पीताम्बर-धरं काम-रूपं बाला-निरीक्षितम् ॥

३- श्री परशुराम जी का तामसिक ध्यान इस प्रकार है-
ध्यायेच्च तामसं क्षत्र-रुधिराक्त-परश्वधम् ।
आरक्त-नेत्रं कर्णस्थ-ब्रह्मसूत्रं यम-प्रभम् ॥
धनुष्टङ्कार - सङ्घोष - सन्त्रस्त - भुवन - त्रयम् ।
चतुर्बाहुं मुशलिनं, संक्रुद्ध - भ्रातृ-संयुतम् ॥

जिनका स्वरूप सात्विक व श्वेत-वर्ण का है। जिन भगवान परशुराम जी का भस्म से विलेपित सुंदर विग्रह है। अग्निहोत्र-स्थल पर जो प्रभु विराजमान हैं। बहुत-से मुनि जनों ने जिन प्रभु को घेरा हुआ है। जो कम्बल के आसन पर बैठे हुए हैं, सोने के तार से लिपटी कुशा को अंगुलियों में पवित्री रूप से जिन्होंने धारण किया हुआ है। दो श्वेत वस्त्र पहने हुए शान्त चित्तवृत्ति वाले परशुराम जी का हम ध्यान करते हैं।
     भगवान नारायण की मूर्ति में अथवा शालग्राम में परशुरामजी की अङ्ग-पूजा करे-
विशोकाय नम:’ कहकर परशुराम अवतार के चरणों की, विश्वरुपिणे नम:’ से दोनों घुटनों की, उग्राय नम:’ से जाँघो की, दामोदराय नम:’ से कटिभाग की, पद्मनाभाय नम:’ से उदर की, श्रीवत्सधारिणे नम:’ से वक्ष: स्थल की, चक्रिणे नम:’ से बायीं बाँह की,गदिने नम:’ से दाहिनी बाँह की, वैकुण्ठाय नम:’ से कण्ठ की,यज्ञमुखाय नम:’ से मुख की, विशोकनिधये नम:’ से नासिका की,वासुदेवाय नम:’ से नेत्रों की, वामनाय नम:’ से ललाट की,सर्वात्मने नम:’ से नारायण के सम्पूर्ण अङ्गों तथा मस्तक की पूजा करे।
अब निम्न मन्त्र से परशुरामजी को अर्घ्य दे-
जमदग्निसुतो वीर क्षत्रियान्तकर प्रभो।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं कृपया परमेश्वर॥

पञ्चोपचार पूजा
श्रीपरशुरामजी के पूजन हेतु मन्त्र है-
॥ॐ श्री परशुरामावताराय नमः॥

'ॐ श्री परशुरामावताराय नमः लं पृथिव्यात्मकं गंधम् समर्पयामि।' से भगवान को तिलक लगाएँ।

'ॐ श्री परशुरामावताराय नमः हं आकाशात्मकं पुष्पम् समर्पयामि।' से भगवान को पुष्प चढ़ाएँ।

'ॐ श्री परशुरामावताराय नमः यं वाय्वात्मकं पुष्पम् समर्पयामि।' से भगवान को धूप दिखाएँ।

'ॐ श्री परशुरामावताराय नमः रं वह्न्यात्मकं दीपम् दर्शयामि।' से घी का दीप जलाकर भगवान को दीप दिखाएँ।

'ॐ श्री परशुरामावताराय नमः वं अमृतात्मकम् नैवेद्यम् निवेदयामि।' से भगवान को नैवेद्य निवेदित करें।

'ॐ श्री परशुरामावताराय नमः सौं सर्वात्मकम् सर्वोपचाराणि मनसा-परिकल्प्य समर्पयामि।' से भगवान परशुराम को अक्षत एवं पुष्प अर्पित करके यथालब्ध उपचारों द्वारा अर्चित करने की भावना करें।
तदनंतर परशुराम जी के मन्त्र का यथाशक्ति जप करें और आरती करें। पूजा  के अंत में निम्न वंदना करके नमन करें-
त्रिः सप्त-वारं नृपतीन् निहत्य, 
यस्तर्पणं रक्त-मयं पितृभ्यः।
चकार दोर्दण्ड-बलेन सम्यक्, 
तमादिशूरं प्रणमामि भक्त्या॥
अर्थात् जिन्होंने अपने भुज-बल से इक्कीस बार दुष्ट राजाओं का संहार करके रक्त-जल द्वारा पितरों का तर्पण किया था, उन्हीं आदि वीर परशुरामावतार भगवान विष्णु की मैं वन्दना करता हूँ।
     इस दिन यथासंभव रात्रि-जागरण भी करना चाहिए। आज के दिन श्रीपरशुराम-मन्त्र का अधिकाधिक जप करना चाहिये-
मन्त्र

भगवान परशुराम के पञ्चदशाक्षरी मन्त्र का विधान प्रस्तुत है जिसके जप की विशेष महिमा है-
करन्यास
 अंगुष्ठाभ्यां नम:। (कहकर तर्जनी से अंगूठे को स्पर्श करें)
रां रां तर्जनीभ्यां स्वाहा। (यह बोलकर अंगूठे से तर्जनी को स्पर्श करें)
ॐ रां रां मध्यमाभ्यां वषट्। (बोलकर अंगूठे से मध्यमा को स्पर्श करें)
ॐ परशुहस्ताय अनामिकाभ्यां हुम्। (बोलकर अंगूठे से अनामिका को स्पर्श करें)
नमः कनिष्ठाभ्यां वौट्। (बोलकर अंगूठे से छोटी अंगुली को स्पर्श करें)
ॐ रां रां ॐ रां रां ॐ परशुहस्ताय नमः करतलकरपृष्ठाभ्यां ट्। (दोनों हथेलियों के अग्र भाग व पृष्ठ भाग को स्पर्श करें)

षडङ्गन्यास
 हृदयाय नम:।(बाएँ हाथ की पाँच उंगलियों से हृदय को स्पर्श करें)
रां रां शिरसे स्वाहा।(सिर को स्पर्श करें)
ॐ रां रां शिखायै वषट्(मस्तक के मध्य शिखा स्थान को स्पर्श करें)
ॐ परशुहस्ताय कवचाय हुम्।(बाएं हाथ से दाहिना कंधा और दाहिने हाथ से बायां कंधा स्पर्श करें)
नमः नेत्रत्रयाय वौट्(तर्जनी से दायीं आंख, अनामिका से बायीं आंख और मध्यमा से दोनों आंखों के मध्य त्रिनेत्रस्थल को एक साथ स्पर्श करें)
ॐ रां रां ॐ रां रां ॐ परशुहस्ताय नमः अस्त्राय फट्(तर्जनी व मध्यमा उंगली को बाएँ हाथ की हथेली पर रखकर  बाएँ से दाहिनी ओर सिर से एक बार घुमाकर तीन बार ताली बाजाएं) तब इस १५ अक्षर के मन्त्र का जप  करे-
॥ॐ रां रां ॐ रां रां ॐ परशु-हस्ताय नमः॥

साधारण उपासक  मंदिर में भगवान के सामने बैठकर 5 या 10 या 15 मिनट इस मन्त्र का जप करे।

विशेष उपासक यथा-शक्ति उपरोक्त पंद्रह अक्षर के नाम-मंत्र का जप करने के बाद ॥ॐ रां रां ॐ रां रां ॐ परशुहस्ताय नमः स्वाहा॥ इस मन्त्र द्वारा हवन करना चाहिए। गो-दुग्ध, मधु, दही और घृत-इन सभी वस्तुओं से अलग-अलग होम करे, तो आयु, बल, आरोग्य और समृद्धि प्राप्त होती है।  खीर और शहद से होम करने से अपमृत्यु का निवारण होता है। दधि-मिश्रित शहद से हवन करे तो सौभाग्य एवं धन की प्राप्ति होती है। केवल शर्करा से उपरोक्त परशुराम मन्त्र द्वारा होम करे, तो शत्रु का स्तम्भन होता है।

     महाविद्या षोडशी से उद्भूत श्रीपरशुराम-विग्रह भगवान् विष्णु के नाम-मन्त्र के जप से दरिद्रता एवं शत्रुओं का नाश होता है, भूमि-धन-ज्ञान की प्राप्ति होती है और राज-बन्धन से मुक्ति प्राप्त होती है।

क्रुद्ध होकर इन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार दुष्ट क्षत्रिय राजाओं से मुक्त कर दिया। समन्तपंचक स्थान में राजाओं के रक्त से नौ सरोवर वन गये । परशुराम-जी ने यज्ञ किया। पिता के मस्तक को लाकर शरीर पर स्थापित करके मन्त्रपाठ किया। महर्षि जमदग्नि जीवित हुए।  सप्तर्षियों में पञ्चम स्थान प्राप्त हुआ।

     दरिद्रता व शत्रुओं का नाश करने वाले परशुरामजी की प्रसन्नता हेतु वैशाख शुक्ल तृतीया को श्रीपरशुराम-मन्त्र का अधिकाधिक मानसिक जप करते रहना चाहिए। सच्चे मन की पुकार प्रभु सुनते हैं। कहा जाता है कि अनेक बार योग्य अधिकारी सच्चे हृदय से भक्ति करने पर परशुराम जी के दर्शन पा चुके हैं। परशुरामजी के अवतार के माध्यम से भगवान ने हमें संदेश दिया है कि शस्त्र एवं शास्त्र दोनों की बहुत उपयोगिता है। अतीव पराक्रमी भक्तवत्सल भगवान परशुराम जी को परशुराम-जयंती पर हमारा बार-बार प्रणाम.....


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