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रतीय संवत्सर का ग्यारहवाँ चान्द्रमास और दसवाँ सौरमास 'माघ' कहलाता है। इस महीने में मघा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने से इसका नाम माघ पड़ा। हिन्दू धर्म के दृष्टिकोण से इस माघ मास का बहुत अधिक महत्व है। मान्यता है कि इस मास में शीतल जल में डुबकी लगाने-नहाने वाले मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्गलोक जाते हैं-
माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥
माघ में प्रयाग में स्नान, दान, भगवान् विष्णु के पूजन और हरिकीर्तन के महत्त्व का वर्णन तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में भी किया है-
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं।
सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
पूजहिं माधव पद जलजाता।
परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में माघमास के माहात्म्य के विषय में कहा गया है कि व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान् श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती जितनी कि माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। इसलिये स्वर्गलाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान् वासुदेव की प्रीति हेतु प्रत्येक मनुष्य को माघस्नान करना चाहिये-
व्रतैर्दानैस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरिः।
माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशवः॥
प्रीतये वासुदेवस्य सर्वपापापनुत्तये।
माघस्नानं प्रकुर्वीत स्वर्गलाभायमानवः॥
इस माघमास में पूर्णिमा को जो व्यक्ति ब्रह्मवैवर्तपुराण का दान करता है, उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। महाभारत के अनुशासन पर्व में वर्णन है कि-
- माघ मास की अमावास्या को प्रयागराज में तीन करोड़ दस हजार तीर्थों का समागम होता है। सूर्य के मकरस्थ होने पर अर्थात माघ मास में जो नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करते हुए प्रयाग में स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर स्वर्ग पाता है।
- जो माघ में ब्राह्मणों को तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओं से भरे नरक का दर्शन नहीं करता।
- जो माघमास को नियमपूर्वक एक समय के भोजन से व्यतीत करता है, वह धनवान कुल में जन्म लेकर कुटुम्बीजनों में महत्त्व को प्राप्त होता है।
- माघ की द्वादशी तिथि को दिन-रात उपवास करके भगवान् माधव की पूजा करने से उपासक को राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है, और वह अपने कुल का उद्धार कर देता है।
माघ-स्नान के लिए प्रातः तिल,जल,
पुष्प,कुश लेकर संकल्प करे-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: तत्सत् अद्य श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्त्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे बौद्धावतारे आर्यावर्तैकदेशे ...(शहर का नाम)....नगरे/ग्रामे, शिशिर ऋतौ, ..(संवत्सर का नाम)... नाम्नि संवत्सरे, माघे मासि ___ [पक्ष का नाम] पक्षे, ___ [तिथि का नाम] तिथिमारभ्य मकरस्थ रविं यावत् ___ [आपके गोत्र का नाम] गोत्रः ___ [आपका नाम] शर्मा[वर्मा/गुप्तो]sहं वैकुण्ठनिवासपूर्वक श्री विष्णु प्रीत्यर्थं प्रातः-स्नानं करिष्ये।
फिर निम्न प्रार्थना करें-
दुःखदारिद्र्यनाशाय श्रीविष्णोस्तोषणाय च।
प्रातः-स्नानं करोम्यद्य माघे पापविनाशनम्॥
मकरस्थे रवौ माघे गोविन्दाच्युत माधव।
स्नानेनानेन मे देव यथोक्तफलदो भव॥
दिवाकर जगन्नाथ प्रभाकर नमोsस्तुते।
परिपूर्णं कुरूष्वेदं माघस्नानं महाव्रतम्॥
माघमासमिमं पुण्यं स्नाम्यहं देव माधव।
तीर्थस्यास्य जले नित्यं प्रसीद भगवन् हरे॥
माघमास की ऐसी विशेषता है कि इसमें जहाँ-कहीं भी जल हो वह गङ्गाजल के समान होता है, फिर भी प्रयाग, काशी, नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार तथा अन्य पवित्र तीर्थों व नदियों में स्नान का बड़ा महत्व है। साथ ही मन की निर्मलता व श्रद्धा भी आवश्यक है। पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में लिखा है-
सत्यं तीर्थ क्षमा तीर्थ तीर्थमिन्द्रिय-निग्रह: ॥
सर्वभूतदया ब्रह्मचर्य परंतीर्थ तीर्थमार्जमेव च।
दानं तीर्थ दमस्तीर्थ संतोषस्तीर्थमेव च॥
तीर्थ नियमस्तीर्थमुच्यते।
मन्त्राणां तु जपस्तीर्थ तीर्थ तु प्रियवादिता॥
ज्ञानं तीर्थ धृतिस्तीर्थमहिंसा तीर्थमेव च।
आत्मतीर्थ ध्यानतीर्थ पुनस्तीर्थ शिवस्मृतिः ॥
तीर्थानामुत्तमं तीर्थ विशुद्धिमनस: पुन:। न जलाप्लुत-देहस्यथ स्नानमित्यभिधीयते ॥
स स्नातो यो दमस्नात: शुचि-स्निग्धमना मतः।
राजन्! अब मानस तीर्थ बतलाता हूँ, सुनो। उनमें भलीभाँति स्नान करने से मनुष्य परम गति को प्राप्त होता है —
सत्यतीर्थ, क्षमातीर्थ, इन्द्रिय-निग्रह-तीर्थ, सर्वभूत-दया-तीर्थ, आर्जव (सरलता) तीर्थ, दानतीर्थ, दम (मनोनिग्रह)-तीर्थ, सन्तोष-तीर्थ, ब्रह्मचर्य-तीर्थ, नियम-तीर्थ, मन्त्र-जपतीर्थ, प्रियभाषण-तीर्थ, ज्ञानतीर्थ, धैर्यतीर्थ, अहिंसा-तीर्थ, आत्म-तीर्थ, ध्यानतीर्थ और शिवस्मरण-तीर्थ — ये सभी मानस तीर्थ हैं।
मन की शुद्धि सब तीर्थों से उत्तम तीर्थ है। शरीरसे जल में डुबकी लगा लेना ही स्नान नहीं कहलाता। जिसने मन और इन्द्रियों के संयम में स्नान किया है, वास्तव में उसी का स्नान सफल है; क्योंकि वह पवित्र एवं स्नेहयुक्त चित्त वाला माना गया है।
जब मानस तीर्थ का यह फल है तो प्रत्यक्ष तीर्थ में जाने के फल के उत्तम माहात्म्य विषय में कहना ही क्या है। भौम और मानस सभी तीर्थों में जो नित्य स्नान करता है, वह परम गति क प्राप्त होता है। भूमिके अद्भुत प्रभाव, जलकी शक्ति और मुनियों के अनुग्रहपूर्वक निवास से तीर्थों को पवित्र बताया गया है।
प्रचुर दक्षिणा वाले अग्निष्टोम आदि यज्ञों से यजन करके भी मनुष्य उस फल को नहीं पाता, जो उसे तीर्थ में जाने से प्राप्त होता है। जिसके दोनों हाथ, दोनों पैर और मन भलीभाँति वश में हों तथा जो विद्या, तप और कीर्ति से सम्पन्न हो, वह तीर्थ के फल का भागी होता है। जो प्रतिग्रह से निवृत्त, जिस-किसी वस्तुसे भी संतुष्ट रहनेवाला और अहंकार से मुक्त है, वह तीर्थक फलका भागी होता है। श्रद्धापूर्वक एकाग्रचित्त हो तीर्थों की यात्रा करनेवाला धीर पुरुष कृतघ्न हो तो भी शुद्ध हो जाता है; फिर जो शुद्ध कर्म करता है, उसकी तो बात ही क्या है? वह मनुष्य पशु-पक्षियोंकी योनि में नहीं पड़ता, बुरे देश में जन्म नहीं लेता, दुःखका भागी नहीं होता, स्वर्गलोक मे जाता है और मोक्ष का उपाय भी प्राप्त कर लेता है।
अश्रद्धालु , पापात्मा, नास्तिक, संशयात्मा और केवल युक्तिवाद का सहारा लेने वाला-ये पाँच प्रकार के मनुष्य तीर्थफल के भागी नहीं होते। जो शास्त्रोक्त तीर्थों में विधिपूर्वक विचरते और सब प्रकारके द्वन्द्वों को सहन करते हैं, वे धीर मनुष्य स्वर्गलोक में जाते हैं। तीर्थ मे अर्घ्य और आवाहन के बिना ही श्राद्ध करना चाहिये। वह श्राद्ध के योग्य काल हो या न हो, तीर्थ में बिना विलम्ब किये श्राद्ध और तर्पण करना उचित है; उसमें विघ्न नहीं डालना चाहिये। अन्य कार्य के प्रसंग से भी तीर्थ में पहुँच जानेपर स्नान कर लेना चाहिये। ऐसा करने से तीर्थयात्रा का नहीं, परन्तु तीर्थस्नान का फल अवश्य प्राप्त होता है। तीर्थ में नहाने से पापी मनुष्यों के पाप की शान्ति होती है। जिनका हृदय शुद्ध है, उन मनुष्योंको तीर्थ शास्त्रोक्त फल प्रदान करनेवाला होता है। जो दूसरे के लिये तीर्थयात्रा करता है, वह भी उसके पुण्यका सोलहवाँ अंश प्राप्त कर लेता है।
कुश की प्रतिमा बनाकर तीर्थ के जल में उसे स्नान करावे। जिसके उद्देश्य से उस प्रतिमा क स्नान कराया जाता है, वह पुरुष तीर्थस्नान क पुण्य का आठवाँ भाग प्राप्त करता है। तीर्थ मे जाकर उपवास करना और सिरके बालों का मुण्डन कराना चाहिये। मुण्डन से मस्तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। जिस दिन तीर्थ में पहुँचे, उसके पहले दिन उपवास करे और दूसरे दिन श्राद्ध एवं दान करे। श्राद्ध भी तीर्थ सदृश ही है। यह स्वर्ग का साधन तो है ही, मोक्षप्राप्ति का भी उपाय है।
जो लोभी, चुगलखोर, क्रूर, दम्भी और विषयलोलुप है, वह सम्पूर्ण तीर्थों मे स्नान करके भी पापी और मलिन ही बना रहता है; केवल शरीर की मैल छुड़ाने से मनुष्य निर्मल नहीं होता, मनकी मैल धुलने पर ही वह अत्यन्त निर्मल होता है। जलचर जीव जल में ही जन्म लेते और उसी में मर जाते हैं; किन्तु इससे वे स्वर्ग में नहीं जाते, क्योंकि उनके मन की मैल नहीं धुली रहती। विषयों में जो अत्यन्त आसक्ति होती है, उसी को मानसिक मल कहते हैं। विषयों की ओर से वैराग्य हो जाना ही मनकी निर्मलता है। दान, यज्ञ, तपस्या, बाहर-भीतर की शुद्धि और शास्त्र-ज्ञान भी तीर्थ ही हैं। यदि यदि अन्तःकरण का भाव निर्मल हो तो ये सब के सब तीर्थ ही हैं। जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह मनुष्य जहाँ-जहाँ निवास करता है, वहीं-वहीं उसके लिये कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ प्रस्तुत हैं। जो ज्ञान से पवित्र, ध्यान-रूपी जल से परिपूर्ण और राग-द्वेष-रूपी मल को धो देने वाला है, ऐसे मानस तीर्थ मे जो स्नान करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। राजन्! यह मैंने तुम्हें मानस तीर्थ का लक्षण बतलाया है।
माघ मास में स्नान करने वाला पुरुष सब जगह कुछ-न-कुछ दान अवश्य करे। बेर, केला और आँवले का फल, सेर-भर घी, सेर-भर तिल, पान, एक आढक (सोलह सेर) चावल, कुम्हड़ा और खिचड़ी - ये नौ वस्तुएँ प्रतिदिन ब्राह्मणों को दान करनी चाहिये। एक सेर अर्थात ९३३ ग्राम। जिस किसी प्रकार हो सके, माघ मास को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये।
किंचित् सूर्योदय होते-होते माघस्नान करना चाहिये तथा माघस्नान करने वाले पुरुष को यथाशक्ति शौच-सन्तोष आदि नियमों का पालन करना चाहिये। विशेषत: ब्राह्मणों और साधु-संन्यासियों को पकवान भोजन कराना चाहिये।
असमर्थ होने पर जितने नियमों का पालन हो सके उतना ही करे, परंतु प्रात:स्नान अवश्य करना चाहिये।
जाड़े का कष्ट दूर करने के लिये सूखी लकड़ियों का दान करे। रूईभरा अंगवस्त्र, शय्या, गद्दा, यज्ञोपवीत, लाल वस्त्र, रूईदार रजाई, जायफल, लौंग, बहुत-से पान, विचित्र-विचित्र कम्बल, हवा से बचाने वाले गृह, मुलायम जूते और सुगन्धित उबटन दान करे। इनका दान कर 'माधव: प्रीयताम्' यह वाक्य कहना चाहिये।
माघस्नान-पूर्वक घी, कम्बल, पूजन सामग्री, काला अगर - धूप, मोटी बत्ती वाले दीप और भाँतिभाँति के नैवेद्य से माघस्नान-जनित फल की प्राप्ति के लिये भगवान् माधव की पूजा करे।
माघ मास में डुबकी लगाने से सारे दोष नष्ट हो जाते हैं और अनेकों जन्मों के उपार्जित सम्पूर्ण महापाप तत्काल विलीन हो जाते हैं। यह माघस्नान ही मंगल का साधन है, यही वास्तव में धन का उपार्जन है तथा यही इस जीवन का फल है। भला, माघस्नान, मनुष्यों का कौन-कौन-सा कार्य नहीं सिद्ध करता? माघस्नान पुत्र, मित्र, कलत्र, राज्य, स्वर्ग तथा मोक्ष को भी देने वाला है ऐसा पद्म पुराण का वचन है।
पद्मपुराण में वर्णित माघ मास से संबन्धित माहात्म्य कथा हिंदी भाषान्तर के साथ यहाँ प्रस्तुत है। पुण्य वृद्धि व पापनाश हेतु प्रातः काल स्नान करके इसे पढ़ना चाहिये-
पद्मपुराणोक्त माघ माहात्म्य की कथा
ऋषियों ने कहा- "लोमहर्षण सूतजी! अब हमें माघ मास का माहात्म्य सुनाइये, जिसको सुनने से लोगों का महान् संशय दूर हो जाय।"
सूत जी बोले-मुनिवरो! मैं आप लोगों को साधुवाद देता हूँ। आप भगवान् श्रीकृष्ण के शरणागत भक्त हैं; इसीलिए प्रसन्नता और भक्ति के साथ आपलोग बार-बार भगवान् की कथाएँ पूछा करते हैं। मैं आपके कथनानुसार माघ माहात्म्य का वर्णन करूँगा; जो अरुणोदयकाल में स्नान करके इसका श्रवण करते हैं, उनके पुण्य की वृद्धि और पाप का नाश होता है।
माघ-स्नान से विद्याधर की कुरूपता का निवारण
एक समयकी बात है, राजाओं में श्रेष्ठ महाराज दिलीप ने यज्ञ का अनुष्ठान पूरा करके ऋषियों द्वारा मङ्गल-विधान होने के पश्चात् अवभृथ-स्नान किया। उस समय सम्पूर्ण नगर-निवासियों ने उनका बड़ा सम्मान किया। तदनन्तर राजा अयोध्या में रहकर प्रजाजनों की रक्षा करने लगे। वे समय-समय पर वसिष्ठजी की अनुमति लेकर प्रजावर्ग का पालन किया करते थे। एक दिन उन्होंने वसिष्ठ जी से कहा- 'भगवन्! आपके प्रसाद से मैंने आचार, दण्डनीति, नाना प्रकार के राजधर्म, चारों वर्णों और आश्रमों के कर्म, दान, दान की विधि, यज्ञ, यज्ञ के विधान, अनेकों व्रत, उनके उद्यापन तथा भगवान् विष्णु की आराधना आदि के सम्बन्ध में बहुत कुछ सुना है। अब माघस्नान का फल सुनने की इच्छा है। हे मुने! जिस विधि से इसको करना चाहिये, वह मुझे बताइये।'
वसिष्ठजी ने कहा- राजन् ! मैं तुम्हें माघ स्नान का फल बतलाता हूँ, सुनो। जो लोग होम, यज्ञ तथा इष्टापूर्त कर्मों के बिना ही उत्तम गति प्राप्त करना चाहते हों, वे माघ में प्रातःकाल बाहर के जल में स्नान करें। जो गौ, भूमि, तिल, वस्त्र, सुवर्ण और धान्य आदि वस्तुओं का दान किये बिना ही स्वर्गलोक में जाना चाहते हों, वे माघ में सदा प्रातःकाल स्नान करें। जो तीन-तीन रात तक उपवास, कृच्छ्र आदि व्रतों के द्वारा अपने शरीर को सुखाये बिना ही स्वर्ग पाना चाहते हों, उन्हें भी माघ में सदा प्रातःकाल स्नान करना चाहिये।
वैशाख में जल और अन्न का दान उत्तम है, कार्तिक में तपस्या और पूजा की प्रधानता है तथा माघ में जप, होम और दान-ये तीन बातें विशेष हैं।
जिन लोगों ने माघ के महीने में प्रातः स्नान, विविध प्रकार का दान और भगवान् विष्णु का स्तोत्र-पाठ किया है, वे ही मरणोपरांत दिव्य धाम में आनन्द पूर्वक निवास करते हैं। प्रिय वस्तु के त्याग और नियमों के पालन से माघ मास सदा धर्म का साधक होता है और अधर्म की जड़ को काट देता है। यदि सकाम भाव से माघ स्नान किया जाय तो उससे मनोवाञ्छित फल की सिद्धि होती है और निष्काम भाव से स्नान आदि करने पर वह मोक्ष देने वाला होता है। निरन्तर दान करने वाले, वन में रहकर तपस्या करने वाले और सदा अतिथि सत्कार में संलग्न रहने वाले पुरुषों को जो दिव्यलोक प्राप्त होते हैं, वे ही माघ स्नान करने वालों को भी मिलते हैं। अन्य पुण्यों से स्वर्ग में गये हुए मनुष्य पुण्य समाप्त होने पर वहाँ से लौट आते हैं; किन्तु माघस्नान करने वाले मानव कभी वहाँ से लौटकर नहीं आते। माघ स्नान से बढ़कर कोई पवित्र और पापनाशक व्रत नहीं है। इससे बढ़कर कोई तप नहीं। इससे बढ़कर कोई महत्त्वपूर्ण साधन नहीं है। यही परम हितकारक और तत्काल पापों का नाश करने वाला है।
महर्षि भृगु ने मणिपर्वत पर विद्याधर से कहा था-'जो मनुष्य माघ के महीने में, जब उषःकाल की लालिमा बहुत अधिक हो, गाँव(निवास स्थल) से बाहर नदी या पोखरे में नित्य स्नान करता है, वह पिता और माता के कुल की सात-सात पीढ़ियों का उद्धार करके स्वयं देवताओं के समान शरीर धारण कर स्वर्गलोक में चला जाता है।'
दिलीप ने पूछा - ब्रह्मन्! ब्रह्मर्षि भृगु ने किस समय मणिपर्वत पर विद्याधर को धर्मोपदेश किया था? बताने की कृपा करें।
वसिष्ठजी बोले-राजन्! प्राचीन काल में एक समय बारह वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। इससे सारी प्रजा उद्विग्न और दुर्बल होकर दसों दिशाओं में चली गयी। उस समय हिमालय और विन्ध्यपर्वत के बीच का प्रदेश खाली हो गया। वह्निजाया, स्वधा, वषट्कार और वेदाध्ययन-सब बंद हो गये। समस्त लोक में उपद्रव होने लगा। धर्म का तो लोप हो ही गया था, प्रजा का भी अभाव हो गया। भूमण्डल पर फल, मूल, अन्न और पानी की बिलकुल कमी हो गयी। उन दिनों नाना प्रकार के वृक्षों से आच्छादित नर्मदा नदी के रमणीय तट पर महर्षि भृगु का आश्रम था। वे उस आश्रम से शिष्यों सहित निकलकर हिमालय पर्वत की शरण में गये। वहाँ कैलास गिरि के पश्चिम में मणिकूट नाम का पर्वत है, जो सोने और रत्नों का ही बना हुआ है। उस परम रमणीय श्रेष्ठ पर्वत को देखकर अकाल-पीड़ित महर्षि भृगु का मन बहुत प्रसन्न हुआ और उन्होंने वहीं अपना आश्रम बना लिया। उस मनोहर शैल पर वनों और उपवनों में रहते हुए सदाचारी भृगु जी ने दीर्घकाल तक भारी तपस्या की।
इस प्रकार जब ब्रह्मर्षि भृगु जी वहाँ अपने आश्रम पर निवास करते थे, एक समय एक विद्याधर अपनी पत्नी के साथ पर्वत से नीचे उतरा। वे दोनों मुनि के पास आये और उन्हें प्रणाम करके अत्यन्त दुःखी हो एक ओर खड़े हो गये। उन्हें इस अवस्था में देख ब्रह्मर्षि ने मधुर वाणी से पूछा- 'विद्याधर! प्रसन्नता के साथ बताओ, तुम दोनों इतने दुःखी क्यों हो?'
विद्याधर ने कहा- द्विजश्रेष्ठ! मेरे दुःखका कारण सुनिये। मैं पुण्य का फल पाकर देवलोक में गया। वहाँ देवता का शरीर, दिव्य नारी का सुख और दिव्य भोगों का अनुभव प्राप्त करके भी मेरा मुँह बाघ का सा हो गया। न जाने यह किस दुष्कर्म का फल उपस्थित हुआ है? यही सोच-सोचकर मेरे मनको कभी शान्ति नहीं मिलती। ब्रह्मन्! एक और भी कारण है, जिससे मेरा मन व्याकुल हो रहा है। यह मेरी कल्याणमयी पत्नी बड़ी मधुरभाषिणी तथा सुन्दरी है। स्वर्गलोक में शील, उदारता, गुणसमूह, रूप और यौवन की सम्पत्ति द्वारा इसकी समानता करने वाली स्त्री नहीं है। कहाँ तो यह देवमुखी सुन्दरी रमणी और कहाँ मेरे जैसा व्याघ्रमुख पुरुष? ब्रह्मन्! मैं इसी बात की चिन्ता करके मन-ही-मन सदा जलता रहता हूँ।
भृगु जी ने कहा - विद्याधर-श्रेष्ठ! पूर्वजन्म में तुम्हारे द्वारा जो अनुचित कर्म हुआ है, वह सुनो। निषिद्ध कर्म कितना ही छोटा क्यों न हो, परिणाम में वह भयङ्कर हो जाता है। तुमने पूर्वजन्म में माघ के महीने में एकादशी को उपवास करके द्वादशी के दिन शरीर में तेल लगा लिया था। इसी से तुम्हारा मुँह व्याघ्र के समान हो गया है।
पुण्यमयी एकादशी का व्रत करके द्वादशी को तेल का सेवन करने से पूर्वकाल में इलानन्दन पुरूरवा को भी कुरूप शरीर की प्राप्ति हुई थी। वे अपने शरीर को कुरूप देख उसके दुःख से बहुत दुःखी हुए और गिरिराज हिमालय पर जाकर गङ्गाजी के किनारे स्नान आदि से पवित्र हो प्रसन्नतापूर्वक कुश के आसन पर बैठे। राजा पुरूरवा ने अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके हृदय में भगवान् का ध्यान करना आरम्भ किया।
उन्होंने ध्यान में देखा - भगवान् का श्रीविग्रह नूतन नील मेघ के समान श्याम है। उनके नेत्र कमल दल के समान विशाल हैं। वे अपने हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं। उनका श्रीअङ्ग पीताम्बर से ढका है। वक्षःस्थल में कौस्तुभ मणि अपना प्रकाश फैला रही है तथा वे गले में वनमाला धारण किये हुए हैं।
इस प्रकार श्रीहरि का चिन्तन करते हुए राजा पुरूरवा ने प्राणवायु के मार्ग को भीतर ही रोक लिया और नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाये कुण्डलिनी के मुख को ऊपर उठाकर स्वयं सुषुम्णा नाडी में स्थित हो गये। इस तरह एक मास तक निराहार रहकर उन्होंने दुष्कर तपस्या की।
इस थोड़े दिनों की तपस्या से ही भगवान् संतुष्ट हो गये। उन्होंने राजा के सात जन्मों की आराधना का स्मरण करके उन्हें स्वयं प्रकट हो प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस दिन माघ शुक्लपक्ष की द्वादशी तिथि थी, सूर्य मकर-राशि पर स्थित थे। भगवान् वासुदेव ने बड़ी प्रसन्नता के साथ चक्रवर्ती नरेश पुरूरवा पर शंख का जल छोड़ा और उन्हें अत्यन्त सुन्दर एवं कमनीय रूप प्रदान दिया। वह रूप इतना मनोहर था, जिससे देवलोक की नायिका उर्वशी भी आकृष्ट हो गयी और उसने पुरूरवा को पति रूप में प्राप्त करने की अभिलाषा की। इस प्रकार राजा पुरूरवा भगवान् से वरदान पाकर कृतकृत्य हो अपने नगर में लौट आये।
विद्याधर! कर्म की गति ऐसी ही है। इसे जानकर भी तुम क्यों खिन्न होते हो? यदि तुम अपने मुख की कुरूपता दूर करना चाहते हो तो मेरे कहने से शीघ्र ही मणिकूट-नदी के जल में माघस्नान करो। वह प्राचीन पापों का नाश करने वाला है। तुम्हारे भाग्य से माघ बिल्कुल निकट है। आज से पाँच दिन के बाद ही माघ मास आरम्भ हो जायगा। तुम पौष के शुक्ल पक्ष की एकादशी से ही नीचे वेदी पर सोया करो और एक महीने तक निराहार रहकर तीनों समय स्नान करो। भोगों को त्यागकर जितेन्द्रिय भाव से तीनों काल भगवान् विष्णु की पूजा करते रहो। विद्याधर-श्रेष्ठ ! जिस दिन माघ शुक्ला एकादशी आयेगी, उस दिन तक तुम्हारे सारे पाप जलकर भस्म हो जायेंगे। फिर द्वादशी के पवित्र दिन को मैं मन्त्रपूत कल्याणमय जल से अभिषेक करके तुम्हारा मुख कामदेव के समान सुन्दर कर दूँगा। फिर देवमुख होकर इस सुन्दरी के साथ तुम सुखपूर्वक क्रीड़ा करते रहना ।
विद्याधर! माघ के स्नान से विपत्ति का नाश होता है और माघके स्नान से पाप नष्ट हो जाते हैं। माघ सब व्रतों से बढ़कर है तथा यह सब प्रकार के दानों का फल प्रदान करने वाला है। पुष्कर, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त, पृथुदक, अविमुक्तक्षेत्र (काशी), प्रयाग तथा गङ्गासागर-संगम में दस वर्षों तक शौच सन्तोषादि नियमों का पालन करने से जो फल प्राप्त होता है, वह माघ के महीने में तीन दिनों तक प्रातः स्नान करने से ही मिल जाता है। जिनके मन में दीर्घकाल तक स्वर्गलोक के भोग भोगने की अभिलाषा हो, उन्हें सूर्य के मकर राशि पर रहते समय जहाँ कहीं भी जल मिले, प्रातःकाल स्नान करना चाहिये। आयु, आरोग्य, रूप, सौभाग्य एवं उत्तम गुणोंमें जिनकी रुचि हो, उन्हें सूर्य के मकर राशि पर रहने तक प्रातःकाल अवश्य स्नान करना चाहिये। जो नरक से डरते हैं और दरिद्रता के महासागर से जिन्हें त्रास होता है, उन्हें सर्वथा प्रयत्नपूर्वक माघ मास में प्रातःकाल स्नान करना चाहिये। देवश्रेष्ठ! दरिद्रता, पाप और दुर्भाग्य रूपी कीचड़ को धोने के लिये माघस्नान के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है। अन्य कर्मों को यदि अश्रद्धा पूर्वक किया जाय तो वे बहुत थोड़ा फल देते हैं; किन्तु माघ-स्नान यदि श्रद्धा के बिना भी विधिपूर्वक किया जाय तो वह पूरा-पूरा फल देता है। गाँव से बाहर नदी या पोखरे के जल में जहाँ कहीं भी निष्काम या सकाम भाव से माघस्नान करने वाला पुरुष इस लोक और परलोकमें दुःख नहीं देखता।
- जैसे चन्द्रमा कृष्णपक्ष में क्षीण होता और शुक्लपक्ष में बढ़ता है, उसी प्रकार माघ मास में स्नान करने पर पाप क्षीण होता और पुण्य राशि बढ़ती है।
- जैसे समुद्र में नाना प्रकार के रत्न उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार माघस्नान से आयु, धन और स्त्री आदि सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं।
- जैसे कामधेनु और चिन्तामणि मनोवाञ्छित भोग देती हैं, उसी प्रकार माघस्नान सब मनोरथों को पूर्ण करता है।
सत्ययुग में तपस्या को, त्रेता में ज्ञान को, द्वापर में भगवान् के पूजन को और कलियुग में दान को उत्तम माना गया है; परन्तु माघ का स्नान सभी युगों में श्रेष्ठ समझा गया है।
कृते तपः परं ज्ञानं त्रेतायां यजनं तथा। द्वापरे च कलौ दाने माघः सर्वयुगेषु च॥ (पद्म पुराण - उत्तरखण्ड - २२१।८०)
सबके लिये, समस्त वर्णों और आश्रमों के लिये माघका स्नान धर्मकी धारावाहिक वृष्टि करता है।
भृगुजी के ये वचन सुनकर वह विद्याधर उसी आश्रमपर ठहर गया और माघ मास में उसने विधिपूर्वक पर्वतीय नदी के कुण्ड में पत्नी सहित स्नान किया। महर्षि भृगु के अनुग्रह से विद्याधर ने अपना मनोरथ प्राप्त कर लिया। फिर वह देवमुख होकर मणिपर्वत पर आनन्दपूर्वक रहने लगा। भृगुजी उस पर कृपा करके बहुत प्रसन्न हुए और पुनः विन्ध्यपर्वत पर अपने आश्रम में चले आये। उस विद्याधर का मणिमय पर्वत की नदी में माघस्नान करने मात्र से कामदेव के समान मुख हो गया। तथा भृगुजी भी नियम समाप्त करके शिष्यों सहित विन्ध्याचल पर्वत की घाटी में उतरकर नर्मदा तट पर आये।
वसिष्ठजी कहते हैं - राजन्! महर्षि भृगु के द्वारा विद्याधर के प्रति कहा हुआ यह माघ माहात्म्य सम्पूर्ण भुवन का सार है तथा नाना प्रकार के फलों से विचित्र जान पड़ता है। जो प्रतिदिन इसका श्रवण करता है, वह देवता की भाँति समस्त सुन्दर भोगों को प्राप्त कर लेता है।
माघस्नान से सुव्रत को दिव्यलोक प्राप्ति की कथा
वसिष्ठ जी कहते हैं- हे राजन्! सुनो, मैं तुमसे सुव्रत के चरित्रका वर्णन करता हूँ। यह शुभ प्रसंग श्रोताओं के समस्त पापों को तत्काल हर लेने वाला है।
नर्मदा के रमणीय तट पर एक बहुत बड़ा अग्रहार - ब्राह्मणों को दान में मिला हुआ गाँव था। वह लोगों में अकलंक नाम से विख्यात था, उस गांव में वेदों के ज्ञाता और धर्मात्मा ब्राह्मण निवास करते थे। वह ग्राम धन-धान्य से भरा था और वेदों के गम्भीर घोष से सम्पूर्ण दिशाओं को मुखरित किये रहता था। उस गाँव में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे जो सुव्रत के नाम से विख्यात थे। उन्होंने सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन किया था। वेदार्थ के वे अच्छे ज्ञाता थे, धर्मशास्त्रों के अर्थका भी पूर्ण ज्ञान रखते थे, पुराणों की व्याख्या करने में वे बड़े कुशल थे। वेदांगों का अभ्यास करके उन्होंने तर्कशास्त्र, ज्यौतिषशास्त्र, गजविद्या, अश्वविद्या, चौंसठ कलाएँ, मन्त्रशास्त्र, सांख्यशास्त्र तथा योगशास्त्र का भी अध्ययन किया था। वे अनेक देशों की लिपियाँ और नाना प्रकार की भाषाएँ जानते थे। यह सब कुछ उन्होंने धन कमाने के लिये ही सीखा था तथा लोभसे मोहित होने के कारण अपने भिन्न-भिन्न गुरुओं को गुरुदक्षिणा भी नहीं दी थी।
उपायों के जानकार तो थे ही, उन्होंने उक्त उपायों से बहुत कुछ धन का उपार्जन किया। उनके मन में बड़ा लोभ था; इसलिये वे अन्याय से भी धन कमाया करते थे। जो वस्तु बेचने के योग्य नहीं है, उसको भी बेचते और जंगल की वस्तुओं का भी विक्रय किया करते थे; उन्होंने चाण्डाल आदि से भी दान लिया, कन्या बेची तथा गौ, तिल, चावल, रस और तेलका भी विक्रय किया। वे दूसरों के लिये तीर्थ मे जाते, दक्षिणा लेकर देवताकी पूजा करते, वेतन लेकर पढ़ाते और दूसरोंके घर खाते थे; इतना ही नहीं, वे नमक, पानी, दूध, दही और पक्वान्न भी बेचा करते थे। इस तरह अनेकों उपायों से उन्होंने यत्न पूर्वक धन कमाया। धन के पीछे उन्होंने नित्य-नैमित्तिक कर्म तक छोड़ दिया था। न खाते थे, न दान करते थे। हमेशा अपना धन गिनते रहते थे कि कब कितना जमा हुआ। इस प्रकार उन्होंने एक लाख स्वर्णमुद्राएँ उपार्जित कर लीं। धनोपार्जन में लगे-लगे ही वृद्धावस्था आ गयी और सारा शरीर जर्जर हो गया। कालके प्रभावसे समस्त इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। अब वे उठने और कहीं आने-जानेमें असमर्थ हो गये। धनोपार्जन का काम बन्द हो जाने से स्त्री-सहित ब्राह्मण देवता बहुत दुःखी हुए। इस प्रकार चिन्ता करते-करते जब उनका चित्त बहुत व्याकुल हो गया, तब उनके मन में सहसा विवेकका प्रादुर्भाव हुआ।
सुव्रत अपने-आप कहने लगे-मैंने नीच प्रतिग्रह से, नहीं बेचने योग्य वस्तुओं के बेचने से तथा तपस्या आदि का भी विक्रय करने से यह धन जमा किया है; फिर भी मुझे शान्ति नहीं मिली। मेरी तृष्णा अत्यन्त दुस्सह है। यह मेरु पर्वत के समान असंख्य सुवर्ण पाने की अभिलाषा रखती है। अहो! मेरा मन महान् कष्टदायक और सम्पूर्ण क्लेशों का कारण है। सब कामनाओं को पाकर भी यह फिर दूसरी-दूसरी नवीन कामनाओं को प्राप्त करना चाहता है।
बूढ़े होने पर सिर के बाल पक जाते हैं, दाँत टूट जाते हैं, आँख और कानों की शक्ति भी क्षीण हो जाती है; किन्तु एक तृष्णा ही ऐसी है, जो उस समय भी नित्य तरुण होती जाती है। जिसके मन में कष्टदायिनी आशा मौजूद है, वह विद्वान् होकर भी अज्ञानी है, अशान्त है, क्रोधी है और बुद्धिमान् होकर भी अत्यन्त मूर्ख है। आशा मनुष्योंको नष्ट करनेवाली है, उसे अग्निके समान जानना चाहिये; अतः जो विद्वान् सनातन पद को प्राप्त करना चाहता हो, वह आशा का परित्याग कर दे। बल, तेज, यश, विद्या, सम्मान, शास्त्रज्ञान तथा उत्तम कुल म जन्म- इन सबको आशा शीघ्र ही नष्ट कर देती है। मैंने भी इसी प्रकार बहुत क्लेश उठाकर यह धन कमाया है। वृद्धावस्था ने मेरे शरीर को भी गला दिया और सारा बल भी हर लिया। अब से मैं श्रद्धापूर्वक परलोक सुधारने के लिये प्रयत्न करूँगा।
ऐसा निश्चय करके ब्राह्मण देवता जब धर्म के मार्ग पर चलने के लिये उत्सुक हुए, उसी दिन रात म कुछ चोर उनके घर में घुस आये। आधी रातका समय था; आततायी चोरों ने ब्राह्मण को खूब कसकर बाँध दिया और सारा धन लेकर चंपत हो गये।
चोरों के द्वारा धन छिन जाने पर ब्राह्मण अत्यन्त दारुण विलाप करने लगा-'हाय ! मेरा धन कमाना धर्म, भोग अथवा मोक्ष-किसी भी काम में नहीं आया। न तो मैंने उसे भोगा और न दान ही किया। फिर किस लिये धन का उपार्जन किया? हाय! हाय! मैंने अपने आत्मा को धोखे में डालकर यह क्या किया ?
सब जगह से दान लिया और मदिरा तक का विक्रय किया। पहले तो एक ही गौ का प्रतिग्रह नहीं लेना चाहिये। यदि एक को ले लिया तो दूसरी का प्रतिग्रह लेना कदापि उचित नहीं है। उस गौ को भी यदि बेच दिया जाय तो वह सात पीढ़ियों को दग्ध कर देती है। इस बात को जानते हुए भी मैंने लोभवश ऐसे-ऐसे पाप किये हैं -
- धन कमाने के उत्साह में मैंने एक दिन भी एकाग्रचित्त होकर अच्छी प्रकार से सन्ध्योपासना नहीं की।
- अगर्भ (ध्यान-रहित) या सगर्भ (ध्यान-सहित) प्राणायाम भी नहीं किया।
- तीन बार जल पीकर और दो बार ओठ पोंछकर भलीभाँति आचमन नहीं किया।
- उतावली छोड़कर और हाथ में कुश की पवित्री लेकर मैंने कभी गायत्रीमन्त्र का वाचिक, उपांशु अथवा मानस जप भी नहीं किया।
- जीवों का बन्धन छुड़ाने वाले महादेवजी की आराधना नहीं की।
- जो मन्त्र पढ़कर अथवा बिना मन्त्र के ही शिवलिंग के ऊपर एक पत्ता या फूल डाल देता है, उसकी करोड़ों पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है; किन्तु मैंने कभी ऐसा नहीं किया।
- सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाले भगवान् विष्णु को कभी सन्तुष्ट नहीं किया।
- पाँच प्रकार की हत्याओं के पाप शान्त करने वाले पंचयज्ञों का अनुष्ठान नहीं किया।
- स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने वले अतिथि के सत्कार से भी वंचित रहा।
- संन्यासी का सत्कार करके उसे अन्न की भिक्षा नहीं दी।
- ब्रह्मचारी को विधिपूर्वक अतिथि के योग्य भोजन नहीं दिया।
- मैंने ब्राह्मणोंको भाँति-भाँति के सुन्दर एवं महीन वस्त्र नहीं अर्पण किये।
- सब पापों का नाश करने के लिये प्रज्वलित अग्नि में घी से भीगे हुए मन्त्रपूत तिलों का हवन नहीं किया।
- श्रीसूक्त, पावमानी ऋचा, मण्डल ब्राह्मण, पुरुषसूक्त और परमपवित्र शतरुद्रिय मन्त्र का जप नहीं किया।
- पीपल के वृक्ष का सेवन नहीं किया।
- अर्क-त्रयोदशी का व्रत त्याग दिया। वह भी यदि रातको अथवा शुक्रवारके दिन पड़े तो तत्काल सब पापोंको हरने वाली है; किन्तु मैंने उसकी भी उपेक्षा कर दी।
- ठंडी छाया वाले सघन वृक्ष का पौधा नहीं लगाया।
- सुन्दर शय्या और मुलायम गद्दे का दान नहीं किया।
- पंखा, छतरी, पान तथा मुखको सुगन्धित करनेवाली और कोई वस्तु भी ब्राह्मण को दान नहीं दी।
- नित्य श्राद्ध, भूत-बलि तथा अतिथि-पूजा भी नहीं की। उपर्युक्त उत्तम वस्तुओंका जो लोग दान करते हैं, वे पुण्य के भागी मनुष्य यमलोक में यमराज को, यमदूतों को और यमलोक की यातनाओं को नहीं देखते; किन्तु मैंने यह भी नहीं किया।
- गौओं को ग्रास नहीं दिया। उनके शरीरको कभी नहीं खुजलाया, कीचड़ में फँसी हुई गौ को, जो गोलोक में सुख देने वाली होती है, मैंने कभी नहीं निकाला।
- याचकों को उनकी मुँह-माँगी वस्तुएँ देकर कभी सन्तुष्ट नहीं किया।
- भगवान् विष्णु की पूजा के लिये कभी तुलसी का वृक्ष नहीं लगाया।
- शालग्रामशिला के तीर्थ-भूत चरणामृत को न तो कभी पीया और न मस्तक पर ही चढ़ाया।
- एक भी पुण्यमयी एकादशी तिथि को उपवास नहीं किया।
- शिवलोक प्रदान करनेवाली शिवरात्रि का भी व्रत नहीं किया।
'वेद, शास्त्र, धन, स्त्री, पुत्र, खेत और अटारी आदि वस्तुएँ इस लोकसे जाते समय मेरे साथ नहीं जायेंगी। अब तो मैं बिलकुल असमर्थ हो गया; अतः कोई उद्योग भी नहीं कर सकूँगा। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ। हाय! मुझ पर बड़ा भारी कष्ट आ पड़ा। मेरे पास परलोक का मार्गव्यय(राहखर्च) भी नहीं है।'
इस प्रकार व्याकुल-चित्त होकर सुव्रत ने मन-ही-मन विचार किया- अहो! मेरी समझ में आ गया, आ गया, आ गया। मैं धन कमाने के लिये उत्तम देश काश्मीर क जा रहा था। मार्ग मे भागीरथी गंगा के तट पर मुझे कुछ ब्राह्मण दिखायी दिये जो वेदों के पारगामी विद्वान् थे। वे प्रातःकाल माघस्नान करके बैठे थे, वहाँ किसी पौराणिक विद्वान् ने उस समय यह आधा श्लोक कहा था-
माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्त-पापास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥(२३८। ७८)
'माघ - मास में शीतल जल के भीतर डुबकी लगाने वाले मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्गलोक में जाते हैं।'
पुराण में से मैंने इस श्लोक को सुना है। यह बहुत ही प्रामाणिक है; अतः इसके अनुसार मुझे माघ का स्नान करना ही चाहिये।
मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके सुव्रत ने अपने मन को सुस्थिर किया और नौ दिनों तक नर्मदा के जल में माघ मास का स्नान किया। उसके बाद स्नान करने की भी शक्ति नहीं रह गयी। वे दसवें दिन किसी तरह नर्मदा जी में गये और विधिपूर्वक स्नान करके तट पर आये। उस समय शीत से पीड़ित होकर उन्होंने प्राण त्याग दिया। उसी समय मेरुगिरि के समान तेजस्वी विमान आया और माघस्नान के प्रभावसे सुव्रत उस विमान पर आरूढ़ होकर स्वर्गलोक को चले गये। वहाँ एक मन्वन्तर तक निवास करके वे पुनः इस पृथ्वी पर ब्राह्मण हुए। फिर उस जन्म में भी प्रयाग में माघ स्नान करके उन्होंने ब्रह्मलोक को प्राप्त किया।
॥पद्म पुराणोक्तं माघ माहात्म्यं शुभमस्तु॥
इस प्रकार माघ स्नान की अपूर्व महिमा है। इस मास की प्रत्येक तिथि पर्व है।
'मासपर्यन्त स्नानासम्भवे तु त्र्यहमेकाहं वा स्नायात् ।' (निर्णयसिन्धु)
इसके अनुसार, कदाचित् शीतपीड़ित होने के भय से या अशक्तावस्था में यदि पूरे मास का नियम न ले सके तो हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में यह भी व्यवस्था दी गयी है कि माघ में किन्हीं तीन दिन अथवा एक दिन अवश्य माघ-स्नान-व्रत का पालन करे।
प्रयागे तु नरो यस्तु माघस्नानं करोति च। न तस्य फलसंख्यास्ति श्रृणु देवर्षिसत्तम॥ (पद्म० उत्तर०)
हे देवर्षे! प्रयाग में जो माघस्नान करता है, उसके पुण्यफल की कोई गणना नहीं (इतना अधिक फलप्रद है)।
माघ मास में किये जाने वाले कुछ व्रत यहाँ प्रस्तुत हैं, इच्छा व सामर्थ्यानुसार इन व्रतों का पालन कर सकते हैं-
१) माघ का दिनत्रय व्रत - वैसे तो माघ स्नान ३० दिन में पूर्ण होता है, परंतु इतने समय की सामर्थ्य अथवा अनुकूलता न हो तो माघ शुक्ल त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा इन तीन तिथियों के अरुणोदय में स्नानादि करके व्रत करे और यथानियम दान-पुण्य करे तो सम्पूर्ण माघस्नान का फल मिलता है।
२) गुड़-लवण दान व्रत - भविष्योत्तर पुराण में लिखा है माघ शुक्ल तृतीया को गुड़ और लवण(नमक) का दान करे तो गुड़ दान से देवी और नमक दान से प्रभु प्रसन्न होते हैं।
३) वरदा चतुर्थी - निर्णयामृत ग्रंथ में वर्णित है कि माघ शुक्ल चतुर्थी को कुन्द के पुष्पों से शिवजी का पूजन करने से श्री की प्राप्ति होती है।
४) गौरी व्रत - ब्रह्मपुराण में लिखा है माघ शुक्ल चतुर्थी को गन्ध, पुष्प, धूप-दीप और नैवेद्य आदि से उमा का पूजन करके गुड़, अदरख, नमक, पालक और खीर इनसे बलि(दान) देकर ब्राह्मणों को भोजन कराये।
५) कुण्डचतुर्थी - देवीभागवत के अनुसार माघ शुक्ल चतुर्थी को उपवास करके देवी का पूजन करे। अनेक प्रकार के गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, फल, पत्र, धान्य, बीज और सब प्रकारकी नैवेद्य सामग्री अर्पण करे तथा शूर्प या मिट्टी के पात्रमें उक्त नैवेद्य-सामग्री भरकर ब्राह्मणको दे तो संतति और सौभाग्य दोनों प्राप्त होते हैं।
६)शान्तिचतुर्थी (भविष्यपुराण)- माघ शुक्ल चतुर्थी को गणेशजी का पूजन करके घी में सने हुए गुड़ के अपूप (पूआ) और नमक युक्त सात्विक पदार्थ अर्पण करे और गुरुदेव की पूजा करके उनको गुड़, लवण और घी दान दे तो इस व्रत से सब प्रकार की स्थिर शान्ति प्राप्त होती है।
७) श्रीगणेशव्रत - भविष्यपुराण के अनुसार माघ शुक्ल पूर्वविद्धा चतुर्थी को प्रातःस्नानादि करने के पश्चात् 'ममाखिलाभिलषित -कार्य-सिद्धि-कामनया श्रीगणेश व्रतं करिष्ये' इस मन्त्रसे संकल्प करके वेदीपर लाल वस्त्र बिछाये। लाल अक्षतों का अष्टदल बनाकर उस पर सिन्दूर लगाये हुए श्री गणेशजी को स्थापित करे। स्वयं लाल धोती पहनकर लाल वर्ण के फल-पुष्पादि से षोडशोपचार पूजन करे। नैवेद्य में भिगोकर छीली हुई हल्दी, गुड़, शक्कर और घी-इनको मिलाकर भोग लगाये और नक्त व्रत (रात्रि में एक बार भोजन) करे तो सम्पूर्ण अभीष्ट सिद्ध होते हैं।
८)महती सप्तमी - मत्स्यपुराण के अनुसार माघ शुक्ल सप्तमी को रथारूढ़ सूर्यनारायण भगवान का पूजन करके उपवास करे तो सात जन्मके पाप दूर होते हैं। यही रथसप्तमी भी है।
९) तिलद्वादशी - ब्रह्मपुराण के अनुसार यह व्रत षट्तिला व्रत के समान है। इसके लिये माघ शुक्ल द्वादशी को तिलों के जल से स्नान करे। तिलों से विष्णु भगवान का पूजन करे। तिलों के तेल का दीपक जलाये। तिलों का नैवेद्य बनाये। तिलों का हवन करे और तिलों का दान करके तिलों का ही भोजन करे तो इस व्रत के प्रभाव से स्वाभाविक(natural), आगन्तुक (incoming), कायकान्तर(interbody) और सांसर्गिक(संक्रामक) सम्पूर्ण व्याधियां दूर होती हैं और सुख मिलता है।
ऐसे पवित्र व पुण्यप्रद माघ मास में हमारा श्रीहरि के चरणों में बारम्बार प्रणाम....
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