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सितंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नोट - यहाँ प्रकाशित साधनाओं, स्तोत्रात्मक उपासनाओं को नियमित रूप से करने से यदि किसी सज्जन को कोई विशेष लाभ हुआ हो तो कृपया हमें सूचित करने का कष्ट करें।

⭐विशेष⭐


९ अप्रैल - "कालयुक्त" नामक हिंदू नवसंवत्सर २०८१ मंगलमय हो!

९ अप्रैल - चैत्र या वासन्तीय नवरात्रों का प्रारम्भ,
कलश स्थापना विधि, कलशस्थापन का मुहूर्त इस लिंक पर जाकर शहर का नाम डालकर देख लें।
वासंतीय नवरात्र-प्रथम दिन शैलपुत्री जी का पूजन
१० अप्रैल - नवरात्रि के दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी जी का आराधन
११ अप्रैल - श्री मत्स्य-अवतार जयन्ती
११ अप्रैल -नवरात्रि के तृतीय दिवस चन्द्रघंटा माँ की आराधना

१२ अप्रैल -नवरात्रि का चतुर्थ दिन - कूष्माण्डा जी का पूजन
१३ अप्रैल -नवरात्र के पंचम दिन स्कन्दमाता जी का पूजन
१४ अप्रैल -नवरात्र के छठे दिन कात्यायनी माँ की पूजा
१५ अप्रैल -नवरात्र के सप्तम दिन कालरात्रि पूजन महासप्तमी
१६ अप्रैल -नवरात्रि में अष्टमी को महागौरी जी की आराधना, अन्नपूर्णा माँ की पूजा
१७ अप्रैल -नवरात्र के नवम दिन सिद्धिदात्री जी की आराधना
भगवान श्री राम जयंती, श्रीराम नवमी, नवमी हवन विधि।
तारा महाविद्या जयंती
⭐वासन्ती नवरात्रपारणा: पारण अर्थात् प्रसाद व अन्न ग्रहण करके व्रत खोलना..जो नवरात्रि में केवल आठ दिन ही व्रत लेते हैं वे तो अष्टमी रात्रि को ही पारण कर ले और जो पूरे नौ दिन उपवास रख सकते हैं वे नवमी (१७ अप्रैल) की रात्रि को व्रत खोलें...
कलश आदि का विसर्जन दशमी तिथि की प्रातः (१८ अप्रैल को) करना चाहिए


आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष।
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महाकाली महिमा तथा काली एकाक्षरी मन्त्र पुरश्चरण

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का ल अर्थात् समय/मृत्यु की अधिष्ठात्री भगवती महाकाली हैं। यूं तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि योगमाया भगवती आद्याकाली के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाई जाती है। परंतु तान्त्रिक मतानुसार आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन ' काली जयंती ' बतलायी गयी है। जगत के कल्याण के लिये वे सर्वदेवमयी आद्या शक्ति अनेकों बार प्रादुर्भूत होती हैं, सर्वशक्ति संपन्न वे भगवान तो अनादि हैं परंतु फिर भी भगवान के अंश विशेष के प्राकट्य दिवस पर उन स्वरूपों का स्मरण-पूजन कर यथासंभव उत्सव करना मंगलकारी होता है। दस महाविद्याओं में प्रथम एवं मुख्य महाविद्या हैं भगवती महाकाली। इन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविद्याएँ हैं। विद्यापति भगवान शिव की शक्तियां ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टि से  भी कालतत्व की प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओं की आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकाल की प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपों में दस महाविद्याओं के नाम से विख्य

महालय पर जानिये श्राद्ध एवं पितृपक्ष के महत्व को

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जी वन का अन्तिम पड़ाव है मृत्यु। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार मनुष्य मृत्यु के पश्चात पितर(मृत पूर्वज) होकर पितृलोक जाते हैं। पितृलोक के पश्चात कर्मानुसार या तो वह व्यक्ति स्वर्ग/नरक/मुक्ति पाता है या उसका पुनर्जन्म होता है। श्राद्ध से तात्पर्य है पितृगणों की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म। पितरों का ऋण श्राद्धों द्वारा चुकाया जाता है। दिवंगत हुए व्यक्ति का सपिण्डीकरण व वार्षिक श्राद्ध किया जाता है। इसके पश्चात भी प्रतिवर्ष उस जीवात्मा की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है। विशेष बात यह है कि अगला जन्म लेकर वह  मनुष्य अपने कर्मानुसार देवता, गंधर्व, मनुष्य या पक्षी आदि जिस भी योनि का हो जाता है, उसी के अनुरूप उसे श्राद्धकर्म तृप्ति देता है।   इसलिए मृत पूर्वज का  श्राद्ध अवश्य करे इस परम्परा को कभी न तोड़े। भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन की अमावास्या तक पितृपक्ष कहलाता है।  दो अवसरों पर मुख्यतः हर वर्ष श्राद्ध किया जाता है; एक बार - जिस मास की जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई हो तब । दूसरी बार पितृपक्ष पर-जिनकी मृत्यु जिस तिथि को हुई हो इस पितृपक्ष के अंतर्गत

वामन जयंती पर जानिये भगवान वामन के अवतार की कथा

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आ ज यानि भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की  द्वादशी तिथि को ही भगवान श्री हरि ने वामन अवतार धारण किया था। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन से महाबाहु बलि का जन्म हुआ। दैत्यराज बलि धर्मज्ञों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, बलवान, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरि के प्रिय भक्त थे।  यही कारण था कि उन्होंने इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्गणों को जीतकर तीनों लोकों को अपने अधीन कर लिया था। इस प्रकार राजा बलि समस्त त्रिलोकी पर राज्य करते थे। इंद्रादिक देवता दासभाव से उनकी सेवा में खड़े रहते थे। परम भक्त तो थे राजा बलि किन्तु बलि को अपने बल का अभिमान था। इन्द्र आदि देवों का अधिपत्य हड़प चुके थे वो। कितना ही बड़ा भक्त हो कोई अभिमान आ जाय तो सारी भक्ति व्यर्थ है। तब महर्षि कश्यप ने अपने पुत्र इन्द्र को राज्य से वंचित देखकर तप किया और भगवान विष्णु से बलि को मायापूर्वक परास्त करके इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य प्रदान करने का वरदान माँगा।

भुवनेश्वरी महाविद्या हैं सर्वस्वरूपा मूल प्रकृति (भुवनेश्वरी खड्गमाला स्तोत्र)

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माँ भुवनेश्वरी की आराधना हेतु सर्वोत्तम दिवस है भुवनेश्वरी महाविद्या की जयंती तिथि । दस महाविद्याओं में से पंचम महाविद्या भगवती भुवनेश्वरी का भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को प्रादुर्भाव हुआ माना जाता है। भुवनेश्वरी महाविद्या का स्वरूप सौम्य है और इनकी अंगकान्ति अरुण है। भक्तों को अभय और समस्त सिद्धियाँ प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। वास्तव में मूल प्रकृति का ही दूसरा नाम भुवनेश्वरी है। दशमहाविद्याएँ ही दस सोपान हैं । काली तत्व से निर्गत होकर कमला तत्व तक की दस स्थितियाँ हैं , जिनसे अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्माण्ड का रूप धारण कर सकती हैं तथा प्रलय में कमला से अर्थात् व्यक्त जगत से क्रमशः लय होकर कालीरूप में मूलप्रकृति बन जाती हैं । इसीलिये भगवती भुवनेश्वरी को काल की जन्मदात्री भी कहा जाता है ।

श्रीराधा हैं युगल सरकार स्वरूपिणी भगवती - राधाष्टमी विशेष

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भ गवती महालक्ष्मी स्वरू पा भगवती श्रीराधा, श्रीकृष्ण की ही भाँति नित्य-सच्चिदानन्दघन रूपा हैं। समय-समय पर लीला के लिये प्रकट होने वाले भगवान श्रीकृष्ण की ही भाँति ये भी आविर्भूत हुआ करती हैं। एक बार ये दिव्य गोलोकधाम में श्रीकृष्ण के वामांश से प्रकट हुई थीं। इन्होंने ही फिर व्रजभूमि के अन्तर्गत बरसाने [वृषभानुपुर]में भाद्रपद शुक्ला अष्टमी को श्री वृषभानु महाराज के घर परमपुण्यमयी श्रीकीर्तिदारानी जी की कोख से प्रकट होने की लीला की थी। आज उसी का महोत्सव राधाष्टमी के रूप में मनाया जाता है।

वाराह अवतार हैं जगत के उद्धारक

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भा द्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया  तिथि को भगवान के वाराहावतार की जयंती या प्रादुर्भाव तिथि कही गयी है। वही ये वैष्णवावतार वाराह हैं जिन्होंने हिरण्याक्ष नामक असुर का वध कर समूची पृथ्वी का उद्धार किया था। भगवान का वाराह अवतार वेदप्रधान यज्ञस्वरूप अवतार है। दिन तथा रात्रि इनके नेत्र हैं, हविष्य इनकी नासिका है। सामवेद का गंभीर स्वर इनका उद्घोष है। यूप इनकी दाढ़ें हैं, चारों वेद इनके चरण हैं, यज्ञ इनके दाँत हैं। श्रुतियाँ इनका आभूषण हैं, चितियाँ मुख हैं।  साक्षात अग्नि ही इनकी जिह्वा तथा कुश इनकी रोमावली है एवं ब्रह्म इनका मस्तक है।