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नोट - यहाँ प्रकाशित साधनाओं, स्तोत्रात्मक उपासनाओं को नियमित रूप से करने से यदि किसी सज्जन को कोई विशेष लाभ हुआ हो तो कृपया हमें सूचित करने का कष्ट करें।

⭐विशेष⭐


23 अप्रैल - मंगलवार- श्रीहनुमान जयन्ती
10 मई - श्री परशुराम अवतार जयन्ती
10 मई - अक्षय तृतीया,
⭐10 मई -श्री मातंगी महाविद्या जयन्ती
12 मई - श्री रामानुज जयन्ती , श्री सूरदास जयन्ती, श्री आदि शंकराचार्य जयन्ती
15 मई - श्री बगलामुखी महाविद्या जयन्ती
16 मई - भगवती सीता जी की जयन्ती | श्री जानकी नवमी | श्री सीता नवमी
21 मई-श्री नृसिंह अवतार जयन्ती, श्री नृसिंहचतुर्दशी व्रत,
श्री छिन्नमस्ता महाविद्या जयन्ती, श्री शरभ अवतार जयंती। भगवत्प्रेरणा से यह blog 2013 में इसी दिन वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को बना था।
23 मई - श्री कूर्म अवतार जयन्ती
24 मई -देवर्षि नारद जी की जयन्ती

आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष।
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त्राणकर्त्री वेदमाता गायत्री की जयंती

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श्रा वण शुक्ल पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन, संस्कृत दिवस, लव-कुश जयंती के साथ-साथ "भगवती गायत्री जयंती" मनाई जाती है। मतांतर से ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भी देवी गायत्री की जयन्ती तिथि बतलायी गई है।गौ, गंगा तथा गायत्री हिन्दुत्व की त्रिवेणी कहलाती है। ये तीनों ही अति पवित्र कहे गए हैं तथा भव बंधनों से मुक्ति दिलाते हैं। समस्त वेदों का सार तथा समस्त देवों की शक्तियाँ गायत्री मंत्र में निहित हैं। वेदमाता कहलाने वाली ये माँ भगवती अपने गायक/ जपकर्ता का पतन से त्राण कर देती हैं ; इसीलिए 'गायत्री' कहलाती हैं। जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही धर्म-कर्म के लिये योग्य कहलाता है और दान, जप, होम व पूजा सभी कर्मों के लिये वही शुद्ध पात्र है। नित्य संध्या करने वाला होने के कारण शास्त्रों में ब्राह्मणों को दान करने के लिये कहा जाता है। क्योंकि जो दान की वस्तु को पाता है उसे प्रतिग्रह का दोष लग जाता है लेकिन यदि वह व्यक्ति गायत्री जप करता है तो प्रतिग्रह के दोष से मुक्त हो जाता है। कोई भी शुभ कर्म हो विवाह, अनुष्ठान, पूजा आदि हो तो सबसे पहले संध्या

श्री कल्कि अवतार-धारी भगवान की अधर्मनाशक आराधना

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हि न्दू   धर्मग्रंथों के अनुसार ,   सतयुग , द्वापर ,   त्रेतायुग   बीतने के बाद   यह   वर्तमान युग   कलियुग   है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए कथन के अनुसार-   जब जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म आगे बढ़ने लगता है , तब तब श्रीहरि स्वयं की सृष्टि करते हैं , अर्थात् भगवान्   अवतार ग्रहण करते हैं। साधु-सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनःस्थापना के लिए श्रीकृष्ण विभिन्न युगों में अवतरित होते हैं और आगे भी होते रहेंगे- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥       कल्कि पुराण में वर्णन है कि चौथे चरण में कलियुग जब अपनी चरम सीमा तक   पहुँच जाएगा , तब अपराध-पाप-अनाचार अत्यन्त   बढ़ जायेंगे ; अधर्म-लूटपाट-हत्या तो सामान्य बात हो   जायेगी यहाँ तक कि लोग   ईश्वर-सत्कर्म-धर्म सब   भूल   जायेंगे।   तब   भगवान श्रीहरि अपने   अंतिम अवतार कल्कि   रूप में अवतरित होंगे।   भगवान कल्कि कलियुग को मिटाकर सतयुग की स्थापना करेंगे ,

स्वप्नों का रहस्य

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भ गवान  की बनाई अनोखी रचना है हमारा शरीर.. शरीर को आराम मिले इसलिए हम मनुष्य  नित्य शयन करते हैं और निद्रा में अक्सर स्वप्न देखा करते हैं.. कभी अच्छे तो कभी बुरे.. कुछ सपने याद रहते हैं तो कुछ याद नहीं रहते.. हमारे हिंदू धर्म की मान्यता है कि कुछ स्वप्न पूर्वाभास के रूप में होने से हमारे जीवन को भी प्रभावित किया करते हैं। हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में ऐसी साधनाओं के वर्णन भी मिलते हैं जिनसे अपना भविष्य या किसी प्रश्न का जवाब प्राप्त कर जिज्ञासा को शांत किया जा सकता है।

चातुर्मास्य व्रत की महिमा

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  स मय-समय पर आते रहने वाले उन अवसरों का लाभ हमें अवश्य उठाना चाहिये जिनका हिन्दू धर्म ग्रन्थों में महत्व बताया गया है। हमारे हिन्दू धर्म ग्रन्थों में चातुर्मास का बहुत महत्व बताया गया है, जिसमें सूर्य के मिथुन राशि में आने पर भगवान् विष्णु जी की प्रतिमा को शयन कराते हैं और चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के पहुँचने पर उनको उठाया जाता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका  है कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी को चातुर्मास के नियमों को ग्रहण करके चातुर्मास्य व्रत का प्रारम्भ किया जाता है । किसी कारणवश एकादशी या द्वादशी को यदि चातुर्मास का नियम पालन संकल्प न हो पाये तो इन नियमों के पालन का संकल्प पूर्णिमा को भी किया जा सकता है। इस तरह चातुर्मास का अनुष्ठान आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी, द्वादशी से द्वादशी तक या आषाढ़ की पूर्णिमा से कार्तिक की पूर्णिमा तक किया जाता है।

पवित्र माघ मास का माहात्म्य

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भा रतीय संवत्सर का ग्यारहवाँ चान्द्रमास और दसवाँ सौरमास 'माघ' कहलाता है।  इस महीने में मघा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने से इसका नाम माघ पड़ा। हिन्दू  धर्म के दृष्टिकोण से इस माघ मास का बहुत अधिक महत्व है। मान्यता है कि इस मास में शीतल जल में डुबकी लगाने-नहाने वाले मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्गलोक जाते हैं- माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥       माघ में प्रयाग  में स्नान, दान, भगवान् विष्णु के पूजन और हरिकीर्तन के महत्त्व का वर्णन तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में भी किया है- माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥ देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥ पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥

मकर-संक्रान्ति का महापर्व [श्री सूर्य स्तोत्राणि]

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सू र्य ही पञ्चदेवों में एकमात्र ऐसे देव हैं जिनके दर्शन सर्वसुलभ और नित्य ही हुआ करते हैं । हनुमान जी इनके शिष्य तथा यमराज-शनिदेव इन्हीं के पुत्र हैं ।  जगत्  की समस्त घटनाएँ तो सूर्यदेव की ही लीला-विलास हैं। भगवान् सूर्य अपनी कर्म-सृष्टि-रचनाकाल की लीला से श्रीब्रह्मा-रूप में प्रात:काल में जगत् को प्रकाशित कर संजीवनी प्रदान कर प्रफुल्लित करते हैं। मध्याह्नकाल में ये आदित्य भगवान अपनी ही प्रचण्ड रश्मियों के द्वारा श्रीविष्णुरूप से सम्पूर्ण दैनिक कर्म-सृष्टि का आवश्यकतानुसार यथासमय पालन-पोषण करते हैं, ठीक इसी प्रकार भगवान् आदित्य सायाह्नकाल में अपनी रश्मियों के द्वारा श्रीमहेश्वररूप से सृष्टि के दैनिक विकारों को शोषित कर कर्म-जगत् को हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ और निरोग बनाते हैं ।

गीता-जयन्ती पर जानें श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा

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ज यन्ती तिथियों का हमारे हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्व रहा है। विश्व के किसी भी ग्रन्थ का जन्म - दिन नहीं मनाया जाता , जयन्ती मनायी जाती है तो केवल श्रीमद्भगवद्गीता की ; क्योंकि अन्य ग्रन्थ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किये गए हैं जबकि हमारे हिन्दू धर्म के इस पवित्रतम ग्रन्थ गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ है - या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥

प्रबोधिनी एकादशी पर करें तुलसी विवाह

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आ ज कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तुलसी - विवाह   का भी आयोजन किया जाता है। हिन्दू धर्मग्रन्थों की मान्यता के अनुसार तुलसी श्रीहरि को अतिप्रिय है जिस कारण तुलसी चढ़ाए बिना मधुसूदन भगवान की  कोई भी पूजा अधूरी मा नी जाती है। तुलसी के पत्ते मंगलवार, शुक्रवार, रविवार, संक्रांति (नये महीने या वर्ष का पहला दिन), अमावास्या, पूर्णिमा, द्वादशी, श्राद्ध तिथि (पूर्वजों की पुण्यतिथि)  और   दोपहर [12बजे] के बाद नहीं तोड़ने चाहिए अन्यथा भगवान के सिर को काटने का पाप मिलता है। तुलसी पत्र/दल तोड़ना यदि बहुत आवश्यक हो तो फिर निम्न मंत्र पढ़कर तोड़ लेना चाहिये- तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया। चिनोमि केशवस्यार्थे वरदा भव शोभने।। अथवा [और] त्वदंगसंभवै: पत्रै: पूजयामि यथा हरिम्। तथा कुरु पवित्राङ्गि! कलौ मलविनाशिनी।।

शरत्पूर्णिमा पर जानिये कोजागर व्रत का महत्व

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श रद ऋतु की शीतल हवाओं के साथ ही आगमन होता है आश्विन पूर्णिमा का, जो दीपावली आने वाली है ऐसी एक सूचना-सी दे जाती है। हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार मान्यता है कि आश्विनमास की पूर्णिमा को भगवती महालक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिये पृथ्वी पर घूमती हैं कि कौन जाग रहा है। लक्ष्मी जी के ' को जागर्ति ? ' कहने के कारण इस दिन किए जाने वाले व्रत का नाम कोजागरी है। निशीथे वरदा लक्ष्मीः को जागर्तीति भाषिणी। जगति भ्रमते तस्यां लोकचेष्टावलोकिनी॥ तस्मै वित्तं प्रयच्छामि यो जागर्ति महीतले॥ अर्थात कोजागरी की रात्रि को लक्ष्मी माँ " कौन जागता है? " ऐसा बोलती हुईं संसार में उनके निमित्त कौन जागने की चेष्टा कर रहा है यह देखने हेतु जगत में भ्रमण करती हैं। साथ ही जो भी जागता है उसे धन-प्राप्ति का आशीर्वाद माँ कमला दे जाती हैं।

सिद्धि-प्रदा सिद्धिदात्री जी की महिमा - नवरात्र का नवम दिन

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माँ सिद्धिदात्री   दुर्गाजी की  नवीं शक्ति हैं। माता सिद्धिदात्री सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। मार्कण्डेयपुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व - ये आठ सिद्धियाँ होती हैं। ब्रह्मवैवर्त्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय छः में महादेव शिव जी द्वारा सिद्धियों की संख्या अट्ठारह बतायी गयी है। इन अट्ठारह तरह की सिद्धियों के नाम इस प्रकार कहे जाते हैं-       १- अणिमा , २- लघिमा , ३- प्राप्ति , ४- प्राकाम्य, ५- महिमा , ६- ईशित्व और वशित्व , ७- सर्वकामावसायिता , ८- सर्वज्ञत्व , ९- दूरश्रवण , १०- परकायप्रवेशन , ११- वाक्सिद्धि , १२- कल्पवृक्षत्व , १३- सृष्टि , १४- संहारकरणसामर्थ्य , १५- अमरत्व , १६- सर्वन्यायकत्व , १७- भावना और १८- सिद्धि ।

महागौरी जी की महिमा - नवरात्र का आठवां दिन महाष्टमी

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म हागौरी माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति हैं। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार माता महागौरी का वर्ण पूर्णतः गौर है। महागौरी माता की इस गौरता की उपमा शङ्ख, चन्द्र और कुन्द के फूल से दी गयी है। ' अष्टवर्षा भवेद् गौरी ' के अनुसार  महागौरी भगवती की आयु सर्वदा आठ वर्ष  की ही मानी गयी है। महागौरी जी के समस्त वस्त्र एवं आभूषण भी श्वेत हैं। देवी महागौरी की चार भुजाएँ हैं। महागौरी माँ का वाहन वृषभ है। महागौरी जी के ऊपर के दाहिने हाथ में अभय-मुद्रा और नीचे के बायें हाथ में वर-मुद्रा है। महागौरी माता की मुद्रा अत्यन्त शान्त है।

शुभङ्करी कालरात्रि माता की महिमा - नवरात्र का सप्तम दिन

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का लरात्रि माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति हैं जो नवरात्र की सप्तमी तिथि को पूजी जाती हैं। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार माता कालरात्रि के शरीर का रंग घने अन्धकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश गोल हैं। कालरात्रि जी से विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। इनकी नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयङ्कर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। माँ कालरात्रि का वाहन गर्दभ है। कालरात्रि माँ के ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा सभी को वर प्रदान करती है। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में हाथ में खड्ग (कटार) है-  एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता। लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त-शरीरिणी॥ वामपादोल्लसल्लोह-लताकण्टक-भूषणा। वर्धनमूर्ध-ध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥ अर्थात् एक वेणी (बालों की चोटी) वाली, जपाकुसुम (अड़हुल) के फूल की तरह लाल कर्ण वाली, उपासक की कामनाओं को पूर्ण करने

कात्यायनी जी की महिमा - नवरात्रों का छठा दिन

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दु र्गविनाशिनी भगवती के छठवें स्वरूप का नाम कात्यायनी है। इनका नाम कात्यायनी पड़ने के पीछे हिंदू धर्म-ग्रन्थों में वर्णित एक कथा है कि कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं के कात्य गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए। इन्होंने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी। कात्यायन ऋषि की इच्छा थी कि माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। माँ भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली थी। कुछ काल पश्चात् जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बहुत बढ़ गया था तब भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिये एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इन देवी की पूजा की। इसी कारण से ये देवी कात्यायनी कहलायीं।

करुणामयी स्कन्दमाता जी की महिमा - नवरात्रि का पंचम दिवस

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दु र्गतिनाशिनी दुर्गाजी के पाँचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार भगवान् स्कन्द जो ' कुमार कार्त्तिकेय ' के नाम से भी जाने जाते है, प्रसिद्ध देवासुर-संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में कार्तिकेय जी को  कुमार और शक्तिधर कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। कार्तिकेय जी का वाहन मयूर होने के कारण इनको मयूरवाहन के नाम से भी अभिहित किया गया है। इन्हीं भगवान स्कन्द की माता होने के कारण  माँ दुर्गा जी का यह पाँचवां स्वरूप स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है।

त्रिविध-ताप-नाशिनी कूष्माण्डा जी की महिमा - नवरात्र का चतुर्थ दिन

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प रम वात्सल्यमयी माँ दुर्गाजी के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मन्द हलकी हँसी द्वारा अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है। जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार परिव्याप्त था, तब इन्हीं देवी ने अपने ' ईषत् ' हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। अतः कूष्माण्डा माता सृष्टि की आदि स्वरूपा आदि शक्ति हैं।   कूष्माण्डा माँ के पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व था ही नहीं।  हमारे हिंदू धर्म-ग्रंथों में कहा भी गया है - " कुत्सितः ऊष्मा कूष्मा " अर्थात् कुत्सित ऊष्मा [त्रिविध ताप/कष्ट] से कूष्मा शब्द बना। हिन्दू धर्मग्रन्थों में माता कूष्माण्डा के विषय में कहा गया है कि - " त्रिविधतापयुत: संसार: स अण्डेमांसपेश्यामुदररुपायां यस्या: सा कूष्माण्डा। " अर्थात् त्रिविध तापयुक्त [ पहला कष्ट/ताप है आध्यात्मिक ताप जो शारीरिक व मानसिक दो तरह का होता है , दूसरा कष्ट है भौतिक पदार्थों/जीव-जंतुओं के कारण मनुष्य को होने वाला आधिभौतिक ताप और तीसरा आधिदैविक ताप जो बाह्य कारण से उत

कल्याणकारिणी चन्द्रघण्टा देवी की महिमा - नवरात्रि का तृतीय दिवस

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आ दिशक्ति माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम ' चन्द्रघण्टा ' है। नवरात्र-उपासना में तीसरे दिन इन्हीं भगवती के विग्रह का पूजन-आराधन किया जाता है। माँ चन्द्रघण्टा का स्वरूप परम शान्तिदायक और कल्याणकारी है। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार चंद्रघण्टा माँ के  मस्तक में घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है, इसी कारण से इन्हें चन्द्रघण्टा देवी कहा जाता है। चंद्रघंटा माता के शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। चन्द्रघण्टा माँ के दस हाथ हैं जिनमें खड्ग आदि शस्त्र तथा बाण आदि अस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है। चन्द्रघण्टा माँ की मुद्रा युद्ध के लिये उद्यत रहने की होती है। इनके घण्टे के समान  भयानक चण्डध्वनि से अत्याचारी दानव-दैत्य-राक्षस सदैव प्रकम्पित रहते हैं । इसी कारण इनको चण्डघण्टा माता भी कहा जाता है।

तपश्चारिणी देवी ब्रह्मचारिणी जी की महिमा - नवरात्रि का द्वितीय दिन

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माँ दुर्गा की नव शक्तियों में दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी जी का है जिनका नवरात्र के द्वितीय दिन अर्चन किया जाता है। हिंदू धर्मग्रन्थों के अनुसार ब्रह्मचारिणी में 'ब्रह्म' शब्द का अर्थ तपस्या है। ब्रहमचारिणी अर्थात् तप की चारिणी-तप का आचरण करने वाली। कहा भी है- वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म - वेद, तत्त्व और तप ' ब्रह्म ' शब्द के ही अर्थ हैं। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यन्त भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला और बायें हाथ में कमण्डलु रहता है। अपने पूर्वजन्म में जब ये हिमालय के घर पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई थीं तब नारद के उपदेश से इन्होंने भगवान् शङ्करजी को पति-रूप में प्राप्त करने के लिये अत्यन्त कठिन तपस्या की थी । इसी दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी के नाम से अभिहित किया गया।

मूलाधार-रूपिणी माँ शैलपुत्री की महिमा - नवरात्रि का प्रथम दिन

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न वरात्रों के प्रथम दिन दुर्गाजी के पहले स्वरूप में भगवती ' शैलपुत्री ' की आराधना की जाती है। हिंदू धर्मग्रन्थों के अनुसार पर्वतराज हिमालय के वहाँ पुत्री के रूप में उत्पन्न होने से ही ये देवी ' शैलपुत्री ' के नाम से जानी जाती हैं। वृषभ पर सवार इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। यही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं।   अपने पूर्वजन्म में ये प्रजापति  दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम ' सती ' था। इनका विवाह भगवान् शङ्करजी से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिये निमन्त्रित किया। किन्तु  शङ्करजी को उन्होंने उस यज्ञ में नहीं निमन्त्रित किया। सती ने जब यह सुना कि उनके पिताश्री एक अत्यन्त विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिये उनका मन विकल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने शङ्करजी को बतलायी। सारी बातों पर विचार करके शिवजी ने कहा-" प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंन

शारदीय नवरात्र में शक्ति आराधना [सप्तश्लोकी दुर्गा]

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ह मारे हिन्दू धर्म के अनुसार मुख्य रूप से दो नवरात्र होते हैं- वासन्तिक और शारदीय । इनके अलावा दो गुप्त नवरात्रियाँ भी होती हैं। जहाँ वासन्तिक नवरात्रि में विष्णुजी की उपासना का प्राधान्य होता है वहीं शारदीय नवरात्र में शक्ति की उपासना की प्रधानता रहती है। वस्तुतः दोनों ही नवरात्र मुख्य एवं व्यापक हैं और दोनों में विष्णु जी व शक्ति की उपासना उचित है। आस्तिक जनता दोनों नवरात्रियों में दोनों की उपासना किया करती है। इस उपासना में वर्ण, जाति की विशिष्टता भी अपेक्षित नहीं है, अतः सभी वर्ण एवं जाति के लोग अपने इष्टदेव की उपासना करते हैं। देवी की उपासना व्यापक है ।

महालय पर जानिये श्राद्ध एवं पितृपक्ष के महत्व को

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जी वन का अन्तिम पड़ाव है मृत्यु। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार मनुष्य मृत्यु के पश्चात पितर(मृत पूर्वज) होकर पितृलोक जाते हैं। पितृलोक के पश्चात कर्मानुसार या तो वह व्यक्ति स्वर्ग/नरक/मुक्ति पाता है या उसका पुनर्जन्म होता है। श्राद्ध से तात्पर्य है पितृगणों की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म। पितरों का ऋण श्राद्धों द्वारा चुकाया जाता है। दिवंगत हुए व्यक्ति का सपिण्डीकरण व वार्षिक श्राद्ध किया जाता है। इसके पश्चात भी प्रतिवर्ष उस जीवात्मा की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है। विशेष बात यह है कि अगला जन्म लेकर वह  मनुष्य अपने कर्मानुसार देवता, गंधर्व, मनुष्य या पक्षी आदि जिस भी योनि का हो जाता है, उसी के अनुरूप उसे श्राद्धकर्म तृप्ति देता है।   इसलिए मृत पूर्वज का  श्राद्ध अवश्य करे इस परम्परा को कभी न तोड़े। भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन की अमावास्या तक पितृपक्ष कहलाता है।  दो अवसरों पर मुख्यतः हर वर्ष श्राद्ध किया जाता है; एक बार - जिस मास की जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई हो तब । दूसरी बार पितृपक्ष पर-जिनकी मृत्यु जिस तिथि को हुई हो इस पितृपक्ष के अंतर्गत