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गणेशचतुर्थी के दिन नक्तव्रत का विधान है। अत: भोजन सायंकाल करना चाहिये तथापि पूजा यथासंभव मध्याह्न में ही करनी चाहिये, क्योंकि-
पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्नव्यापिनी तिथि:।
अर्थात् सभी पूजा-व्रतों में मध्याह्नव्यापिनी तिथि लेनी चाहिये।
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी व्रत विधि
भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि को प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत होकर अपनी शक्ति के अनुसार सोने, चाँदी, कोयले, मिट्टी, पीतल अथवा गोबर से गणेश जी की प्रतिमा बनाये या बनी हुई प्रतिमा का पुराणों में वर्णित श्रीगणेशजी के गजानन, लम्बोदरस्वरूप का स्मरण करे और जल-अक्षत-पुष्प लेकर निम्न संकल्प करे-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: अद्य दक्षिणायने सूर्ये वर्षर्तौ भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे गणेशचतुर्थ्यां तिथौ __(वार का नाम)_ वासरे, __(गोत्र का नाम)_ गोत्रो, _(आपका नाम_ अहं विद्याsरोग्य-पुत्र-धन-प्राप्ति-पूर्वकं सपरिवारस्य-मम सर्वसंकट-निवारणार्थं श्रीगणपति-प्रसादसिद्धये चतुर्थीव्रताङ्गत्वेन श्रीगणपति-देवस्य यथालब्धोपचारै: पूजनं करिष्ये।
हाथ में लिये हुए अक्षत-पुष्प इत्यादि गणेश जी के पास छोड़ दे। अब गणेश जी का ध्यान करे-
गजाननं भूतगणादि-सेवितं कपित्थ-जम्बूफल-चारूभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर-पादपङ्कजम्॥
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर-पादपङ्कजम्॥
अर्थात् जो गजानन हैं, प्राणियों के समूह द्वारा सेवित हैं, कैथ और जामुन के फलों का बड़े सुन्दर प्रकार से भक्षण करने वाले हैं, शोक का विनाश करने वाले हैं और भगवती उमा के पुत्र हैं, उन विघ्नेश्वर गणेशजी के चरणकमलों में मैं नमस्कार करता हूँ।
और गणेश जी को पुष्पार्पण करे।
श्री गणेश जी का पूजन
इसके बाद विघ्नेश्वर की मूर्ति या चित्र का यथाविधि ‘ॐ गं गणपतये नम:’ से पूजन करे। स्त्री शूद्र व जिनका यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो वे ॐ रहित मंत्र प्रयोग करें, यथा- गं गणपतये नम: मंत्र से पूजें। यहाँ श्री गजानन की संक्षिप्त पंचोपचार पूजन-विधि प्रस्तुत है-
ॐ गं गणपतये नम:॥
लं पृथिव्यात्मकं गन्धं श्रीगणपतये समर्पयामि नमः।
(यह कहकर भगवान गणेश को चन्दन का तिलक करे)
ॐ गं गणपतये नम:॥
हं आकाशात्मकं पुष्पं श्रीगणपतये समर्पयामि नमः।
(यह कहकर भगवान को पुष्प अर्पित करे)
ॐ गं गणपतये नम:॥
यं वाय्वात्मकं धूपं श्रीगणपतये आघ्रापयामि नमः।
(यह कहकर धूप जलाकर वातावरण सुगंधित करते हुए धूप द्वारा भगवान की आरती करे)
ॐ गं गणपतये नम:॥
रं वह्न्यात्मकं दीपं श्रीगणपतये दर्शयामि नमः।
(यह कहकर भगवान की दीप से आरती करे)
ॐ गं गणपतये नम:॥
वं अमृतात्मकं नैवेद्यं श्रीगणपतये निवेदयामि नमः।
(यह कहकर भगवान को उत्तम नैवेद्य अर्पित करे। मोदक/लड्डू हों तो उत्तम है।)
ॐ गं गणपतये नम:॥
सं सर्वात्मकं सर्वोपचाराणि श्रीगणपतये समर्पयामि नमः।
(यह कहकर भगवान को पुष्पार्पण करके ॐ गं गणपतये नम: से ही स्नान, वस्त्र, प्रदक्षिणा आदि समस्त उपचार अर्पित करे या मन से ही समर्पित करने की भावना करे)
१- ॐ गणाधिपाय नम:, २- ॐ उमापुत्राय नम:,
३- ॐ विघ्ननाशनाय नमः, ४- ॐ विनायकाय नम:,
५- ॐ ईशपुत्राय नम:, ६- ॐ सर्वसिद्धि-प्रदाय नम:,
७- ॐ एकदन्ताय नम:, ८- ॐ इभवक्त्राय नम:,
९- ॐ मूषकवाहनाय नम:, १०- ॐ कुमारगुरवे नम:।
इसके पश्चात् इन दसों नामों का एक साथ उच्चारण कर गणपति जी को गन्ध-पुष्प-अक्षत के साथ एक दूब और चढ़ाये। इसी प्रकार इक्कीस लड्डू भी गणेशपूजा में आवश्यक होते हैं। इक्कीस लड्डू का भोग रखकर पाँच लड्डू मूर्ति के पास चढ़ाये और पाँच ब्राह्मण को दे दे एवं शेष को प्रसाद रूप में स्वयं ले ले तथा परिवार के लोगों में बाँट दे।
श्री गणपति पूजन की यह विधि चतुर्थी के मध्याह्न में करे। ब्राह्मण भोजन कराकर दक्षिणा दे और स्वयं भोजन करे। पूजन के पश्चात् नीचे लिखे मन्त्र से वह सब सामग्री ब्राह्मण को निवेदन करनी चाहिए-
दानेनानेन देवेश प्रीतो भव गणेश्वर।
सर्वत्र सर्वदा देव निर्विघ्नं कुरु सर्वदा।
मानोन्नतिं च राज्यं च पुत्रपौत्रान् प्रदेहि मे॥
गणेश जी की जयन्ती तिथि रूप इस गणेश चतुर्थी व्रत से मनोवाञ्छित कार्य सिद्ध होते हैं; क्योंकि विघ्नहर गणेश जी के प्रसन्न होने पर क्या दुर्लभ है? गणेशजी का यह पूजन बुद्धि, विद्या तथा ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति एवं विघ्नों के नाश के लिये किया जाता है।
कई व्यक्ति इस अवसर पर श्री गणेशसहस्रनामावली के एक हजार नामों से प्रत्येक नाम के उच्चारण के साथ लड्डू अथवा दूर्वादल आदि श्री गणेश जी को अर्पित करते हैं। इसे गणपतिसहस्रार्चन कहा जाता है। गणेश जी के १०८ नामों से प्रत्येक नाम के साथ एक-एक लड्डू या दूर्वादल अर्पित करके श्री गणपति शतार्चन सम्पन्न हो जाता है।
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रदर्शन निषेध
भाद्रपदमास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी, सिद्धविनायक चतुर्थी के नाम से जानी जाती है। इस चतुर्थी में किया गया दान, स्नान, उपवास और अर्चन गणेशजी की कृपा से सौ गुना हो जाता है, परंतु इस चतुर्थी को चन्द्रदर्शन का निषेध किया गया है
पौराणिक कथा के अनुसार एक दिन कैलाश पर ब्रह्म देव महादेव के दर्शन हेतु गए तो वहां देवर्षि नारद ने प्रकट होकर अतिस्वादिष्ट फल भगवान शंकर को अर्पित किया। तभी कार्तिकेय जी व गणेश जी दोनों महादेव से उस फल की मांग करने लगे। तब ब्रह्म देव ने महादेव को परामर्श देते हुए कहा के फल को छोटे भाई षडानन कार्तिकेय को दे दें। अत: महादेव ने वह फल कार्तिकेय को दे दिया। इससे गजानन ब्रह्म देव पर कुपित होकर उनकी सृष्टि रचना के कार्य में विघ्न ड़ालने लगे।
गणपति के उग्र रूप के कारण ब्रह्म देव भयभीत हो गए। इस दृश्य को देखकर चंद्रदेव हंस पड़े। चंद्रमा की हंसी सुन कर गणेश जी क्रोधित हो उठे तथा उन्होंने चंद्रमा को श्राप दे दिया कि चंद्र देव किसी को देखने के योग्य नहीं रहेंगे तथा किसी द्वारा देखे जाने पर वह व्यक्ति पाप का भागी हो जाएगा। श्रापित चंद्र ने बारह वर्ष तक गणेश जी का तप किया जिससे गणपति जी ने प्रसन्न होकर चंद्र देव के श्राप को मंद कर दिया कि अन्य दिन नहीं पर केवल भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को जो व्यक्ति चंद्रमा को देखता है, वह निश्चय ही अभिशाप का भागी होता है तथा उस पर मिथ्या दोषारोपण लगते हैं।
मान्यता है कि गणेश जी की जिन प्रतिमाओं की सूंड़ दाईं तरफ मुड़ी होती है, वे सिद्ध प्रतिमाएँ होती हैं और उनके मंदिर सिद्धिविनायक मंदिर कहलाते हैं। श्री सिद्ध विनायक या श्री सिद्धि विनायक की महिमा अपरंपार है, वे भक्तों की मनोकामना को तुरंत पूरा करते हैं। मान्यता है कि ऐसे गणपति बहुत ही जल्दी प्रसन्न होते हैं और उतनी ही जल्दी कुपित भी होते हैं।
श्री सिद्धि विनायक जी का चतुर्भुजी विग्रह है। इनके ऊपरी दाएं हाथ में कमल और बाएं हाथ में अंकुश है और नीचे के दाहिने हाथ में मोतियों की माला और बाएं हाथ में मोदक(लड्डुओं) से भरा कटोरा है। सिद्धिविनायक गणपति जी के दोनों ओर उनकी दोनों पत्नियां ऋद्धि जी और सिद्धि जी हैं जो धन, ऐश्वर्य, सफलता और सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने की प्रतीक हैं। मस्तक पर अपने पिता श्री शिव जी के समान उनका एक तीसरा नेत्र भी है और गले में एक सर्प हार की तरह लिपटा हुआ है।
इस संदर्भ में समृद्धि की नगरी मुंबई के प्रभा देवी इलाके का सिद्धिविनायक मंदिर अति सुप्रसिद्ध है। यहाँ गर्भगृह के चबूतरे पर स्वर्ण शिखर वाला चांदी का सुंदर मंडप है, जिसमें सिद्धि विनायक विराजते हैं। गर्भगृह में भक्तों के जाने के लिए तीन दरवाजे हैं, जिन पर दशावतार, अष्टलक्ष्मी और अष्टविनायक की आकृतियां चित्रित हैं। गणेश जी के जन्मदिवस पर उत्सव करना चाहिए। हर साल दस दिवसीय गणपति पूजा महोत्सव या गणेशोत्सव, विशेष रूप से महाराष्ट्र में भाद्रपद की चतुर्थी तिथि से लेकर अनंत चतुर्दशी तक समारोह पूर्वक मनाया जाता है।
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी “पत्थर चौथ” कहा जाता है, इस सिद्धिविनायक चतुर्थी की रात में कभी चंद्रमा की ओर न देखे। जो “पत्थर चौथ” की रात को चन्द्रमा का दर्शन करता है उसे मिथ्या कलंक लगता है, इसमें संशय नहीं है। यह बात मैंने भी अनुभव की है। अत: झूठे कलंक से बचने के लिए इस तिथि को चन्द्रदर्शन न हो, ऐसी सावधानी रखनी चाहिये।
यदि दैववशात् चन्द्रदर्शन हो जाय तो इस दोष-शमन के लिये निम्न पौराणिक मन्त्र का पाठ करना चाहिये-
सिंह: प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तक:॥
अर्थात् ‘सिंह ने प्रसेन को मारा और सिंह को जाम्बवान् ने मार गिराया। सुकुमार बालक! तू रो मत। यह स्यमन्तक अब तेरा ही है।’
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के ५६-५७ वें अध्याय में स्यमन्तक मणि की यह “अपकीर्ति-नाशिनी” कथा विस्तार से मिलती है-
स्यमन्तकमणि का आख्यान
श्री शुकदेव जी राजा परीक्षित को कथा सुनाते हैं कि सत्राजित् भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने उसे स्यमन्तक मणि दी, जो सूर्य के समान ही कान्तिमान् थी। वह स्यमन्तक मणि प्रतिदिन आठ भार सोना देती थी तथा उसके प्रभाव से सम्पूर्ण राष्ट्र में रोग, अनावृष्टि, सर्प, आदि का भय नहीं रहता था।
एक दिन सत्राजित् उस मणि को धारण कर राजा उग्रसेन की सभा में आया, उस समय मणि की कान्ति से वह दूसरे सूर्य के समान दिखायी दे रहा था। एक बार भगवान श्री कृष्ण ने प्रसङ्गवश कहा-“सत्राजित्! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।” श्रीकृष्ण भगवान की इच्छा थी कि यदि यह रत्न राजा उग्रसेन के पास रहता तो सारे राष्ट्र का कल्याण होता। परंतु सत्राजित् इतना अर्थलोलुप-लोभी था कि उसने भगवान की आज्ञा का उल्लङ्घन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उस आज्ञा को मानना अस्वीकार कर दिया। अब सत्राजित् को यह मालूम हो गया था कि भगवान श्री कृष्ण मेरी मणि ले लेना चाहते हैं। जहां स्यमन्तक नाम की वह मणि पूजित होकर रहती थी, वहाँ उस मणि के प्रभाव से महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, अग्निभय, चोरी तथा दुर्भिक्ष आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था।
एक दिन सत्राजित् के भाई प्रसेन ने उस प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलमे वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मारकर उस मणि को मुंह में दबा लिया।
वन मेँ मुँह में मणि दबाये हुए सिंह को ऋक्षराज जाम्बवान् ने देखा तो उस सिंह को मारकर स्वयं मणि ले ली और ले जाकर बच्चे को खेलने के लिये दे दी। अब उस मणि से वह बालक खेला करता था।
इधर प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित् को बड़ा दुख हुआ। वह कहने लगा,“बहुत सम्भव है श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो; क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था।” सत्राजित् की यह बात सुनकर सब लोग आपस में कानाफूसी करने लगे।
द्वारका में उठते हुए लोकापवाद के स्वर श्रीकृष्ण के कानों तक पहुंचे। जब भगवान श्री कृष्ण ने सुना कि यह कलङ्क का टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब उस कलङ्क के टीके को धोने के लिए श्रीकृष्ण राजा उग्रसेन से परामर्श कर कुछ साथियों को लेकर प्रसेन के घोड़े के खुरों के चिह्नों को देखते हुए वन में पहुँचे। जहाँ उन्होंने घोड़े और प्रसेन को मृत पड़ा पाया तथा उनके पास मेँ सिंह के चरणचिह्न देखे। उन चिह्नों का अनुसरण करते हुए आगे जाने पर उन्हें सिंह भी मृत पड़ा मिला। वहाँ से ऋक्षराज जाम्बवान् के पैरों के निशान देखते हुए वे लोग जाम्बवान् की गुफा तक पहुँचे।
श्रीकृष्ण ने कहा कि अब यह तो स्पष्ट हो चुका है कि घोड़े-सहित् प्रसेन सिंह द्वारा मारा गया है, परंतु सिंह से भी बलवान् कोई है, जो इस गुफा में रहता है। मैं स्वयं पर लगे लोकापवाद को मिटाने के लिये इस गुफा में प्रवेश करता हूँ और स्यमन्तकमणि लाने की चेष्टा करता हूँ। यह कहकर भगवान श्रीकृष्ण उस गुफा में घुस गये। वहाँ उनका ऋक्षराज जाम्बवान से इक्कीस दिनों तक घोर संग्राम हुआ। अन्त में शिथिल अङ्गों वाले जाम्बवान ने भगवान को पहचानकर उनकी प्रार्थना करते हुए कहा- "हे प्रभो! आप ही मेरे स्वामी श्रीराम हैं, द्वापर मेँ आपने इस रूप में मुझे दर्शन दिया। आपको कोटि-कोटि प्रणाम है। नाथ! मैं अर्घ्यस्वरूप अपनी इस कन्या जाम्बवती और यह मणि स्यमन्तक आपको देता हूँ, कृपया इसे ग्रहण कर मुझे कृतार्थ करें तथा मेरे अज्ञान को क्षमा करें।"
जाम्बवान से पूजित होकर श्रीकृष्ण स्यमन्तकमणि लेकर जाम्बवती के साथ द्वारका आये। परन्तु वहाँ उनके साथ गये यादवगण बारह दिन बाद ही लौट आये थे। अतः द्वारका में तो ऐसा विश्वास हो गया था कि श्रीकृष्ण गुफा में मारे गये, किंतु श्रीकृष्ण को आया देख सम्पूर्ण द्वारका मेँ प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। श्रीकृष्ण ने सब यादवों से भरी हुई सभा में वह मणि सत्राजित् को दे दी। सत्राजित ने भी प्रायश्चित्त-स्वरूप अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह भगवान श्रीकृष्ण से कर दिया।
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण, बलरामजी के साथ हस्तिनापुर गए तो उनके हस्तिनापुर चले जाने के बाद द्वारका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन्होंने शतधन्वा को स्यमंतक मणि छीनने के लिए उकसाया-“तुम सत्राजित् से मणि क्यों नहीं छीन लेते? सत्राजित् ने सत्यभामा का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हम लोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्ण के साथ ब्याह दिया है। अब सत्राजित् भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी जाय?” शतधन्वा पापी था। अक्रूर और कृतवर्मा के बहकाने पर उसने लोभवश सोए हुए सत्राजित् को मार डाला और मणि लेकर वहाँ से चला गया।
शतधन्वा द्वारा अपने पिता सत्राजित के मारे जाने का समाचार सुनकर सत्यभामा जी शोकातुर होकर विलाप करने लगीं। वे बीच-बीच में बेहोश हो जातीं और होश में आकर फिर विलाप करने लगतीं।
सत्यभामा जी ने प्रतिज्ञा की कि जब तक श्रीकृष्ण शतधन्वा का वध नहीं कर देंगे, उनके पिता का दाह-संस्कार नहीं होगा। फिर उन्होंने हस्तिनापुर जाकर भगवान श्रीकृष्ण को सारा वृत्तान्त सुनाया। श्रीकृष्ण उसी समय सत्यभामा और बलरामजी के साथ हस्तिनापुर से द्वारिका लौट आए।
द्वारिका पहुँचकर उन्होंने शतधन्वा को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। जब शतधन्वा को ज्ञात हुआ कि श्रीकृष्ण ने उसे बंदी बनाने का आदेश दे दिया है तो वह भयभीत होकर कृतवर्मा और अक्रूर के पास गया और उनसे सहायता की प्रार्थना की। किंतु उन्होंने सहायता करने से मना कर दिया। तब उसने स्यमंतक मणि अक्रूर को सौंप दी और अश्व पर सवार होकर द्वारिका से भाग निकला।
परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उस दुष्ट का मस्तक धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार दुष्ट शतधन्वा का वध कर श्रीकृष्ण भगवान ने सत्यभामा की प्रतिज्ञा पूर्ण की और सत्यभामा के पिता सत्राजित का दाह संस्कार किया गया।
शतधन्वा की मृत्यु का समाचार सुनकर कृतवर्मा और अक्रूर भयभीत होकर अपने परिवारों सहित द्वारिका से चले गए। श्रीकृष्ण अक्रूर से बड़ा प्रेम करते थे।
जब उन्हें अक्रूर के द्वारिका से जाने का समाचार मिला तो वे अत्यंत दुःखी हो गए। उन्होंने उसी क्षण सैनिकों को आज्ञा दी कि वे अक्रूरजी को ससम्मान द्वारिका वापस ले आए।
शीघ्र ही अक्रूर को ससम्मान द्वारिका लाया गया। उनका अतिथि-सत्कार करने के बाद श्रीकृष्ण प्रेम भरे स्वर में बोले-“चाचाश्री! मैं पहले से ही जानता था कि शतधन्वा स्यमंतक मणि आपके पास छोड़ गया है, किंतु हमें उसकी आवश्यकता नहीं है। आप बड़े धर्मात्मा और दानी हैं, इसलिए उसे आप अपने ही पास रखें।”
उनकी बात सुनकर अक्रूर की आँखों से आँसू बह निकले। वे अपने अपराध की क्षमा माँगते हुए बोले-“दयानिधान! आप परम दयालु और भक्त-वत्सल हैं। मैं आपकी शरण में हूँ। आप मेरे अपराध को क्षमा करें।”
यह कहकर अक्रूर जी ने मणि उन्हें सौंप दी। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें गले से लगा लिया। भगवान ने उस मणि को बलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवती आदि को दिखाया और अपने ऊपर लगा कलङ्क दूर किया। भगवान श्री कृष्ण ने वह मणि अपने पास रखने में समर्थ होते हुए भी वापस अक्रूर जी को ही लौटा दी।
इस स्यमन्तक मणि का आख्यान जो कोई पढ़ता, सुनता या स्मरण करता है, उसे भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चन्द्रदर्शन के दोष से मुक्ति मिल जाती है और श्रीमद्भागवत के अनुसार वह सब प्रकार की अपकीर्ति व पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है। सिद्धविनायक श्रीगणेशचतुर्थी पर भगवान के श्रीगणेश एवं श्रीकृष्ण स्वरूप को हमारा अनेकों बार प्रणाम।
प्रशंसनीय
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राकेश जी.. जय श्री गणेश
हटाएंएकदम से अछूता पहलू का ज्ञान प्राप्त हुआ,यह तो ज्ञात था कि चौथ का चंद्रदर्शन निषिद्ध है,किंतु प्रतिकार विधी से भिज्ञ नहीं था।
जवाब देंहटाएंकोटिशः साधुवाद
धन्यवाद .. जय श्री कृष्ण.. जय श्री गणेश
हटाएंअक्रूर जी के पास ये मनी आखिर मे थी फिर इसका क्या हूवा
जवाब देंहटाएंउसके बाद मणि का क्या हुआ इस बारे में श्रीमद्भागवत पुराण में स्पष्ट नहीं लिखा गया है...हो सकता है कि स्यमन्तक मणि द्वारका नगरी के समुद्र में डूब जाने के साथ ही समुद्र में चली गयी हो..यह भी सम्भव है कि वह मणि सूर्यदेव के पास वापस चली गई हो क्योंकि सनातन मान्यता के अनुसार इतिहास अपने आप को दोहराता है भविष्य के अनेक कल्पों में अनेक द्वापरयुग आयेंगे जिनमें सत्राजित को सूर्यदेव द्वारा स्यमन्तक मणि दी जायेगी.. जय श्री कृष्ण
हटाएंBahut bahut dhanyabad
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