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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

भक्ति का सही अर्थ समझाने में समर्थ धर्म-प्रचारक व भगवान के मन देवर्षि नारद [श्रीनारद स्तोत्रम्]

मस्कार, आज है भक्त शिरोमणि देवर्षि नारद जी की जयंती। कौन नहीं जानता निरंतर "नारायण नारायण" का जप करते रहने वाले मुनि नारद जी को? नारद जी की नारायण भक्ति तो श्रेष्ठातिश्रेष्ठ है। पिछली पोस्ट में कूर्म जी के विषय में चर्चा की थी आइये आज नारद जी के विषय में चर्चा करते हैं। देवर्षि का पद प्राप्त है नारद जी को। पुराणों में वर्णित अनेक कथाओं में नारद जी का भी वर्णन आता है। नारद पुराण पढ़ा होगा आपने अथवा नहीं पढ़ा हो तो जरूर कभी पढ़कर देखिएगा नारद पुराण में हिन्दी-संस्कृत व्याकरण के विभिन्न पक्षों को रखा गया है। गणित का ज्ञान, ज्योतिष, मंत्र, औषधि, व्रतोत्सव आदि का ज्ञान आपको कूट-कूट कर इसमें भरा हुआ मिलेगा; और मिलेगा भी क्यों नहीं नारद जी कई गूढ़ बातों को जानने वाले प्रकांड विद्वान जो ठहरे।
ब्रह्मा_जी_के_मानस_पुत्र_नारदजी
ब्रह्मा जी के मानस पुत्र नारद जी
नारद जी की जयंती ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा  तिथि को कही गयी है। पूर्व कल्प में नारद जी उपबर्हण नामक सुंदर गंधर्व थे। अपने सुंदर रूप का उन्हें गर्व था। एक बार ब्रह्मा जी के यहाँ सभी गंधर्व, किन्नर आदि भगवान का गुण-कीर्तन करने एकत्र हुए। उस समूह में उपबर्हण , स्त्रियों को लेकर चले गए। जहां भगवान में चित्त लगाकर उन मंगलमय के गुणगान से स्वयं और दूसरों को भी पवित्र करना चाहिए, वहाँ यदि कोई स्त्रियों को लेकर श्रृङ्गार के भाव से जाय व कामियों की भांति चटक-मटक करे, यह बहुत बड़ा अपराध है। ब्रह्मा जी ने उपबर्हण का यह प्रमाद देख उन्हें शूद्रयोनि में जन्म लेने का शाप दे दिया।

     सच ही है महापुरुषों का क्रोध भी जीव का कल्याण करने वाला होता है। ब्रह्मा जी द्वारा उपबर्हण गंधर्व को कृपा पूर्वक दिए गए शाप के फलतः वे संयमी, सदाचारी, वेदवादी ब्राह्मणों की सवा करने वाली शूद्रा दासी के पुत्र हुए। भगवान ब्रहमाजी की कृपा से बचपन से ही उनमें धीरता , गंभीरता , सरलता , समता , शील आदि सद्गुण आ गए। उस दासी का पुत्र के सिवा और कोई नहीं था। वह अपने एकमात्र पुत्र से अत्यधिक स्नेह करती थी। जब बालक 5 वर्ष का था तो कुछ योगी संतों ने एक जगह वर्षा ऋतु में चातुर्मास्य किया। बालक की माता उन साधुओं की सेवा में लगी रहती थी। वहीं बालक भी उनकी सेवा किया करता था। नारद जी ने स्वयं व्यास जी से कहा है,"व्यास जी ! उस समय यद्यपि मैं बहुत छोटा था पर फिर भी चंचलता न थी, मैं जितेंद्रिय था, दूसरे सब खेल छोड़ साधुओं की आज्ञानुसार उनकी सेवा में लगा रहता था। वे संत भी मुझे भोला-भाला शिशु जान मुझ पर बड़ी कृपा करते थे। मैं शूद्र बालक था और उन ब्राह्मण संतों की अनुमति से उनके बर्तनों में लगा हुआ अन्न दिन में एक बार खा लिया करता था। इससे मेरे हृदय का सब कल्मष दूर हुआ। मेरा चित्त शुद्ध हो गया। संत जो परस्पर चर्चा करते थे उसे सुनने में मेरी रुचि हो गयी।"

नारद_जी
देवर्षि नारद जी
  चातुर्मास्य के पश्चात जब ऋषि गण जाने लगे तो उस दासी के बालक की दीनता, नम्रता आदि देखकर उस पर उन्होंने कृपा की व भगवान के स्वरूप का ध्यान तथा नाम के जप का उपदेश किया। साधुओं के चले जाने के कुछ समय पश्चात जब वह शूद्रा दासी अपने स्वामी ब्राह्मणदेवता की गाय दुह रही थी कि बालक की माँ के पैर में सर्प ने काट लिया और उनकी मृत्यु हो गयी पर ज्ञानी संतों द्वारा प्रदत्त ज्ञान के प्रभाव से बालक नारद जी समझ गये कि यह भी भगवान की कृपा ही है। माँ वात्सल्य के कारण उन्हें कहीं जाने न देती थीं। यह वात्सल्य भी एक बंधन ही था, जिसे भक्तवत्सल प्रभु ने दूर कर दिया। 5 वर्ष का बालक - न तो देश का पता न ही काल का। नारद जी दयामय प्रभु के भरोसे ठीक उत्तर की ओर वन-मार्ग से चल पड़े और बढ़ते गए। जब दूर जाकर थक गए तो पास के सरोवर का जल पीकर उसके किनारे लगे पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर, साधुओं ने जैसा बताया था वैसे ही भगवान का ध्यान करने लगे। ध्यान करते समय एक क्षण के लिए सहसा हृदय में भगवान प्रकट हो गए। नारद जी आनंदमग्न हो गए। परंतु यह दिव्य झांकी तो विद्युत की तरह आई और चली भी गयी। अत्यंत व्याकुल हो नारद जी उस दिव्य झांकी को पुनः पाने का प्रयत्न करने लगे। बालक को बहुत व्याकुल देख आकाशवाणी हुई,"इस जन्म में तुम मुझे नहीं देख सकते। जिनका चित्त पूर्णतः निर्मल नहीं है, वे मेरे दर्शन के अधिकारी नहीं। यह एक झांकी मैंने तुम्हें इसलिए दिखलाई कि इसके दर्शन से तुम्हारा चित्त मुझमें लग जाय।" फिर नारद जी ने वहाँ भूमि पर मस्तक रखा और दयामय प्रभु को प्रणाम कर भगवान का गुण गाते हुए पृथ्वी पर घूमने लगे। समय आने पर उनका वह शरीर छूट गया और उस कल्प में फिर उनका जन्म नहीं हुआ। कल्पांत में वे ब्रह्मा जी में प्रविष्ट हो गये और सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा जी के मन से प्रकट हुए।
                     मुनि नारद जी

  भक्त प्रह्लाद जब गर्भ में थे नारद जी ने तभी उनकी माता दैत्यसाम्राज्ञी को उपदेश देने के माध्यम से गर्भस्थ बालक को भी उपदेश दे दिया था और जब ध्रुव सौतेली माता के वचनों से रूठकर वन में तप करने जा रहे थे, तब मार्ग में नारद जी ने ही ध्रुव को मंत्र देकर उपासना की विधि बतलाई। जिसके फलस्वरूप ही ध्रुव और प्रह्लाद विष्णु जी के अनन्य भक्त हुए। इसी तरह ईश्वर की अनेकों लीलाओं में नारद जी ने अपना योगदान देकर 'भगवान के मन' होने की बात प्रमाणित की है।


  देवर्षि के विषय में जितना लिखा जाए कम ही है और स्कन्द पुराण के अनुसार नारद जी के विषय में तो स्वयं भगवान श्री कृष्ण जी एक स्तोत्र के माध्यम से नारदजीके गुणोंकी प्रशंसा करते हैं जिसका पठन-पाठन नारद जयंती या अन्य दिन करना उत्तम है। यह श्रीकृष्ण जी द्वारा राजा उग्रसेन जी को कहा गया स्तोत्र सानुवाद प्रस्तुत है:

श्रीनारद स्तोत्रम्
अहं हि सर्वदा स्तौमि नारदं देव-दर्शनम्।
महेन्द्रगदितेनैव स्तोत्रेण श्रृणु तन्नृप॥  
हे राजन्! मैं देवराज इन्द्र द्वारा किये गये जिस स्तोत्र से दिव्यदृष्टि-सम्पन्न श्रीनारदजी की सदा स्तुति करता हूँ वह स्तोत्र श्रवण कीजिये --

उत्सङ्गाद्ब्रह्मणो जातो यस्याहन्ता न विद्यते। 
अगुप्त-श्रुतिचारित्रं नारदं तं नमाम्यहम्॥  

जो ब्रह्माजी की गोद से प्रकट हुए हैं, जिनके मन में अहङ्कार नहीं है, जिनका शास्त्र - ज्ञान और चरित्र किसी से छिपा नहीं है, उन देवर्षि नारद को मैं नमस्कार करता हूँ ।



अरतिः क्रोधचापल्ये भयं नैतानि यस्य च।
अदीर्घसूत्रं तं धीरं नारदं प्रणमाम्यहम्॥   
जिनमें अरति [उद्वेग], क्रोध, चपलता और भय का सर्वथा अभाव है, जो धीर होते हुए भी दीर्घसूत्री [किसी कार्य में अधिक विलम्ब करने वाले] नहीं हैं, उन नारदजी को  मैं प्रणाम करता हूँ। 

कामाद्वा यदि वा लोभाद् वाचं यो नान्यथा वदेत्। 
उपास्यं सर्वजन्तूनां नारदं तं नमाम्यहम्॥  
जो कामना अथवा लोभवश झूठी बात मुँह से नहीं निकालते और समस्त प्राणी जिनकी उपासना करते हैं, उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ । 

अध्यात्मगति-तत्त्वज्ञं ज्ञानशक्तिं जितेन्द्रियम्।
ऋजुं यथार्थ-वक्तारं नारदं तं नमाम्यहम्॥
जो अध्यात्मगति के तत्त्व को जानने वाले, ज्ञानशक्ति सम्पन्न तथा जितेन्द्रिय हैं, जिनमें सरलता भरी है तथा जो यथार्थ बात कहने वाले हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ । 

तेजसा यशसा बुद्धया नयेन विनयेन च।
जन्मना तपसा वृद्धं नारदं प्रणमाम्यहम्॥
जो तेज, यश, बुद्धि, नय, विनय, जन्म तथा तपस्या सभी दृष्टियों से बढ़े हुए हैं, उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ । 

सुखशीलं सुसंवेषं सुभोजं भास्वरं शुचिम्। 
सुचक्षुषं सुवाक्यं च नारदं प्रणमाम्यहम्॥   
जिनका स्वभाव सुखमय, वेष सुन्दर तथा भोजन उत्तम है, जो प्रकाशमान, पवित्र, शुभदृष्टिसम्पन्न तथा सुन्दर वचन बोलने वाले हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ। 

कल्याणं कुरुते बाढं पापं यस्मिन्न विद्यते। 
न प्रीयते परार्थेन योऽसौ तं नौमि नारदम्॥   
जो उत्साहपूर्वक सबका कल्याण करते हैं, जिनमें पापका लेश भी नहीं है तथा जो परोपकार करने से कभी अघाते नहीं हैं, उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ । 

वेदस्मृति-पुराणोक्तं धर्मं यो नित्यमास्थितः। 
प्रियाप्रिय-विमुक्तं तं नारदं प्रणमाम्यहम्॥   
जो सदा वेद, स्मृति और पुराणों मे बताये हुए धर्म का आश्रय लेते हैं तथा प्रिय और अप्रिय से रहित हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ ।

अशनादिष्वलिप्तं च पण्डितं नालसं द्विजम्। 
बहुश्रुतं चित्रकथं नारदं प्रणमाम्यहम्॥   
जो खान पान आदि भोगों में कभी लिप्त नहीं होते हैं, जो पण्डित, आलस्यरहित तथा बहुश्रुत ब्राह्मण हैं, जिनके मुख से अदभुत बातें - विचित्र कथाएँ सुनने को मिलती हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ ।

नार्थे क्रोधे च कामे च भूतपूर्वोऽस्थ विभ्रमः।
येनैते नाशिता दोषा नारदं तं नमाम्यहम्॥   
जिन्हें अर्थ [धन] के लोभ, काम अथवा क्रोध के कारण भी पहले कभी भ्रम नहीं हुआ है, जिन्होंने इन [काम, क्रोध और लोभ] तीनों दोषों का नाश कर दिया है, उन नारदजी को  मैं प्रणाम करता हूँ।

वीतसम्मोह-दोषो यो दृढभक्तिश्च श्रेयसि। 
सुनयं सन्नपं तं च नारदं प्रणमाम्यहम्॥   

जिनके अन्तःकरण से सम्मोहरुप दोष दूर हो गया है, जो कल्याणमय भगवान् और भागवतधर्म में दृढ भक्ति रखते हैं, जिनकी नीति बहुत उत्तम है तथा जो सङ्कोची स्वभाव के हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ ।



असक्तः सर्वसङ्गेषु यः सक्तात्मेव लक्ष्यते। 
अदीर्घसंशयो वाग्मी नारदं प्रणमाम्यहम्॥   
जो समस्त सङ्गों से अनासक्त हैं, तथापि सबमें आसक्त हुए से दिखायी देते हैं, जिनके मन में किसी संशय के लिये स्थान नहीं है, जो बड़े अच्छे वक्ता हैं, उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ। 

नासूयत्यागमं किञ्चित् तपः कृत्येन जीवति।
अवध्यकालो वश्यात्मा तमहं नौमि नारदम्॥
जो किसी भी शास्त्र में दोषदृष्टि नहीं करते, तपस्याका अनुष्ठान ही जिनका जीवन है, जिनका समय कभी भगवच्चिन्तन के बिना व्यर्थ नहीं जाता और जो अपने मन को सदा वश में रखते हैं, उन श्रीनारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ। 

कृतश्रमं कृतप्रज्ञं न च तृप्तं समाधितः। 
नित्य-यत्नाप्रमत्तं च नारदं तं नमाम्यहम्॥   
जिन्होंने तप के लिये श्रम किया है, जिनकी बुद्धि पवित्र एवं वश में है, जो समाधि से कभी तृप्त नहीं होते, अपने प्रयत्न में सदा सावधान रहने वाले उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ । 

न हृष्यत्यर्थ-लाभेन योऽलाभे न व्यथत्यपि। 
स्थिरबुद्धि-रसक्तात्मा तमहं नौमि नारदम्॥   
जो अर्थलाभ होने से हर्ष नहीं मानते और लाभ न होने पर भी मन में क्लेश का अनुभव नहीं करते, जिनकी बुद्धि स्थिर तथा आत्मा अनासक्त है, उन नारदजी को मैं नमस्कार करता हूँ ।

तं सर्वगुण-सम्पन्नं दक्षं शुचिमकातरम्।
कालज्ञं च नयज्ञं च शरणं यामि नारदम्॥   
जो सर्वगुणसम्पन्न, दक्ष, पवित्र, कातरतारहित, कालज्ञ और नीतिज्ञ हैं, उन देवर्षि नारद को मैं भजता हूँ ।

इमं स्तवं नारदस्य नित्यं राजन् जपाम्यहम्। 
तेन मे परमां प्रीतिं करोति मुनिसत्तमः॥   
नारदजी के इस स्तोत्र का मैं नित्य जप करता हूँ । इससे वे मुनिश्रेष्ठ मुझ पर अधिक प्रेम रखते हैं । 

अन्योऽपि यः शुचिर्भूत्वा नित्यमेतां स्तुतिं जपेत्। 
अचिरात्तस्य देवर्षिः प्रसादं कुरुते परम्॥   
दूसरा कोई भी यदि पवित्र होकर प्रतिदिन इस स्तुति का पाठ करता है तो देवर्षि नारद बहुत शीघ्र उस पर अपना अतिशय कृपा प्रसाद प्रकट करते हैं । 

एतान् गुणान्नारदस्य त्वमप्याकर्ण्य पार्थिव। 
प नित्यं स्तवं पुण्यं प्रीतस्ते भविता मुनिः॥  
 राजन् ! आप भी नारदजी के इन गुणों को सुनकर प्रतिदिन इस पवित्र स्तोत्र का जप करें, इससे वे मुनि आप पर बहुत प्रसन्न होंगे । [स्कन्दपुराण - माहे० कुमारिका० ५४।७-४६ ]
                                     देवर्षि नारद

इस प्रकार देवर्षि नारदजी का स्तवन करके भगवान् कई रहस्यों को खोलते हैं:
  • १. भक्तों में कैसे आदर्श गुण होने चाहिये ?
  • २. भक्तों के गुणों का स्मरण करने से मनुष्य उनका प्रीतिभाजन होता है और उसमें भी वे गुण आते हैं ।
  • ३. भक्त के गुण स्मरण से अन्तःकरण पवित्र होता है ।
  • ४ . अनन्य भक्त की तो इतनी महिमा है कि स्वयं भगवान् भी उसकी स्तुति-भक्ति करते हैं और
  • ५ . भक्त की स्मृति तथा गुणचर्चा से जगत का मङ्गल होता है, क्योंकि भक्तों के गुणों को धारण करने से ही जगत के अमङ्गलों का नाश तथा मङ्गलों की प्राप्ति होती है । गुणों का धारण-स्मरण, कथा-चर्चा के बिना तो होता नहीं। भक्ति का सही अर्थ समझा सकने में समर्थ परमपुण्य भक्त शिरोमणि देवर्षि नारद के चरणों में हमारा अनेकों बार प्रणाम् ।


टिप्पणियाँ

  1. नमस्कार मित्रों अब आप इस आलेख को पी डी एफ के रूप में यहाँ
    http://www.scribd.com/doc/162427562/देवर्षि-नारद
    पर जाकर भी डाउन्लोड कर सकते हैं।

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