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गवान हयग्रीव अथवा हयशीर्ष भगवान विष्णु जी के ही अवतार हैं... इनका सिर घोड़े का है। पुराणों में भगवान के इस स्वरूप से संबन्धित कथाएँ मिलती हैं। कल्प भेद हरि चरित सुहाए - तुलसीदास जी के अनुसार हर कल्प में भगवान भिन्न-भिन्न प्रकार से सुहावनी लीला रचते हैं। सृष्टि के आदिकाल में क्षीरोदधि में अनन्त-शायी प्रभु नारायण की नाभि से पद्म प्रकट हुआ। पद्म-की कर्णिका से सिन्दूरारुण चतुर्मुख लोकस्रष्टा ब्रह्माजी व्यक्त हुए। क्षीरोदधि से दो बिन्दु निकलकर कमल पऱ पहुँच गये।
श्री हरि विष्णुजी का चेतनात्मक नाभिपद्म होने से वे दोनों बिन्दु सजीव हो गये । वे ही आदिदैत्य मधु-कैटभ थे । उन्होने कमल कर्णिका पर ब्रह्माजी को देखा । वे एकाग्र मनसे भगवान् विष्णु के नि:श्वास से निकली श्रुतियों को ग्रहण कर रहे थे। दैत्यों ने श्रुति का हरण किया और वहाँ से नीचे भाग गये। आदि में ही अनधिकारियों-को श्रुति की प्राप्ति होने से ब्रह्माजी चञ्चल हुए ।उन्होंने भगवान की स्तुति प्रारम्भ की प्रभु प्रसन्न हुए, उन्होंने हयग्रीव या हयशीर्ष रूप धारण किया । दैत्यों को मारकर उन्होंने श्रुति का उद्धार किया। भगवान हयग्रीव का अवतार श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को हुआ था अतः इस तिथि पर श्री हयग्रीव जयन्ती का महोत्सव मनाना चाहिए। स्कन्द पुराण के अनुसार -
"हयग्रीव-जयन्त्यास्तु अतोsत्रैव महोत्सवः।
उपासनाव्रतां तस्य नित्यस्तु परिकीर्तितः॥"
अर्थात् भगवान हयग्रीव की उपासना करने वालों को नित्य ही उत्सव करना चाहिए।
भगवान श्री हरि ने श्रावण पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र में प्रकट होकर सर्वप्रथम सभी पापों का नाश करने वाले सामवेद का गान किया। भगवान हयग्रीव ने सिंधू तथा वितस्ता नदियों के संगम स्थान में श्रवण नक्षत्र में जन्म लिया था। अतः श्रावणी के दिन इस जगह पर स्नान करना सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला होता है।
श्री हरि विष्णुजी का चेतनात्मक नाभिपद्म होने से वे दोनों बिन्दु सजीव हो गये । वे ही आदिदैत्य मधु-कैटभ थे । उन्होने कमल कर्णिका पर ब्रह्माजी को देखा । वे एकाग्र मनसे भगवान् विष्णु के नि:श्वास से निकली श्रुतियों को ग्रहण कर रहे थे। दैत्यों ने श्रुति का हरण किया और वहाँ से नीचे भाग गये। आदि में ही अनधिकारियों-को श्रुति की प्राप्ति होने से ब्रह्माजी चञ्चल हुए ।उन्होंने भगवान की स्तुति प्रारम्भ की प्रभु प्रसन्न हुए, उन्होंने हयग्रीव या हयशीर्ष रूप धारण किया । दैत्यों को मारकर उन्होंने श्रुति का उद्धार किया। भगवान हयग्रीव का अवतार श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को हुआ था अतः इस तिथि पर श्री हयग्रीव जयन्ती का महोत्सव मनाना चाहिए। स्कन्द पुराण के अनुसार -
"हयग्रीव-जयन्त्यास्तु अतोsत्रैव महोत्सवः।
उपासनाव्रतां तस्य नित्यस्तु परिकीर्तितः॥"
अर्थात् भगवान हयग्रीव की उपासना करने वालों को नित्य ही उत्सव करना चाहिए।
भगवान श्री हरि ने श्रावण पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र में प्रकट होकर सर्वप्रथम सभी पापों का नाश करने वाले सामवेद का गान किया। भगवान हयग्रीव ने सिंधू तथा वितस्ता नदियों के संगम स्थान में श्रवण नक्षत्र में जन्म लिया था। अतः श्रावणी के दिन इस जगह पर स्नान करना सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला होता है।
भगवान हयग्रीव के प्रीत्यर्थ श्रावण मास की पूर्णिमा अर्थात् श्रावणी के दिन स्नान आदि के पश्चात शार्ङ्ग धनुष, चक्र, गदा धारण करने वाले विष्णु भगवान की विधिवत पूजा करे।
इसके बाद जो स्वर ज्ञान पूर्वक वेद पढ़ने वाला यज्ञोपवीत वान द्विज हो वह सामवेद के मंत्र पाठ करे या श्रवण करे। अन्य लोग पूजा करके स्तोत्र पाठ करें।
यदि सिंधू तथा वितस्ता नदियों के संगम स्थान पर जाने का सौभाग्य मिले तो वहाँ ब्राह्मणों की पूजा करे और प्रसन्न होकर बंधु बांधव के साथ जल में क्रीड़ा(जल में हाथ चलाकर पानी से खेलना) करे तथा इसके बाद भोजन करे। स्त्रियाँ उत्तम पति प्राप्त करने की कामना से क्रीड़ा करे ऐसा स्कन्द पुराण का कथन है।
तीर्थ न जा सके तो भी भगवान हयग्रीव के इस पावन जयन्ती महोत्सव को घर पर मनाना चाहिए।
भगवान हयग्रीव नारायण का पूजन
पूजास्थल पर बैठकर आचमन, पवित्रीकरण करके तीन प्राणायाम करेI भगवान हयग्रीव जी का चित्र अथवा श्रीविष्णु जी की मूर्ति सामने रखे। फिर भगवान हयग्रीव नारायण का पूजन करना चाहिए।
सर्वप्रथम हाथ में फूल लेकर ध्यान करे-
हस्तैर्दधानम् मालां च पुस्तकं वर पंकजम्।
कर्पूराभम् सौम्य-रूपम् नाना भूषणभूषितम्॥ श्री हयग्रीव नारायणाय नमः ध्यानार्थे पुष्पं समर्पयामि।
हस्तैर्दधानम् मालां च पुस्तकं वर पंकजम्।
कर्पूराभम् सौम्य-रूपम् नाना भूषणभूषितम्॥ श्री हयग्रीव नारायणाय नमः ध्यानार्थे पुष्पं समर्पयामि।
(हाथों में माला पुस्तक वरमुद्रा कमल धारण करने वाले, कपूर सी श्वेत आभा वाले, सौम्य रूप, विविध आभूषणों से अलंकृत श्री हयग्रीव भगवान को नमस्कार है।)
१. चंदन- श्री लक्ष्मी सहिताय श्री हयग्रीव नारायणाय नमः लं पृथिव्यात्मकम् गंधम् समर्पयामि।
* सफेद तिल चढ़ावें -श्री लक्ष्मी सहिताय श्री हयग्रीव नारायणाय नमः अक्षतान् समर्पयामि।
२. पुष्प- श्री लक्ष्मी सहिताय श्रीहयग्रीव नारायणाय नमः हं आकाशात्मकम् पुष्पम् समर्पयामि।
* तुलसी - श्री लक्ष्मी सहिताय श्री हयग्रीव नारायणाय नमः तुलसीं समर्पयामि - तुलसी पत्र सहित तुलसीदल चढ़ावें। तुलसी पत्रों की माला भी चढ़ा सकते हैं।
३. धूप - श्री लक्ष्मी सहिताय श्री हयग्रीव नारायणाय नमः यं वायवात्मकम् धूपम् आघ्रापयामि।
४. दीप- श्री लक्ष्मी सहिताय श्री हयग्रीव नारायणाय नमः रं वह्न्यात्मकम् दीपम् दर्शयामि।
५. नैवेद्य- श्री लक्ष्मी सहिताय श्री हयग्रीव नारायणाय नमः वं अमृतात्मकम् नैवेद्यम् निवेदयामि।
* सफेद तिल व पुष्प चढ़ायें- श्री लक्ष्मी सहिताय श्रीहयग्रीव नारायणाय नमः सौं सर्वात्मकम् सर्वोपचाराणि मनसा परिकल्प्य समर्पयामि।
पूजन के पश्चात यथाशक्ति(एक माला या ग्यारह माला) हयग्रीव मंत्र का जप भी करे।
स्कंद पुराण के अनुसार भगवान हयग्रीव का मंत्र इस प्रकार है:
"॥ॐ नमो भगवते आत्मविशोधनाय नमः॥"
यह मंत्र सर्व सिद्धि प्रदायक है। इसमें ॐ होने से नित्य संध्या करने वाले यज्ञोपवीत धारी द्विजों को ही इसे जपना चाहिये। सिद्धि के लिए इसका पुरश्चरण करे। इसका पुरश्चरण करने के लिये जप संख्या अठारह लाख या अठारह हजार है। कलियुग में तो इससे भी चौगुना जपना चाहिए अर्थात् बहत्तर लाख या बहत्तर हजार बार जप। इस जप का दशांश हवन करे, हवन संख्या का दशांश तर्पण, तर्पण संख्या का दशांश मार्जन, मार्जन संख्या का दशांश ब्राह्मण भोजन करे।
"॥ॐ नमो भगवते आत्मविशोधनाय नमः॥"
यह मंत्र सर्व सिद्धि प्रदायक है। इसमें ॐ होने से नित्य संध्या करने वाले यज्ञोपवीत धारी द्विजों को ही इसे जपना चाहिये। सिद्धि के लिए इसका पुरश्चरण करे। इसका पुरश्चरण करने के लिये जप संख्या अठारह लाख या अठारह हजार है। कलियुग में तो इससे भी चौगुना जपना चाहिए अर्थात् बहत्तर लाख या बहत्तर हजार बार जप। इस जप का दशांश हवन करे, हवन संख्या का दशांश तर्पण, तर्पण संख्या का दशांश मार्जन, मार्जन संख्या का दशांश ब्राह्मण भोजन करे।
श्री हयग्रीव गायत्री - जिन द्विजों का यज्ञोपवीत संस्कार हो गया केवल वे ही गायत्री मंत्र के पश्चात इस हयग्रीव गायत्री मंत्र का जप करें-
॥वागीश्वराय विद्महे हयग्रीवाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात्॥
अन्य मंत्र: निम्न मंत्रों का जप सभी कर सकते हैं-
॥ऐं ह्सूं हय शिरसे नमः ऐं॥
॥क्लीं ह्सूं हय शिरसे नमः क्लीं॥
विशेष फल व सिद्धि हेतु तो दीक्षा लेकर ही मंत्र का जप करना चाहिये।
विशेष फल व सिद्धि हेतु तो दीक्षा लेकर ही मंत्र का जप करना चाहिये।
श्लोकात्मक मंत्र- ये दो श्लोक ध्यान भी हैं तथा मंत्र भी, इनका सभी जप कर सकते हैं -
॥ ज्ञानानन्दमयं देवं निर्मलं स्फटिकाकृतिम्।
आधारं सर्वविद्यानां हयग्रीवमुपास्महे ॥
(ज्ञान मय, आनंद मय देव जो स्वच्छ स्फटिक सदृश हैं सभी विद्याओं के आधार श्री हयग्रीव नारायण भगवान की मैं उपासना करता हूं।)
॥ऋग्यजुःसाम - रूपाय वेदाहरणकर्मणे।
प्रणवोद्गीथ-वचसे महाश्वशिरसे नमः॥
(ऋग्वेद, यजुर्वेद व साम वेदमयरूप वाले, वेदों को असुरों से छुड़ाकर सुरक्षित निकाल लाने का कर्म करने वाले, प्रणव मय व उद्गीथ मय वचन वाले, महान् अश्व के मुख वाले भगवान हयग्रीव जी को नमस्कार है)
नाम मंत्र- ॥ हयग्रीव ॥
नाम मंत्र का जप सभी कर सकते हैं। इस नाम मंत्र का माहात्म्य निम्न स्तोत्र में है-
श्रीहयग्रीवसम्पदास्तोत्रम्
हयग्रीव हयग्रीव हयग्रीवेति वादिनम् ।
नरं मुंचन्ति पापानि दरिद्रमिव योषितः॥१॥
हयग्रीव ! हयग्रीव ! हयग्रीव ! ऐसा बोलने वाले मनुष्य दरिद्रता व पापों से मुक्त होते हैं।
हयग्रीव हयग्रीव हयग्रीवेति यो वदेत्।
तस्य निस्सरते वाणी जह्नुकन्या प्रवाहवत्॥२॥
हयग्रीव ! हयग्रीव ! हयग्रीव ! ऐसा जो बोलता है उसकी वाणी गंगा प्रवाह के समान निकलती है।
हयग्रीव हयग्रीव हयग्रीवेति यो ध्वनिः।
विशोभते स वैकुण्ठ कवाटोद्घाटनक्षमः॥३॥
हयग्रीव ! हयग्रीव ! हयग्रीव ! ऐसी ध्वनि उत्पन्न करने वाला वैकुण्ठ(मोक्ष) के द्वार खोलने में सक्षम होकर वैकुण्ठ में सुशोभित होता है।
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं हयग्रीवपदांकितम्
वादिराजयतिप्रोक्तं पठतां सम्पदां प्रदम्॥४॥
वादिराज यति द्वारा कहे ये तीन पवित्र श्लोक पढ़ने वाले को सम्पदा देते हैं।
॥श्री हयग्रीव-सम्पदास्तोत्रं शुभमस्तु॥
श्रीहयग्रीव अष्टोत्तर - शतनाम - स्तोत्रम्
विनियोग - अस्य श्री हयग्रीवाष्टोत्तरशत नाम स्तोत्र मन्त्रस्य सङ्कर्षण ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीहयग्रीवो महाविष्णुः देवता, ऋं बीजं, नमः शक्तिः विद्यार्थे जपे विनियोगः॥
ध्यानम् -
वन्दे पूरित-चन्द्र-मण्डल-गतं श्वेतारविन्दासनं
मन्दाकिन्यमृताब्धि - कुन्दकुमुद - क्षीरेन्दुहासं हरिम्।
मुद्रा-पुस्तक - शङ्खचक्र - विलसच्छ्रीमद्भुजा-मण्डितम्
नित्यं निर्मल-भारती - परिमलं विश्वेशमश्वाननम्॥
(पूर्ण चंद्र मंडल में श्वेत कमल के आसन पर विराजमान, मन्दाकिनी के अमृत समुद्र में उत्पन्न कमल, कुमुद व दुग्धश्वेत चंद्र सदृश हास्य वाले हरि की मैं वन्दना करता हूँ जो ज्ञानमुद्रा, पुस्तक, शंख - चक्र से सुशोभित भुजाओं वाले, नित्य, निर्मल विद्या से सुवासित, संसार के ईश्वर, अश्व के मुख वाले हैं।)
ऋग्यजुःसाम - रूपाय वेदाहरणकर्मणे।
प्रणवोद्गीथ-वचसे महाश्वशिरसे नमः॥
(ऋग्वेद, यजुर्वेद व साम वेदमयरूप वाले, वेदों को असुरों से छुड़ाकर सुरक्षित निकाल लाने का कर्म करने वाले, प्रणव मय व उद्गीथ मय वचन वाले, महान् अश्व के मुख वाले भगवान हयग्रीव जी को नमस्कार है)
श्री लक्ष्मी सहिताय श्री हयग्रीवनारायणाय नमः।
श्री हयग्रीवाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम्
ज्ञानानन्दमयं देवं निर्मलं स्फटिकाकृतिम्।
आधारं सर्वविद्यानां हयग्रीवमुपास्महे॥१॥
(ज्ञान मय, आनंद मय देव जो स्वच्छ स्फटिक सदृश हैं सभी विद्याओं के आधार श्री हयग्रीव नारायण भगवान की मैं उपासना करता हूं।)
हयग्रीवो महाविष्णुः केशवो मधुसूदनः।
गोविन्दः पुण्डरीकाक्षो विष्णुर्विश्वम्भरो हरिः॥२॥
आदीशः सर्ववागीशः सर्वाधारः सनातनः।
निराधारो निराकारो निरीशो निरुपद्रवः॥३॥
निरञ्जनो निष्कलङ्को नित्यतृप्तो निरामयः।
चिदानन्दमयः साक्षी शरण्यः सर्वदायकः॥४॥
शुभदायकः श्रीमान् लोकत्रयाधीशः शिवः सारस्वतप्रदः।
वेदोद्धर्त्तावेदनिधिर्वेदवेद्यः पुरातनः॥५॥
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिः परात्परः।
परमात्मा परञ्ज्योतिः परेशः पारगः परः॥६॥
सकलोपनिषद्वेद्यो निष्कलः सर्वशास्त्रकृत्।
अक्षमाला-ज्ञानमुद्रा-युक्तहस्तो वरप्रदः॥७॥
पुराणपुरुषः श्रेष्ठः शरण्यः परमेश्वरः।
शान्तो दान्तो जितक्रोधो जितामित्रो जगन्मयः॥८॥
जरामृत्युहरो जीवो जयदो जाड्यनाशनः।
गरुडासनः जपप्रियो जपस्तुत्यो
जपकृत् प्रियकृद्विभुः॥९॥
जयश्रियोर्जितस्तुल्यो जापकप्रियकृद्विभुः
विमलो विश्वरूपश्च विश्वगोप्ता विधिस्तुतः।
विराट् स्वराट् विधिर्विष्णु: शिवस्तुत्यः
शान्तिदः क्षान्तिकारकः॥१०॥
श्रेयःप्रदः श्रुतिमयः श्रेयसां पतिरीश्वरः।
अच्युतोऽनन्तरूपश्च प्राणदः पृथिवीपतिः॥११॥
अव्यक्तो व्यक्तरूपश्च सर्वसाक्षी तमोहरः।
अज्ञाननाशको ज्ञानी पूर्णचन्द्रसमप्रभः॥१२॥
ज्ञानदो वाक्पतिर्योगी योगीशः सर्वकामदः।
योगारूढो महापुण्यः पुण्यकीर्तिरमित्रहा॥१३॥
विश्वसाक्षी चिदाकारः परमानन्दकारकः।
महायोगी महामौनी मुनीशः श्रेयसां निधिः॥१४॥
हंसः परमहंसश्च विश्वगोप्ता विरट् स्वराट्।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः जटामण्डलसंयुतः॥१५॥
आदि - मध्यान्तरहितः सर्ववागीश्वरेश्वरः।
प्रणवोद्गीथरूपश्च वेदाहरणकर्मकृत्॥१६॥
नाम्नामष्टोत्तरशतं हयग्रीवस्य यः पठेत्।
स सर्ववेद - वेदाङ्ग - शास्त्राणां पारगः कविः॥१७॥
(श्री हयग्रीव विष्णु जी के एक सौ आठ नाम जो पढ़ता है वह सभी वेद वेदांग शास्त्रों का पारंगत कवि हो जाता है।)
इदमष्टोत्तरशतं नित्यं मूढोऽपि यः पठेत्।
वाचस्पतिसमो बुद्ध्या सर्वविद्याविशारदः॥१८॥
(जो मूर्ख भी यह अष्टोत्तरशत नाम स्तोत्र प्रतिदिन पढ़ता है, वाचस्पति समान बुद्धि वाला, सभी विद्याओं का विशारद हो जाता है।)
महदैश्वर्यमाप्नोति कलत्राणि च पुत्रकान्।
नश्यन्ति सकलान् रोगान् अन्ते हरिपुरं व्रजेत्॥१९॥
(वह महान ऐश्वर्य और पुत्र पौत्र प्राप्त करता है, सभी रोग नष्ट होते हैं, देह का अन्त होने पर हरि के लोक को जाता है।)
॥श्री ब्रह्माण्डपुराणोक्तं श्री हयग्रीवाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रं शुभमस्तु॥
इस प्रकार पूजन करने व मंत्र जपने या स्तोत्र पाठ करने से भगवान हयग्रीव प्रसन्न होकर पाप नष्ट करके, निर्मल बुद्धि तथा मनो वांछित फल प्रदान करते हैं।
भगवान हयग्रीव को हमारे अनेकों प्रणाम.... हे श्री हयग्रीव अवतार धारी श्रीहरि विष्णु आप हम सबका मंगल करें !🙏
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