नोट - यहाँ प्रकाशित साधनाओं, स्तोत्रात्मक उपासनाओं को नियमित रूप से करने से यदि किसी सज्जन को कोई विशेष लाभ हुआ हो तो कृपया हमें सूचित करने का कष्ट करें।

⭐विशेष⭐


10 मई - श्री परशुराम अवतार जयन्ती
10 मई - अक्षय तृतीया,
⭐10 मई -श्री मातंगी महाविद्या जयन्ती
12 मई - श्री रामानुज जयन्ती , श्री सूरदास जयन्ती, श्री आदि शंकराचार्य जयन्ती
15 मई - श्री बगलामुखी महाविद्या जयन्ती
16 मई - भगवती सीता जी की जयन्ती | श्री जानकी नवमी | श्री सीता नवमी
21 मई-श्री नृसिंह अवतार जयन्ती, श्री नृसिंहचतुर्दशी व्रत,
श्री छिन्नमस्ता महाविद्या जयन्ती, श्री शरभ अवतार जयंती। भगवत्प्रेरणा से यह blog 2013 में इसी दिन वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को बना था।
23 मई - श्री कूर्म अवतार जयन्ती
24 मई -देवर्षि नारद जी की जयन्ती

आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, वैशाख मास, कृष्ण पक्ष।
यहाँ आप सनातन धर्म से संबंधित किस विषय की जानकारी पढ़ना चाहेंगे? ourhindudharm@gmail.com पर ईमेल भेजकर हमें बतला सकते हैं अथवा यहाँ टिप्पणी करें हम उत्तर देंगे
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श्री लक्ष्मी प्रीतिकर दैनिक पठनीय स्तोत्र

दे
वी लक्ष्मी धन के साथ साथ समस्त ऐश्वर्य, सकल सुखदायिनी  तथा भोग-मोक्ष सहज ही देने वाली हैं। हरिप्रिया महालक्ष्मीजी की कृपा प्राप्त करने हेतु कुछ स्तोत्र प्रस्तुत हैं। इनमें से किसी कुछ स्तोत्रों को या सभी को प्रतिदिन पढ़ें या फिर हर शुक्रवार को। अमावास्या, पूर्णिमा, दीपावली, कोजागरी पूर्णिमा या धनतेरस पर पाठ करें। इनका नियमित रूप से पाठ करने से धन आगमन के योग बनने लगते हैं-
१. श्री लक्ष्मी नामावली स्तोत्र,२. श्री लक्ष्मी अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र, ३.श्रीसूक्त, ४.लक्ष्मीसूक्त व पुरुष सूक्त, ५.कनकधारा स्तोत्र, ६.इन्द्रकृत सम्पदा लक्ष्मी स्तोत्र।
इसके बाद हमने कुबेर जी के 108 नाम भी दिये हैं।


महालक्ष्मी जी का ध्यान –

अक्षस्रक्‌परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥
अर्थात् मैं कमल के आसन पर बैठी हुई प्रसन्न मुख वाली महिषासुरमर्दिनी भगवती महालक्ष्मी का भजन करता हूँ, जो अपने हाथों में अक्षमाला, फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढ़ाल, शंख, घंटा, मधुपात्र, शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं ।(दुर्गा सप्तशती से)



महालक्ष्मी जी की मानस पूजा - 
 लं पृथिवी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्री हरि नारायण सहिता श्री महालक्ष्मी पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (कनिष्ठिका अंगुली से अंगूठे को मिलाकर अधोमुख(नीची) करके भगवान को दिखाए, यह गन्ध मुद्रा है)

• हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री हरि नारायण सहिता श्री महालक्ष्मी कमला महाविद्या पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (अधोमुख तर्जनी व अंगूठा मिलाकर बनी पुष्प मुद्रा दिखाए)

• यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री हरि नारायण सहिता श्री महालक्ष्मी कमला महाविद्या पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(ऊर्ध्वमुख(ऊपर को) तर्जनी व अंगूठे को मिलाकर दिखाए)

• रं वह्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्री हरि नारायण सहिता श्री महालक्ष्मी कमला महाविद्या पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(ऊर्ध्व मुख मध्यमा व अंगूठे को दिखाए)

• वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीहरि नारायण सहिता श्री महालक्ष्मी कमला महाविद्या पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(ऊर्ध्व मुख अनामिका व अंगूठे को दिखाए)

• सौं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलादि सर्वोपचाराणि मनसा परिकल्प्य श्री हरि नारायण सहिता श्री महालक्ष्मी कमला परदेवता श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(सभी अंगुलियों को मिलाकर ऊर्ध्वमुखी करते हुए दिखाये)
उपरोक्त मुद्राओं को समझने के लिये यहाँ क्लिक करें।

महागणपति पूजन- पुष्प या अक्षत अर्पित करे-
• ऐं आत्म तत्व व्यापकाय महा-गणपतये श्री पादुकां पूजयामि नमः।
• ह्रीं विद्या तत्व व्यापकाय महा-गणपतये श्री पादुकां पूजयामि नमः।
• क्लीं शिव तत्व व्यापकाय महा-गणपतये श्री पादुकां पूजयामि नमः।



श्री हरि विष्णु पूजा - ध्यान करके फूल विष्णु जी को चढा दें -

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं।

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यान-गम्यं।

वन्दे विष्णुं भव—भय—हरं सर्व-लोकैकनाथम्॥

(जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले बादल के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।)

 श्री हरि नारायणाय नमः श्री विष्णु पादुकां पूजयामि नमः।

  श्रीलक्ष्मीनामावली स्तोत्रम् 

ब्राह्मी नारायणी श्री
श्चाक्षरी मुक्तानिका रमा। 
ब्रह्मप्रिया च कमला 
हरिप्रिया च माणिकी॥१॥

राधा लक्ष्मीः पराविद्या 
रमा श्रीश्च नारायणी।
विद्या सरस्वती माता 
वैष्णवी पद्मिनी सती॥२॥

पद्मा च पद्मजा चाब्धिपुत्री
 रम्भा च राधिका।
भूर्लीला सुखदा—लक्ष्मी
र्हरिणी माधवीश्वरी॥३॥

गौरी कार्ष्णी कृष्णनारायणी 
स्वाहा स्वधा रतिः।
सम्पत् समृद्धिर्वासुदेवी 
विरजा च हिरण्मयी।
भार्गवी शिवराज्ञी 
श्रीरामा श्रीकान्तवल्लभा॥४॥

फलश्रुति
ऐतानि लक्ष्मीनामानि सदा प्रातः पठेद्धियः।
स समृद्धिं महतीं लक्ष्मीं श्रियमाप्नोत्यनाशिनीम्॥
(पुत्रपौत्रादि युक्तोपि भवति)
(इन लक्ष्मीजी के नामों को जो हृदय से सदा प्रातः पढ़ता है वह समृद्धि, बहुत सा धन और नष्ट न होने वाली श्री को प्राप्त करता है। पुत्र पौत्रादि से युक्त भी हो जाता है।)
॥श्रीलक्ष्मीनारायण संहितोक्तं श्रीलक्ष्मी नामावलीस्तोत्रम् शुभमस्तु॥


श्रीलक्ष्मी अष्टोत्तरशत नाम स्तोत्रम् 

देव्युवाच -
देवदेव महादेव त्रिकालज्ञ महेश्वर!
करुणाकर देवेश भक्तानुग्रह-कारक।
अष्टोत्तरशतं लक्ष्म्याः श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥१॥

(देवी ने कहा - हे देवाधिदेव महादेव ! हे त्रिकाल ज्ञाता महेश्वर! हे करुणाकर! हे भक्तों पर कृपा करने वाले दयालु देवेश्वर! आपसे लक्ष्मी जी के 108 नाम यथार्थ रूप में सुनना चाहती हूँ।)
ईश्वर उवाच -
देवि साधु महाभागे महाभाग्य-प्रदायकम्।
सर्वैश्वर्यकरं पुण्यं -सर्वपाप-प्रणाशनम्॥२॥
(हे महा भाग्यवती साध्वी देवी! यह स्तोत्र महान भाग्य प्रदान करने वाला, सभी ऐश्वर्यों को देने वाला, पवित्र, सभी पापों को दूर करने वाला है।)
सर्वदारिद्र्य-शमनं श्रवणाद्भुक्ति-मुक्तिदम्।
राजवश्यकरं दिव्यं गुह्याद्गुह्यतमं परम्॥३॥
[यह स्तोत्र समस्त दरिद्रता का शमन करने वाला, सुनने मात्र से ही भोग-मोक्ष देने वाला, राजा(आज के समय में सरकारी व्यक्ति) को वश में करने वाला, दिव्य, गुप्त से भी गुप्त, श्रेष्ठ है।]
दुर्लभं सर्वदेवानां चतुःषष्टिकला–स्पदम्।
पद्मादीनां वरान्तानां विधीनां नित्यदायकम्॥४॥
(यह स्तोत्र सभी देवों के लिये दुर्लभ है, ६४ कलाओं को प्रकाशित करने वाला है। पद्म आदि से लेकर वर पर्यंत विधियों को नित्य देने वाला है।)
समस्तदेव - संसेव्य - मणिमाद्यष्ट -सिद्धिदम्!
किमत्र बहुनोक्तेन देवी प्रत्यक्षदायकम्।
तव प्रीत्याद्य वक्ष्यामि समाहितमनाः श‍ृणु।॥५॥
(यह समस्त देवों द्वारा सेवित, अणिमादि आठ सिद्धियों को देने वाला है। यहाँ और अधिक क्या कहें यह तो देवी लक्ष्मी के प्रत्यक्ष दर्शन करवाने वाला है। तुम्हारी प्रसन्नता के लिये आज वह स्तोत्र कहता हूं, एकाग्र मन से सुनो!)

विनियोगःहाथ में जल लेकर कहे- ॐ अस्य श्री महालक्ष्मी अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रस्य शिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्री महालक्ष्मी देवता, क्लीं बीजं, ह्रीं शक्तिः श्री महालक्ष्मी भगवती  प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।

ध्यानम् -
वन्दे पद्मकरां प्रसन्नवदनां सौभाग्यदां भाग्यदां
हस्ताभ्या-मभयप्रदां मणिगणै-र्नानाविधै-र्भूषिताम्।
भक्ताभीष्ट-फलप्रदां हरिहर-ब्रह्मादिभिः सेवितां
पार्श्वे पङ्कज-शङ्ख-पद्म-निधिभिर्युक्तां सदा शक्तिभिः॥१॥
सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवल-तरांशुक-गन्धमाल्य-शोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवन-भूतिकरि प्रसीद मह्यम्॥२॥

स्तोत्रम्

प्रकृतिं विकृतिं विद्यां सर्वभूत-हितप्रदाम्।
श्रद्धां विभूतिं सुरभिं नमामि परमात्मिकाम्॥३॥

वाचं पद्मालयां पद्मां शुचिं स्वाहां स्वधां सुधाम्।
धन्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं नित्यपुष्टां विभावरीम्॥४॥

अदितिं च दितिं दीप्तां वसुधां वसुधारिणीम्।
नमामि कमलां कान्तां कामा क्षीरोदसम्भवाम्॥५॥

अनुग्रहपदां बुद्धिमनघां हरिवल्लभाम्।
अशोकाममृतां दीप्तां लोकशोक-विनाशिनीम्॥६॥

नमामि धर्मनिलयां करुणां लोकमातरम्।
पद्मप्रियां पद्महस्तां पद्माक्षीं पद्मसुन्दरीम्॥७॥

पद्मोद्भवां पद्ममुखीं पद्मनाभप्रियां रमाम्।
पद्ममालाधरां देवीं पद्मिनीं पद्मगन्धिनीम्॥८॥

पुण्यगन्धां सुप्रसन्नां प्रसादाभिमुखीं प्रभाम्।
नमामि चन्द्रवदनां चन्द्रां चन्द्रसहोदरीम्॥९॥

चतुर्भुजां चन्द्ररूपामिन्दिरा-मिन्दु-शीतलाम्।
आह्लादजननीं पुष्टिं शिवां शिवकरीं सतीम्॥१०॥

विमलां विश्वजननीं तुष्टिं दारिद्र्य-नाशिनीम्।
प्रीति-पुष्करिणीं शान्तां शुक्ल-माल्याम्बरां श्रियम्॥११॥

भास्करीं बिल्वनिलयां वरारोहां यशस्विनीम्।
वसुन्धरामुदाराङ्गीं हरिणीं हेम-मालिनीम्॥१२॥

धनधान्यकरीं सिद्धिं सदा सौम्यां शुभप्रदाम्।
नृपवेश्म-गतानन्दां वरलक्ष्मीं वसुप्रदाम्॥१३॥

शुभां हिरण्य-प्राकारां समुद्रतनयां जयाम्।
नमामि मङ्गलां देवीं विष्णु-वक्षःस्थल-स्थिताम्॥१४॥

विष्णुपत्नीं प्रसन्नाक्षीं नारायण-समाश्रिताम्।
दारिद्र्यध्वंसिनीं देवीं सर्वोपद्रव-हारिणीम्॥१५॥

नवदुर्गां महाकालीं ब्रह्मविष्णु-शिवात्मिकाम्।
त्रिकालज्ञानसम्पन्नां नमामि भुवनेश्वरीम्॥१६॥

लक्ष्मीं क्षीर-समुद्रराज-तनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीं।
दासीभूत-समस्त-देववनितां लोकैक-दीपाङ्कुराम्॥१७॥

श्रीमन्मन्द-कटाक्ष-लब्धविभव-ब्रह्मेन्द्र-गङ्गाधरां त्वां।
त्रैलोक्य-कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम्॥१८॥

मातर्नमामि कमले कमलायताक्षि।
श्रीविष्णु-हृत्कमल वासिनि विश्वमातः॥१९॥
क्षीरोदजे कमल-कोमलगर्भ-गौरि लक्ष्मि।
प्रसीद सततं नमतां शरण्ये॥२०॥

फलश्रुति

त्रिकालं यो जपेद्विद्वान् षण्मासं विजितेन्द्रियः।
दारिद्र्यध्वंसनं कृत्वा सर्व-माप्नोत्ययत्नतः॥१॥
(जो विद्वान यह स्तोत्र तीनों संध्याओं - प्रातः, मध्याह्न, सायाह्न में 6 महीनों तक अपनी इंद्रियों - ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए जपता है, दरिद्रता को नष्ट करके सब कुछ बिना प्रयास के ही प्राप्त कर लेता है।)
देवीनाम-सहस्रेषु पुण्यमष्टोत्तरं शतम्।
येन श्रियमवाप्नोति कोटि-जन्मदरिद्रितः॥२॥
(देवी के सहस्रनाम स्तोत्र की तरह ही यह पवित्र अष्टोत्तर शत नाम स्तोत्र है इससे करोड़ों जन्मों में दरिद्र हुआ व्यक्ति हो तो भी उसे श्री की प्राप्ति होती है।)
भृगुवारे शतं धीमान् पठेद्वत्सर-मात्रकम्।
अष्टैश्वर्य-मवाप्नोति कुबेर इव भूतले॥३॥
(इस स्तोत्र का एक वर्ष तक प्रत्येक शुक्रवार को 100 पाठ करे तो पाठ करने वाले को आठों प्रकार के ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। वह भूमि पर कुबेर की तरह रहता है।)
दारिद्र्यमोचनं नाम स्तोत्रमम्बापरं शतम्।
येन श्रियमवाप्नोति कोटि-जन्मदरिद्रितः॥४॥
(माँ लक्ष्मी का दरिद्रता मोचन नामक यह श्रेष्ठ शतनाम स्तोत्र है इससे करोड़ों जन्म के दरिद्री को भी श्री प्राप्त होती है।)
भुक्त्वा तु विपुलान् भोगानस्याः सायुज्य-माप्नुयात्।
प्रातःकाले पठेन्नित्यं सर्वदुःखोपशान्तये।
पठंस्तु चिन्तयेद्देवीं सर्वाभरण-भूषिताम्॥५॥
( इसका पाठ कर्ता अपने जीवन में विपुल भोगों को भोग कर मृत्यु के उपरांत सायुज्य मुक्ति पाता है। इसको प्रतिदिन प्रातः पढ़ने से सभी दुख शान्त हो जाते हैं। सभी आभूषणों से विभूषित  देवी लक्ष्मी का चिंतन करते हुए इस स्तोत्र को पढ़े।)

॥श्री लक्ष्म्यष्टोत्तर-शतनाम स्तोत्रं शुभमस्तु॥ 

श्री सूक्त 
यह वैदिक सूक्त है जो जनेऊ धारण नहीं करते हैं वे इसका पाठ न करे। पहले पंडित जी से या यूट्यूब पर पाठ का तरीका सीख लें। हिन्दी अर्थ सब पढ़ सकते हैं. आचमनी में जल ले और "ॐ अस्य श्रीसूक्तस्य आनन्द-कर्दम चिक्लीत जातवेद ऋषयः, ‘श्री’ देवता, अनुष्टुप् - प्रस्तार - पंक्ति - त्रिष्टुप् छन्दांसि श्री महालक्ष्मी देवी प्रीतये जपे विनियोगः" बोलकर जल जमीन पर छोड़ दे।

ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्ण-रजतस्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म  आवह।।1।।

हे जातवेद सर्वज्ञ अग्निदेव! सुवर्ण के समान पीले रंगवाली, किंचित हरितवर्ण वाली, सोने और चांदी के हार पहनने वाली, चांदी के समान धवल पुष्पों की माला धारण करने वाली, चन्द्र के समान प्रसन्नकान्ति, स्वर्णमयी श्रीलक्ष्मीजी का मेरे लिए आवाहन करें।


तां म आवह जातवेदो, लक्ष्मी - मनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरूषानहम्।।2।।
हे अग्निदेव! आप उन जगत प्रसिद्ध लक्ष्मीजी का, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करुंगा, मेरे लिए आवाहन करें।

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा-देवी जुषताम्।।3।।
जिन देवी के सम्मुख घोड़े रथ में जुते हुए हैं, ऐसे रथ में बैठी हुई, हाथियों के निनाद से प्रमुदित होने वाली, देदीप्यमान एवं समस्तजनों को आश्रय देने वाली लक्ष्मीजी को मैं अपने सम्मुख बुलाता हूँ। दीप्तिमान व सबकी आश्रयदाता वह माँ लक्ष्मी मेरे घर में सर्वदा निवास करें।

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारा
मार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। 
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।4।।
जो साक्षात् ब्रह्मरूपा, मन्द-मन्द मुसकराने वाली, जो चारों ओर सुवर्ण से ओत-प्रोत हैं, दया से आर्द्र हृदय वाली या समुद्र से प्रादुर्भूत (प्रकट) होने के कारण आर्द्र शरीर होती हुई भी तेजोमयी हैं, स्वयं पूर्णकामा होने के कारण भक्तों के नाना प्रकार के मनोरथों को पूर्ण करने वाली, भक्तानुग्रहकारिणी, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन माता लक्ष्मी का मैं यहां आवाहन करता हूँ।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं
श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्रपद्ये
अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।।5।।
मैं चन्द्र के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुन्दर, द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता, सभी की रक्षा करने वाली एवं आश्रयदात्री माँलक्ष्मी की शरण ग्रहण करता हूँ। मेरा दारिद्रय दूर हो जाय। मैं आपको शरण्य के रूप में वरण करता हूँ अर्थात् आपका आश्रय लेता हूँ।

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो
वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु या अन्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।6।।
हे सूर्य के समान कान्ति वाली माँ! तुम्हारे ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिना फूल के फल देने वाला बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ। उस बिल्व वृक्ष के फल हमारे बाहरी और भीतरी (मन व संसार के) दारिद्रय को दूर करें।

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि-राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।7।।
हे माँ लक्ष्मी! देवसखा (महादेव के सखा) कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र अर्थात् चिन्तामणि तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों। अर्थात् मुझे धन और यश की प्राप्ति हो। मैं इस राष्ट्र में में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें।

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठा-
मलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च
सर्वां निर्णुद मे गृहात्।।8।।
लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) का, जो क्षुधा और पिपासा से मलिन–क्षीणकाय रहती हैं, नाश कर देवि! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्रय और अमंगल को दूर करो।

गन्धद्वारां दुराधर्षां
नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां 
तामिहोप ह्वये श्रियम्।।9।।
सुगन्धित पुष्प के समर्पण करने से प्राप्त करने योग्य, किसी से भी दबने योग्य नहीं, धन-धान्य से सर्वदा पूर्ण, गौ-अश्वादि पशुओं की समृद्धि देने वाली, समस्त प्राणियों की स्वामिनी तथा संसार प्रसिद्ध माँ लक्ष्मी का मैं यहाँ अपने घर में आवाहन करता हूँ।

मनसः काम-माकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः।।10।।
हे माँ लक्ष्मी! आपके प्रभाव से मन की कामनाएं और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हों; मैं गौ आदि पशुओं के दूध, दही, यव आदि एवं विभिन्न अन्नों के रूप (भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य, चतुर्विध भोज्य पदार्थों) को प्राप्त करुँ। सम्पत्ति और यश मुझमें आश्रय लें अर्थात् मैं लक्ष्मीवान एवं कीर्तिमान बनूँ।

कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्।।11।।
लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। कर्दम ऋषि! आप हमारे यहां उत्पन्न हों (अर्थात् कर्दम ऋषि की कृपा होने पर लक्ष्मी को मेरे यहां रहना ही होगा) मेरे घर में लक्ष्मी निवास करें। पद्मों की माला धारण करने वाली सम्पूर्ण संसार की माता लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल में स्थापित कराओ।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले।।12।।
समुद्र-मन्थन द्वारा चौदह रत्नों के साथ लक्ष्मी का भी आविर्भाव हुआ है। इसी अभिप्राय में कहा गया है कि वरुण देवता स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करें। पदार्थों में सुन्दरता ही लक्ष्मी है। लक्ष्मी के आनन्द, कर्दम, चिक्लीत और श्रीत–ये चार पुत्र हैं। इनमें चिक्लीत से प्रार्थना की गयी है। हे लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत! आप भी मेरे घर में वास करें और दिव्यगुणयुक्ता तथा सर्वाश्रयभूता अपनी माता लक्ष्मी को भी मेरे कुल में निवास करायें।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो मआवह।।13।।
हे अग्निदेव! हाथियों के शुण्डाग्र से अभिषिक्त अतएव आर्द्र शरीर वाली, पुष्टि को देने वाली अर्थात् पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों (कमल) की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी का मेरे घर में आवाहन करें।

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो मआवह।।14।।
हे अग्निदेव! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा हैं (जिस प्रकार लकड़ी के बिना असमर्थ पुरुष चल नहीं सकता, उसी प्रकार लक्ष्मी के बिना संसार का कोई भी कार्य ठीक प्रकार नहीं हो पाता), सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं (जिस प्रकार सूर्य प्रकाश और वृष्टि द्वारा जगत का पालन-पोषण करता है, उसी प्रकार लक्ष्मी ज्ञान और धन के द्वारा संसार का पालन-पोषण करती है), उन प्रकाशस्वरूपा लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें।

तां मआवह जातवेदो लक्ष्मी-मनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो-दास्योऽश्वा-न्विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्।।15।।
हे अग्निदेव! कभी नष्ट न होने वाली उन स्थिर लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें जो मुझे छोड़कर अन्यत्र नहीं जाने वाली हों, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, उत्तम ऐश्वर्य, गौएं, दासियां, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें।

य: शुचि: प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पंचदशर्चं च श्रीकाम: सततं जपेत् ॐ।।16।।
जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियां दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं वाले श्रीसूक्त का निरन्तर पाठ करे।

कहा जाता है कि श्री सूक्त के पाठ का पूर्ण लाभ पाने के लिए इसके साथ लक्ष्मीसूक्त तथा पुरुषसूक्त भी पढना चाहिए :

श्री लक्ष्मी सूक्तम्‌ पाठ 

पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥
हे लक्ष्मी देवी! आप कमलमुखी, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों।

पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षि पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसि पद्माक्षिं येन सौख्यं लभाम्यहम्‌॥
हे लक्ष्मी देवी! आपका श्रीमुख, ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं। आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है। हे कमलनयनी! मैं आपका स्मरण करता हूँ, आप मुझ पर कृपा करें।

अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने।
धनं मे जुष तां देवि सर्वांकामांश्च देहि मे॥
हे देवी! अश्व, गौ, धन आदि देने में आप समर्थ हैं। आप मुझे धन प्रदान करें। हे माता! मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें।

पुत्र पौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वाश्वतरिरथम्‌।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे॥
हे देवी! आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। आप मुझे पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, गौ, बैल, रथ आदि प्रदान करें। आप मुझे दीर्घ-आयुष्य बनाएँ।

धनमग्नि र्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धन मिंद्रो बृहस्पतिर्वरुणो धनमश्विने॥
हे लक्ष्मी! आप मुझे अग्नि, धन, वायु, सूर्य, जल, बृहस्पति, वरुण आदि की कृपा द्वारा धन की प्राप्ति कराएँ।

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥
हे वैनतेय पुत्र गरुड़! वृत्रासुर के वधकर्ता, इंद्र, आदि समस्त देव जो अमृत पीने वाले हैं, मुझे अमृतयुक्त धन प्रदान करें।

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभामतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां सूक्त जापिनाम्‌॥
इस सूक्त का पाठ करने वाले की क्रोध, मत्सर, लोभ व अन्य अशुभ कर्मों में वृत्ति नहीं रहती, वे सत्कर्म की ओर प्रेरित होते हैं।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गंधमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरी प्रसीद मह्यम्‌॥
हे त्रिभुवनेश्वरी! हे कमलनिवासिनी! आप हाथ में कमल धारण किए रहती हैं। श्वेत, स्वच्छ वस्त्र, चंदन व माला से युक्त हे विष्णुप्रिया देवी! आप सबके मन की जानने वाली हैं। आप मुझ दीन पर कृपा करें।

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधव-प्रियाम्‌।
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युत-वल्लभाम्॥
भगवान विष्णु की प्रिय पत्नी, माधवप्रिया, भगवान अच्युत की प्रेयसी, क्षमा की मूर्ति, लक्ष्मी देवी मैं आपको बारंबार नमन करता हूँ।

महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्‌॥
हम महादेवी लक्ष्मी का स्मरण करते हैं। विष्णुपत्नी लक्ष्मी हम पर कृपा करें, वे देवी हमें सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त करें।

आनन्दः कर्दमः श्रीदश्चिक्लीत इति विश्रुताः ।

ऋषयः श्रियः पुत्राश्च श्रीर्देवीर्देवता मताः॥

आनन्द, कर्दम, श्रीदः, चिक्लीत ऋषि लक्ष्मी जी के पुत्र कहे गये हैं।

चंद्रप्रभां लक्ष्मीमेशानीं सूर्याभांलक्ष्मीमीश्वरीम्‌।
चंद्र सूर्याग्निसंकाशां श्रियं देवीमुपास्महे॥
जो चंद्रमा की आभा के समान शीतल और सूर्य के समान परम तेजोमय हैं उन परमेश्वरी लक्ष्मीजी की हम आराधना करते हैं।

ऋणरोगादिदारिद्र्यं पापं क्षुदपमृत्यवः।

भयशोकमनस्तापाः नश्यन्तु मम सर्वदा॥

मेरे ऋण रोग दरिद्रता पाप क्षुद्रता अपमृत्यु भय शोक मन के कष्ट हमेशा के लिये नष्ट हो जायें।

श्रीर्वर्चस्व-मायुष्य-मारोग्य-मभिधाच्छोभमानं महीयते।
धान्य धनं पशुं बहुपुत्रलाभम्‌ शत्संवत्सरं दीर्घमायुः॥
  इस लक्ष्मी सूक्त का पाठ करने से व्यक्ति श्री, तेज, आयु, स्वास्थ्य से युक्त होकर शोभायमान रहता है। वह धन-धान्य व पशु धन सम्पन्न, पुत्रवान होकर दीर्घायु होता है।

॥श्रीलक्ष्मी सूक्तम्‌ शुभमस्तु‌॥

।।पुरुषसूक्तम्॥

यह भी वैदिक सूक्त है स्त्री शूद्र व्रात्य अनुपनीत व जो जनेऊ धारण नहीं करते हैं वे इसका पाठ न करे.  सरल व्याख्या भावार्थ समझने के लिये दी है हिंदी भावार्थ कोई भी पढ़ सकते हैं।

ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। 
स भूमिम् सर्वत स्पृत्वा-ऽत्यतिष्ठद् दशांगुलम्॥1॥ 
व्याख्या - वह सर्वप्राणी-समष्टिरूप परमपुरुष, श्रीगणेशविष्णुशिवदुर्गासूर्य रूपात्मक विराट् रूप धारण करने वाले परमात्मा, श्रीमहानारायण ही ब्रह्माण्डमयदेह होने से अनन्त शिर, अनन्त नेत्र, अनन्त हस्त-पादादि वाले हैं। सभी प्राणियों के शिर, पादादि अवयव श्रीमन्नारायण का ही अंग होने से उन्हीं के हैं अतः वह पंचदेवात्मक परमेश्वर सत्य में ही "सहस्रशीर्षा" आदि स्तुति के भाजन हैं, वही विराट्‌ पुरुष अनन्तकोटि ब्रह्माण्डरूप भूमि को ऊपर-नीचे, दायें-बायें सब ओर से व्याप्त करके प्रत्येक जीव के दशाङ्गुल हृदय-प्रदेश में अन्तर्यामी रूप से स्थित हो गया।

पुरुष एवेदं सर्वम् यद भूतम् यच्च भाव्यम्। 
उतामृतत्व-स्येशानो यद् अन्नेनातिरोहति॥2॥ 
व्याख्या - इस सृष्टि में वर्तमान, भूत तथा भविष्यकाल में रहनेवाला सारा जगत्‌ उसी विराट्‌ पुरुष परब्रह्म परमात्मा का अवयव है। वही काल-कर्मवश अपनी कारणावस्था को त्यागकर अन्न एवं फलरूप से जगत्‌ की अवस्था को प्राप्त होता है और वही अमृतत्वरूप मोक्ष का स्वामी है, इसलिए वह अमर भी है, इतना ही नहीं, जीवमात्र जिस अन्न से जीवित रहता है उस अन्न का स्वामी भी वही पुरुष है।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः। 
पादोऽस्य व्विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतम् दिवि॥3॥
व्याख्या - यह सब भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल से सम्बन्धित जो अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड दिखाई पड़ता है , वह सभी इस विराट्‌ प्रभु की विभूति का चतुर्थांश(पाद मात्र) है। उस महानारायण की इतनी ही महिमा नहीं है, वह आदि पुरुष तो इससे भी अधिक शक्तिशाली है। उस अचिन्त्य शक्ति प्रभु के महैश्वर्य के तीन भाग तो वैकुण्ठ धाम में विराज रहे हैं अर्थात्‌ वह सर्वदेवतामय महानारायण परमात्मा अपनी अचिन्त्य अपरिमेय शक्ति के मात्र चतुर्थांश से ही इस सृष्टिचक्र का सञ्चालन करता है, उस शक्ति के शेष तीन भाग तो उनके दिव्यधाम में ही समाये हुए हैं।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरूषः पादोस्ये-हाभवत् पुनः। 
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्सा शनानशनेऽ अभि॥4॥ 
व्याख्या - संसार स्पर्श रहित वह त्रिपाद परब्रह्म अज्ञानमूलक इस जगत्‌प्रपञ्च से बहिर्भूत अर्थात्‌ इन संसारिक गुण-दोषों से वर्जित होकर स्थित हुआ है। उसी ब्रह्म के लेशमात्र (एक पाद से) माया द्वारा जगत्‌ की सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय होता रहा है। वह माया द्वारा भूतग्रामचतुर्विध अनेकों योनियों में पशु, पक्षी आदि विविधरूप धारण कर भोजन आदि व्यवहारों से युक्त चेतन एवं नदी, पर्वत आदि स्थावर अनेक रूपों में दिखाई पड़ता है।

ततो विराडजायत विराजोऽ अधि पूरुषः। 
स जातोऽ अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः॥5॥ 
व्याख्या - पिछले त्रिपादूर्ध्व वाले मंत्र में जिसकी अभिव्यक्ति हुई है, उसी का सप्रपञ्चात्मक वर्णन ततो विराडजायत इस मंत्र में किया गया है -
तदनन्तर उस आदिपुरुष से विराट (ब्रह्माण्ड) देह की उत्पत्ति हुई। उस विराट शरीर को अधिकृत कर तत्तद्देहाभिमानी वह परमपुरुष प्राणी मात्र के स्वरूप में आत्मा बनकर विराजमान हुआ। पुनः वही परमात्मा विराट्‌ पुरुष अन्यान्य देवता, तिर्यक्‌, पशु-पक्षी एवं मनुष्यादि के रूप में जीवसंज्ञा को प्राप्त हुआ। उसके बाद उसने भूमि उत्पन्न कर समस्त विश्व की रचना की।

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतम् पृषदाज्यम्। 
पशूँस्ताँ-श्चक्रे वायव्या-नारण्या ग्राम्याश्च ये॥6॥ 
व्याख्या - तत्पश्चात्‌ उस सर्वात्मा पुरुष ने सर्वहुताख्य यज्ञ के निमित्त दधिमिश्रित नवनीत उत्पन्न किया। उसके बाद उसने वायु-देवतात्मक हरिण, पशु-पक्षी आदि वन्य जीवों की, तत्पश्चात्‌ गाय, अश्वादि ग्राम्य जीवों की सृष्टि की।

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे॥ 
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस् तस्मादजायत।।7॥ 
व्याख्या - जिसमें अपनी सम्पूर्ण प्रिय वस्तुओं या सम्पूर्ण अहंकारादि असद्वृत्तियों की आहुति दी जाती है, ऐसे उस सर्वहुत यज्ञ के निमित्त ऋक्‌ एवं साम वेद उत्पन्न हुए। साथ ही उस सर्वहुत यज्ञ के निमित्त अनेक प्रकार के वैदिक गायत्री आदि छन्द तथा गद्यात्मक मन्त्रों से युक्त यजुर्वेद का प्रादुर्भाव हुआ। क्योंकि मन्त्रों के बिना यज्ञ सम्पन्न नहीं किया जा सकता।

तस्मादश्वाऽ अजायन्त ये के चोभयादतः। 
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्-तस्माज्जाता अजावयः॥8॥ 
व्याख्या - उसी यज्ञ से अश्वों की उत्पत्ति हुई, पुनः नीचे-ऊपर दोनों ओर दांतों वाले पशु, अश्वतर (खच्चर) एवं गाय, भेड़, बकरी आदि अन्य पशु क्रमशः उत्पन्न हुए। इस प्रकार सृष्टि का क्रमिक विकास हुआ।

तम् यज्ञम् बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषम् जातमग्रतः। 
तेन देवाऽ अयजन्त साध्याऽ ऋषयश्च ये॥9॥ 
व्याख्या - सर्वप्रथम आविर्भूत उस पुरुष को, सृष्टि से पूर्व प्रकटित प्रजापति, साध्य देवता एवं अन्य मन्त्रदृष्टा ऋषियों ने प्रोक्षण आदि संस्कारों द्वारा सुसंस्कारित करके तदनुकूल (समयानुसार) मानस यज्ञ सम्पन्न किया। अर्थात्‌ इन्द्रादि साध्य एवं ऋषियों ने प्रणवाधिष्ठित परमपुरुष के प्रति आत्मयज्ञ सम्पन्न किया।

यत् पुरुषम् व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्॥ 
मुखम् किमस्य आसीत् किम् बाहू किम् ऊरू पादाऽ उच्येते॥10॥ 
व्याख्या - उस समय विराट्‌ पुरुष परमात्मा के प्राणस्वरूप प्रजापति देवता एवं साध्यगण उस विराट्‌ पुरुष को अपने सत्संकल्प द्वारा उत्पन्न होते देख अति प्रसन्न हुए। अतः यहाँ प्रश्नोत्तर द्वारा परमात्मा के मुखादि अङ्गों का निरुपण करते हुए कहा गया है- उस विराट्‌ पुरुष का मुख क्या था? भुजाएं क्या थीं? तथा ऊरु एवं पैर क्या थे?

ब्राह्मणोऽस्य मुखम् आसीद् बाहू राजन्यः कृतः। 
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रो अजायत॥11।।
व्याख्या - उस विराट्‌ पुरुष का ब्राह्मणत्व जाति विशिष्ट ब्राह्मण मुख हुआ, क्षत्रियत्व जातिविशिष्ट क्षत्रिय बाहु हुआ। वैश्यत्व जातिविशिष्ट वैश्य उस विराट पुरुष का जङ्घा या पेट हुआ तथा उस विराटपुरुष के पैरों से शूद्रत्व जाति विशिष्ट शूद्र की उत्पत्ति हुई। [जीव-जगत्‌ की स्थिति के लिए ज्ञान,बल,धन तथा क्रिया(सेवा) की आवश्यकता थी, अतः उन चारों प्रकारों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जन्मना जातियों क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्णों की उत्पत्ति विराट यज्ञपुरुष के मुख, भुजाओं, जङ्घा तथा चरणों से हुई। यज्ञ के लिए भी इन्हीं चारों वस्तुओं की आवश्यकता होती है, अतः उनके प्रतीक चारों वर्णों की उत्पत्ति का इस मन्त्र में वर्णन है।]

चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोः सूर्यो अजायत। 
श्रोत्राद् वायुश्च प्राणश्च मुखादग्नि-रजायत अजायत॥12॥ 
व्याख्या - इसी प्रकार उस विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, श्रोत्र(कानों) से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्निदेव उत्पन्न हुए।

नाभ्याऽ आसीद् अन्तरिक्षम् शीर्ष्णो द्यौः सम-वर्तत। 
पद्भ्याम् भूमिर दिशः श्रोत्रात् तथा लोकान्ऽ अकल्पयन्॥13॥ 
व्याख्या - उस विराट पुरुष की नाभि से आकाश, मस्तक से द्युलोक(स्वर्ग), श्रोत्र से दिशाएं तथा पैरों से पृथ्वी की उत्पत्ति ह हुई। इस प्रकार पंचमहाभूतात्मक "जीवयुक्त ब्रह्माण्ड" की उत्पत्ति विराट्‌ पुरुष के द्वारा हुई।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत। 
वसन्तोऽ स्यासीदाज्यम् ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥14॥
व्याख्या - जिस समय देवताओं ने भावी सृष्टि के लिए बाह्य द्रव्यों के अभाव में पुरुषस्वरुप होकर अपने मन से मानसिक यज्ञ की कल्पना की, उस समय उस यज्ञ के लिए वसन्त ऋतु आज्य(घृत), ग्रीष्मऋतु समिधा तथा शरद्‌ ऋतु ही हवि(पुरोडाश) के स्थान पर स्थित थे।

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः। 
देवा यद्यज्ञम् तन्वानाः अबध्नन् पुरुषम् पशुम्॥15॥
 व्याख्या- उस मानसिक यज्ञ-वेदी में गायत्री आदि सातों छन्द तथा सात समुद्र परिधि(मेखला) के रूप में थे और पृथ्वी आदि पञ्चमहाभूत, पाँच तन्मात्रा, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पंच कर्मेन्द्रियाँ  और एक मन ये कुल इक्कीस समिधाएं थीं। यह यज्ञ तब हुआ जब मानस-यज्ञ क इच्छा करने वाले साध्यादि देवों ने पशुरुप पुरुष को दीक्षा के नियमों में बांधा।
(प्रस्तुत मन्त्र के अनुसार जब देवताओं ने प्रजापति प्राणेन्द्रियरूप यज्ञ का विस्तार करते हुए मानसयज्ञ करना प्रारम्भ किया, तो उसमें उन लोगों ने विराटपुरुष की ही पशु रूप में भावना की, इसी अभिप्राय से चौदहवें मन्त्र में यत्पुरुषेण हविषा कहा गया है। उस समय संकल्पित मानस यज्ञ की गायत्री इत्यादि सात छन्द, यज्ञवेदी के परिधि माने गये। यह यज्ञ भारतवर्ष मे सम्पन्न किया गया, इसलिए क्षीर-समुद्र इसके परिधि के रूप में कहा गया। अथवा इस दृष्टि से देखें कि आत्मयोग में पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन एवं बुद्धि ये सात यज्ञ की मेखलाएँ/परिधियां कही गयी हैं। पृथ्वी आदि पञ्चमहाभूत, पञ्चतन्मात्रायें, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्च कर्मेन्द्रियां एवं मन ये इक्कीस उस आत्मयज्ञ की समिधाएं कही गयी हैं।)

यज्ञेन यज्ञ मऽयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्य आसन्। 
ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॐ16॥ 
व्याख्या -
प्रजापति के प्राणस्वरूप देवताओं ने यज्ञों द्वारा विराट पुरुष को प्रसन्न किया, तब से ही नारायण साक्षात्‌ धर्म स्वरुप माने गये हैं इसलिए साधक स्वर्गप्राप्ति के निमित्त यज्ञ(सत्कर्म) करें। क्योंकि उसी पुरातन विराट्‌ पुरुष की प्राप्ति के लिए समस्त सिद्ध एवं योगीजन निरन्तर तत्पर रहते हैं। उन्हीं परमात्मा श्रीमन्नारायण के धाम में तभी से आदि सृष्टिकालीन साध्यगण दिव्य शरीर धारण करके निवास करते हैं और नारायणोपासक महात्मालोग भी दुःखलेश वर्जित वैकुण्ठ धाम का सेवन करते हैं। श्रीगणेशविष्णुशिवदुर्गासूर्य इन पंचदेवों के उपासक अपने-अपने उपास्य देवता के लोकों को पाते हैं।

श्री कनकधारा स्तोत्रम्
इसे सभी पाठ कर सकते हैं (हिन्दी अनुवाद सहित)

गणेश जी को फूल चढ़ायें- 

वन्दे वन्दारुमन्दार-मिन्दिरानन्द-कन्दलम्।अमन्दानन्द-सन्दोह-बन्धुरं सिन्धुराननम्॥ 

(श्रीगणेश की वन्दना करता हूं जो वन्दन करनेवाले जनों के कामना पूर्ति करनेवाले हैं, चन्द्रभूषण शिव के पुत्र हैं, तीव्रानन्दसमूह से ऊंचे होते हुए भी झुके हुए हैं और जो हाथी के मुख वाले है।)

विनियोग - हाथ में जल चावल फूल लेकर विनियोग करें- अस्य श्री कनकधारा स्तोत्र मंत्रस्य श्री आदिगुरु शङ्कराचार्य ऋषिः, बसंततिलका-छंदः, श्रीआदिशक्ति महालक्ष्मी देवता, वराभय - प्रसन्नता पूर्वकं ऐश्वर्य प्रदायिनी मुद्रायाः मम सकल दुरितशमन द्वारा मम गृहे ऋद्धि-सिद्धि सहित अष्ट लक्ष्मी देवतायाः चिरकाल समय पर्यन्तं सुखपूर्वक वासार्थे, ऐश्वर्यादि प्राप्त्यर्थे पाठे विनियोगः।
जल छोड़ दें।
ध्यान
वन्दे लक्ष्मीं परशिव-मयीं शुद्ध जाम्बूनदाभां,
तेजरूपां कनकवसनां सर्व-भूषोज्वलाङ्गीम्‌।
बीजापूरं कनक कलशं हेमपद्मं दधानाम्,
आद्यां शक्तिं सकल जननीं विष्णुवामाङ्ग संस्थाम्‌ ॥अब श्री महालक्ष्म्यै नमः बोलकर लक्ष्मी जी (प्रतिमा या फिर कनकधारा यन्त्र) को फूल चढ़ाए। इस स्तोत्र विधान में आँवला का फल या पत्ते चढ़ाना शुभ माना जाता है।

अब मूल स्तोत्र का
 पाठ करें-

कनकधारा स्तोत्र पाठ

 अङ्गं हरेः पुलकभूषण-माश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अङ्गीकृताखिल-विभूति-रपाङ्गलीला माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गळ-देवतायाः॥१॥
जैसे भ्रमरी अधखिले कुसुमों से अलंकृत तमाल-तरु का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो प्रकाश श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी की वह दृष्टि मेरे लिए मंगलदायी हो।।1।।

 मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपा-प्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधु-करीव महोत्पले या
सा मे श्रियं दिशतु सागर–सम्भवायाः॥२॥
जैसे भ्रमरी महान कमल दल पर मंडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है समुद्र कन्या लक्ष्मीजी की वह मनोहर मुग्ध दृष्टि मुझे धन संपत्ति प्रदान करे।।2।।

विश्वामरेन्द्र-पदविभ्रम-दानदक्षं आनन्द-हेतुरधिकं मुर-विद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षण-मीक्षणार्ध- मिन्दी-वरोदर-सहोदर-मिन्दिरायाः॥३॥
जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास दान देने में समर्थ है, मुरहन्ता, मधुहन्ता श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनंद प्रदान करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर थोड़ी सी अवश्य पड़े।।3।।

 आमीलिताक्ष-मधिगम्य मुदा मुकुन्दं आनन्दकन्द-मनिमेष-मनङ्गतन्त्रम्।
आकेकर-स्थित-कनीनिक-पक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्ग-शयाङ्गनायाः॥४॥
शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पु‍तली तथा बरौनियां{पलक के बाल} अनंग के वशीभूत हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष(अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं।।4।।

 बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याण-मावहतु मे कमलालयायाः॥५॥ 
जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे।।5।।

 कालाम्बुदाळि-ललितोरसि कैटभारेः धाराधरे स्फुरति या तडि-दङ्गनेव।
मातु-स्समस्त-जगतां महनीयमूर्तिः भद्राणि मे दिशतु भार्गव-नन्दनायाः॥६॥
जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के श्यामसुंदर वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करें।।6।।

 प्राप्तं पदं प्रथमतः खलु यत्प्रभावान्- माङ्गल्य-भाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
 मय्यापते-त्तदिह मन्थर-मीक्षणार्धं मन्दालसं च मकरालय-कन्यकायाः॥७॥ 
समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि मुझ पर पड़े, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था।।7।।

दद्या-द्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारां अस्मिन्न-किञ्चन-विहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं
नारायण-प्रणयिनी-नयनाम्बुवाहः॥८॥
भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी धाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें।।8।।

 इष्टा विशिष्ट-मतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्ट-पपदं सुलभं लभन्ते। 
दृष्टिः प्रहृष्ट-कमलोदर-दीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्कर-विष्टरायाः॥९॥
विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्‍मासना पद्‍मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करें।।9।।

गीर्देवतेति गरुडध्वज-सुन्दरीति
 (धीर्देवतेति गरुडध्वज-भामिनीति)
 शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति। सृष्टिस्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैक-गुरोस्तरुण्यै॥१०॥ 
जो सृष्टि लीला के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति-सरस्वती) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में अवस्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।।10।।

श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्म-फलप्रसूत्यै 
रत्यै नमोऽस्तु रमणीय-गुणार्णवायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र-निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै॥११॥
हे माते! शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।।11।।

 नमोऽस्तु नालीक-निभाननायै 
नमोऽस्तु दुग्धोदधि-जन्मभूत्यै।
 नमोऽस्तु सोमामृत-सोदरायै 
नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै॥१२॥ 
कमल वदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिंधु से उत्पन्न श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है।।12।।

 नमोऽस्तु हेमाम्बुज-पीठिकायै
नमोऽस्तु भूमण्डल-नायिकायै।
नमोऽस्तु देवादि-दयापरायै
नमोऽस्तु शार्ङ्गायुध-वल्लभायै॥१३॥
सोने के कमलासन पर बैठने वाली,भूमण्डल की नायिका, देवतादि पर दया करने वाली, शार्ङ्गग नामक धनुष धारी विष्णु जी की वल्लभा शक्ति को नमस्कार है।।13।।

 नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै
नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै।
नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै
नमोऽस्तु दामोदर-वल्लभायै॥१४॥
हे भृगु ऋषि की पुत्री बनकर अवतार लेने वाली, भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में निवास करनेवाली देवी,कमल ही जिनका निवास स्थल है, यशोदा की रस्सी से बंध जाने वाले दामोदर की प्रिया लक्ष्मी जी,आपको मेरा नमस्कार है।।14।।

 नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै।
 नमोऽस्तु देवादिभि-रर्चितायै 
नमोऽस्तु नन्दात्मज-वल्लभायै॥१५॥
भगवान् विष्णु की कान्ता,कमल के जैसे नेत्रों वाली, त्रैलोक्य को उत्पन्न करनेवाली, देवताओं के द्वारा पूजित, नन्दात्मज श्री कृष्ण की वल्लभा श्रीलक्ष्मीजी को मेरा नमस्कार है।।15।।

 सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय-नन्दनानि साम्राज्यदान-विभवानि सरोरुहाक्षि।
  त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये॥१६॥ 
हे कमल के जैसी आँखों वाली, आपके चरणों में की हुई स्तुति प्रार्थना ऐश्वर्यदायिनी और समस्त इन्द्रियों को आनंदित करती है,सभी सुखो को देने वाली(साम्राज्यदायिनी), सभी पापों को नष्ट करनेवाली, माँ आप मुझे अपने चरणों की वंदना करने का अवसर सदा प्रदान करे ।।16।।

 यत्कटाक्ष-समुपासना-विधिः 
सेवकस्य सकलार्थ-सम्पदः। 
सन्तनोति वचनाङ्ग-मानसैः
 त्वां मुरारि-हृदयेश्वरीं भजे॥१७॥ 
जिनके कृपा कटाक्ष के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूं।।17।।

 सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतमां-शुकगन्ध-माल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवन-भूतिकरि प्रसीद मह्यम्॥१८॥ 
हे नारायण की पत्नी, भगवती आप कमलकुञ्ज में रहने वाली हैं,आपके चरण कमल में नीलकमल शोभायमान है। आप श्वेत वस्त्र तथा गंध,माला आदि से सुशोभित है,आपकी छवि अतिसुन्दर है,रमणीय है,अद्वितीय है,हे त्रिभुवन को वैभव प्रदान करनेवाली आप मेरे ऊपर भी प्रसन्न होइये।।18।।

 दिग्घस्तिभिः कनककुम्भ-मुखावसृष्ट स्वर्वाहिनी विमलचारु-जलप्लुताङ्गीम्। 
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथ-गृहिणी-ममृताब्धि-पुत्रीम्॥१९॥ 
महानुभावों द्वारा (दिग्गजजनों के द्वारा पूजित) कनककुम्भ से मुख से पतित,आकाशगंगा के स्वच्छ मनोहर जल से जिस भगवान के श्रीअङ्ग का अभिषेक होता है,उस समस्त लोको के अधीश्वर भगवान् विष्णु की पत्नी समुद्रतनया(क्षीरसागर पुत्री), जगन्माता भगवती लक्ष्मी को में प्रातःकाल नमस्कार करता हूं।।19।।

 कमले कमलाक्ष-वल्लभे 
त्वं करुणापूर-तरङ्गितैरपाङ्गैः।
 अवलोकय मामकिञ्चनानां 
प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः॥२०॥ 
हे कमलनयन भगवान् विष्णु की प्रिया लक्ष्मीजी, मैैं दीनहीन मनुष्यों में अग्रगण्य हूं , इसलिए आपकी कृपा का स्वभावसिद्ध पात्र हूं, आप छलकती हुई करुणा रूपी बाढ़ की तरल-तरंगो के सदृश कटाक्षों के द्वारा मेरी ओर भी थोड़ा अवलोकन कीजिये ।।20।।

 देवि प्रसीद जगदीश्वरि लोकमातः कल्याण-गात्रि कमलेक्षण-जीवनाथे।
 दारिद्र्य-भीतिहृदयं शरणागतं मां आलोकय प्रतिदिनं सदयैरपाङ्गैः॥२१॥ 
हे संसार की मां, विष्णु प्रिया, कल्याणकर्त्री, जगदीश्वरी देवी प्रसन्न होओ। दरिद्रता रुपी भय को हृदय में लेकर मैं (दरिद्रता निवारण हेतु) आपकी शरण में आया हूं माँ मुझे प्रतिदिन दया दृष्टि से देखिये।।21।।

 स्तुवन्ति ये स्तुतिभि-रमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवन-मातरं रमाम्।
गुणाधिका गुरुतर-भाग्यभागिनो भवन्ति ते भुवि बुध-भाविताशयाः॥२२॥
जो मनुष्य इन स्तु‍तियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।।22।।

 सुवर्णधारास्तोत्रं 
यच्छंकराचार्य निर्मितं 
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं
स कुबेरसमो भवेत।।२३।।
यह उत्तम स्तोत्र जो जगद्गुरु श्री शंकराचार्य विरचित स्तोत्र का (कनकधारा) का पाठ तीनो कालो में (प्रातःकाल-मध्याह्नकाल-सायंकाल) करता है वो  कुबेर के समान धनवान हो जाता है
॥श्रीमद् शङ्कराचार्यकृत श्री कनकधारास्तोत्रं शुभमस्तु॥

इन्द्रकृतम् श्रीसम्पदालक्ष्मी स्तोत्रम्

श्री महालक्ष्मी ध्यानम् -

सहस्रदल-पद्मस्य-कर्णिका-वासिनीं पराम्।
शरत्पार्वण-कोटीन्दु-प्रभामुष्टि-करां पराम्॥१॥ 
(पराम्बा महालक्ष्मी सहस्रदल वाले कमल की कर्णिका पर विराजमान हैं, वे श्रेष्ठ भगवती शरत्पूर्णिमा के करोड़ों चंद्रमाओं की कान्ति का हरण करने वाली हैं।)
स्वतेजसा प्रज्वलन्तीं सुखदृश्यां मनोहराम्।
प्रतप्त-काञ्चननिभ-शोभां मूर्तिमतीं सतीम्॥२॥
(जो स्वयं के ही तेज से देदीप्यमान हैं, जिन मनोहर देवी का दर्शन अत्यन्त सुखप्रद है, ये साध्वी महालक्ष्मी मूर्तिमान होकर तपाये हुए सुवर्ण के समान शोभित हो रही हैं।)
रत्नभूषण-भूषाढ्यां शोभितां पीतवाससा।
ईषद्धास्य-प्रसन्नास्यां शश्वत्सुस्थिर-यौवनाम्।
सर्वसम्पत्-प्रदात्रीं च महालक्ष्मीं भजे शुभाम्॥३॥
(जो रत्नमय आभूषणों से अलंकृत हैं, पीले वस्त्रों से सुशोभित हैं, इनके प्रसन्न मुखमण्डल पर मन्द मन्द मुस्कान विराज रही है, ये सर्वदा स्थिर रहने वाले यौवन से सम्पन्न हैं- ऐसी कल्याणमयी तथा सभी सम्पत्तियों को देने वाली, महालक्ष्मी जी की मैं उपासना करता हूँ।)
  पुरन्दर उवाच -
नमः कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नमः।
कृष्णप्रियायै सततं महालक्ष्म्यै नमो नमः॥१॥

पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नमः।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नमः॥२॥

सर्वसम्पत्-स्वरूपिण्यै सर्वाराध्यै नमो नमः।
सुखदायै मोक्षदायै सिद्धिदायै नमो नमः॥३॥

हरिभक्ति-प्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नमः।
कृष्णवक्षःस्थितायै च कृष्णेशायै नमो नमः॥४॥

चन्द्रशोभा-स्वरूपायै रत्नपद्मे च शोभने।
सम्पत्यधिष्ठातृ-देव्यै महादेव्यै नमो नमः॥५॥

शन्यधिष्ठातृ-देव्यै च शस्यायै च नमो नमः।
नमो वृद्धिस्वरूपायै वृद्धिदायै नमो नमः॥६॥

वैकुण्ठे या महालक्ष्मीर्या लक्ष्मीः क्षीरसागरे।
स्वर्ग-लक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मी-र्नृपालये॥७॥

गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता।
सुरभिः सागरे जाता दक्षिणा यज्ञकामिनी॥८॥

अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालया।
स्वाहा त्वं च हविर्दाने कव्यदाने स्वधा स्मृता॥९॥

त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा वसुन्धरा।
शुद्धसत्त्व-स्वरूपा त्वं नारायण-परायणा॥१०॥

क्रोधहिंसा-वर्जिता च वरदा शारदा शुभा।
परमार्थप्रदा त्वं च हरि-दास्यप्रदा परा॥११॥

यया विना जगत् सर्वं भस्मीभूत-मसारकम्।
जीवन्मृतं च विश्वं च शश्वत्सर्वं यया विना॥१२॥

सर्वेषां च परा माता सर्वबान्धव-रूपिणी।
यया विना न सम्भाव्यो बंधुवैर्बान्धवः सदा॥१३॥

त्वया हीनो बन्धुहीनस्त्वया युक्तः सबान्धवः।
धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी॥१४॥

यथा माता स्तनान्धानां शिशूनां शैशवे सदा।
तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां सर्वरूपतः॥१५॥

मातृहीनः स्तनान्धस्तु स च जीवति दैवतः।
त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव निश्चितम्॥१६॥

सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मां प्रसन्ना भवाम्बिके।
वैरिग्रस्तं च विषयं देहि मह्यं सनातनि॥१७॥

अहं यावत् त्वया हीनो बन्धुहीनश्च भिक्षुकः।
सर्वसम्पद्विहीनश्च तावदेव हरिप्रिये॥१८॥

राज्यं देहि श्रियं देहि बलं देहि सुरेश्वरि।
कीर्तिं देहि धनं देहि यशो मह्यं च देहि वै॥१९॥

कामं देहि मतिं देहि भोगान् देहि हरिप्रिये।
ज्ञानं देहि च धर्मं च सर्वसौभाग्यमीप्सितम्॥२०॥

प्रभावं च प्रतापं च सर्वाधिकारमेव च।
जयं पराक्रमं युद्धे परमैश्वर्यमेव च॥२१॥

फलश्रुति
इत्युक्त्वा च महेन्द्रश्च सर्वैः सुरगणैः सह।
प्रणनाम साश्रुनेत्रो मूर्ध्ना चैव पुनः पुनः॥२२॥
( ऐसा कहकर सभी देवताओं के साथ इन्द्र ने अश्रुपूरित नेत्रों से तथा मस्तक झुकाकर भगवती को बारम्बार प्रणाम किया। )
ब्रह्मा च शङ्करश्चैव शेषो धर्मश्च केशवः।
सर्वेचक्रुः परीहारं सुरार्थे च पुनः पुनः॥२३॥
( ब्रह्मा, शंकर, शेषनाग, धर्म तथा केशव - इन सभी ने देवताओं के कल्याण के लिये भगवती से बार-बार प्रार्थना की।)
देवेभ्यश्च वरं दत्वा पुष्पमालां मनोहराम्।
केशवाय ददौ लक्ष्मीः सन्तुष्टा सुरसंसदि॥२४
(तब देवसभा में परम प्रसन्न होकर भगवती महालक्ष्मी ने देवताओं को वर प्रदान करके भगवान श्रीकृष्ण को मनोहर पुष्पमाला समर्पित कर दी।)
 ययुर्देवाश्च सन्तुष्टाः स्वं स्वं स्थानञ्च नारद।
देवी ययौ हरेः स्थानं हृष्टा क्षीरोदशायिनः॥२५॥
( हे नारद तदनन्तर सभी देवता प्रसन्न होकर अपने-अपने स्थान को चले गये और प्रसन्नचित्त महालक्ष्मी भी क्षीरसागर में शयन करने वाले भगवान श्रीहरि के लोक को चली गयीं।)
ययतुश्चैव स्वगृहं ब्रह्मेशानौ च नारद।
दत्वा शुभाशिषं तौ च देवेभ्यः प्रीतिपूर्वकम्॥२६॥
( हे नारद! देवताओं को आशीर्वाद देकर ब्रह्मा और शिव भी प्रसन्नता पूर्वक अपने अपने लोक को चले गये।)
 इदं स्तोत्रं महापुण्यं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः।
कुबेरतुल्यः स भवेद्राजराजेश्वरो महान्॥२७॥
( हे नारद! जो मनुष्य तीनों सन्ध्या काल में इस परम पवित्र स्तोत्र का पाठ करता है, वह कुबेर के समान महान् राजराजेश्वर हो जाता है।)
सिद्धस्तोत्रं यदि पठेत् सोऽपि कल्पतरूर्नरः।
पञ्चलक्षजपेनैव स्तोत्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम्॥२८॥
( कोई यदि इस स्तोत्र को सिद्ध करके पढे तो वह मनुष्य भी कल्प वृक्ष के समान हो जाता है। पाँच लाख जप करने पर मनुष्यों के लिये यह स्तोत्र सिद्ध होता है।)
सिद्धस्तोत्रं यदि पठेन्मासमेकं च संयतः।
महासुखी च राजेन्द्रो भविष्यति न संशयः॥२९॥
( सिद्ध हुए स्तोत्र को यदि एक मास तक निरन्तर पाठ करे तो वह परम सुखी तथा राजेन्द्र हो जायेगा, इसमें संदेह नहीं है। )
॥देवीभागवत महापुराणे नवमस्कन्धोक्तं श्रीइन्द्रकृतं श्रीलक्ष्मीस्तोत्रम् शुभमस्तु॥ (अध्याय ४२ पर है)

श्री कुबेर शतार्चन पूजा
धन की इच्छा वाले व्यक्ति को कुबेर पूजन भी करते रहना चाहिये। दीपावली, धनतेरस, कोजागरी पूर्णिमा को तो विशेष रूप से कुबेर पूजन करे। सामने कुबेर यंत्र या कुबेर जी का चित्र हो तो उत्तम है। अन्यथा शालग्राम या शिवलिंग पर ध्यान मंत्र आदि पढ़कर फूल(या अक्षत) चढ़ाये। शालग्राम पर चावल नहीं सफेद तिल चढ़ते हैं।
 ध्यानम्
मनुजबाह्य - विमानवर - स्तुतं
गरुडरत्न-निभं निधि-नायकम्।
शिवसखं मुकुटादि-विभूषितं
वररुचिं तमहमुपास्महे सदा॥

अगस्त्य देवदेवेश मर्त्यलोक -हितेच्छया।
पूजयामि विधानेन प्रसन्नसुमुखो भव॥

श्री कुबेराष्टोत्तरशत - नामावलिः

प्रस्तुत नामावली में नामों की संख्या १०९ हो गयी है। प्रत्येक नाम मंत्र पढ़कर अक्षत / पुष्प चढ़ाये। नमस्कार करें।

1. श्री कुबेराय नमः।
2. श्री धनदाय नमः।
3. श्री श्रीमते नमः।
4. श्री यक्षेशाय नमः।
5. श्री गुह्यकेश्वराय नमः।
6. श्री निधीशाय नमः।
7. श्री शङ्कर-सखाय नमः।
8. श्री महालक्ष्मी-निवासभुवे नमः।
9. श्री महापद्म-निधीशाय नमः।
10. श्री पूर्णाय नमः।
11. श्री पद्मनिधीश्वराय नमः।
12. श्री शङ्खाख्य-निधिनाथाय नमः।
13. श्री मकराख्यनिधि-प्रियाय नमः।
14.  श्री सुकच्छपाख्य-निधीशाय नमः।
15. श्री मुकुन्दनिधि-नायकाय नमः।
16. श्री कुन्दाख्यनिधि-नाथाय नमः।
17. श्री नील-निध्यधिपाय नमः।
18. श्री महते नमः।
19. श्री वरनिधिदीपाय नमः।
20. श्री पूज्याय नमः।
21. श्री लक्ष्मीसाम्राज्य-दायकाय नमः।
22. श्री इलाविडा-पुत्राय नमः।
23. श्री कोशाधीशाय नमः।
24. श्री कुलोचिताय नमः।
25. श्री अश्वारूढाय नमः।
26. श्री विश्ववन्द्याय नमः।
27. श्री विशेषज्ञाय नमः।
28. श्री विशारदाय नमः।
29. श्री नलकूबर-नाथाय नमः।
30. श्री मणिग्रीवपित्रे नमः।
31. श्री गूढमन्त्राय नमः।
32. श्री वैश्रवणाय नमः।
33. श्री चित्रलेखा-मनःप्रियाय नमः।
34. श्री एकपिनाकाय नमः।
35. श्री अलकाधीशाय नमः।
36. श्री पौलस्त्याय नमः।
37. श्री नरवाहनाय नमः।
38. श्री कैलास-शैलनिलयाय नमः।
39. श्री राज्यदाय नमः।
40. श्री रावणाग्रजाय नमः।
41. श्री चित्रचैत्र-रथाय नमः।
42. श्री उद्यान-विहाराय नमः।
43. श्री विहार-सुकुतूहलाय नमः।
44. श्री महोत्सहाय नमः।
45. श्री महाप्राज्ञाय नमः।
46. श्री सदा-पुष्पक-वाहनाय नमः।
47. श्री सार्वभौमाय नमः।
48. श्री अङ्गनाथाय नमः।
49. श्री सोमाय नमः।
50. श्री सौम्यादिकेश्वराय नमः।
51. श्री पुण्यात्मने नमः।
52. श्री पुरुहूत श्रिये नमः।
53. श्री सर्वपुण्यजनेश्वराय नमः।
54. श्री नित्यकीर्तये नमः।
55. श्री निधिवेत्रे नमः।
56.श्री लङ्का-प्राक्तन-नायकाय नमः।
57. श्री यक्षिणीवृताय नमः।
58. श्री यक्षाय नमः।
59. श्री परम-शान्तात्मने नमः।
60. श्री यक्षराजे नमः।
61. श्री यक्षिणी-हृदयाय नमः।
62. श्री किन्नरेश्वराय नमः।
63. श्री किम्पुरुष-नाथाय नमः।
64. श्री खड्गायुधाय नमः।
65. श्री वशिने नमः।
66. श्री ईशान-दक्ष-पार्श्वस्थाय नमः।
67. श्री वायुवाम-समाश्रयाय नमः।
68. श्री धर्ममार्ग-निरताय नमः।
69. श्री धर्मसम्मुख-संस्थिताय नमः।
70. श्री नित्येश्वराय नमः।
71. श्री धनाध्यक्षाय नमः।
72. श्री अष्ट-लक्ष्म्याश्रितालयाय नमः।
73. श्री मनुष्यधर्मिणे नमः।
74. श्री सुकृतिने नमः।
75. श्री कोषलक्ष्मी-समाश्रिताय नमः।
76. श्री धनलक्ष्मी-नित्यवासाय नमः।
77. श्री धान्यलक्ष्मी-निवासभुवे नमः।
78. श्री अष्टलक्ष्मी-सदावासाय नमः।
79. श्री गजलक्ष्मी-स्थिरालयाय नमः।
80. श्री राज्यलक्ष्मी-जन्मगेहाय नमः।
81. श्री धैर्यलक्ष्मी-कृपाश्रयाय नमः।
82. श्री अखण्डैश्वर्य-संयुक्ताय नमः।
83. श्री नित्यानन्दाय नमः।
84. श्री सुखाश्रयाय नमः।
85. श्री नित्यतृप्ताय नमः।
86. श्री निराशाय नमः।
87. श्री निरुपद्रवाय नमः।
88. श्री नित्यकामाय नमः।
89. श्री निराकाङ्क्षाय नमः।
90. श्री निरूपाधिक-वासभुवे नमः।
91. श्री शान्ताय नमः।
92. श्री सर्वगुणोपेताय नमः।
93. श्री सर्वज्ञाय नमः।
94. श्री सर्वसम्मताय नमः।
95. श्री सर्वाणि-करुणापात्राय नमः।
96. श्री सदानन्द-कृपा-लयाय नमः।
97. श्री गन्धर्वकुल-संसेव्याय नमः।
98. श्री सौगन्धिक-कुसुमप्रियाय नमः।
99. श्री स्वर्णनगरी-वासाय नमः।
100.श्री निधिपीठ-समाश्रयाय नमः।
101.श्री महामेरूत्तर-स्थाय नमः।
102.श्री महर्षिगण-संस्तुताय नमः।
103.श्री तुष्टाय नमः।
104.श्री शूर्पणखा-ज्येष्ठाय नमः।
105.श्री शिवपूजा-रताय नमः।
106.श्री अनघाय नमः।
107.श्री राजयोग-समायुक्ताय नमः।
108.श्री राजशेखर-पूज्याय नमः।
109.श्री राजराजाय नमः।

इस प्रकार से ये स्तोत्र तथा सूक्त प्रस्तुत हुए हैं। आर्थिक उन्नति के लिये इनका दैनिक पूजा या विशेष अवसरों में पाठ करें। 
विशेष लाभ हेतु दीपावली की रात्रि को इंद्रकृत श्रीमहालक्ष्मी अष्टक स्तोत्र का १०८ बार पाठ कर सकते हैं। आप सब पर भगवती महालक्ष्मी की कृपा बनी रहे। जय माँ महालक्ष्मी 🙏🌷

टिप्पणियाँ

  1. Shriman, Kanakdhara Stotra mein shlokon ki jo vyavastha yahan aapne batayi hai vah Gita Press Gorakhpur ki Nityakarma Pujaprakash mein chhapi Kanakdhara Stotra se bhinn hai. Kripya is shanka ka nivaran karein.
    Narayan

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    उत्तर
    1. यह स्तोत्र दक्षिणभारत की एक प्रति से यहाँ लिखा था उसमें २३ श्लोक हैं जबकि गीता प्रेस वाले में १८ ही हैं। उस प्रति में कुछ श्लोकों का क्रम भी ऊपर नीचे हुआ है। आपके कहने पर थोड़ा ढूढने पर अभी एक अन्य ग्रंथ में इसी स्तोत्र का शुद्ध स्वरूप, ध्यान व विनियोग भी प्राप्त हो गया है उसे यहाँ शीघ्र ही लिखकर इस पेज को अपडेट कर दिया जायेगा। धन्यवाद! जय माँ महालक्ष्मी 🙏

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