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गवती राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी की श्रीयन्त्र के रूप में आराधना करने की परम्परा पुरातन काल से ही चली आ रही है। मान्यता है कि जगज्जननी माँ ललिता का प्रादुर्भाव माघमास की पूर्णिमा को हुआ था। आद्याशक्ति भगवती ललिताम्बा की जयंती तिथि को इन भगवती की विशेष आराधना की जाती है। श्रीयंत्र-निवासिनी भगवती षोडशी महाविद्या ही त्रिपुराम्बा, श्रीविद्या, ललिता, महात्रिपुरसुन्दरी, श्रीमाता, त्रिपुरा आदि नामों से सुविख्यात हैं। 'ललिता' नाम की व्युत्पत्ति पद्मपुराण में कही गयी है- 'लोकानतीत्य ललते ललिता तेन चोच्यते।' जो संसार से अधिक शोभाशाली हैं, वही भगवती ललिता हैं।
श्रीविद्याके लीलाविग्रह तो अनन्त हैं। श्रीमत्त्रिपुरसुन्दरी ललिता महाविद्या के विषय में कुछ भी लिखना सूर्यदेव को दीप दिखाने जैसा है क्योंकि अनंत का जितना भी वर्णन करें कम ही है। परंतु ऐसा होने पर भी ललिताम्बा की जो महिमा वर्णित हुई है ब्रह्माण्डपुराण, त्रिपुरारहस्य आदि पुराणेतिहासों में, उसके माध्यम से इन महात्रिपुरसुन्दरी मां की भक्ति में हम लग जाएं तो निश्चय ही जीवन सफल है। ललिता मां के प्रादुर्भाव के सन्दर्भ में ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड में जो मुख्य कथा वर्णित की गई है यहां प्रस्तुत है-
पूर्वकाल में शिवजी की क्रोधाग्नि द्वारा दग्ध कामदेव की उस भस्म से गणेशजी के साथ खेलने के लिये भगवती पार्वती जी ने एक पुतला बनाया और उसको प्राणयुक्त कर दिया। तब उस तमोगुणी पिण्ड में भगवती रमा के द्वारा शापित माणिक्यशेखर के जीवन का प्रवेश होने से पिण्ड ने भयंकर रूप धारण कर लिया। यही भण्डासुर की उत्पत्ति का निमित्त बना।
पूर्वकाल में शिवजी की क्रोधाग्नि द्वारा दग्ध कामदेव की उस भस्म से गणेशजी के साथ खेलने के लिये भगवती पार्वती जी ने एक पुतला बनाया और उसको प्राणयुक्त कर दिया। तब उस तमोगुणी पिण्ड में भगवती रमा के द्वारा शापित माणिक्यशेखर के जीवन का प्रवेश होने से पिण्ड ने भयंकर रूप धारण कर लिया। यही भण्डासुर की उत्पत्ति का निमित्त बना।
गणेश जी ने उस बालक का मार्गदर्शन करने हेतु उसे भगवान की आराधना करने की प्रेरणा दी, तो उस भण्ड नाम के असुर ने श्रीशिवशंकरजी की उग्र तपस्या की और उनसे अभय वर प्राप्त कर त्रिलोकाधिपत्य करते हुए देवताओं के हविर्भाग का भी स्वयमेव भोग करना आरम्भ किया। दुष्ट भण्डासुर जब इन्द्राणी का हरण करने की सोचने लगा तो इन्द्राणी उस असुर के डर से गौरी के निकट आश्रयार्थ गयीं। इधर भण्ड ने विशुक्र को पृथिवी का और विषङ्ग को पाताल का आधिपत्य दिया। उस दुष्ट ने स्वयं इन्द्रासन पर आरूढ़ होकर इन्द्रादि देवताओं को अपनी पालकी ढोने पर नियुक्त किया। दैत्यगुरु शुक्राचार्यजी ने दयावश होकर इन्द्रादिकों को इस दुर्गति से मुक्त किया।
असुरों की मूल राजधानी शोणितपुर को ही मयासुर के द्वारा स्वर्ग से भी सुन्दर बनवाकर उसका नया नाम शून्यकपुर रखकर वहीं पर भण्ड दैत्य राज्य करने लगा। स्वर्ग को उसने नष्ट कर डाला। दिक्पालों के स्थान में अपने बनाये हुए दैत्यों को ही उसने बैठाया। इस प्रकार एक सौ पाँच ब्रह्माण्डों पर उसने आक्रमण किया और उनको अपने अधिकार में कर लिया।
अनन्तर भण्ड दैत्य ने फिर घोर तपस्या कर शिवजी से अमरत्व का वरदान पाया। इन्द्राणी ने गौरी का आश्रय पाया है, यह सुनकर दुष्ट भण्डासुर दैत्यसेना के साथ कैलास गया और गणेशजी की भर्त्सना कर उनसे इन्द्राणी को अपने लिये माँगने लगा। भण्डासुर की ऐसी दुष्टता देखकर गणेशजी क्रुद्ध होकर प्रमथादि गणों को साथ लेते हुए उससे युद्ध करने लगे। अपने पुत्र गणेश को युद्धप्रवृत्त देखकर गणेशजी की सहायता करने के लिये भगवती गौरी अपनी कोटि-कोटि शक्तियों के साथ युद्धस्थल में आकर दैत्यों से युद्ध करने लगीं। इधर गणेशजी की गदा के प्रहार से मूर्च्छित होकर पुन: प्रकृतिस्थ होते ही भण्डासुर ने उनको अङ्कुशाघात से गिराया। माता गौरी यह देखकर बहुत क्रुद्ध हुईं और हुङ्कार से भण्डासुर को बाँधकर ज्यों ही मारने के लिये उद्यत हुईं त्यों ही ब्रह्माजी ने गौरी को शङ्करजी के दिये हुए अमरत्व-वर-प्रदान का स्मरण दिलाया। शिवजी के वरदान का मान रखने के लिये विवश होकर गौरी ने भण्डासुर को छोड़ दिया।
इस प्रकार भण्ड दैत्य से त्रस्त होकर इन्द्रादि देवों ने देवगुरु वृहस्पतिजी की आज्ञानुसार हिमाचल में त्रिपुरादेवी के उद्देश्य से 'तान्त्रिक महायाग' करना आरम्भ किया। इसमें श्रीसूक्त से हवन भी किया गया। अन्तिम दिन याग समाप्त कर जब देवगण श्रीमाता की स्तुति कर रहे थे, इतने ही में ज्वाला के बीच से महाशब्दपूर्वक अत्यन्त तेजस्विनी त्रिपुराम्बा प्रादुर्भूत हुईं। उस महाशब्द को सुनकर तथा उस लोकोत्तर प्रकाशपुञ्ज को देखकर देवगुरु वृहस्पति को छोड़कर बाकी सब देवतागण बधिर तथा अन्ध होते हुए मूर्च्छित हो गये।
साक्षात् ललिताम्बा को समक्ष देख देवगुरु तथा ब्रह्माजी ने हर्षगद्गद स्वर से श्रीमाता की स्तुति की। श्रीमाता ने प्रसन्न होकर उनका अभीष्ट पूछा। उन्होंने भी भण्डासुर की कथा सुनाकर उसके नाश की प्रार्थना की। माता ने भी उस दुष्ट असुर को मारना स्वीकार किया और मूर्च्छित इन्द्रादि देवों को अपनी अमृतमय कृपादृष्टि से चैतन्य करते हुए अपने दर्शन की योग्यता प्रदान करने के लिये उनको विशेष रूप से तपस्या करने की आवश्यकता बतलायी। देवता लोग भी माता की आज्ञानुसार तपस्या करने लगे। इधर भण्डासुर ने देवों पर धावा बोल दिया।
कोटि-कोटि सैनिकों के साथ आते हुए भण्ड दैत्य को देखकर देवों ने त्रिपुराम्बा की प्रार्थना करते हुए अपने शरीर अग्निकुण्ड में अर्पित कर दिये। भगवती त्रिपुराम्बा की आज्ञानुसार 'ज्वालामालिनी' शक्ति ने देवगणों के आसमन्तात्(चारों ओर) एक ज्वालामण्डल प्रकट किया। देवों को ज्वाला में भस्मीभूत समझकर भण्ड दैत्य सैन्य के साथ वापस चला गया। दैत्य के जाने के बाद देवतागण जब अपने अवशिष्टाङ्गों की पूर्णाहुति करने के लिये ज्यों ही उद्यत हुए त्यों ही ज्वाला के मध्य से तडित्पुञ्जनिभा 'त्रिपुराम्बा' आविर्भूत हुईं। देव लोगों ने जयघोषपूर्वक पूजनादि द्वारा भगवती ललिता की स्तुति की।
त्रिनेत्रा, दिव्याभूषण भूषित, लाल वस्त्र पहनी हुई माता ललिता ने ईख का धनुष, पुष्पों से मंडित बाण, पाश तथा अंकुश धारण किया हुआ था। सृष्टि, स्थिति , संहार, निग्रह, अनुग्रह रूपी पंच कृत्य करने वाले देवों ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर, सदाशिव के अनुरोध से भगवती ने उन्हें अपना सिंहासन बनाया। समस्त देवताओं के अनुरोध से वे दो रूप में विभक्त होकर श्री कामेश्वर व श्री कामेश्वरी बन गयीं। भगवान कामेश्वर शिव का भी श्री कामेश्वरी शिवा भगवती ललिता जैसा ही चतुर्भुज रूप था। देवों को अपना दर्शन सुलभ हो इसलिये श्रीमाता ने विश्वकर्मा के द्वारा सुमेरु शिखर पर निर्मित श्री-नगर में सर्वदा निवास करना स्वीकार किया।
भगवती ने श्री नारद जी द्वारा शून्यकपुर में भंडासुर के पास संदेश भिजवाया कि वह देवताओं को सताना छोड़ दे लेकिन वह दुष्ट नहीं माना। उसके बाद श्रीमाता ललिताम्बा ने देवों की प्रार्थना के अनुसार श्रीचक्रात्मक रथ पर आरुढ़ होकर भण्ड दैत्य को मारने के लिये प्रस्थान किया। महाभयानक युद्ध प्रारम्भ हुआ।
श्रीमाता के कुमार श्रीमहागणपति तथा कुमारी बालाम्बा ने भी युद्ध में बहुत पराक्रम दिखाया। श्रीमाता की मुख्य दो शक्तियों- १- मन्त्रिणी - 'राजमातङ्गीश्वरी', २- दण्डिनी - 'वाराही' और भगवती बाला त्रिपुर सुंदरी ने व अन्य अनेक शक्तियों ने अपने प्रबल पराक्रम के द्वारा दैत्य-सैन्य में खलबली मचा दी।एक बार वह स्वयम् ही हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, रावण, कुम्भकर्ण, शिशुपाल, दन्तवक्र, कंस आदि असुरों के रूप में आया, लेकिन राजराजेश्वरी भगवती ने अपनी करांगुलियों के अग्रभाग से श्री हरि नारायण के दसों अवतार प्रकट करके उन सब असुरों का संहार कर दिया।
अन्त में बड़ी कठिनता उपस्थित होने पर जब श्रीमाता ने महा-कामेश्वरास्त्र चलाया, तब सपरिवार भण्ड दैत्य मारा गया। क्योंकि शिव-वरदान के कारण अन्य किसी प्रचलित अस्त्र से उसकी मृत्यु नहीं हो सकती थी। देवों का भय दूर हुआ और वे पूर्ववत् स्वर्ग में अपने-अपने पदों पर अधिष्ठित हो गये। दैत्य द्वारा आक्रान्त एक सौ पाँच ब्रह्माण्डों में भी पुनः चैन की वंशी बजने लगी।
इस प्रकार संक्षेप में यहाँ ये कथा बतलाई गई है। विस्तृत विवरण के लिये विशेष जिज्ञासुओं को "त्रिपुरारहस्य" ग्रंथ का माहात्म्यखण्ड देखना चाहिये। इनकी मंत्र उपासना योग्य गुरु से दीक्षा लेकर ही करें। तन्त्र ग्रन्थों में ललिता भगवती के प्रातः स्मरण, अष्टक, कवच, हृदय, खड्गमाला शतनाम, सहस्रनाम, मानसपूजन आदि बहुत से उत्तम स्तोत्र मिलते हैं जिनके माध्यम से भगवती त्रिपुरसुन्दरी की स्तोत्रात्मक स्तुति उत्तम प्रकार से की जाती है। आद्य शंकराचार्य जी द्वारा रचित 'सौंदर्य लहरी' नामक स्तोत्र तो सौ श्लोकों का है।
ध्यान
पराम्बिका भगवती ललिताम्बा के दो प्रकार के ध्यान यहां प्रस्तुत हैं-
सिन्दूरारुण-विग्रहां त्रिनयनां माणिक्य-मौलिस्फुरत्
तारानायक-शेखरां स्मित-मुखीमापीन-वक्षोरुहाम्।
पाणिभ्यामलि-पूर्णत्नचषकं रक्तोत्पलं बिभ्रतीं
सौम्यां रत्नघटस्थ-रक्तचरणां ध्यायेत् परामम्बिकाम्।।
अर्थात् सिन्दूर के समान अरुण विग्रह वाली, तीन नेत्रों से सम्पन्न, माणिक्यजटित प्रकाशमान मुकुट तथा चन्द्रमा से सुशोभित मस्तकवाली, मुसकानयुक्त मुखमण्डल एवं स्थूल वक्षःस्थलवाली, अपने दोनों हाथों में से एक हाथ में मधु से परिपूर्ण रत्ननिर्मित मधूकलश तथा दूसरे हाथ में लाल कमल धारण करने वाली ओर रत्नमय घट पर अपना रक्त चरण रखकर सुशोभित होने वाली शान्तस्वभाव भगवती पराम्बिका का ध्यान करना चाहिये।
ध्यायेत्पद्मासनस्थां विकसितवदनां पद्मपत्रायताक्षीं
हेमाभां पीतवस्त्रां करकलितलसद्धेमपद्मां वराङ्गीम्।
सर्वालङ्कारयुक्तां सततमभयदां भक्तनम्रां भवानीं
श्रीविद्यां शान्तमूर्तिं सकलसुरनुतां सर्वसम्पत्प्रदात्रीम्॥
अर्थात् कमल के आसन पर विराजमान, प्रसन्न
मुखमण्डल वाली, कमल-दल के सदृश विशाल नेत्रों वाली, स्वर्ण
के समान आभा वाली, पीतवर्ण के
वस्त्र धारण करने वाली, अपने
कोमल हाथ में स्वर्णिम कमल धारण करने वाली, सुन्दर
शरीरावायव से सुशोभित, सभी प्रकार
के आभूषणों से अलङ्कृत, निरन्तर अभय
प्रदान करने वाली, भक्तों के प्रति
कोमल स्वभाव वाली, शान्त मूर्ति, सभी देवताओं से नमस्कृत तथा सम्पूर्ण सम्पदा प्रदान करने वाली भवानी श्रीविद्या का ध्यान करना चाहिये।
वेद भी इन महात्रिपुरसुन्दरी मां का वर्णन कर सकने में असमर्थ हैं। भक्तों को ललिता महाविद्या प्रसन्न होकर सब कुछ दे देती हैं, "अभीष्ट" तो सीमित अर्थवाच्य शब्द है।भगवती महात्रिपुरसुन्दरी की कृपा का एक कण भी अभीष्ट से अधिक प्रदान करने में समर्थ है। 'श्रीविद्या' के विषय में अब भी बहुत वक्तव्य अवशिष्ट रह गया है, इस हेतु निश्चित रूप से आगे भी कई लेख प्रस्तुत किए जायेंगे। श्रीललिता जयंती पर 'श्रीमाता ललिताम्बा प्रीयताम्' कहते हुए भगवती ललिता महात्रिपुरसुन्दरी के श्री चरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम है....
ati uttam katha aapke dwara pratham baar suni ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, आपने इस पावन कथा को हृदयंगम किया... श्रीमहात्रिपुरसुंदरी ललिता माता सदा आपका मंगल करें...
हटाएंमुझे भगवान महागणपति के विषय में जानकारी चाहिए..कृपया उनके बारे में भी कुछ कथा कहे
जवाब देंहटाएंजगज्जनन्यै नमः। जगज्जननी पराम्बा महाकामेश्वरी भगवती श्री ललिता त्रिपुरसुंदरी देवी का यह चरित्र संक्षेप में कल्याण के शक्ति अंक में पढ़ा था। यहाँ इसे विस्तृत रूप में पढ़कर अतीव आनंद हुआ। श्रीमात्रे नमः।
जवाब देंहटाएं🙏🙏🙏🙏🙏