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भा
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द्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि भगवती भुवनेश्वरी की प्रादुर्भाव तिथि है। भुवनेश्वरी देवी को चतुर्थी महाविद्या कहा गया है किन्तु आद्याशक्ति भुवनेश्वरी ही हैं उन्हीं से सबका प्रादुर्भाव हुआ है, ऐसा कथन कुञ्जिका तन्त्र में है-
भुवनानां पालकत्वाद् भुवनेशी प्रकीर्तिता ।
सृष्टि-स्थिति-करी देवी भुवनेशी प्रकीर्तिता।।
अर्थात् त्रिभुवन की सृष्टि, स्थिति और पालन करती हैं, इस कारण भुवनेशी अर्थात् भुवन की ईश्वरी कही जाती हैं।
तोड़ल तन्त्र में भी कहा है-
श्रीमद्-भुवन-सुन्दर्या दक्षिणे त्र्यम्बकं यजेत्।
स्वर्गे मर्त्ये च पाताले सा आद्या भुवनेश्वरी।
यहाँ भी महाविद्या भुवनेश्वरी आद्या कहीं गई हैं। इसी तोड़ल तन्त्र में दस महाविद्याओं के निरूपण में श्री महादेव जी ने कहा है-
'भुवनेश्वरी देवी के भैरव त्र्यम्बक हैं। इनकी अर्चना भुवन-सुंदरी के दक्षिण भाग में करे।'
भुवनेश्वरी को सर्वत्र आद्या विद्या कहा जाता है। भगवान भैरव भुवनेश्वरी-सहित स्वर्ग, मर्त्य और पाताल इन तीनों स्थान में रमण करते है, इसलिए इन्हें त्र्यम्बक कहा जाता है।
श्री देवी भागवत के १२वें स्कन्ध के अध्याय ८ में भुवनेश्वरी महाविद्या के ज्योति ब्रह्म एवं आद्या शक्ति होने का प्रकरण प्राप्त होता है-
पूर्व काल में मदोद्धत नामक दैत्य-राज था। उसने १०० वर्ष देवताओं से घोर युद्ध किया। पराशक्ति की कृपा से देवताओं से दैत्य-राज हार गया। देव-गण हर्षित हो अहंकार वश अपने-अपने पराक्रम का वर्णन करने लगे- 'हम लोग देवता हैं सृष्टि का उत्पादन-पालन करने में समर्थ हैं। हमारे आगे नीच दैत्य का क्या पराक्रम है, जो हम लोगों को वह जीत सके।'
अहंकार वश देवताओं ने परा-शक्ति के प्रभाव पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया कि पराशक्ति भगवती के ही प्रभाव से वे दैत्य-राज को परास्त कर पाये हैं। फलत: उसी समय एक तेजो-मय स्वरूप प्रकट हुआ, जिसका करोड़ों सूर्य जैसा प्रकाश, कोटि-चन्द्र-समान शीतलता, कोटि-विद्युत्-समान दीप्ति थी। स्मरण रहे, विद्युत्-दीप्ति अरुण(लाल) होती है।
देव-गण उसे देखकर परम आश्चर्य-चकित हुए। उस तेज का परिचय जानना चाहा। देवराज इन्द्र ने परिचय लेने के लिए पहले अग्निदेव को भेजा। अग्नि ने अहंकार पूर्वक अपना परिचय देते हुए कहा- 'मैं अग्नि हूँ, क्षण भर में संसार को जला सकता हूँ’ अग्नि देव ने उस तेज-राशि का परिचय पूछा।
तब तेज-राशि ने एक तृण/तिनका सामने फैला दिया और अग्निदेव से उसे जलाने को कहा। कितना प्रयत्न किया परंतु उस तिनके को अग्नि नहीं जला सके और लज्जित होकर वापस चले आये और इन्द्र से सब वृत्तान्त कहा। तब देवराज ने पवन से कहा कि 'तुम सबके प्राण हो, तुम पता लगाओ ।'
अहंकार के वशीभूत पवन के उस तेज से परिचय पूछने पर उस दिव्य तेज ने पवन से पूछा कि 'तुममें कौन सी शक्ति है?’
पवन ने घमण्ड से कहा कि 'मैं मातरिश्वर पवन हूँ, मेरी ही शक्ति से सब चलते फिरते हैं। मैं निकल जाता हूँ, तो कोई कुछ नहीं कर सकता।' यह सुनकर तेज ने उसी एक तृण को चलाने को कहा किन्तु पवनदेव उस तिनके को नहीं डिगा सके और लज्जित होकर वापस चले आये।
भुवनानां पालकत्वाद् भुवनेशी प्रकीर्तिता ।
सृष्टि-स्थिति-करी देवी भुवनेशी प्रकीर्तिता।।
अर्थात् त्रिभुवन की सृष्टि, स्थिति और पालन करती हैं, इस कारण भुवनेशी अर्थात् भुवन की ईश्वरी कही जाती हैं।
तोड़ल तन्त्र में भी कहा है-
श्रीमद्-भुवन-सुन्दर्या दक्षिणे त्र्यम्बकं यजेत्।
स्वर्गे मर्त्ये च पाताले सा आद्या भुवनेश्वरी।
यहाँ भी महाविद्या भुवनेश्वरी आद्या कहीं गई हैं। इसी तोड़ल तन्त्र में दस महाविद्याओं के निरूपण में श्री महादेव जी ने कहा है-
'भुवनेश्वरी देवी के भैरव त्र्यम्बक हैं। इनकी अर्चना भुवन-सुंदरी के दक्षिण भाग में करे।'
भुवनेश्वरी को सर्वत्र आद्या विद्या कहा जाता है। भगवान भैरव भुवनेश्वरी-सहित स्वर्ग, मर्त्य और पाताल इन तीनों स्थान में रमण करते है, इसलिए इन्हें त्र्यम्बक कहा जाता है।
श्री देवी भागवत के १२वें स्कन्ध के अध्याय ८ में भुवनेश्वरी महाविद्या के ज्योति ब्रह्म एवं आद्या शक्ति होने का प्रकरण प्राप्त होता है-
पूर्व काल में मदोद्धत नामक दैत्य-राज था। उसने १०० वर्ष देवताओं से घोर युद्ध किया। पराशक्ति की कृपा से देवताओं से दैत्य-राज हार गया। देव-गण हर्षित हो अहंकार वश अपने-अपने पराक्रम का वर्णन करने लगे- 'हम लोग देवता हैं सृष्टि का उत्पादन-पालन करने में समर्थ हैं। हमारे आगे नीच दैत्य का क्या पराक्रम है, जो हम लोगों को वह जीत सके।'
अहंकार वश देवताओं ने परा-शक्ति के प्रभाव पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया कि पराशक्ति भगवती के ही प्रभाव से वे दैत्य-राज को परास्त कर पाये हैं। फलत: उसी समय एक तेजो-मय स्वरूप प्रकट हुआ, जिसका करोड़ों सूर्य जैसा प्रकाश, कोटि-चन्द्र-समान शीतलता, कोटि-विद्युत्-समान दीप्ति थी। स्मरण रहे, विद्युत्-दीप्ति अरुण(लाल) होती है।
देव-गण उसे देखकर परम आश्चर्य-चकित हुए। उस तेज का परिचय जानना चाहा। देवराज इन्द्र ने परिचय लेने के लिए पहले अग्निदेव को भेजा। अग्नि ने अहंकार पूर्वक अपना परिचय देते हुए कहा- 'मैं अग्नि हूँ, क्षण भर में संसार को जला सकता हूँ’ अग्नि देव ने उस तेज-राशि का परिचय पूछा।
तब तेज-राशि ने एक तृण/तिनका सामने फैला दिया और अग्निदेव से उसे जलाने को कहा। कितना प्रयत्न किया परंतु उस तिनके को अग्नि नहीं जला सके और लज्जित होकर वापस चले आये और इन्द्र से सब वृत्तान्त कहा। तब देवराज ने पवन से कहा कि 'तुम सबके प्राण हो, तुम पता लगाओ ।'
अहंकार के वशीभूत पवन के उस तेज से परिचय पूछने पर उस दिव्य तेज ने पवन से पूछा कि 'तुममें कौन सी शक्ति है?’
पवन ने घमण्ड से कहा कि 'मैं मातरिश्वर पवन हूँ, मेरी ही शक्ति से सब चलते फिरते हैं। मैं निकल जाता हूँ, तो कोई कुछ नहीं कर सकता।' यह सुनकर तेज ने उसी एक तृण को चलाने को कहा किन्तु पवनदेव उस तिनके को नहीं डिगा सके और लज्जित होकर वापस चले आये।
देवताओं की प्रशंसा पर देवराज इन्द्र स्वयं अहंकार-पूर्वक उस दिव्य तेज के निकट गये। लेकिन तेज अन्तर्हित हो गया वार्ता भी न हो सकी। यह देखकर देवराज ने लज्जित हो प्राण ही त्यागना चाहा।
तभी आकाशवाणी हुई-
‘सहत्राक्ष! माया-बीज (ह्रीं) जपो। उसी से सुखी होगे।’
अहंकार त्याग कर इन्द्र नेत्र बन्दकर माया बीज जपने लगे। अकस्मात् चैत्र शुक्ल नवमी को उसी स्थान पर एक तेज-मण्डल पुनः प्रकट हुआ। उसके मध्य में नवयौवना, कोटि-बाल-रवि की प्रभा से युक्त, द्वितीया के चंद्रमा-सदृश मुकुट धारण किये, चतुर्भुजी, वर-पाश-अभय-अंकुश लिये, कोमलांगी, भक्तवत्सला भुवनेश्वरी, नाना आभरण भूषिता, त्रिनयनी, मल्लिका की माला पहने उमा नामक शिवा, साक्षात करुणा-मूर्ति प्रगट हुई।
यहाँ यह विचारणीय है कि भगवती भुवनेश्वरी के ध्यान और उक्त प्रकरण में वर्णित तेजराशि में प्रगटित भगवती के रूप में अत्यंत समानता है। तेज तो ज्योतिर्मय ब्रह्म ही है, जो शक्ति समन्वित है।
अतः देवी-भागवत में वर्णित केवल इतने ही प्रसङ्ग से ही भगवती भुवनेश्वरी का आद्या शक्ति होना स्पष्ट हो जाता है-
देव-राज इन्द्र ने विविध स्तोत्रों से स्तुति करते हुए जगदम्बा के चरण कमलों में प्रणाम करते हुए पूछा-‘यह तेज क्या है? कहाँ से उत्पन्न हुआ है?’ भगवती वोली-"यह हमारा ब्रह्म रूप है, जो सब कारणों का कारण है और माया का अधिष्ठान सर्व-साक्षी निरामय है, जिसे सभी वेद मानते हैं। जिसे सब तप कहते हैं, जिस ब्रह्मपद की प्राप्ति की इच्छा रखकर ब्रह्मचर्य पालन किया जाता है वह पद तुमसे कहती हूँ। सब वेदो में ॐ को एकाक्षर ब्रह्म कहा जाता है और ह्रीं भी एकाक्षर ब्रह्म है। ये दो बीज हमारे मुख्य हैं जिनसे मैं माया-भाग और ब्रह्म-भाग से युक्त हो सकल संसार को बनाती हूँ। प्रथम भाग तो सच्चिदानंद नामक भाग है और दूसरा माया प्रकृति-संज्ञक है। वह माया परा-शक्ति है और मैं ईश्वरी शक्ति-मती हूँ। वह हमसे भिन्न नहीं है, जैसे चन्द्रमा से उसकी चन्द्रिका।"
मूल प्रकृति महाविद्या भुवनेश्वरी की आराधना करने वाले भक्तगण भुवनेश्वरी खड्गमाला मंत्र, कवच, अष्टोत्तरशत नाम आदि द्वारा माँ की उपासना किया करते हैं।
तभी आकाशवाणी हुई-
‘सहत्राक्ष! माया-बीज (ह्रीं) जपो। उसी से सुखी होगे।’
अहंकार त्याग कर इन्द्र नेत्र बन्दकर माया बीज जपने लगे। अकस्मात् चैत्र शुक्ल नवमी को उसी स्थान पर एक तेज-मण्डल पुनः प्रकट हुआ। उसके मध्य में नवयौवना, कोटि-बाल-रवि की प्रभा से युक्त, द्वितीया के चंद्रमा-सदृश मुकुट धारण किये, चतुर्भुजी, वर-पाश-अभय-अंकुश लिये, कोमलांगी, भक्तवत्सला भुवनेश्वरी, नाना आभरण भूषिता, त्रिनयनी, मल्लिका की माला पहने उमा नामक शिवा, साक्षात करुणा-मूर्ति प्रगट हुई।
यहाँ यह विचारणीय है कि भगवती भुवनेश्वरी के ध्यान और उक्त प्रकरण में वर्णित तेजराशि में प्रगटित भगवती के रूप में अत्यंत समानता है। तेज तो ज्योतिर्मय ब्रह्म ही है, जो शक्ति समन्वित है।
अतः देवी-भागवत में वर्णित केवल इतने ही प्रसङ्ग से ही भगवती भुवनेश्वरी का आद्या शक्ति होना स्पष्ट हो जाता है-
देव-राज इन्द्र ने विविध स्तोत्रों से स्तुति करते हुए जगदम्बा के चरण कमलों में प्रणाम करते हुए पूछा-‘यह तेज क्या है? कहाँ से उत्पन्न हुआ है?’ भगवती वोली-"यह हमारा ब्रह्म रूप है, जो सब कारणों का कारण है और माया का अधिष्ठान सर्व-साक्षी निरामय है, जिसे सभी वेद मानते हैं। जिसे सब तप कहते हैं, जिस ब्रह्मपद की प्राप्ति की इच्छा रखकर ब्रह्मचर्य पालन किया जाता है वह पद तुमसे कहती हूँ। सब वेदो में ॐ को एकाक्षर ब्रह्म कहा जाता है और ह्रीं भी एकाक्षर ब्रह्म है। ये दो बीज हमारे मुख्य हैं जिनसे मैं माया-भाग और ब्रह्म-भाग से युक्त हो सकल संसार को बनाती हूँ। प्रथम भाग तो सच्चिदानंद नामक भाग है और दूसरा माया प्रकृति-संज्ञक है। वह माया परा-शक्ति है और मैं ईश्वरी शक्ति-मती हूँ। वह हमसे भिन्न नहीं है, जैसे चन्द्रमा से उसकी चन्द्रिका।"
मूल प्रकृति महाविद्या भुवनेश्वरी की आराधना करने वाले भक्तगण भुवनेश्वरी खड्गमाला मंत्र, कवच, अष्टोत्तरशत नाम आदि द्वारा माँ की उपासना किया करते हैं।
श्री भुवनेश्वरी खड्ग माला स्तोत्र हम पहले प्रस्तुत कर चुके हैं अब भगवती भुवनेश्वरी का कवच यहाँ प्रस्तुत है-
भुवनेश्वरी त्रैलोक्य मंगल कवचम्
देव्युवाच–भुवनेश्याश्च देवेश! या या विद्या: प्रकाशिताः, श्रुताश्चाधिगता: सर्वा: श्रोतुमिच्छामि सांप्रतं।१॥
त्रैलोक्य मङ्गलं नाम कवचं यत् पुरोदितम्, कथयस्व महा-देव! मम प्रीति-करं परम्। २॥
देवी ने कहा - हे देवेश! भुवनेश्वरी की जिन जिन विद्याओं को आपने प्रकट किया उन सब को मैंने सुना। अब मैं त्रैलोक्य मंगल नामक कवच को सुनना चाहती हूं जिसका उल्लेख पहले हुआ है। हे महादेव मुझे प्रसन्न करने वाले उस कवच को कहिए।
ईश्वर उवाच-
श्रुणु पार्वति! वक्ष्यामि सावधाना-वधारय, त्रैलोक्य-मङ्गलं नाम कवचं मंत्र-विग्रहम्। ३॥
सिद्ध-विद्या-मयं देवि! सर्वैश्वर्य-प्रदायकम्, पठनाद् धारणान्मर्त्य-स्त्रैलोक्यैश्वर्य-वान् भवेत्। ४॥
ईश्वर बोले हे पार्वती सुनो मंत्र स्वरूप त्रैलोक्य मंगल नामक कवच को कहूंगा सावधान होकर उसे ग्रहण करो हे देवी यह सिद्ध विद्यामय है सभी ऐश्वर्यों को देने वाला है इसके पाठ या धारण करने से मनुष्य तीनों लोकों के ऐश्वर्य से युक्त होता है...
त्रैलोक्य-मङ्गलस्यास्य कवचस्य ऋषि श्शिव:, छन्दो विराट, जगद्धात्री देवता भुवनेश्वरी।
धर्मार्थ-काम-मोक्षेषु विनियोग: प्रकीर्तित:। ५॥
इस त्रैलोक्य मंगल कवच के ऋषि शिव हैं विराट छंद है जगद्धात्री भुवनेश्वरी देवता हैं और धर्म अर्थ काम मोक्ष के लिए इसका विनियोग किया जाता है..
विनियोग - अस्य श्री त्रैलोक्य-मङ्गल कवचस्य शिव ऋषि:, विराट छन्द:, जगद्धात्री भुवनेश्वरी देवता, धर्मार्थ-काम-मोक्षेषु जपे विनियोग:॥
कवच
ह्रीं बीजं मे शिरः पातु भुवनेशी ललाटकम्, ऐं पातु दक्ष-नेत्रम् मे ह्रीं पातु वाम-लोचनम्। १॥श्रीं पातु दक्ष-कर्णम् मे त्रिवर्णात्मा महेश्वरी, वाम-कर्णम् सदापातु ऐं घ्राणं पातु मे सदा। २॥
ह्रीं पातु वदनं देवी ऐं पातु रसनां मम, वाक्पुटा च त्रिवर्णात्मा कंठम् पातु पराम्बिका। ३॥
श्रीं स्कन्धौ पातु नियतं ह्रीं भुजौ पातु सर्वदा, क्लीं करौ त्रिपुरेशानि त्रिपुरैश्वर्य-दायिनी। ४॥
तारं पातु हृदयं ह्रीं मे मध्य-देशं सदावतु, क्रों पातु नाभि-देशं सा त्र्यक्षरी भुवनेश्वरी। ५॥
सर्व-बीज-प्रभा पृष्ठम् पातु सर्व-वशंकरी, ह्रीं पातु गुह्य-देशं मे नमो भगवती कटिम्। ६॥
माहेश्वरी सदा पातु सक्थिनी जानु- युग्मकम्, अन्न-पूर्णा सदा पातु वह्निजाया पातु पद-द्वयम्। ७॥
सप्त–दशाक्षरी पायादन्नपूर्णाखिलं वपु:, तारं माया रमा काम: षोडशार्णो तत: परं। ८॥
शिर:स्था सर्वदा पातु विंशत्यर्णात्मिका परा, तारं दुगें-युगं रक्षिणि वह्निजायेति दशाक्षरी। ९॥
जयदुर्गा घन-श्यामा पातु मां पूर्वतो मुदा, माया-बीजादिका चैषा दशार्णा च परा तथा। १०॥
उत्तप्त-काञ्चनाभासा जय-दुर्गाऽनलेऽवतु, तार ह्रीं दुं दुर्गायै नमोऽष्टवर्णात्मिका परा। ११॥
शङ्ख-चक्र-धनुर्बाण-धरा मां दक्षिणेऽवतु, महिष-मर्दिनी वह्निजाया वसु-वर्णात्मिका परा। १२॥
नैर्ऋत्यां सर्वदा पातु महिषासुर-नाशिनी, माया पद्मावती वह्निजाया सप्तार्णा परिकीर्तिता । १३॥
पद्मावती पद्म-संस्था पश्चिमे मां सदावतु, पाशांकुश-पुटा मायेति परमेश्वरि वह्निजाया। १४॥
त्रयोदशार्णा ताराद्या अश्वारूढ़ानलेऽवतु, सरस्वती पञ्चशरे नित्य-क्लिन्ने मदद्रवे। १५॥
वह्निजाया च त्र्यक्षरी विद्या मामुत्तरे सदावतु, तारं माया तु कवचं खे रक्षेत् सततं वधू:। १६॥
हूंक्षेंह्रीं फट् महा-विद्या द्वादशार्णाखिल-प्रदा, त्वरिताष्टादिभि: पायाच्छिव-कोणे सदा च मां।
ऐंक्लींसौ: सततं बाला मामूर्ध्व-देशतोवतु, विंद्वन्ता भैरवी बाला भूमौ च मां सदावतु ।। १८
फल-श्रुति
इति ते कथितं पुण्य त्रैलोक्य-मंगलं परं, सारात् सार-तरं पुण्यम् महा-विद्यौघ-विग्रहं। १॥
अस्य हि पठनात् सद्य: कुबेरोपि धनेश्वर:, इंद्राद्या: सकला देवा: पठनाद् धारणाद्यतः। २॥
सर्व-सिद्धीश्वरा: सन्त: सर्वैश्वर्यमवाप्नुयु:, पुष्पांजल्यष्टकं दत्वा मूलेनैव पठेत् सकृत्। ३॥
संवत्सर-कृतायास्तु पूजायाः फलमाप्नुयात्, प्रीतिमान् योऽन्यत: कृत्वा कमला निश्चला गृहे। ४॥
इति ते कथितं पुण्य त्रैलोक्य-मंगलं परं, सारात् सार-तरं पुण्यम् महा-विद्यौघ-विग्रहं। १॥
अस्य हि पठनात् सद्य: कुबेरोपि धनेश्वर:, इंद्राद्या: सकला देवा: पठनाद् धारणाद्यतः। २॥
सर्व-सिद्धीश्वरा: सन्त: सर्वैश्वर्यमवाप्नुयु:, पुष्पांजल्यष्टकं दत्वा मूलेनैव पठेत् सकृत्। ३॥
संवत्सर-कृतायास्तु पूजायाः फलमाप्नुयात्, प्रीतिमान् योऽन्यत: कृत्वा कमला निश्चला गृहे। ४॥
वाणी च निवसेद् वक्त्रे सत्यं सत्यं न संशय:, यो धारयति पुण्यात्मा त्रैलोक्य-मङ्गलाभिधं। ५॥
कवचं परमं पुण्यं सोऽपि पुण्य-वतां वर:, सर्वैश्वर्य-युतो भूत्वा त्रैलोक्य-विजयी भवेत्। ६॥
कवचं परमं पुण्यं सोऽपि पुण्य-वतां वर:, सर्वैश्वर्य-युतो भूत्वा त्रैलोक्य-विजयी भवेत्। ६॥
पुरुषो दक्षिणे बाहौ नारी वाम-भुजे तथा, बहु-पुत्रवती भूत्वा वन्ध्याऽपि लभते सुतं। ७॥
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि नैव कृन्तन्ति तं जनम्, एतत् कवचमज्ञात्वा यो जपेद्, भुवनेश्वरी।
दारिद्र्यं परमं प्राप्य सोऽचिरान्मृत्यु-माप्नुयात्। ८॥
दारिद्र्यं परमं प्राप्य सोऽचिरान्मृत्यु-माप्नुयात्। ८॥
यह त्रैलोक्यमङ्गल कवच अति पुण्य-दायक है, सार का भी सार है, महा-विद्याओं का सामूहिक स्वरूप है। इसका पाठ करने से कुबेर भी धनेश्वर होते हैं। इन्दादि सभी देव इसके धारण करने से सभी सिद्धियों के स्वामी होकर समस्त ऐश्वर्य प्राप्त करते है। आठ पुष्पाञ्जलियाँ देकर एक बार मूल(कवच) पाठ करे, तो वर्ष भर की पूजा का फल मिलता है, (ऐसा पुरश्चर्या के ब्रह्मचर्य अस्तेय अपरिग्रह सात्विक भोजन आदि नियम पालन करते हुए एक वर्ष तक करने से अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है) लक्ष्मी घर में स्थिर होकर रहती है और मुख में सरस्वती निवास करती है, यह सत्य है। इसमें सन्देह नहीं। जो पुण्यात्मा त्रैलोक्य-मङ्गल नामक इस पवित्र कवच को धारण करता है, वह सभी ऐश्वर्यों से युक्त होकर त्रैलोक्य-विजयी होता है। पुरुष इसे दाहिनी भुजा में और स्त्री बाईं भुजा में धारण करे। बांझ स्त्री भी इस कवच के प्रभाव से बहु-पुत्र-वती होती है। ब्रह्मास्त्रादि शस्त्र उस व्यक्ति को हानि नहीं पहुँचाते। इस कवच को जाने बिना जो भुवनेश्वरी के मन्त्र का जप करता है, वह दरिद्र होकर शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त करता है।
इस कवच को सिध्ध करने की विधि बताइये
जवाब देंहटाएंमहोदय मूल ग्रंथ में इस स्तोत्र की सिद्धि की विधि नहीं दी गई है परंतु किसी भी कवच आदि स्तोत्र का सम्पूर्ण फल पाने के लिए उसका पुरश्चरण करना होता है। मैने एक ग्रंथ में पढ़ा कि अगर स्तोत्र में पुरश्चरण के लिए संख्या न दी गयी हो तो स्तोत्र का 'अयुत' (दस हजार) बार पाठ करे। इसको सुविधा के अनुसार दिनों में बांट लीजिए कि इतने दिन में करना है ... संकल्प करे - "ओऽम् तत्सत् गणपतिर्जयति विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः .....सम्वत्सरे .....मासे ....पक्षे ....तिथौ ...वासरे .....कामना सिद्धयर्थे अद्य दिवसात् आरभ्य .... स्तोत्रस्य पुरश्चरणार्थे अस्य स्तोत्रस्य एक अयुत पाठमहम् करिष्ये" संकल्प करे। पाठ के अलावा 1000 बार हवन, 100 बार तर्पण, 10 बार मार्जन(स्तोत्र बोलकर सिर पर जल छिड़कना) भी करे। अगर हवन तर्पण नहीं कर सकते तो क्रमशः 2000 व 200 पाठ अतिरिक्त करे। उस समय प्रतिदिन उस स्तोत्र के देव का पूजन भी करे । तब जाकर कोई भी स्तोत्र सिद्ध हो जाता है अर्थात् उससे फलश्रुति में बताई गयी कामना सिद्ध हो सकती है। उपरोक्त प्रक्रिया में बहुत समय लगता है इसलिए कोई विशेष फल चाहिए हो तभी स्तोत्र पुरश्चरण करे ...पुरश्चर्या के बाद भी उस स्तोत्र का सुबह शाम पाठ करे तो अच्छा है... जय माँ भुवनेश्वरी
हटाएंमहोदय कृपया बताये की ये आठ पुष्पांजलि क्या होती है। और केसे देना है?
जवाब देंहटाएंजी पुष्पांजलि मतलब दोनो हाथों को फूलों से भर लें और श्री भुवनेश्वरी देवी मां के चित्र / भुवनेश्वरी-यन्त्र /श्रीयन्त्र पर चढ़ा दें।
हटाएंदीक्षा में प्राप्त मन्त्र बोलकर या फिर
"ओऽम् ह्रीं भुवनेश्वरी देव्यै नमः पुष्पांजलिम् समर्पयामि"
इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए हाथों की अंजुली में भरे फूलों को श्रद्धा के साथ चढ़ाना है... इसी प्रकार आठ बार करना है...
पुष्प संख्या आपकी श्रद्धा पर निर्भर करती है...
इस प्रकार माँ को अष्ट पुष्पांजलियाँ अर्पित की जाती है...इसके बाद उपरोक्त कवच पढ़ने से देवी मां की साल भर तक की गई पूजा करने के समान फल होता है.... ऐसी है श्रीभुवनेश्वरी महाविद्या की महिमा...
जय माँ भुवनेश्वरी...
जय माँ भुवनेश्वरी
जवाब देंहटाएंKya is kavach ka paath karne se pehle ise utkeelan karna padega 🙏🏻 kripya batayen
जवाब देंहटाएंभास्कर जी इस कवच के पाठ के लिए उत्कीलन क्रिया की आवश्यकता नहीं है बस प्रतिदिन अर्थ समझते हुए पाठ करे... उत्कीलन प्रायः मन्त्र का ही होता है...यदि कभी कोई सर्व उत्कीलन स्तोत्र या उत्कीलन मन्त्र प्राप्त हो जाय तो उसका पाठ कर सकते हैं परन्तु आवश्यक नहीं है... श्रद्धा पूर्वक पाठ करना पर्याप्त है.. चाहे तो विशेष लाभ के लिए सिद्ध कर सकते हैं जप संख्या ऊपर कमेन्ट में बतलायी है..जय माँ भुवनेश्वरी
हटाएंइस कवच को कैसे धारण करे?
जवाब देंहटाएंपहले किसी पूजा सामग्री वाली दुकान से कवच/ताबीज का खोल और भोजपत्र खरीद ले..ऑनलाइन भी मिलते हैं लेकिन लोकल दुकान की अपेक्षा महँगे हैं..भोजपत्र असली है ऑनलाइन पता नहीं चल पाता किसी विश्वसनीय जगह से खरीदे...
हटाएंकिसी शुभ दिवस में (शुक्ल पक्ष की तृतीया या अष्टमी तिथि या शुक्रवार) के दिन पहले गन्ध पुष्प धूप दीप नैवेद्य से देवी मां की पूजा करे और उपरोक्त एक बार कवच पढ़ ले..
फिर पहले तो तावीज/कवच के खोल को धो ले..फिर अष्टगन्ध, चन्दन, कपूर, सिन्दूर में शुद्ध जल मिलाकर उस लाल स्याही में कुश/आम की पतली डंडी डुबाकर भोजपत्र पर उपरोक्त कवच लिखे... केवल मूलकवच(1-18 श्लोक) को ही लिखना है फलश्रुति नहीं.. फिर भोजपत्र को धूप का धुआँ दिखा कर देवी मां से स्पर्श कराकर तावीज में डाल दो..फिर इस ताबीज की गंध, पुष्प, धूप से पूजा कर दीपक दिखाएे.. बायें हाथ में कवच रखकर दाहिने हाथ से ढककर 11 बार उपरोक्त भुवनेश्वरी कवच पढ़ ले... अब देवी मां से स्पर्श कराकर काला या लाल धागा लगाकर धारण करें..
जय माँ भुवनेश्वरी
इस कवच को धारण करने के क्या नियम होंगे कृपया ये भी बताईये,जैसे नहाते,सौच आदी।।
हटाएंमहोदय इस विषय में कोई विशेष नियम नहीं दिया गया है लेकिन कवच की पवित्रता बनाए रखने के लिए इसे शौच के समय उतार देना ही उचित होगा... क्योंकि यह भुजा पर(कन्धे से लेकर कोहनी तक का भाग)बांधना है तो यह कवच शौच के समय अपवित्र हो जाएगा...लेकिन मूत्र त्याग में यह अपवित्र नहीं होगा... और यदि कभी किसी मृत व्यक्ति के शव का स्पर्श करना पड़े तो उसके पहले इसे उतार दे... इन स्थितियों के अलावा इसे हर समय पहना जा सकता है...
हटाएंजय माँ भुवनेश्वरी
किन्हीं सज्जन का एक प्रश्न आया था -
जवाब देंहटाएंआपने कहा की बिना मंगल कबच जाने भुवनेश्वरी देवी का जाप करने से मृत्यु हो जाती है हम तो देवी के बीज मंत्र का जाप करते है मंगल कवच को आज ही पड़ा है तो क्या गलत है कृपया स्पष्ट करे
हमारा उत्तर -
पहले जानकारी नहीं धी तो उसका दोष नहीं लगता है। यहाँ मृत्यु से तात्पर्य प्रत्यक्ष मृत्यु से ही होना आवश्यक नहीं मृत्युतुल्य कष्ट भी आ सकता है। प्रथम तो यह कि मंत्र का जप योग्य गुरु से मंत्र की दीक्षा प्राप्त करके ही आरम्भ करना चाहिये। दीक्षा द्वारा प्राप्त श्रीभुवनेश्वरी मंत्र को जपने के पूर्व अथवा बाद में कवच का पाठ करना चाहिये। इसमें ये छूट है कि यदि साधक की दिनचर्या व्यस्त हो तो कवच पाठ प्रतिदिन करना आवश्यक नहीं। मंत्र साधना में रक्षात्मक स्तोत्र भी साधक हेतु कई प्रकार से सहायक होते हैं। सप्ताह में या सुविधानुसार समय-समय पर इसे पढ़ते रहें ताकि कवच को जानें, भूले नहीं, उसका तात्पर्य समझ लें ऐसा अभिप्राय है।
जय माँ भुवनेश्वरी