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हुत वर्ष पूर्व आंध्रप्रदेश के
विशाखापत्तनम जिले के होलिया गाँव में एक उदार व प्रजावत्सल जमींदार हुए जिनका नाम
था- श्रीनृसिंहधर। ये कट्टर ब्राह्मण थे - तीनों समय संध्या किया करते थे। इनकी
पत्नी श्रीमती विद्यावती इनसे बढ़कर धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। गृह-देवता शंकर की
पूजा में अधिक समय व्यतीत करती थीं और अधिक व्रत-उपवास किया करती थीं। अपनी
मनोकामना व्रत-उपवास-पूजा से पूरी न होती समझकर एक दिन उन्होंने आपने पति से कहा- “शायद
मेरे भाग्य में संतान सुख नहीं, मेरा अनुरोध है कि आप ‘धर-वंश’ की रक्षा के लिये एक विवाह और कर लें।”
पत्नी
का यह अनुरोध सुनकर नृसिंहधर चौंक उठे, पूछा- “क्या
कह रही हो? दूसरे विवाह का अर्थ है-सौत बुलाना। भले ही
निःसंतान हों पर घर में कितनी शांति है। दूसरी पत्नी के आते ही अशांति बढ़ जायेगी।
मैं अब दूसरा विवाह नहीं करना चाहता।” विद्यावती ने विनय की-“मेरा मन कहता है कि दूसरी बहन आकर धर-वंश को जीवनदान देगी।” नृसिंहधर ने कहा-“यह तुम्हारा स्वप्न है। केवल मुझे
प्रसन्न करने के लिये तुम ऐसा कह रही हो। मगर मैं अपनी प्रसन्नता के लिये तुम्हारा
सुख नहीं छीनना चाहता। आगे ऐसा अनुरोध न करना। अगर तुम्हें संतान की चाह है तो
किसी बच्चे को गोद ले लेंगे।” नृसिंहधर के इस निर्णय से
विद्यावती को आघात लगा। वह उस समय तो चुप रहीं पर समय-समय पर अनुरोध करती रहीं। इस
बात को लेकर कई बार आपस में विवाद भी हुआ। अंततः एक दिन खीझकर नृसिंहधर ने कहा-“तुम्हारे कारण राजी हो रहा हूँ, पर याद रखना कि
दूसरी पत्नी के कारण परिवार में अशांति हुई तो उसकी जिम्मेदार तुम होगी।”
नृसिंहधर
ने द्वितीय विवाह कर लिया। दूसरी पत्नी को गृहस्थी का भार देकर विद्यावती बोली-“आज से
तुम्हें ही सब देखना है। मैं तुम्हारी सहायता करूंगी। शेष समय भगवान के दरबार में।” सन् 1607 ई॰ के प्रारंभ में पौष शुक्ल एकादशी को रोहिणी नक्षत्र में
विद्यावती को पुत्ररत्न प्राप्त हुआ। इस चमत्कार से दोनों चकित रह गये। पिता बनने
की खुशी में दीपावली जैसा उत्सव होलिया गाँव में मनाया गया और किसानों की लगान क्षमा
कर दी गयी।
शिव
की आराधना से पुत्र की प्राप्ति होने से विद्यावती ने उसका शिवराम नाम रखा और पिता
ने परम्परा के अनुसार तैलंगधर नाम रखा। नृसिंहधर की दूसरी पत्नी भी पुत्रवती हुई
और उसका नाम श्रीधर हुआ। पिता का स्नेह और माँ की ममता पाकर दोनों बच्चे बड़े हुए।
दोनों बालक विपरीत स्वभाव के बनते गये।
बचपन
से ही तैलंगधर अपने सहपाठियों से अलग-थलग खोया-खोया सा भीड़-भाड़ कोलाहल रहित जगह पर
रहा करता था। विद्यावती जब शंकर भगवान की पूजा करती तो वह भी पास ही आँख-मूँदे
बैठा रहता था। जबकि श्रीधर घर में चारों ओर दौड़धूप-उपद्रव किया करता था। पुत्र
तैलंग की इस स्थिति से पिता चिंतित थे कि इस आयु में तो बालक को चंचल-उपद्रवी होना
चाहिए। आखिर आगे चलकर जमींदारी, संपत्ति आदि उसे ही तो सब कुछ संभालना था। बड़े होकर जब पिता
उसे जमींदारी का काम समझाते तो वह गुमसुम रहकर मौका पाते ही खिसक जाता था। हारकर
पिताजी ने उसे डांटना बंद कर दिया।
कई
वर्ष बाद जब तैलंगधर के विवाह के विषय में नृसिंहधर ने विद्यावती से बात की ताकि
तैलंग विवाह होने पर जिम्मेदारी समझे। परन्तु तैलंग को पता लग गया और उसने कहा-“मैंने
विवाह न करने का निर्णय लिया है,मुझे यह सब झंझट पसंद नहीं।” यह सुन पिता अवाक् रह गये। पुत्र की आदतों से परिचित होने के कारण उससे
बहस करने की अपेक्षा उन्होंने विद्यावती से बात की।
विद्यावती
ने बताया कि “शिवराम सचमुच अविवाहित रहना चाहता है। बचपन से ही वह विचित्र स्वभाव का
है। जब मैं पूजा करने बैठती थी तो वह भी मेरे साथ आँखें बंद कर बैठता था। मैं
सोचती थी कि मेरी नकल कर रहा है। पर एक दिन अपनी आँखों से देखा कि विग्रह से
प्रकाश निकला और शिवराम के शरीर में प्रवेश कर गया। इसके बाद मैं शंकित रहने लगी।
कई बार खिड़की से झाँककर मैंने देखा है कि आँख मूंदकर शिवराम बाग में पीपल के नीचे
ध्यान लगाता है और कल का दृश्य देखकर तो मैं डर गयी हूँ।”
नृसिंहधर ने पूछा “क्या हुआ था?’’ तो
विद्यावती ने बताया-“जब कल शिवराम ध्यान लगाकर पीपल-वृक्ष के
नीचे बैठा था तब गौर करने पर मैंने देखा कि उसके सिर के पीछे एक साँप फन फैलाये
खड़ा है। छोटे पुत्र को जाकर देखने को कहा तो उसने साँप नहीं देखा। बाद में तैलंग
से पूछा तो वह चुप रहा। मुझे तो लगता है कि शिवराम के रूप में हमारे घर कोई संत
आया है।” उस समय तो नृसिंहधर को विश्वास न हुआ पर जब कुछ दिन
बाद यही दृश्य देखा तो विश्वास हो गया कि उनके घर किसी महान विभूति ने ही जन्म
लिया है। फिर उन्होंने तैलंग को कभी नहीं छेड़ा।
समय
गुजरता गया और नृसिंहधर का देहांत हो गया। पिता के निधन के पश्चात तैलंग में बदलाव
आया और वो दोनों माताओं की सेवा में रहने लगे। दस वर्ष बाद विद्यावती भी चल बसी।
पिता के जाने के बाद माँ को कोई कष्ट न हो इसीलिए माँ की सेवा करते थे। पर माँ के
जाने के बाद सौतेले माँ-भाई तो पड़ोसी जैसे होते हैं तब परिवार में कौन अपना रहा? जायदाद
से मोह था नहीं। अतः उन्होंने घर से नाता तोड़ लिया। कालांतर में गुरु भागीरथ
स्वामी से उन्होंने दीक्षा ली और अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त कर ‘गजानन्द सरस्वती’ हो गये। तत्पश्चात् उन्होंने योग-विभूति
द्वारा विभिन्न आश्चर्यजनक-कल्याणकारी कार्य किए।
स्वामीजी काशी में भदैनी के पास तुलसी वन में रहते
थे। यह सन् 1937 की बात है। यहाँ उन्होंने लोलार्ककुण्ड में रहने वाले ब्रह्मासिंह
नामक कुष्ठ रोगी को रोगमुक्त किया। हरिश्चन्द्र घाट पर एक नि:सन्तान विधवा
ब्राह्मणी के मृत पति को जीवनदान दिया। अब स्वामी जी तुलसीवन से हटकर दशाश्वमेध घाट
पर रहने लगे। यहाँ भी आर्त्त लोगों ने उन्हें तंग करना शुरू किया। एक क्रूर आदमी
की इच्छा स्वामी जी ने जब पूरी नहीं की तब वह स्वामी जी को तड़पा कर मारने के
लिए एक हँड़िया में चूने का घोल लेकर स्वामी जी के पास आया और कहा-“स्वामी
जी मैं यह भैंस का गाढ़ा दूध ले आया हूँ इसे ग्रहण करें।” उसके उद्देश्य को समझकर
स्वामी जी पूरा घोल पी गये। वह आदमी घर जाकर छटपटाने लगा। इधर स्वामी जी ने थोड़ी
देर बाद पेशाब की और सारा घोल अपने मूल रूप में बह गया। वह आदमी तुरन्त भागा-भागा स्वामी जी के
पास आया और क्षमा माँगने लगा। करुणामय स्वामी जी ने उसे क्षमा कर दिया। मुगलों
का शासन समाप्त होने पर काशी का जिलाधीश एक अंग्रेज नियुक्त किया गया था। उसने स्वामी जी को नंगे न
रहकर कपड़े पहनने को कहा। स्वामी जी ने उसकी बात अनसुनी कर दी तो उसने स्वामी जी
को जेल में बन्द करने का आदेश दिया। पुलिस ज्यों ही स्वामी जी को पकड़ने के लिये
आयी वे गायब हो गये। एक बंगाली सज्जन ने जिलाधीश को स्वामी जी की योग-विभूति के
विषय में बतलाया और जिलाधीश ने प्रत्यक्ष उनका ऐश्वर्य देखा तो उसने स्वामी जी पर
प्रतिबन्ध न लगाने का आदेश जारी कर दिया।
सन् 1870 ई॰ में ‘आर्य-समाज’
के प्रवर्तक दयानन्द सरस्वती काशी आये थे। उद्देश्य था- आर्य धर्म के बारे में
भाषण देना। वे यहां हिन्दू देवी-देवताओं के विरुद्ध भाषण देने लगे। दुर्गाकुण्ड के
समीप हुए शास्त्रार्थ में अनेक पण्डित पराजित हो गये। स्वामी दयानन्द का कहना था
कि इस जगत् में एक ही ईश्वर है जिसका कोई आकार नहीं है। तैलंगस्वामी के निकट कुछ
भक्त लोग आये और सनातन धर्म के विरुद्ध हो रहे भाषणों के साथ अपनी व्यथा को कह
सुनाया। सारी बातें सुनकर तैलंगस्वामी ने एक कागज पर कुछ लिखा और श्री दयानन्द
सरस्वती के पास भिजवा दिया। कहा जाता है कि उस पत्र को पाते ही दयानन्दजी काशी छोड़
अन्यत्र चले गये। सम्भवतः उनको तैलंगस्वामी के अकाट्य तर्क द्वारा भलीभांति ज्ञान हो गया होगा कि हिन्दूओं का ईश्वर निर्गुण-निराकार भी है और सगुण-साकार भी।
मुंगेर
के एक औषधालय में उमाचरणजी नौकरी करते थे। इनके खजांची का नाम था श्रीमहेन्द्रलाल
घोष। अचानक एक दिन हिसाब करने पर पता चला कि छह सौ रुपये की रोकड़ में कमी हो गयी
है। कार्यालय का सारा हिसाब करने वाले दोनों ही व्यक्ति परेशान हो गये। घोष महाशय
से अधिक जिम्मेदारी उमाचरणजी की थी। जांच-पड़ताल में 3 महीने बीत गये पर कुछ समझ न
आया। सवाल नौकरी का था। नौकरी छोड़ देते तो जीवन भर गबन का कलंक रहता। छह सौ रुपए
उन दिनों एक बड़ी रकम थी।
अन्त में इस मुसीबत के हल के लिये उमाचरणजी
बाबा के पास काशी पहुँच गये। आश्रम में पहुँच कर ज्यों ही तैलंगस्वामीजी को
इन्होंने प्रणाम किया। तैलंगस्वामीजी बोल पड़े-“क्यों बेटा, रुपयों की गड़बड़ी करके यहाँ पता लगाने आये हो?”
बाबाकी योग-विभूति से परिचित होने से उमाचरणजी को इस पर आश्चर्य न हुआ। उन्होंने
हाँ कहा तो बाबा बोले-“जैसे तुम हो वैसा ही तुम्हारा सहयोगी
घोष है। अमुक महीने की अमुक तारीख को कलकत्ता के नरसिंह दत्त को 300रु॰ और
स्ट्रैनिस्ट्रीट कंपनी को 200रु॰ भेजे गये थे। तुमने स्वयं डाफ्ट भी बनाया था, रजिस्ट्री भी की थी। रसीद अमुक फाइल में है। उन लोगों ने भी रसीद भेजी है
जो इस फाइल में है। लेकिन इन दोनों रकमों को रोकड़ में दर्ज नहीं किया है। रहा सवाल 100रु॰ का तो वो घोष महाशय स्वयं खोज निकालेंगे।”
उमाचरणजी
मुंगेर पहुंचे तो सारी बातें सच निकलीं। पर अब एक सौ रुपया नहीं मिल रहा था। एक
सप्ताह बाद घोष बाबू प्रसन्नता से उमाचरणजी से बोले-“मुखर्जी
बाबू मिल गये सौ रुपये!” उमाचरणजी ने कहा “कैसे मिले?” तो घोष बाबू ने कहा-“कुछ दिन पहले ऑफिस के सभी सामानों की रंगाई हुई थी। सन्दूक में ताजा रंग
लगा था। उसी में सौ रुपए का नोट चिपक गया। देखो अभी तक इस नोट में रंग के दाग हैं।
आपको गुरुदेव ने ठीक ही कहा था ऐसे महान गुरु का शिष्य होना आपका सौभाग्य है। अब
काशी जाना तो नहीं हो पायेगा। आज यहीं से मैं उनको सहस्र प्रणाम करता हूँ।”
आखिर
सूर्य को अस्त भी होना ही था। लोक में बहुत से हितकारी कल्याणकारी कार्य करते हुए
तैलंगस्वामीजी ने काशी में जीवित समाधि ले ली और पौष शुक्ला एकादशी को सन् 1887 ई॰
में तैलंगस्वामीजी का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। सिद्धयोगी स्वामी तैलंगजी को
उनकी जयन्ती व महासमाधिदिवस पर नमन....
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