• पूजन के अलावा, तर्पण के लिए उपरोक्त में प्रत्येक नाम मन्त्र में "तर्पयामि नमः" जोड़कर बोले। तर्पण के लिए एक पात्र में स्वच्छ जल लेकर दूध, शहद, पुष्प डालें और प्रत्येक "तर्पयामि" में आचमनी से इस जल को अर्पित करते जायें। चित्र हो तो उसके सामने एक पात्र रखकर उसमें जल अर्पण करे।
• हवन वैकल्पिक है सामर्थ्य अनुसार करे,इसके लिए प्रत्येक नाम मन्त्र में स्वाहा लगा लें।
शतार्चन के बाद मूल स्तोत्र का पाठ करे -
श्री भुवनेश्वरी-शतनाम स्तोत्रम्
कैलास-शिखरे रम्ये नाना-रत्नोपशोभिते।
नरनारी-हितार्थाय शिवं पप्रच्छ पार्वती॥१॥
(कैलाश पर्वत की चोटी के सुन्दर स्थल पर विभिन्न रत्नों से शोभायमान भगवती पार्वती ने नर-नारी के हित की इच्छा से शिव जी से पूछा-)
देव्युवाच -
भुवनेशी-महाविद्या-नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
कथयस्व महादेव यद्यहं तव वल्लभा॥२॥
(देवी ने कहा - हे महादेव यदि मैं आपकी प्रियतमा हूं तो भुवनेश्वरी महाविद्या के 108 नामों को कहिये )
ईश्वर उवाच -
शृणु देवि महाभागे स्तवराजमिदं शुभम्।
सहस्रनाम्नामधिकं सिद्धिदं मोक्ष-हेतुकम्॥३॥
(ईश्वर शिव जी ने कहा - हे महाभाग्यवती देवी इस शुभ स्तवराज को सुनिये जो देवी भुवनेश्वरी के हजार नामों से अधिक सिद्धि देने वाला व मोक्ष का कारण है)
शुचिभिः प्रातरुत्थाय पठितव्यं समाहितैः।
त्रिकालं श्रद्धया युक्तैः सर्वकाम-फलप्रदम्॥४॥
(यह प्रातः उठकर पवित्र होकर निश्चित रूप से पढ़ने योग्य है प्रातः मध्याह्न सायाह्न तीनों कालों श्रद्धापूर्वक सभी कामनाओं में सुफल देने वाला है)
अब जल लेकर यह विनियोग करके भूमि पर छोड़ दे -
अस्य श्रीभुवनेश्वर्यष्टोत्तर-शतनाम-स्तोत्रस्य शक्तिर्ऋषिः गायत्री छन्दः भुवनेश्वरी देवता चतुर्वर्गसाधने जपे विनियोगः।
ह्रीं
महा-माया महाविद्या महाभोगा महोत्कटा।
माहेश्वरी कुमारी च ब्रह्माणी ब्रह्म-रूपिणी॥५॥
वागीश्वरी योगरूपा योगिनी-कोटि-सेविता।
जया च विजया चैव कौमारी सर्वमङ्गला॥६॥
हिङ्गुला च विलासी च ज्वालिनी ज्वाल-रूपिणी।
ईश्वरी क्रूरसंहारी कुलमार्ग-प्रदायिनी॥७॥
वैष्णवी सुभगाकारा सुकुल्या कुल-पूजिता।
वामाङ्गा वामचारा च वामदेव-प्रिया तथा॥८॥
डाकिनी योगिनी-रूपा भूतेशी भूतनायिका।
पद्मावती पद्मनेत्रा प्रबुद्धा च सरस्वती॥९॥
भूचरी खेचरी माया मातङ्गी भुवनेश्वरी।
कान्ता पतिव्रता साक्षी सुचक्षुः कुण्ड-वासिनी॥१०॥
उमा कुमारी लोकेशी सुकेशी पद्मरागिणी।
इन्द्राणी ब्रह्म चाण्डाली चण्डिका वायु-वल्लभा॥११॥
सर्वधातुमयी-मूर्तिर्जलरूपा जलोदरी।
आकाशी रणगा चैव नृ-कपाल-विभूषणा॥१२॥
नर्मदा मोक्षदा चैव धर्मकामार्थ-दायिनी।
गायत्री चाथ सावित्री त्रिसन्ध्या तीर्थ-गामिनी॥१३॥
अष्टमी नवमी चैव दशम्येकादशी तथा।
पौर्णमासी कुहूरूपा तिथिमूर्ति-स्वरूपिणी॥१४॥
सुरारि-नाशकारी च उग्ररूपा च वत्सला।
अनला अर्धमात्रा च अरुणा पीत-लोचना॥१५॥
लज्जा सरस्वती विद्या भवानी पाप-नाशिनी।
नागपाश-धरा मूर्तिरगाधा धृतकुण्डला॥१६॥
क्षत्ररूपा क्षयकरी तेजस्विनी शुचि-स्मिता।
अव्यक्ता व्यक्तलोका च शम्भु-रूपा मनस्विनी॥१७॥
मातङ्गी मत्तमातङ्गी महादेव-प्रिया सदा।
दैत्यहा चैव वाराही सर्वशास्त्रमयी शुभा॥१८॥
ह्रीं
॥फलश्रुति॥
य इदं पठते भक्त्या शृणुयाद्वा समाहितः।
अपुत्रो लभते पुत्रं निर्धनो धनवान् भवेत्॥१९॥
(जो यह स्तोत्र भक्तिपूर्वक भली प्रकार सुनता है या पढ़ता है पुत्रहीन पाठक को पुत्रलाभ होता है तथा निर्धन धनवान हो जाता है)
मूर्खोऽपि लभते शास्त्रं चोरोऽपि लभते गतिम्।
वेदानां पाठको विप्रः क्षत्रियो विजयी भवेत्॥२०॥
वैश्यस्तु धनवान्भूयाच्छूद्रस्तु सुखमेधते।
(मूर्ख भी प्रतिदिन पाठ करे शास्त्रज्ञान पाता है, नियमित पाठकर्ता यदि चोर हो तो भी गति पाता है, पाठकर्ता ब्राह्मण हो तो वेद का पाठ करने की सामर्थ्य पाता है, क्षत्रिय विजयी हो जाता है, वैश्य को धन प्राप्ति होती है, शूद्र को सुख प्राप्त होता है)
अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः॥२१॥
ये पठन्ति सदा भक्त्या न ते वै दुःखभागिनः।
(जो सदा अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी को यह स्तोत्र भक्ति पूर्वक एकाग्र मन से पढ़ते हैं वे दुख के भागी नहीं होते)
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं वा चतुर्थकम्॥२२॥
ये पठन्ति सदा भक्त्या स्वर्गलोके च पूजिताः।
रुद्रं दृष्ट्वा यथा देवाः पन्नगा गरुडं यथा॥
शत्रवः प्रपलायन्ते तस्य वक्त्र-विलोकनात्॥२३॥
(जो सदा भक्तिपूर्वक एक समय, दो समय या तीन समय या फिर चार समय यह स्तोत्र पाठ करते हैं स्वर्गलोक में पूजित होते हैं। जिस प्रकार रौद्ररूप वाले रुद्र को देखकर देवगण तथा गरूड़ को देखकर पलायन कर जाते हैं वैसे ही पाठकर्ता का मुख देखते ही शत्रु दूर हो जाते हैं)
॥श्रीरुद्रयामले देवी-शङ्कर-संवादे श्री भुवनेश्वर्यष्टोत्तरशत-नाम-स्तोत्रम् शुभमस्तु ह्रीं तत्सत्॥
श्री भुवनेश्वरी हृदय स्तोत्र
सर्वप्रथम इस मन्त्र से पुष्प चढा दें -
श्रीगणेश-विष्णु-शिव-दुर्गा-सूर्येभ्यो नमः।
देव्युवाच
भगवन् ब्रूहि तत्स्तोत्रं सर्वकाम-प्रसाधनम्। यस्य श्रवण-मात्रेण नान्यच्छ्रोतव्य-मिष्यते॥१॥
(देवी ने कहा - हे भगवन्! वह स्तोत्र बताइये जो कि समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाला हो, जिसके सुनने मात्र से अन्य कुछ सुनने के लिए शेष न रहे)
यदि मेऽनुग्रहः कार्यः प्रीतिश्चापि ममोपरि। तदिदं कथय ब्रह्मन् विमलं यन्महीतले॥२॥
(यदि आपको मुझ पर कृपा करनी है तथा यदि मेरे ऊपर आपकी प्रसन्नता है तो हे ब्रह्मन्! जो संसार में पवित्र (स्तोत्र) है वह कहें)
ईश्वर उवाच
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि सर्वकाम-प्रसाधनम्। हृदयं भुवनेश्वर्याः स्तोत्रमस्ति यशोदयम्॥३॥
(ईश्वर उवाच - हे देवि! सुनो, सभी कामनाओं को पूरा करने वाला भुवनेश्वरी हृदय स्तोत्र कहूंगा जो यश देने वाला है)
विनियोगः - ह्रीं अस्य श्री भुवनेश्वरी-हृदय-स्तोत्र-मन्त्रस्य शक्तिर्ऋषिः गायत्री छन्दः श्रीभुवनेश्वरी देवता हकारो बीजम् ईकारः शक्तिः रेफः कीलकम् सकल-मनोवाञ्छित-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ॥
हृदयादिन्यासः- ह्रीं हृदयाय नमः।
श्रीं शिरसे स्वाहा।
ऐं शिखायै वषट्।
ह्रीं कवचाय हुं।
श्रीं नेत्रत्रयाय वौषट्।
ऐं अस्त्राय फट्।
करन्यासः-
ह्रीं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः।
श्रीं तर्जनीभ्यां नमः।
ऐं मध्यमाभ्यां नमः।
ह्रीं अनामिकाभ्यां नमः।
श्रीं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ऐं करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः।
अब पुष्प लेकर इस स्तोत्र का पाठ करे -
ध्यानम् -
ध्यायेद्-ब्रह्मादिकानां कृतजनि-जननीं योगिनीं योगयोनिं देवानां जीवनायोज्ज्वलित-जय-परज्योतिरुग्राङ्ग-धात्रीम्।
(जो ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर चारों देवों की उत्पत्ति करती हैं, माता हैं, योगिनी/योगमाया, परमतत्व से साक्षात्कार रूपी योग कराने में कारणभूता, देवों के लिए विजयरूपी श्रेष्ठ तेजोमय जीवनज्योति, उग्र अंग वाली माता हैं, उन भुवनेश्वरी भगवती का मैं ध्यान करता हूँ)
शङ्खं चक्रं च बाणं धनुरपि दधतीं दोश्चतुष्काम्बुजातै-र्मायामाद्यां विशिष्टां भवभवभुवनां भूभवा भारभूमिम्॥४॥
(उन भुवनेश्वरी महाविद्या का मैं ध्यान करता हूँ जो चारों कर-कमलों में शंख, चक्र, बाण और धनुष को भी धारण करती हैं, माया, आदिशक्ति, विशिष्टा, सभी लोको में श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ, संसार की स्रोत, धरती का भार वहन करने वाली हैं)
यदाज्ञया यो जगदाद्यशेषं बिभर्ति संहन्ति भवस्तदन्ते भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥५॥
(जिनकी आज्ञा से जो सृष्टि के अनादि अनंत परमात्मा हैं, वे संसार का पालन करते हैं, अन्त में संसार का संहार भी करते हैं, मैं उन भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ)
जगज्जनानन्द-करीं जयाख्यां यशस्विनीं यन्त्र-सुयज्ञ-योनिम्। जितामितामित्र-कृतप्रपञ्चां भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥६॥
[संसार के लोगों को आनन्द प्रदान करने वाली, विजयरूपा, कीर्तिमती, यन्त्रों व शास्त्रसम्मत यज्ञों की कारणभूता शक्ति, जिन्होंने असीमित शत्रुकृत-प्रपंचों(झमेलों) को पराजित किया है, उन भुवनेश्वरी जी का मैं भजन करता हूँ]
हरौ प्रसुप्ते भुवनत्रयान्ते अवातरन्नाभिज-पद्मजन्मा । विधिस्ततोऽन्धे विदधार यत्पदं भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥७॥
(तीनों लोकों के संहार के पश्चात विष्णु जी व शिव जी के सो जाने पर विष्णु जी की नाभि से उत्पन्न कमल से अवतरित होकर ब्रह्माजी वहां उस अन्धकार में जिनके चरण कमलों का वन्दन करते हैं, मैं उन भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ)
न विद्यते क्वापि तु जन्म यस्या न वा स्थितिः सान्ततिकीह यस्या। न वा निरोधेऽखिल-कर्म यस्या भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥८॥
(जिनका कहीं जन्म नहीं होता है या यहाँ जिनकी संततियों की कोई सीमा नहीं है या जिनके समस्त कर्मों में अवरोध नहीं आ सकता मैं उन भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ)
कटाक्ष-मोक्षाचरणोग्र-वित्ता निवेशितार्णा करुणार्द्रचित्ता। सुभक्तये एति समीप्सितं या भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥९॥
(जो तिरछी दृष्टि से मोक्ष, चरणों से विपुल धन प्रदान करने वाली हैं, दया करने के कारण आर्द्र हृदय वाली, उत्तम भक्त को जो इच्छित फल देती हैं मैं उन भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ)
यतो जगज्जन्म बभूव योनेस्तदेव मध्ये प्रतिपाति या वा। तदत्ति यान्तेऽखिलमुग्र-काली भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥१०॥
(जिन उत्पादिका शक्ति से सृष्टि का जन्म हुआ अथवा उसी प्रकार सृष्टिकाल में जो सृष्टि का प्रतिपालन(संचालन) करती हैं और प्रचण्ड काली बनकर सम्पूर्ण सृष्टि का अन्त करती हैं मैं उन भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ)
सुषुप्तिकाले जन-मध्ययन्त्या यया जनः स्वप्नमवैति किञ्चित्। प्रबुद्ध्यते जाग्रति जीव एष भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥११॥
(मैं उन भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ जो गहरी नींद के समय लोगों के मध्य विचरती हैं, जिससे लोग कुछ स्वप्न देखा करते हैं, जब जगते हैं तब यह जीवात्मा जागता है)
दयास्फुरत्कोर-कटाक्ष-लाभान्नैकत्र यस्याः प्रलभन्ति सिद्धाः। कवित्व-मीशित्वमपि स्वतन्त्रा भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥१२॥
(जिनकी दया से परिपूर्ण तिरछी दृष्टि पाने के लिए सिद्ध गण एकत्र होकर इच्छानुसार कवित्व, ईश्वरत्व भी प्राप्त करते हैं, मैं उन भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ)
लसन् मुखाम्भोरुह-मुत्स्फुरन्तं हृदि प्रणिध्याय दिशि स्फुरन्तः।
यस्याः कृपार्द्रं प्रविकाशयन्ति भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥१३॥
(जिनकी कृपा की आर्द्रता से हृदय में सुन्दर मुखकमल स्पन्दित होने की साधना की दिशा को जो प्रकाशित कराती हैं मैं उन भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ)
यदानुरागानुगतालि-चित्राश्चिरन्तन-प्रेम-परिप्लुताङ्गाः। सुनिर्भयाः सन्ति प्रमुद्य यस्याः भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥१४॥
(जिनकी छवि के प्रति भक्ति भाव में अनुगामी हुए भँवरों/भक्तों के पुरातन प्रेम में डूबे अंग प्रत्यंग जिनके प्रसन्न होने से भयमुक्त हो जाते हैं, मैं उन भगवती भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ)
हरिर्विरञ्चिर्हर ईशितारः पुरोऽवतिष्ठन्ति प्रपन्नभङ्गाः।
यस्याः समिच्छन्ति सदानुकूल्यं भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥१५॥
(ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर जिनके आगे शरणागत स्थित रहते हैं और सदा जिनकी अनुकूलता बनी रहने की इच्छा करते हैं मैं उन भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ)
मनुं यदीयं हरमग्निसंस्थं ततश्च वामश्रुति-चन्द्रसक्तम्। जपन्ति ये स्युर्हि सुवन्दितास्ते भजामहे श्रीभुवनेश्वरीं ताम्॥१६॥
(जिनका मन्त्र हकार,र कार और इसके बाद अं की मात्रा युक्त ईकार है जिसे जो बार बार जपते हैं वो सुन्दर प्रकार से वन्दित होते हैं, मैं उन भुवनेश्वरी जी का भजन करता हूँ)
प्रसीदतु प्रेम-रसार्द्र-चित्ता सदा हि सा श्रीभुवनेश्वरी मे। कृपा-कटाक्षेण कुबेर-कल्पा भवन्ति यस्याः पदभक्ति-भाजः॥१७॥
(प्रेम रस से विह्वल चित्त वाली वह श्री भुवनेश्वरी सदा मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके चरणों की भक्ति करने वाले भगवती की कृपादृष्टि के द्वारा कुबेर सदृश हो जाते हैं )
फलश्रुति
मुदा सुपाठ्यं भुवनेश्वरीयं सदा सतां स्तोत्रमिदं सुसेव्यम्। सुखप्रदं स्यात्कलिकल्मषघ्नं सुशृण्वतां सम्पठतां प्रशस्यम्॥१८॥
(भुवनेश्वरी भगवती का यह स्तोत्र प्रसन्नता पूर्वक अच्छी प्रकार से पढ़ने योग्य , सदा सेवन करने योग्य, सुखदायक है, कलि-जन्य पापों का नाशक, भली प्रकार सुनने पढ़ने वालों के लिये प्रशंसनीय है)
एतत्तु हृदयं स्तोत्रं पठेद्यस्तु समाहितः। भवेत्तस्येष्टदा देवी प्रसन्ना भुवनेश्वरी॥१९॥
(जो इस भुवनेश्वरी हृदय स्तोत्र को एकाग्रचित्त होकर पढ़ता है उसकी इष्ट देवी भुवनेश्वरी प्रसन्न होकर उसको मनोवांछित फल की प्राप्ति कराने वाली हो जाती है)
ददाति धनमायुष्यं पुण्यं पुण्यमतिं तथा। नैष्ठिकीं देवभक्तिं च गुरुभक्तिं विशेषतः॥२०॥
(देवी भुवनेश्वरी धन, दीर्घायु, पुण्य, पुण्यप्रद कर्म करने की ओर प्रेरित करने वाली मति, निष्ठा से परिपूर्ण भगवद्-भक्ति तथा विशेषकर गुरुभक्ति प्रदान करती है।)
पूर्णिमायां चतुर्दश्यां कुजवारे विशेषतः। पठनीयमिदं स्तोत्रं देवसद्मनि यत्नतः॥२१॥
(पूर्णमासी, चतुर्दशी और विशेष रूप से मंगलवार को भगवान के मंदिर में यह स्तोत्र प्रयत्न पूर्वक पढ़ने योग्य है)
यत्रकुत्रापि पाठेन स्तोत्रस्यास्य फलं भवेत् । सर्वस्थानेषु देवेश्याः पूतदेहः सदा पठेत्॥२२॥
(जहाँ कहीं भी इस स्तोत्र का पाठ करे इसका फल अवश्य मिलता है, सभी स्थानों पर देवताओं की ईश्वरी के इस स्तोत्र को हमेशा पवित्र होकर पढ़ना चाहिए)
॥श्री नीलसरस्वती-तन्त्रे भुवनेश्वरीपटले श्रीदेवीश्वरसंवादे श्रीभुवनेश्वरी हृदयस्तोत्रं शुभमस्तु ह्रीं तत्सत्॥
kripya das mahavidya aur unke bhairav ke naam bataiye. pranam.
जवाब देंहटाएंकिसी भी महाविद्या की आराधना करते समय उनके दक्षिण हाथ के पास में उनके शिव को रखकर पूजना चाहिए, दस महाविद्याओं के भैरवों के नाम इस प्रकार हैं -
हटाएं1) काली - महाकाल ,
2) तारा - अक्षोभ्य ,
3) षोडशी - कामेश्वर/पंचवक्त्र या ललितेश्वर,
4) भुवनेश्वरी - त्र्यम्बक या महादेव,
5) त्रिपुरभैरवी - दक्षिणामूर्ति या बटुकभैरव,
6) छिन्नमस्तिका - कबन्ध या क्रोधभैरव,
7) धूमावती - कालभैरव,
8) बगलामुखी - एकवक्त्र महारुद्र या मृत्युंजय,
9) मातंगी - मातंग या सदाशिव,
10) कमला - विष्णुरूप सदाशिव या नारायण,,,
महाविद्या और उनके शिव मूल तत्व में शिव-पार्वती ही हैं स्वरूप भेद से उनका नाम बदल जाता है... इनको प्रायः नाम मन्त्र से ही पूजे जैसे श्री दक्षिणामूर्ति शिवाय नमः पूजयामि.....आदि आदि ....
जय माता की
जय माँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुँदर विवरण 🙏🙏