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नोट - यहाँ प्रकाशित साधनाओं, स्तोत्रात्मक उपासनाओं को नियमित रूप से करने से यदि किसी सज्जन को कोई विशेष लाभ हुआ हो तो कृपया हमें सूचित करने का कष्ट करें।

⭐विशेष⭐


⭐श्रीजगन्नाथ रथ यात्रा - ७ जुलाई
☆१७ जुलाई से - सूर्य दक्षिणायन आरंभ, दैत्यों की मध्य रात्रि व देवताओं का मध्याह्न
६ जुलाई २०२४ - आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा—आषाढ़ के गुप्त नवरात्र प्रारम्भ - इस अवसर पर 9 दिन व्रत भी रख सकते हैं तथा अधिकाधिक अनुष्ठान, साधना, पूजा, स्तोत्र पाठ, दान आदि करें। मुख्य नवरात्र की भांति धूमधाम से न करे इसे गुप्त ही रखा जाता है। प्रथमं शैलपुत्री च
७ जुलाई - आ०शुक्ल द्वितीया— द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
८ और ९ जुलाई - आषाढ़ शुक्ल तृतीया— तृतीयं चन्द्रघंटेति
१० जुलाई - चतुर्थी— कूष्माण्डेति चतुर्थकम्
११ जुलाई - पंचमी— पंचमं स्कन्दमातेति
12 जुलाई - षष्ठी— षष्ठं कात्यायनीति च।
१३ जुलाई - सप्तमी— सप्तमं कालरात्रि
१४ जुलाई –अष्टमी— महागौरीति चाष्टमम्
१५ जुलाई —आषाढ़ शुक्ल नवमी- नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।। दुर्गा देवी के निमित्त (नारियल आदि का )बलिदान, हवन..
१६ जुलाई- गुप्त नवरात्रि की दशमी,गुप्त नवरात्र पारण(जो 9 दिन व्रत लें उन्हें इस दिन रात्रि में प्रसाद खाकर व्रत खोलना है), कलश आदि का विसर्जन।

आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, ग्रीष्म ऋतु, आषाढ़ मास, कृष्ण पक्ष।
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भगवान धन्वन्तरी की स्तोत्रात्मक उपासना

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भ गवान श्री हरि विष्णु ने समुद्र मंथन के समय यह श्री धन्वन्तरी नामक अवतार  ग्रहण किया था। भगवान धन्वन्तरि हाथ में अमृत कलश लेकर समुद्र से प्रकट हुए थे। भगवान  धन्वन्तरि ने तीन नाम रूपी मंत्र दिये हैं जिनका उच्चारण करने से सभी रोग सभी उत्पात दूर होते हैं - अच्युत   , अनन्त, गोविन्द | धनत्रयोदशी अर्थात् कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को इनकी ही आराधना की जाती है। वैद्य या चिकित्सकों या डाक्टरों के लिये तो ये परम आराध्य हैं। धनतेरस के दिन इनकी आराधना अवश्य करें। अन्य किसी दिन भी इनकी आराधना की जा सकती है। एकादशी त्रयोदशी पूर्णिमा गुरुवार इनके स्तोत्र पाठ के लिये  उपयुक्त हैं। इनकी आराधना से बालक की रक्षा होती है। इनका आराधक मोक्ष पाता है। श्री धन्वन्तरी जी के भक्त को कष्ट साध्य बिमारी, भूत प्रेतादि के भय से भी मुक्ति मिलती है, महान् उत्पात से रक्षा होती है, अल्प आयु में मृत्यु नहीं होती। ग्रह आदि की कुदृष्टि - बुरी नजर दूर हो जाती है।

श्री हनुमान जी की स्तोत्रात्मक उपासना

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भ गवान श्री राम के अनन्य भक्त श्री हनुमान जी की हनुमान चालीसा जगप्रसिद्ध ही है।हनुमान जी को प्रसन्न करके अभीष्ट फल पाने की लिए हनुमान चालीसा के अलावा भी कई स्तोत्र हमारे धर्म ग्रंथों में दिये गए हैं।  अन्य देवगण तो लीला करके अपने अपने धाम को लौट जाते हैं परंतु हनुमान जी ही ऐसे देव हैं जो अब भी धरती पर विराजमान हैं और साधना से प्रसन्न होकर यदा कदा किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष दर्शन भी दिया करते हैं। हाँ यह अवश्य है कि सभी को प्रत्यक्ष दर्शन मिलना अत्यन्त दुर्लभ है लेकिन हनुमदुपासक के अनायास ही कार्य सिद्ध हो जाया करते हैं।हनुमान जी की दया से भूत-प्रेत बाधा, शत्रु द्वारा किये हुए अभिचार प्रयोग, टोना-टोटका, ग्रह बाधा,  संकट,  रोग बाधा का तुरंत निवारण होता है , पुत्र पौत्र सम्पत्ति, सिद्धि की प्राप्ति, निरोगता की प्राप्ति तथा श्री राम जी के चरणों अर्थात मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। कब करें हनुमदुपासना? कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी   और  चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हनुमान जी की जयन्ती मनाई जाती है। इसके अलावा वैशाख कृष्ण दशमी ,  ज्येष्ठ कृष्ण दशमी ,  हर मंगलवार तथा शनि

भगवान हयग्रीव की आराधना दिलाती है वांछित फल

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भ गवान हयग्रीव अथवा हयशीर्ष भगवान विष्णु जी के ही अवतार हैं... इनका सिर घोड़े का है। पुराणों में भगवान के इस स्वरूप से संबन्धित कथाएँ मिलती हैं।  कल्प भेद हरि चरित सुहाए  - तुलसीदास जी के अनुसार हर कल्प में भगवान भिन्न-भिन्न प्रकार से सुहावनी लीला रचते हैं। सृष्टि के आदिकाल में क्षीरोदधि में अनन्त-शायी प्रभु नारायण की नाभि से पद्म प्रकट हुआ। पद्म-की कर्णिका से सिन्दूरारुण चतुर्मुख लोकस्रष्टा ब्रह्माजी व्यक्त हुए। क्षीरोदधि से दो बिन्दु निकलकर कमल पऱ पहुँच गये।

श्री कल्कि अवतार-धारी भगवान की अधर्मनाशक आराधना

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हि न्दू   धर्मग्रंथों के अनुसार ,   सतयुग , द्वापर ,   त्रेतायुग   बीतने के बाद   यह   वर्तमान युग   कलियुग   है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए कथन के अनुसार-   जब जब धर्म की हानि होने लगती है और अधर्म आगे बढ़ने लगता है , तब तब श्रीहरि स्वयं की सृष्टि करते हैं , अर्थात् भगवान्   अवतार ग्रहण करते हैं। साधु-सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनःस्थापना के लिए श्रीकृष्ण विभिन्न युगों में अवतरित होते हैं और आगे भी होते रहेंगे- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥       कल्कि पुराण में वर्णन है कि चौथे चरण में कलियुग जब अपनी चरम सीमा तक   पहुँच जाएगा , तब अपराध-पाप-अनाचार अत्यन्त   बढ़ जायेंगे ; अधर्म-लूटपाट-हत्या तो सामान्य बात हो   जायेगी यहाँ तक कि लोग   ईश्वर-सत्कर्म-धर्म सब   भूल   जायेंगे।   तब   भगवान श्रीहरि अपने   अंतिम अवतार कल्कि   रूप में अवतरित होंगे।   भगवान कल्कि कलियुग को मिटाकर सतयुग की स्थापना करेंगे ,

विश्व-संस्कृति के रक्षक व प्रतिष्ठापक श्री मत्स्य भगवान की जयन्ती

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भ गवान  श्रीहरि के चौबीस प्रमुख अवतार हैं, उन अवतारों की प्रादुर्भाव(जयन्ती) तिथि पर भक्तजन उत्सव किया करते हैं।   अवतारों की जयंती तिथियों पर श्रद्धालुगण उन अवतारों की विविध प्रकार से आराधना किया करते हैं।  पुराणों के अनुसार लीलाविहारी  परमकृपालु  भगवान् नारायण धर्म की संस्थापना के लिए समय-समय पर विविध अवतार लिया करते हैं।   चैत्र शुक्ल तृतीया श्रीमत्स्य भगवान की जयंती तिथि है।

ज्ञानदायिनी सरस्वती माँ की अवतार कथा [श्रीसरस्वती स्तोत्रम्]

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प्र तिभा की अधिष्ठात्री देवी भगवती सरस्वती हैं। समस्त वाङ्मय, सम्पूर्ण कला और पूरा ज्ञान-विज्ञान माँ शारदा का ही वरदान है। बुधवार को त्रयोदशी तिथि को एवं शारदीय नवरात्रों में ज्ञानदायिनी भगवती शारदा की पूजा-अर्चना-उपासना की जाती है। हमारे हिन्दू धर्मग्रंथों में माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी अर्थात् वसंत पंचमी को भगवती सरस्वती की जयंती का पावन दिन कहा गया है। बसन्त पंचमी के दिन माता शारदा की विशेष आराधना की जाती है, पूजन में पीले व सफेद पुष्प भगवती सरस्वती को अर्पित किये जाते हैं । वसन्त पञ्चमी के दिन भगवती सरस्वती के मंत्रों , पवित्र स्तोत्रों का पाठ किया जाता है , सफेद या पीले वस्त्र/रुमाल का दान किया जाता है।

श्रीनृसिंहचतुर्दशीव्रत दिलाता है सनातन मोक्ष

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ज ब स्वयंप्रकाश परमात्मा अपने भक्तों को सुख देने के लिये अवतार ग्रहण करते हैं, तब वह तिथि और मास भी पुण्य के कारण बन जाते हैं। जिनके नाम का उच्चारण करने वाला पुरुष सनातन मोक्ष को प्राप्त होता है, वे परमात्मा कारणों के भी कारण हैं । सम्पूर्ण विश्व के आत्मा, विश्वस्वरूप और सबके प्रभु हैं। वे ही भगवान् भक्त प्रह्लाद का अभीष्ट सिद्ध करने के लिये श्रीनृसिंहावतार के रूप में प्रकट हुए थे और जिस तिथि को भगवान् नरसिंहजी का प्राकट्य हुआ था, वह तिथि वैशाख शुक्ला चतुर्दशी एक महोत्सव बन गयी।

योग्य अधिकारी को दर्शन देते हैं भगवान परशुराम

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भ गवान् परशुराम स्वयं भगवान् विष्णु के अंशावतार हैं। इनकी गणना दशावतारों में होती है। जब वैशाखमास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र मेँ रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के छ: ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु स्थित था, तब उस योग में माता रेणुका के गर्भ से भगवान् परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ - वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ। निशाया: प्रथमे यामे रामाख्य: समये हरि:॥ स्वोच्चगै: षड्ग्रहैर्युक्ते मिथुने राहुसंस्थिते। रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो विभु: स्वयम्॥

श्री रामनवमी विशेष-पापनाशक श्री सीता-राम जी की आराधना दिलाती है मुक्ति

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भ गवान श्रीराम की जयंती तिथि श्रीरामनवमी सारे जगत के लिये सौभाग्य का दिन है; क्योंकि अखिल विश्वपति सच्चिदानन्दघन श्रीभगवान् इसी दिन दुर्दान्त रावण के अत्याचार से पीड़ित पृथ्वी को सुखी करने और सनातन धर्म की मर्यादा को स्थापित करने के लिये श्रीरामचन्द्रजी के रूपमें प्रकट हुए थे। श्री राम सबके हैं, सबमें हैं, सबके साथ सदा संयुक्त हैं और सर्वमय हैं। जो कोई भी जीव उनकी आदर्श मर्यादा-लीला-उनके पुण्यचरित्र का श्रद्धापूर्वक गान, श्रवण और अनुकरण करता है, वह पवित्रहृदय होकर परम सुख को प्राप्त कर सकता है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को ' श्रीरामनवमी ' का व्रत होता है।

श्रीदत्तात्रेय-जयन्ती - भगवान दत्तात्रेय जी की महिमा

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म हायोगीश्वर दत्तात्रेय जी भगवान विष्णुजी के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को को प्रदोषकाल में हुआ था। अतः इस दिन बड़े समारोह से दत्तजयन्ती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत (२।७।४) में आया है कि पुत्रप्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रि के तप करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः ' “ मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया ” - श्रीविष्णुजी के ऐसा कहे जाने से भगवान् विष्णु ही अत्रि के पुत्ररूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाये। अत्रिपुत्र होने से ये ‘ आत्रेय ’ कहलाते हैं। दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका ' दत्तात्रेय ' नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनुसूया है, जो सतीशिरोमणि हैं तथा उनका पातिव्रत्य संसार में प्रसिद्ध है। 

भैरव जयंती पर जानें भैरवाष्टमी व्रत की विधि

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मि त्रों, मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को होती है भक्तों की हर प्रकार से रक्षा करने वाले भगवान  भैरवनाथजी की जयन्ती ।   भगवान शिव के दो स्वरूप हैं- १- भक्तों को अभय देने वाला विश्वेश्वर स्वरूप और २- दुष्टों को दण्ड देने वाला कालभैरव स्वरूप।  जहाँ विश्वेश्वर अर्थात् काशी विश्वनाथ जी का स्वरूप अत्यन्त सौम्य और शान्त है , वहीं उनका भैरवस्वरूप अत्यन्त रौद्र , भयानक , विकराल तथा प्रचण्ड है। श्री आनन्द भैरव श्री कालभैरव

धनतेरस, श्रीधन्वन्तरि जयन्ती एवं गोत्रिरात्र व्रत का पावन महत्व

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दी पावली के दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही दीपमालाएं सजने लगती हैं। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी ' धनतेरस ' कहलाती है। आज के दिन नयी वस्तुएँ विशेषकर चाँदी का बर्तन खरीदना अत्यन्त शु भ माना गया है, परंतु वस्तुतः यह यमराज से संबंध रखने वाला व्रत है। इस दिन सायंकाल घर के बाहर मुख्य दरवाजे पर एक पात्र में अन्न रखकर उसके ऊपर यमराज के निमित्त दक्षिणाभिमुख दीपदान करना [दक्षिण दिशा की ओर दिया रखना] चाहिये। दीपदान करते समय निम्न प्रार्थना करनी चाहिये - मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह। त्रयोदश्यां  दीपदानात्सूर्यजः प्रीयतामिति।

वामन जयंती पर जानिये भगवान वामन के अवतार की कथा

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आ ज यानि भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की  द्वादशी तिथि को ही भगवान श्री हरि ने वामन अवतार धारण किया था। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन से महाबाहु बलि का जन्म हुआ। दैत्यराज बलि धर्मज्ञों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, बलवान, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरि के प्रिय भक्त थे।  यही कारण था कि उन्होंने इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्गणों को जीतकर तीनों लोकों को अपने अधीन कर लिया था। इस प्रकार राजा बलि समस्त त्रिलोकी पर राज्य करते थे। इंद्रादिक देवता दासभाव से उनकी सेवा में खड़े रहते थे। परम भक्त तो थे राजा बलि किन्तु बलि को अपने बल का अभिमान था। इन्द्र आदि देवों का अधिपत्य हड़प चुके थे वो। कितना ही बड़ा भक्त हो कोई अभिमान आ जाय तो सारी भक्ति व्यर्थ है। तब महर्षि कश्यप ने अपने पुत्र इन्द्र को राज्य से वंचित देखकर तप किया और भगवान विष्णु से बलि को मायापूर्वक परास्त करके इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य प्रदान करने का वरदान माँगा।

वाराह अवतार हैं जगत के उद्धारक

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भा द्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया  तिथि को भगवान के वाराहावतार की जयंती या प्रादुर्भाव तिथि कही गयी है। वही ये वैष्णवावतार वाराह हैं जिन्होंने हिरण्याक्ष नामक असुर का वध कर समूची पृथ्वी का उद्धार किया था। भगवान का वाराह अवतार वेदप्रधान यज्ञस्वरूप अवतार है। दिन तथा रात्रि इनके नेत्र हैं, हविष्य इनकी नासिका है। सामवेद का गंभीर स्वर इनका उद्घोष है। यूप इनकी दाढ़ें हैं, चारों वेद इनके चरण हैं, यज्ञ इनके दाँत हैं। श्रुतियाँ इनका आभूषण हैं, चितियाँ मुख हैं।  साक्षात अग्नि ही इनकी जिह्वा तथा कुश इनकी रोमावली है एवं ब्रह्म इनका मस्तक है।

दशाफल व्रत एवं श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत का महत्व [मधुराष्टकम्]

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म हापुण्यप्रद पंच महाव्रतों में से एक है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत । अर्धरात्रिकालीन अष्टमी में रोहिणी नक्षत्र व बुधवार से बना श्री कृष्ण जयंती का योग   महापुण्यप्रद  हो जाता है; साथ ही हर्षण योग, वृषभ लग्न और उच्च राशि का चंद्रमा, सिंह राशि का सूर्य हो तो ऐसे दुर्लभ योग में ही प्रभु श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ था । इस दिन अर्धरात्रि में आद्याकाली जयंती भी होती है। अष्टमी को यदि बुधवार आ जाय तो बुधाष्टमी का शुभप्रद व्रत भी सम्पन्न हो जाता है, जो कि सूर्यग्रहण के तुल्य होता है।  मोहरात्रि व गोकुलाष्टमी इस दिन के ही दूसरे नाम हैं। इस दिन दशाफलव्रत  किया जाता है तथा मार्गशीर्ष से शुरू किया गया कालाष्टमी व्रत  हर महीने के कृष्ण पक्ष की तरह इस दिन भी किया जाता है। कौन नहीं जानता भगवान श्रीकृष्ण को? भागवत में वर्णित भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत लीलाओं को एक बार भी सुनकर-पढ़कर भला उन राधामाधव को कौन भूल सकता है? वही ये लीलाविहारी श्रीकृष्ण हैं जिन्होंने बचपन में ही खेल-खेल में नृत्य करते हुए सात फन वाले भयानक  कालिय नाग का मर्दन  कर डाला था। गोवर्धन पर्वत को कनिष्ठा उंगली

श्रावण पूर्णिमा - रक्षा बंधन, संस्कृत दिवस एवं लव कुश जयंती - एक पावन दिवस

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श्रा वण शुक्ल पूर्णिमा के दिन स्नेह के प्रतीकात्मक त्योहार रक्षाबंधन को मनाया जाता है। आप सभी को रक्षाबंधन की बहुत - बहुत शुभकामनायें। रक्षाबंधन के साथ-साथ आज  संस्कृत दिवस, लव-कुश जयंती और "भगवती गायत्री जयंती" भी है।   ॥गायत्री देव्यै नमः॥  यूं तो श्रावण पूर्णिमा पर ही भगवती गायत्री जी की जयंती कही गयी है, पर गंगा दशहरा के दिन भी इनकी जयंती बतलाई गई है। वेदमाता को  बारंबार नमन । रक्षाबंधन के विषय में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था कि प्राचीन काल में जब देवासुर-संग्राम में देवता दानवों से पराजित हो गए थे; तब वे दुःखी होकर दैत्यराज बलि के साथ गुरु शुक्राचार्य के पास गए और उनको सब कुछ कह सुनाया। इस पर शुक्राचार्य बोले," विषाद न करो दैत्यराज! इस समय देवराज इन्द्र के साथ वर्षभर के लिए तुम संधि कर लो, क्योंकि इन्द्र-पत्नी शची ने इन्द्र को रक्षा-सूत्र बांधकर अजेय बना दिया है। उसी के प्रभाव से दानवेंद्र! तुम इन्द्र से परास्त हुए हो। " गुरु शुक्राचार्य के वचन सुनकर सभी दानव निश्चिंत होकर वर्ष बीतने की प्रतीक्षा करने लगे। यह रक्षाबंधन का ही विलक्षण प्रभाव है,

श्री कूर्म अवतार श्रीहरि नारायण के प्रादुर्भाव की कथा

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ज यन्ती तिथियों का हमारे हिन्दू धर्म में बहुत महत्व रहा है। श्री नृसिंह जी, छिन्नमस्ता जी और शरभ जी की प्रादुर्भाव तिथि के अगले दिन होती है श्री कूर्म अवतार जयंती। कूर्म को कच्छप या कछुआ भी कहा जाता है। वैशाख मास की पूर्णिमा को समुद्र के अंदर सायंकाल में विष्णु भगवान ने कूर्म [कछुए] का  अवतार लिया था। पूर्वकाल में अमृत प्रात करने हेतु देवताओं ने दैत्यों और दानवों के साथ मिलकर मन्दराचल पर्वत को मथानी बनाकर क्षीरसागर का मंथन किया था। उस मंथनकाल में इन्हीं  कूर्मरूपधारी जनार्दन विष्णु जी ने देवताओं के कल्याण की कामना से मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया था। भगवान कूर्म

'श्री नृसिंह-छिन्नमस्ता-शरभ जयंती' से 'हमारा हिन्दू धर्म व इससे जुड़ी मान्यताएँ' ब्लॉग का शुभारंभ

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मि त्रों नमस्कार, सर्वप्रथम तो "श्रीनृसिंह- छिन्नमस्ता -शरभ जयंती" की आप सभी को ढेरों शुभकामनाएं। भगवत्कृपा से प्रेरणा हुई कि एक धार्मिक ब्लॉग की शुरुआत करूँ सो आज श्रीनृसिंह-छिन्नमस्ता-शरभ जयंती के शुभ अवसर से शुरुआत कर रहा हूँ " हमारा हिन्दू धर्म व इससे जुड़ी मान्यताएँ " की।  साथ ही फेसबुक पर भी एक पेज भी बनाया जो इसी ब्लॉग के नाम से ही है-  हमारा हिन्दू धर्म व इससे जुड़ी मान्यताएँ   कृपया फेसबुक पर भी हमसे जुड़ें और ट्विटर व इंस्टाग्राम   पर भी जुड़ें । भगवान नृसिंह वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को भगवान नृसिंह जी ने अवतार लेकर भक्त प्रह्लाद की हिरण्यकशिपु से रक्षा की थी इस माध्यम से भगवान विष्णु जी ने हम सभी को संदेश दिया कि बुराई का अंत होकर ही रहता है... भक्त प्रह्लाद से हिरण्यकशिपु नामक उस दानव ने हर वस्तु को इंगित कर पूछा था " क्या यहाँ हैं? तेरे विष्णु क्या वहाँ हैं ? " गरम खंभे से बंधे प्रह्लाद कहते, " हाँ हर जगह हैं, नारायण तो कण-कण में बसते हैं " तो वह उसी वस्तु को छिन्न-भिन्न कर विष्णु जी को वहाँ न पा अट्टहास करता हु