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श्री आनन्द भैरव |
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श्री कालभैरव |
शिवपुराण की शतरुद्रसंहिता (८।२) के अनुसार परमेश्वर सदाशिव ने मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भैरव रूप में अवतार लिया। अतः इस तिथि का नाम कालभैरवाष्टमी नाम से प्रसिद्ध है। शिवजी एवं भैरवजी में अभेद है अतः भैरवजी को साक्षात् भगवान् शंकर ही जानना चाहिये-
भैरवः
पूर्णरूपो हि शङ्करस्य परात्मनः।
मूढास्तं
वै न जानन्ति मोहिताश्शिवमायया॥
अर्थात्
भैरवजी, शिव-शङ्करजी का पूर्ण रूप हैं। वे मूढ़ हैं जो शिवजी की माया
से मोहित होने के कारण यह रहस्य नहीं जानते।
व्रत
विधि-
भैरवजी का जन्म मध्याह्न में हुआ था, इसलिये मध्याह्नव्यापिनी अष्टमी लेनी चाहिये। कालभैरवाष्टमी के दिन प्रातःकाल उठकर नित्यकर्म
एवं स्नानादि से निवृत्त होकर निम्न प्रकार से भैरवाष्टमी व्रत का संकल्प करना चाहिये-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्त्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेत-वाराह-कल्पे वैवस्वत-मन्वन्तरे अष्टाविंशति-तमे कलियुगे कलि-प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे बौद्धावतारे आर्यावर्तैकदेशे ...(शहर का नाम)....नगरे/ग्रामे, ..(संवत्सर का नाम)... नाम्नि संवत्सरे, हेमन्त ऋतौ, मार्गशीर्ष मासे, कृष्ण पक्षे, अष्टमी तिथौ, ..(वार का नाम)...वासरे, ..(गोत्र का नाम)...गोत्र: , शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं ममिह-जन्मनि-जन्मान्तरे च बाल्यादारभ्य कर्मणा मनसा-वाचा, ज्ञानता-अज्ञानता कृत सकल पाप-दोष परिहारार्थं, श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त-फल प्राप्त्यर्थं श्रीमहाकाल-भैरव-साम्ब-सदाशिव प्रीत्यर्थं, मम-सकलापदुद्धारणार्थे दुष्ट-ग्रह-जन्य सकल दोषादि शमनार्थं अद्य कालाष्टमी व्रतमहं करिष्ये।
तब भैरवजी के मंदिर में जाकर वाहन सहित उनकी पूजा करनी चाहिए। ‘ॐ भैरवाय नमः’ इस नाममन्त्र से षोडशोपचार पूर्वक पूजन करना चाहिये। अथवा घर पर ही शिवलिंग या शिव प्रतिमा या भैरवजी के चित्र/यंत्र का पूजन करें। रोली, सिन्दूर रक्तचन्दन का चूर्ण, लाल फूल, गुड़, उड़द का बड़ा, धान का लावा, ईख का रस, तिल का तेल, लोहबान, लाल वस्त्र, भुना केला, सरसों का तेल भैरव जी को प्रिय हैं। मन्त्रादि ज्ञात न होने पर निम्न मन्त्रों से भैरवजी का पंचोपचार पूजन करें-
सर्वप्रथम प्रभु से आज्ञा ले लें-
तीक्ष्णदंष्ट्र महाकाय कल्पान्त दहनोपम।
भैरवाय नमस्तुभ्यं अनुज्ञां दातुमर्हसि॥
तब आज्ञा मिल गई है ऐसी भावना करके पुष्प लेकर भैरवजी का ध्यान करे-
करकलित कपालः कुण्डली दण्डपाणि-स्तरुण-तिमिर-नील-व्याल-यज्ञोपवीती।
क्रतु-समय-सपर्या-विघ्न-विच्छेद-हेतुर्जयति बटुकनाथः सिद्धिद: साधकानाम्॥
(हाथों में कपाल और दण्ड धारण किए हुए, कानों में कुण्डल धारण करने वाले, घनीभूत अंधकार के सदृश नीलवर्ण के सर्प का यज्ञोपवीत पहने हुए, सविधि यज्ञ में प्रवृत्त पूजकों के विघ्न निवारण करने वाले और साधकों को सिद्धि प्रदान करने वाले बटुकनाथ की जय हो।)
पुष्प भैरवजी पर चढ़ाकर 'ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय' कहकर भगवान भैरव को प्रणाम करे।
लं पृथिव्यात्मकं गन्धं श्रीमदापदुद्धारण भैरव श्रीपादुकाभ्यां नमः समर्पयामि।
बोलकर गन्ध[चन्दन]
चढ़ाएँ।
हं आकाशात्मकं पुष्पम् श्रीमदापदुद्धारण भैरव श्रीपादुकाभ्यां नमः समर्पयामि।
कहकर भैरवजी
को फूल चढ़ाएं।
यं वाय्वात्मकं धूपं श्रीमदापदुद्धारण भैरव श्रीपादुकाभ्यां नमः आघ्रापयामि।
मंत्र से
धूप दिखाएँ। फिर
रं वह्न्यात्मकं दीपं श्रीमदापदुद्धारण भैरव श्रीपादुकाभ्यां नमः दर्शयामि।
कहते हुए भैरवजी
को दीप दिखाकर
वं अमृतात्मक नैवेद्यं श्रीमदापदुद्धारण भैरव श्रीपादुकाभ्यां नमः निवेदयामि।
बोलकर भैरव
जी को नैवेद्य निवेदित करें।
भैरवजी को दही-गुड़ अवश्य निवेदित किया जाता है। भैरवजी के निमित्त नैवेद्य वार के अनुसार निर्धारित है जो नीचे बतलाया है उस अनुसार भोग लगायें। भैरवजी को मालपुए का भोग भी लगाया जाता है।
भैरवजी को दही-गुड़ अवश्य निवेदित किया जाता है। भैरवजी के निमित्त नैवेद्य वार के अनुसार निर्धारित है जो नीचे बतलाया है उस अनुसार भोग लगायें। भैरवजी को मालपुए का भोग भी लगाया जाता है।
सौं सर्वात्मकं सर्वोपचाराणि मनसा परिकल्प्य श्रीमदापदुद्धारण भैरव श्रीपादुकाभ्यां नमः समर्पयामि।
से दक्षिणा-पुष्पांजलि
चढ़ाते हुए भैरवजी का पूजन करके उन्हें निम्न मंत्रों से गंध - पुष्प युक्त अर्घ्य देना चाहिए-
भैरवार्घ्यं
गृहाणेश भीम-रूपाव्ययानघ।
अनेनार्घ्य-प्रदानेन
तुष्टो भव शिवप्रिय॥
सहस्राक्षि-शिरो-बाहो
सहस्र-चरणाजर।
गृहाणार्घ्यं
भैरवेदं सपुष्पं परमेश्वर॥
पुष्पांजलिं
गृहाणेश वरदो भव भैरव।
पुनरर्घ्यं
गृहाणेदं सपुष्पं यातनापह॥
तत्पश्चात् भैरवजी के कालभैरवाष्टक आदि स्तोत्रों का पाठ करते हुए या ‘ॐ भैरवाय नमः’ यह मन्त्र पढ़ते हुए भैरवजी की आरती
करें। 'ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय' कहकर भगवान भैरव को पुनः प्रणाम कर पूजन समाप्त करें।
भैरवजी का वाहन श्वान है, अतः इस दिन कुत्तों को रोटी आदि खिलाना चाहिये।
वार अनुसार भैरव जी का नैवेद्य
वार-परत्वेन बलि-दानम् -
रविवारे पायसान्नं सोमवारे च मोदकम्।
भौमे गुडाज्य-गोधूमाः बुधे च दधि-शर्करा॥
गोधूम-पूरिका युक्ता घृत-मध्ये सुपाचिताः।
गुरोः चणक-खण्डाज्यं, केवलं चणकं भृगौ॥
शनौ माषान्न-तैलं च इति वार-बलिः कमात्॥
अर्थात् - रविवार के दिन भगवान भैरव को खीर का भोग लगाएं। सोमवार को लड्डू का नैवेद्य, मंगलवार के दिन घी, आटे और गुड़ से बने हलवे(लापसी) का भोग, बुधवार को दही- चीनी(बूरा) और गेहूँ के आटे की पूरी घी युक्त, गुरुवार को बेसन के लड्डू का भोग, शुक्रवार को भुने हुए चने और शनिवार को तेल में बने हुए उड़द की दाल के बड़े/पकौड़े अथवा इमरती/जलेबी या तले हुए उड़द पापड़ का भोग भैरवजी को अर्पित किया जाता है।
- भैरव जी को नैवेद्य दो प्रकार से अर्पित करते हैं। एक तो यह कि भैरव जी के विग्रह के आगे पात्र में नैवेद्यं निवेदयामि कहकर भोग लगाते हैं।
- दूसरी विधि के अनुसार एक तांबे या मिट्टी का पात्र या मध्यम आकार का दिया लेकर उसमें उपरोक्त वर्णित वार अनुसार भोग पदार्थ रखते हैं फिर बलि मंत्र पढ़ते हैं। इसे सात्विक बलि कहते हैं। इस बलि को खाते नहीं इसे पेड़ आदि के नीचे थोड़ा गड्ढा करके डाल दें उपर से ढक दें।
मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास करके रात्रि को भगवान् कालभैरव के समीप जागरण
करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है-
मार्गशीर्षासिताष्टम्यां
कालभैरव-सन्निधौ।
उपोष्य
जागरं कुर्वन् सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ शिवपुराण - शतरुद्रसंहिता - (10|64)
श्री कालभैरव सन्निधि से आशय है काशी के कालभैरव मंदिर से। लेकिन इसके साथ ही आगे यह भी लिखा है कि जो कोई मनुष्य अन्यत्र स्थान पर भी भक्तिपूर्वक, जागरण के सहित इस काल भैरवाष्टमी व्रत को करेगा, वह महापापों से मुक्त होकर सद्गति को प्राप्त कर लेगा।
अनेकजन्म-नियुतैर्यत्कृतं जन्तुभिस्त्वघम्।
तत्सर्व विलयं याति कालभैरव-दर्शनात्॥
कालभैरवभक्तानां पातकानि करोति यः।
स मूढ़ो दुःखितो भूत्वा पुनर्दुर्गतिमाप्नुयात्॥
प्राणी के द्वारा लाखों जन्मों में किया गया जो पाप है, वह सभी कालभैरव जी के दर्शन करने से लुप्त हो जाता है। जो कालभैरव जी के भक्तों पर अपराध करता है, वह मूर्ख दुःखित होकर पुनः पुनः दुर्गति को प्राप्त करता रहता है।
इसी कालभैरवाष्टमी व्रत के साथ ही प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मासिक कालाष्टमी व्रत का अनुष्ठान करना चाहिये। जिसके प्रभाव से आराधक काल के पाश एवं सभी प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है। भैरवजी काशी के कोतवाल(नगररक्षक) हैं। काल-भैरवजी की पूजा का काशी नगरी में विशेष महत्त्व है। काशी में भैरवजी के अनेक मंदिर हैं जैसे कालभैरव, बटुकभैरव, आनन्दभैरव आदि।
प्रमुखतः वाराणसी के अष्टभैरव सुप्रसिद्ध हैं-
१. रुरु भैरव, २. असितांग भैरव,
३. उन्मत्त भैरव, ४. चण्ड भैरव,
५. क्रोधन-भैरव, ६.भीषणभैरव,
७. कपाल भैरव, ८.संहार भैरव।
यद्यपि मान्यता है कि भैरवाष्टमी यदि मंगलवार या रविवार को पड़े तो उसका महत्व
और अधिक बढ़ जाता है तथापि शिवजी के वार सोमवार को पड़ने वाली भैरवाष्टमी भी महत्व की
होती है -
'अष्टमी-सोमवारे' च 'कृष्णपक्षे-चतुर्दशी'। शिवतुष्टिकरं चैतन्नात्र कार्या विचारणा॥ (शिवपुराण, कोटिरुद्र संहिता)
भगवान भूतनाथ भैरवजी को भैरवनाथ जयन्ती पर हम सभी का बारम्बार प्रणाम...
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