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भगवान् क्षणभर भी नहीं सोते, फिर भी भक्तों की भावना- ‘यथा देहे तथा देवे’ के अनुसार भगवान् चार मास तक शयन करते हैं। भगवान् विष्णु के क्षीरसागर में शयन के विषय में कथा है कि भगवान ने भाद्रपदमास की शुक्लपक्षीय एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को मारा था और उसके
बाद थकावट दूर करने के लिये क्षीर-सागर में जाकर सो गये। वे वहाँ चार मास तक सोते रहे और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे। इसी से इस एकादशी का नाम ‘देवोत्थापनी’ या ‘प्रबोधिनी एकादशी’ पड़ गया।
इस दिन व्रत के रूप में उपवास करने का विशेष महत्व है। उपवास न कर सकें तो एक समय फलाहार करना चाहिए। कार्तिक शुक्ल एकादशी को भगवत्प्रीति के लिये पूजा-पाठ, व्रत-उपवास आदि किया जा सकता है। साथ ही हिन्दू धर्म में भीष्मपञ्चक के अंतर्गत आज एकादशी [एवं द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा] ही के दिन तुलसी विवाह भी सम्पन्न किये जाने की मान्यता है। कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के पश्चात् चातुर्मास पूर्ण हो जाता है और विष्णुजी के जग जाने से विवाहादि माङ्गलिक कार्य पुनः प्रारंभ हो जाते हैं।
इस दिन व्रत के रूप में उपवास करने का विशेष महत्व है। उपवास न कर सकें तो एक समय फलाहार करना चाहिए। कार्तिक शुक्ल एकादशी को भगवत्प्रीति के लिये पूजा-पाठ, व्रत-उपवास आदि किया जा सकता है। साथ ही हिन्दू धर्म में भीष्मपञ्चक के अंतर्गत आज एकादशी [एवं द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा] ही के दिन तुलसी विवाह भी सम्पन्न किये जाने की मान्यता है। कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के पश्चात् चातुर्मास पूर्ण हो जाता है और विष्णुजी के जग जाने से विवाहादि माङ्गलिक कार्य पुनः प्रारंभ हो जाते हैं।
हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में इस तिथि को
रात्रि जागरण का विशेष महत्व बतलाया गया है। रात्रि में यथसामर्थ्य भगवत्सम्बन्धी कीर्तन, वाद्य, नृत्य और पुराणों का पाठ करना चाहिये। अगले दिवस द्वादशी को प्रातः धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, गन्ध, चन्दन, फल और अर्घ्य
आदि से भगवान नारायण की पूजा करके शंख, घंटा, मृदंग आदि वाद्यों की माङ्गलिक ध्वनि करें तथा निम्न मंत्रों द्वारा भगवान से
जागने की प्रार्थना करे-
श्री विष्णु प्रबोधन मंत्राः -
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ
गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते।
त्वयि
सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेदिदम्॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ शङ्खघ्न उत्तिष्ठाम्भोधि-तारक।
कूर्मरूप-धरोत्तिष्ठ त्रैलोक्ये मङ्गलं कुरु॥
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वाराह - दंष्ट्रोद्धृत - वसुन्धर।
हिरण्याक्ष प्राणघातिन् त्रैलोक्ये मङ्गलं कुरु॥
हिरण्यकशिपुघ्न त्वं प्रह्लादानन्ददायक।
लक्ष्मीपते समुत्तिष्ठ त्रैलोक्ये मङ्गलं कुरु॥
उतिष्ठ बलिदर्पघ्न देवेन्द्रपददायक।
उत्तिष्ठादितिपुत्र त्वं त्रैलोक्ये मङ्गलं कुरु॥
उत्तिष्ठ हैहयाधीश-समस्तकुलनाशन।
रेणुकाघ्न त्वमुत्तिष्ठ त्रैलोक्ये मङ्गलं कुरु॥
उत्तिष्ठ रक्षोदलन अयोध्या-स्वर्गदायक।
समुद्रसेतुकर्तस्त्वं त्रैलोक्ये मङ्गलं कुरु॥
उत्तिष्ठ कंसहरण मदाघूर्णितलोचन।
उत्तिष्ठ हलपाणे त्वं त्रैलोक्ये मङ्गलं कुरु॥
उत्तिष्ठ त्वं गयावासिंस् त्यक्त लौकिकवृत्तक।
उतिष्ठ पद्मासनग त्रैलोक्ये मङ्गलं कुरु॥
उत्तिष्ठ म्लेच्छनिवह-खड्ग-संहार-कारक।
अश्ववाह युगान्ते त्वं त्रैलोक्ये मङ्गलं कुरु॥
इयं तु द्वादशी देव प्रबोधाय विनिर्मिता।
त्वयैव
सर्वलोकानां हितार्थं शेषशायिना॥
इदं
व्रतं मया देव कृतं प्रीत्यै तव प्रभो।
न्यूनं
संपूर्णतां यातु त्वत्प्रसादाज्जनार्दन॥
तदनन्तर प्रह्लाद, नारद, परशुराम, पुण्डरीक, व्यास, अम्बरीष, शुक, शौनक और भीष्मादि भक्तों का स्मरण करके चरणामृत और प्रसाद का वितरण करना चाहिये।
भीष्म पंचक व्रत
महाभारत ग्रंथ के अनुसार भगवान् वासुदेव ने भीष्म से कहा था - 'हे भीष्म! तुम धन्य हो, धन्य हो, शर शय्या में होने पर भी तुमने धर्मों का स्वरूप अच्छी तरह श्रवण कराया है। कार्तिक मास की एकादशी को तुमने जल के लिये याचना की और अर्जुन ने बाण के वेग से गंगाजल प्रस्तुत किया है, जिससे तुम्हारे तन, मन, प्राण सन्तुष्ट हुए हैं। इसलिये आज से लेकर पूर्णिमा तक तुम्हें सब लोग अर्घ्यदान से तृप्त करें और मुझको सन्तुष्ट करने वाले इस भीष्मपंचक नामक व्रत का पालन प्रतिवर्ष करते रहें।'
निम्नांकित मन्त्र पढ़कर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके सव्यभाव से महात्मा भीष्म के लिये दाहिने हाथ से जलांजलि देते हुए तर्पण करना चाहिये। यह भीष्मतर्पण सभी वर्णों के लोगों (ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र) सबके लिये कर्तव्य है - सव्येनानेन मन्त्रेण तर्पणं सर्ववर्णिकं। इसका मन्त्र इस प्रकार है-
सत्यव्रताय शुचये गांगेयाय महात्मने।
भीष्मायैतद् - ददाम्यर्घ्य-माजन्म-ब्रह्मचारिणे॥
(आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले परम पवित्र सत्यव्रत-परायण गंगानन्दन महात्मा भीष्म को मैं यह अर्घ्य देता हूँ।)
स्कंद पुराण का यह कथन है कि प्रबोधिनी एकादशी की पारणा[प्रसाद ग्रहण कर व्रत समापन करने के समय] में यदि रेवती नक्षत्र का अन्तिम
तृतीयांश हो तो उसे त्यागकर भोजन करना चाहिये। वास्तव में स्वयं को जगाने का संदेश दे रहे हैं भगवान् नारायण। हमें प्रबोधिनी एकादशी के अनुष्ठान के साथ-साथ स्वयं की सुप्त अवस्था से भी प्रबोधित होना होगा तभी इस व्रत का उद्देश्य व हमारा जीवन जीना सफल है। प्रबोधिनी एकादशी पर मधुसूदन-कमलनयन
भगवान श्रीनारायण को हमारा बार-बार प्रणाम.....
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