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ज कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तुलसी-विवाह का भी आयोजन किया जाता है। हिन्दू धर्मग्रन्थों की मान्यता के अनुसार तुलसी श्रीहरि को अतिप्रिय है जिस कारण तुलसी चढ़ाए बिना मधुसूदन भगवान की कोई भी पूजा अधूरी मानी जाती है। तुलसी के पत्ते मंगलवार, शुक्रवार, रविवार, संक्रांति (नये महीने या वर्ष का पहला दिन), अमावास्या, पूर्णिमा, द्वादशी, श्राद्ध तिथि (पूर्वजों की पुण्यतिथि) और दोपहर [12बजे] के बाद नहीं तोड़ने चाहिए अन्यथा भगवान के सिर को काटने का पाप मिलता है। तुलसी पत्र/दल तोड़ना यदि बहुत आवश्यक हो तो फिर निम्न मंत्र पढ़कर तोड़ लेना चाहिये-
तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया।
चिनोमि केशवस्यार्थे वरदा भव शोभने।।
अथवा [और]
त्वदंगसंभवै: पत्रै: पूजयामि यथा हरिम्।
तथा कुरु पवित्राङ्गि! कलौ मलविनाशिनी।।
गमले को साड़ी/चुनरी लपेटकर तुलसीजी को चूड़ी पहनाकर उनका श्रृङ्गार किया जाता है। श्रृङ्गार सामग्रियाँ दुकानों में भी ‘सुहागपिटारी’ के नाम से प्रायः मिल जाती हैं।
पद्मपुराण में तथा स्कन्दपुराण के वैष्णव खंड में वर्णित कार्तिक माहात्म्य प्रकरण के अनुसार ब्रह्माजी कहते हैं- कार्तिक शुक्ला नवमीको द्वापर युग का प्रारम्भ हुआ है। अतः वह तिथि दान और उपवास कर्म में क्रमशः पूर्वाह्नव्यापिनी तथा अपराह्नव्यापिनी हो तो ग्राह्य है। इसी तिथि को (नवमी से लेकर एकादशी तक) मनुष्य शास्त्रोक्त विधिसे तुलसी के विवाह का उत्सव करे तो उसे कन्यादान करने का फल प्राप्त होता है। पूर्वकाल में कनक की पुत्री किशोरी ने एकादशी तिथि में सन्ध्या के समय तुलसी की वैवाहिक-विधि सम्पन्न की। इससे वह किशोरी वैधव्य दोष से मुक्त हो गयी। अभी संक्षेप में ही विधान दे रहे हैं बाद में इसको अपडेट किया जायेगा।
तुलसी विवाहोत्सव विधि विधान
- पहले हाथ में जल फूल तिल अक्षत लेकर संकल्प करें -
श्रीविष्णुर्विष्णुर्विष्णुः स्वस्तिरस्तु श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य ब्रह्मणो ऽह्नि द्वितीये परार्धे एक पञ्चाशत्तमे वर्षे प्रथममासे प्रथमपक्षे प्रथमदिवसे द्वात्रिंशत्कल्पानां मध्ये अष्टमे श्रीश्वेत वाराहकल्पे स्वायम्भुवादि मन्वतराणां मध्ये सप्तमे वैवस्वत मन्वन्तरे कृत-त्रोता-द्वापर- कलिसंज्ञानां चतुर्युगानां मध्ये वर्तमाने अष्टाविंशति तमे कलियुगे तत्प्रथम चरणे तथा पञ्चाशत्कोटि योजन विस्तीर्ण-भूमण्डलान्तर्गत सप्तद्वीप मध्यवर्तिनि जम्बूद्वीपे तत्रापि श्रीगङ्गादिसरिद्भिः पाविते परम-पवित्रे भारतवर्षे ...(प्रदेश का नाम).. प्रदेशे, ...(शहर का नाम)..नगरे, ...(गांव का नाम)..ग्रामे, प्रवर्तमानवत्सरे प्रभवादि षष्ठि सम्वत्सराणां मध्ये (संवत्सर का नाम) नाम सम्वत्सरे, सूर्य (दक्षिणायने/उत्तरायणे), (ऋतु का नाम) ऋतौ, (मास का नाम)मासे, (पक्ष का नाम)पक्षे, ( तिथि का नाम)तिथौ, ...(वार का नाम)... वासरे, सर्वे ग्रहेषु यथायथा राशिस्थानस्थितेषु, सत्सु एवं ग्रहगुण विशिष्टे ऽस्मिन्शुभ क्षणे ममाखिलपापक्षयपूर्वक श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्त्यर्थं श्रीतुलसी भगवती सहित श्री लक्ष्मीनारायण भगवत्प्रीत्यर्थम् ..(अपना गोत्र बोलें )... गोत्रीय (अपना नाम बोलें) अहं तुलसी विवाहोत्सव कर्मं करिष्ये।
- पुण्याहवाचन - वैदिक मंत्र होने से इसे जनेऊ पहनने वाले द्विज ही करें। मंत्र संक्षेप में संकेत कर रहे - स्वस्ति नः इन्द्रो ०......। भद्रं कर्णेभिः ० ......। ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ०..... । सुशान्तिर्भवतु।
अब हाथ में फूल लेकर नीचे लिखे मंत्र सब पढ़ सकते हैं-
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः।लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः।
उमामहेश्वराभ्यां नमः।
वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः।
शचीपुरन्दराभ्यां नमः।
मातापितृचरणकमलेभ्यो नमः।
इष्टदेवताभ्यो नमः।
कुलदेवताभ्यो नमः।
ग्रामदेवताभ्यो नमः।
वास्तुदेवताभ्यो नमः।
स्थानदेवताभ्यो नमः।
सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः।
सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः।
स्वस्त्ययन - मंगलकारी पाठ
विश्वेशं माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं च भैरवम् ।वन्दे काशीं गुहां गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम् ।
वक्रतुण्ड ! महाकाय ! कोटिसूर्यसमप्रभ !
निर्विघ्नं कुरु मे देव ! सर्वकार्येषु सर्वदा ।
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः ।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ।
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
सङ्ग्रामे सङ्कटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ।
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ।
अभीप्सितार्थ-सिद्धîर्थं पूजितो यः सुराऽसुरैः ।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके !
शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणि ! नमोऽस्तु ते ।
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् ।
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरिः ।
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव।
विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽङ्घ्रियुगं स्मरामि।
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः ।
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्र्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।
स्मृतेः सकलकल्याणं भाजनं यत्र जायते ।
पुरुषं तमजं नित्यं ब्रजामि शरणं हरिम् ।
सर्वेष्वारम्भकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः ।
देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दनाः ।
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् ।
येषां हृदिस्थो भगवान् मङ्गलायतनो हरिः ।
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव।
विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽङ्घ्रियुगं स्मरामि।
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः ।
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्र्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।
स्मृतेः सकलकल्याणं भाजनं यत्र जायते ।
पुरुषं तमजं नित्यं ब्रजामि शरणं हरिम् ।
सर्वेष्वारम्भकार्येषु त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः ।
देवा दिशन्तु नः सिद्धिं ब्रह्मेशानजनार्दनाः ।
फूल चढ़ा दें।
- फिर तुलसी की प्राण प्रतिष्ठा करें। फिर भगवान् विष्णु की प्राणप्रतिष्ठित प्रतिमा या शालग्राम की पूजा करके स्तुति आदि के द्वारा भगवान श्रीहरि को उठावें - उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द उत्तिष्ठ गरुडध्वज। उत्तिष्ठ कमलाकान्त त्रैलोक्यमंगलं कुरु॥ 'हे गोविन्द! उठिये, उठिये, हे गरुड़ध्वज! उठिये, हे कमलाकांत। निद्रा का त्याग कर तीनों लोकों का मंगल कीजिये।'
- विष्णु जी की प्रतिमा को तुलसी के निकट लाकर रखे। प्रतिमा को वस्त्रों से आच्छादित किये रहे।
- भगवान का इस प्रकार आवाहन करे- आगच्छ भगवन् देव अर्चयिष्यामि केशव। तुभ्यं दास्यामि तुलसीं सर्वकामप्रदो भव॥
- अब अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय जल समर्पित करें। - अर्घ्यम् समर्पयामि।पाद्यम् समर्पयामि। आचमनीयम् समर्पयामि।
- एक पात्र में मधुपर्क(दही घी शहद बराबर मात्रा में) अर्पण करें - मधुपर्कम् समर्पयामि
- विष्णु जी को हल्दी लगायें - हरिद्रालेपनं समर्पयामि।
- गोधूलिकी बेला(सूरज डूबने से थोड़ा पहले) में तुलसी और श्रीविष्णु का पूजन अलग अलग करना चाहिये। श्री विष्णुजी की पूजा ‘श्रीविष्णवे नमः’ नाममन्त्र से करें। श्रीतुलसीजी की पूजा ‘तुलस्यै नमः’ नाममन्त्र से करें। समयाभाव हो तो दिन में भी विवाह सम्पन्न कर सकते हैं।
- तुलसी जी व विष्णु जी दोनों को एक-दूसरे के सम्मुख रखकर मंगल-पाठ करे।
- जब भगवान् सूर्य कुछ-कुछ दिखायी देते हों, तब हाथ में जल फूल तिल जौ दूर्वा सिक्का आदि लेकर कन्यादान का संकल्प करे। अपने गोत्र और प्रवर का उच्चारण करके आदि की तीन पीढियों का भी आवर्तन करना चाहिये।
कन्यादान संकल्पः श्रीविष्णवेनमः।श्रीविष्णवेनमः। श्रीविष्णवेनमः।स्वस्तिरस्तु श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य ब्रह्मणो ऽह्नि द्वितीये परार्धे एक पञ्चाशत्तमे वर्षे प्रथममासे प्रथमपक्षे प्रथमदिवसे द्वात्रिंशत्कल्पानां मध्ये अष्टमे श्रीश्वेत वाराहकल्पे स्वायम्भुवादि मन्वतराणां मध्ये सप्तमे वैवस्वत मन्वन्तरे कृत-त्रोता-द्वापर- कलिसंज्ञानां चतुर्युगानां मध्ये वर्तमाने अष्टाविंशति तमे कलियुगे तत्प्रथम चरणे तथा पञ्चाशत्कोटि योजन विस्तीर्ण-भूमण्डलान्तर्गत सप्तद्वीप मध्यवर्तिनि जम्बूद्वीपे तत्रापि श्रीगङ्गादिसरिद्भिः पाविते परम-पवित्रे भारतवर्षे ...(प्रदेश का नाम).. प्रदेशे, ...(शहर का नाम)..नगरे, ...(गांव का नाम)..ग्रामे, प्रवर्तमानवत्सरे प्रभवादि षष्ठि सम्वत्सराणां मध्ये (संवत्सर का नाम) नाम सम्वत्सरे, सूर्य (दक्षिणायने/उत्तरायणे), (ऋतु का नाम) ऋतौ, (मास का नाम)मासे, (पक्ष का नाम)पक्षे, ( तिथि का नाम)तिथौ, ...(वार का नाम)... वासरे, सर्वे ग्रहेषु यथायथा राशिस्थानस्थितेषु, सत्सु एवं ग्रहगुण विशिष्टे ऽस्मिन्शुभ क्षणे श्रीतुलसी सहित ममाखिलपापक्षयपूर्वक श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्त्यर्थं श्री लक्ष्मीनारायण भगवत्प्रीत्यर्थम् ..(अपना गोत्र बोलें).. गोत्रोद्भवां ..(दादा का नाम बोलें)..शर्मणः(वर्मणः/गुप्तस्य/दासस्य) प्रपौत्रीं, ..(पिताजी का नाम)..शर्मणः(वर्मणः/गुप्तस्य/दासस्य)पौत्रीं,
..(आपका नाम)..शर्मणः(वर्मणः/गुप्तस्य/दासस्य) पुत्रीं तुलसीनाम्नीं इमां कन्यकां अजाय अनादये श्री विष्णवे वराय ददामि।
नोट- इस संकल्प में जो ब्राह्मण हैं वो-शर्मणः कहें, जो क्षत्रिय क्षत्रिय हैं वे वर्मणः, तथा वैश्य गुप्तस्य शूद्र दासस्य कहें।
पुनः जल आदि हाथ में लेकर निम्न संकल्प वाक्य को दो बार और कहें-
श्रीविष्णवेनमः। श्रीविष्णवेनमः। श्रीविष्णवेनमः। अद्य ममाखिलपापक्षयपूर्वक श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्त्यर्थं श्री लक्ष्मीनारायण भगवत् प्रीत्यर्थम् ..(अपना गोत्र बोलें).. गोत्रोद्भवां .. (दादा का नाम बोलें)..शर्मणः(वर्मणः/गुप्तस्य/दासस्य) प्रपौत्रीं, ..(पिता का नाम)..शर्मणः(वर्मणः/गुप्तस्य/दासस्य)पौत्रीं,
..(आपका नाम)..शर्मणः(वर्मणः/गुप्तस्य/दासस्य) पुत्रीं तुलसीनाम्नीं इमां कन्यकां अजाय अनादये श्री विष्णवे वराय ददामि।
अब कहें-
अनादि-मध्य-निधन त्रैलोक्य-प्रतिपालक।
इमां गृहाण तुलसीं विवाह-विधिनेश्वर॥
(आदि, मध्य और अन्तसे रहित त्रिभुवनप्रतिपालक परमेश्वर ! इस तुलसी को आप विवाह की विधि से ग्रहण करें।)
पार्वतीबीज-सम्भूतां वृन्दाभस्मनि संस्थिताम्।
अनादि-मध्यनिधनां वल्लभां ते ददाम्यहम्॥
(यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृन्दा की भस्म में स्थित रही है तथा आदि, मध्य और अन्त से शून्य है। आपको तुलसी बहुत ही प्रिय है, अतः इसे मैं आपकी सेवामें अर्पित करता हूँ।)
पयोघटैश्च सेवाभिः कन्या-वद्-वर्द्धिता मया।
त्वत् प्रियां तुलसीं तुभ्यं ददामि त्वं गृहाण भोः॥
(मैंने जल के घड़ों से सींचकर और अन्य प्रकार की सेवाएँ करके अपनी पुत्री की भाँति इसे पाला, पोसा और बढ़ाया है, आपकी प्रिया तुलसी मैं आपको ही दे रहा हूँ। प्रभो! आप इसे ग्रहण करें।)
- इस प्रकार विष्णु जी को तुलसी का दान करने के बाद एक नारियल दक्षिणा के साथ टीका के रूप में रखें।
- तुलसीपत्र या तुलसीदल चढ़े हुए भगवान् शालग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात प्रदक्षिणा कराये और आरती के पश्चात् यह पवित्र विवाहोत्सव पूर्ण करे। फिर उन दोनों (तुलसी और विष्णु) की पूजा करे। विवाहका उत्सव मनायें।
- अगले दिन सबेरा होने पर पुनः तुलसी और विष्णुका पूजन करे। जो यज्ञोपवीत धारी द्विज(ब्राह्मण/क्षत्रिय/वैश्य) हैं वे अग्नि की स्थापना करके उसमें गायत्री मंत्र व विष्णु जी के द्वादशाक्षरमन्त्र से खीर, घी, मधु और तिलमिश्रित हवनीय द्रव्य की एक सौ आठ आहुति दे। फिर 'स्विष्टकृत्' होम करके पूर्णाहुति दे। आचार्यकी पूजा करके होम की शेष विधि पूरी करे।
जो अधिकृत न होने या अन्य किसी कारण वश यह हवन न कर सके वह भगवान के नामों का संकीर्तन कर लें।
- उसके बाद भगवान् से इस प्रकार प्रार्थना करें - हे देव! हे प्रभो !! आपकी प्रसन्नता के लिये मैंने यह व्रत किया है। जनार्दन! इसमें जो न्यूनता हो, वह आपके प्रसाद से पूर्णता को प्राप्त हो जाय।
कार्तिक शुक्ल द्वादशी तिथि में रेवती का चौथा चरण बीत रहा हो तो उस समय एकादशी पारण न करे। जो रेवती के चौथे चरण के समय भी पारण करता है, वह अपने व्रत को निष्फल कर देता है। भोजन के पश्चात् तुलसी के स्वतः गलकर गिरे हुए पत्तों को खाकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। इस दिन भोजन के अन्त में ईख, आँवला और बेर का फल या तीनों में से एक खा लेने से "उच्छिष्ट खाने का दोष" मिट जाता है।
- तदनन्तर भगवान से कहे-वैकुण्ठं गच्छ भगवन् तुलस्या सहितः प्रभो। मत्कृतं पूजनं गृह्य सन्तुष्टो भव सर्वदा। - हे भगवन्! आप तुलसी के साथ वैकुण्ठधाम में पधारें। प्रभो! मेरे द्वारा की हुई पूजा ग्रहण करके आप सदा सन्तुष्ट रहें। श्रीविष्णवेनमः। श्रीविष्णवेनमः। श्रीविष्णवेनमः।
फिर यथाशक्ति आचार्य को दान दक्षिणा दे दें। इस विवाहोत्सव कृत्य से मनुष्य कृतार्थ हो जाता है और विष्णु जी की कृपा तथा कन्यादान से होने वाले पुण्यफलों को पाता है।
इस अवसर
पर विवाह के समान ही अन्य कार्य होते हैं तथा विवाह के मङ्गल गीत भी गाये जाते हैं।
राजस्थान में इस तुलसी-विवाह को ‘बटुआ-फिराना’ कहते हैं।
यदि समयाभाव आदि कारणों से तुलसी विवाह इस एकादशी
को सम्पन्न न हो पाये तो कार्तिक शुक्ला द्वादशी या पूर्णिमा तिथि को भी किया जा सकता
है। प्रबोधिनी एकादशी के शुभ अवसर पर नित्य ही सुगंधित रहने वाली और तन-मन को पवित्र
करने वाली आरोग्यदायिनी भगवती तुलसीजी और मधुसूदन-कमलनयन-लक्ष्मीपति भगवान श्रीनारायण को हमारा
बार-बार प्रणाम.....
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