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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

वासन्तीय या चैत्र नवरात्रों का महत्व

सन्त ऋतु के आगमन के पश्चात एक के बाद एक व्रतोत्सव-पर्व-त्यौहारों के आने का क्रम प्रारम्भ होने लगता है वसन्त ऋतु में सभी के हृदय में रस का संचार होता हैसभी उमंग से भरे रहते हैं इसी कारण देव-देवी की पूजा इत्यादि में वे प्रसन्न रहते हैं। साथ ही बुरे कर्मों को करने की प्रवृत्ति से नर और नारी को बचाने के लिए भी इन उत्सवों का प्रयोजन है। वैशाख का पूरा महीना कुमारी न्याओं के लिए व्रत करने का समय है। कन्याएँ ठीक पथ पर रहेंइसलिए वैशाख के महीने में उनकी माँदादी इत्यादि व्रत करवाती हैं। किसी मत से फाल्गुन और चैत्र मास में वसन्त-ऋतु मानी जाती है और किसी के मत से चैत्र और वैशाख मास में। वैशाख का दूसरा नाम 'माधवहै और चैत्र मास का मधु नाम है। हिंदू धर्म के प्रति आस्थावान श्रद्धालुगण वसन्त ऋतु में मधु मास में 'वासंती नवरात्र व्रत' रख कर भगवती की उपासना करते हैं।
वसन्त-ऋतु में भी श्रीदुर्गा देवी जी की पूजा महा-समारोह से होती है, बस 'बोधन' नहीं किया जाता। दुर्गा जी का एक नाम 'वासन्ती' भी है। वसन्त-काल में देवी की पूजा की जाती है, इसी से इनका नाम 'वासन्ती' पड़ा।


     हापर्व नवरात्र के समीप ते ही सभी श्रीजगदम्बा की विशेष रूप से अर्चापूजा, उपासना करने को उत्कण्ठित दीख पने लगते हैं। कोई पुश्चण का सङ्कल्प उठा लेता हैकोई दुर्गा-पूजन के महोत्सव के आयोजन में जुट जाता है, तो कोई श्रीदुर्गा-सप्तशती’ का ही नियम-पूर्वक पाठ करने ल जाते हैं। जो संस्कृत नहीं जानतेवे भी 'सप्त-शतीके भाषानुवाद को ही लेकर उसी के सतत पाठ द्वारा जगज्जननी को तुष्ट करने को यत्नशील दिखाई देते हैं। ऐसे ही व्यापक और लोक-प्रिय महापर्व 'नवरात्रका आयोजन वर्ष में प्रकट रूप से दो बार और गुप्त रूप से भी दो बार - कुल चार बार संयोजित होता रहता है।
     चैत्र मास में वासन्तीय नवरात्र होता है। जिस प्रकार शरद ऋतु में श्रीदुर्गा देवी की पूजा की जाती हैसी प्रकार वसन्त-ऋतु में भी श्रीदुर्गा देवी जी की पूजा महा-समारोह से होती है, बस 'बोधन' नहीं किया जाता। दुर्गा जी का एक नाम 'वासन्ती' भी है। वसन्त-काल में देवी की पूजा की जाती हैइसी से इनका नाम 'वासन्तीपड़ा। शरत्-काल की पूजा 'अकाल-पूजाहैइसी कारण शरत्काल में देवी का 'बोधनकरके पूजा करनी चाहिए। शरद ऋतु देवताओं की रात्रि हैअत: यह 'अकाल' कही जाती हैकिंतु वसन्त ऋतु के समय देवताओं का दिन होता है। इसी कारण वसन्तकाल की पूजा 'बोधितपूजा है अतः 'वासन्ती पूजामें देवी माँ का 'बोधन' नहीं किया जाता है क्योंकि वसन्त ऋतु में तो भगवती जाग्रत ही रहती हैं और जाग्रत के बोधन की आवश्यकता नहीं। इसीलिए महा-महोपाध्याय शूलपाणि भट्टाचार्य कृत 'दुर्गोत्सव-विवेमें ठीक ही लिखा है- 
व्यवस्था  शारदीय-पूजा-प्रकरणोक्ता,
विधिस्तु ग्राह्या।
विशेषस्त्वयं बोनं नास्ति,
बोधिताया बोनासम्भवात्॥

सूर्य के मीन-राशि में जाने से अर्थात् चैत्र मास में शुक्ला सप्तमी से दशमी तक दुर्गा देवी की पूजा करनी होती है। यहाँ चैत्र शब्द से चन्द्र तिथि का बोध होता है। मीन-राशि में सूर्य के जाने पर ही पूजा होगी- ऐसा नहींकिन्तु चान्द्र-तिथि के अनुसार मीन’ और मेष इन दो राशियों में सूर्य के जाने से अर्थात् चैत्र और वैशाख इन दो मासों के मध्य चान्द्र चैत्र शुक्ला सप्तमी से पूजा करनी होगी ऐसा कहा गया है-
मीन-राशि-स्थिते सूर्येशुक्ल-पक्षे नराधिप!
सप्तमी दशमी यावत्पूजयेदम्बिकां सदा।।

विष्योत्तर पुराण’ में कहा गया है-
चैत्रे मासि सिता-पक्षेसप्तम्यादि-दिन-त्रये।
पूयेद् विधि-वद्दुर्गांदशम्यां च विसर्जयेत्॥

यह पूजा तिथि-कृत्’ होने से चान्द्र मासानुसार होती हैसौर मासानुसा नहीं होती। मान्यता है कि जो यथाविधान प्रतिवर्ष वासन्ती पूजा करते हैउन्हें पुत्र-पौत्रादि का लाभ होता है तथा उनकी कामनाएँ पूरी होती हैं।

शादीया दुर्गा-पूजा के विधानानुसार ही यह पूजा करनी होती है। जिस प्रकार शादीय पूजा चतुरवयवी है उसी प्रकार 'वासन्ती-पूजा भी है। नवरात्रों के ये चार अवयव हैं-
१- स्नपन(स्नान)२- पूजन३- होम और ४- बलिदान।
यदि कोई सप्तमी में पूजा न कर सकेतो अष्टमी तिथि में पूजा करे। अष्टमी में असमर्थ हो, तो केवल नवमी तिथि में पूजा का विधान है।
अष्टमी तिथि से पूजन आरम्भ करने पर 'अष्टमी-कल्पऔर वमी तिथि में पूजा करने से उसे 'नवमी-कल्प' कहते हैं।

वासन्तिक नवरात्र पूजा में भी 'शारदीय पूजाकी तरह ही 'चण्डी-पाठकिया जाता है। सायं-काल में षष्ठी तिथि के दिन विल्व-वृक्ष के मूल को आमन्त्रण’ और प्रतिमा को अधिवास’(स्थापना एवं गंधादि से पूजनकर रखना होता है। दूसरे दिन सप्तमी तिथि से आमंत्रित बिल्व की शाखा को काटकर उसकी यथाविधान पूजा करनी होती है। माया-तन्त्र’ के सातवें पटल में प्रमाण है-
चैत्रे मासि सिते पक्षेनवम्यादि-दिन-त्रये।
प्रात: प्रातर्महा-देवींदुर्गां भक्त्या प्रपूजयेत्।।

सप्तशती और ब्रह्मवैवर्त पुराण से पता चलता है कि सबसे पहले समाधि वैश्य और सुरथ राजा ने भगवती की पूजा की जिसके ल से समाधि वैश्य को 'मोक्षऔर सुरथ सजा को राज्य-लाभ हुआ था तथा दुर्गा देवी के वर से राजा सावर्णि नामक मनु हुए थे।

मार्कण्डेय पुराण’ के अनुसार समस्त क्षिति-मण्डल में राजा सुरथ चक्रवर्ती राजा थे। कोल-विध्वंसी राजाओं ने उन्हें युद्ध में परास्त कर राज्य से निकाल भगाया था। राजा ने राज्य-भ्रष्ट होकर मेधस मुनि का आश्रय लिया। मुनि के उपदेश से वे नदी के पुलिन में गए और वहाँ उन्होंने महामाया भगवती की मृण्मयी मूर्ति नाकर पूजा की-
तौ तस्मिन् पुलिने देव्याःकृत्वा मूर्तिं महीमयीम्।
र्हणां क्रतुस्तस्या:पुष्प-धूपाग्नि-तर्पणै:
अर्थात् उन दोनों ने (समाधि वैश्य और राजा सुरथ ने) नदी के किनारे देवी की मिट्टी की मूर्ति बना कर पुष्पधूपअग्नि और तर्पण के द्वारा पूजा की। प्रसिद्धि है कि राजा सुरथ ने वसन्त काल में ही देवी की पूजा की थी।
इसमें सन्देह नहीं कि वर्ष में चार बार यह जो नव-रात्र महा-पर्व का अवसर आता है, वह साधकों और उपासकों - दोनों ही के लिए समान रूप से महत्व-शाली है

ब्रह्मवैवर्त पुरा में वर्णन है कि मेधस ऋषि के शिष्य राजा सुरथ ने नदी के किनारे दुर्गा देवी की मृण्मयी मूर्ति ना कर विधि-विधान से पूजा की और उसके बाद उस मृण्मयी मूर्ति का जल में विसर्जन किया गया।

वर्तमान समय में चैत्र नवरात्रि में 'सप्तशती-पाठका प्रचलन तो है, परन्तु इस समय मूर्ति बना कर पूजा करने का विधान नहीं है। वङ्ग देश में अब भी कहीं-कहीं ही वासन्ती पूजा होती है

     चैत्र मास की शुक्ला अष्टमी तिथि में अन्नपूर्णा पूजा’ का विधान है। मान्यता है कि इस वासन्ती ष्टमी तिथि में भक्तिपूर्वक न्नपूर्णा देवी की पूजा रने से अन्न का अभाव दूर होता है और न्त-काल में स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण’ में भी वासन्तीय नवरात्र व इसके गौरव का निरूपण बड़े स्पष्ट शब्दों में हुआ है-
पूजिता सुरथेनादौदुर्गा दुर्गति - नाशिनी।
मधु-मास-सिताsष्टम्यांनवम्यां विधि-पूर्वकम्॥
अर्थात् आदिका में सुरथ ने मधु मास(चैत्र) के शुक्लपक्ष की अष्टमी और नवमी तिथियों में दुर्गतिनाशिनी भगवती दुर्गा की विधिवत् पूजा की थी।

कोटरा क्षेत्र में सैदनगर के पास स्थित रक्तदंतिका मंदिर में पहले कोई प्रतिमा नहीं थी। प्रतिमा  के बजाय पुरातन काल से यहाँ दो रक्तिम शिलाएं उत्कीर्ण हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि ये देवी के दांत हैं। किंवदंती है कि इन दांतों को धो भी दें तो कुछ देर बाद उनमें अपने आप रक्त निकल आएगा।

     ‘ब्रह्मवैवर्त पुरा में वर्णन है कि पत्मात्मा श्रीकृष्ण जब गोलोक धाम में रास करते थेउस समय मधु मास में प्रसन्न होकर उन्होंने भगवती दुर्गा देवी की पूजा की थी।विष्णु जी ने मधु-कैटभ युद्ध के समय देवी की शरण ली थी। उस समय ब्रह्मा जी ने भी देवी भगवती की पूजा की। तभी से इस पूजा का सञ्चार है-
पुरा स्तुता सा गो-लोके, कृष्णेन परमात्मना।
म्पूज्य मधु-मासे प्रीतेन रास-मण्डले॥
धु-कैटभयोर्युद्धेद्वितीये विष्णुना पुरा।
त्रैव काले सा दुर्गाब्रह्मणा प्राण-सङ्कटे॥
चतुर्थे संस्तुता देवीक्त्या च त्रिपुरारिना।
पुरा त्रिपुयुद्धे महाघोरतरे मुने!
पञ्चमे संस्तुता देवीवेत्रासुर-वधे तथा!
क्रेण सर्व-देवैश्चघोरे च प्राणसङ्कटे॥
तदा मुनीन्द्रैर्मनुभिर्मावै: सुरथादिभि:।
स्तुता च पूजिता सा ल्पे कल्पे परात्परा (ब्रह्मवैवर्त पुराण)
अर्थात् पूर्व-काल में गो-लोक में रास-मण्डल के बीच वसन्त-काल में परमात्मा श्रीकृष्ण ने भक्ति पूर्वक भगवती दुर्गा की स्तुति की थी। फिर दूसरी बार मधु-कैटभ युद्ध के अवसर पर गवान् विष्णु ने स्तुति की थी। तीसरी बार उसी समय ब्रह्माजी के ज प्राण संकट में पड़े थे उन्होंने भगवती की वन्दना की थी। हे मुनि नारद! त्रिपुरासुर के साथ प्राचीन काल में अति कठिन युद्ध हुआ यातब उस समय महादेव ने भक्तिपूर्वक देवी की स्तुति की थी। पाँचवीं वार वेत्रासुर के वध के समय अत्यधिक प्राण-सङ्कट के समय इन्द्र-सहित समस्त देवताओं ने भगवती की वन्दना की थी।
     इसके बाद हर कल्प में मुनीन्द्र-गणमनु और सुरथ आदि मनुष्यों द्वारा उस परात्परा देवी की स्तुति-पूजा की गई।

वासन्ती-पूजा-विधि’ के सम्बन्ध में ये वचन भी महत्वपूर्ण हैं-
चैत्रे मासि सिते पक्षेप्तम्यादि-दिन-त्रये।
पूजयेदू विविधैर्द्रव्यैर्लवङ्ग-कुसुमैस्तथा॥
विचित्राभरणै: पार्थ पट्ट-वस्त्रादिभिस्तथा।
एवं य: कुरुते पूजांवर्षे विधानत:॥
ईप्सितान् लभते कामान्पुत्र-पौत्रादिकान् नृप!
अर्थात् हे राजन्चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के सप्तमी आदि तीन दिनों में भगवती की विविध द्रव्योंलवङ्ग-पुष्पोंचित्र-विचित्र भूषणों और रेशमी वस्त्रों से पूजा करे। हे पार्थ! इस प्रकार जो प्रति वर्ष सविधि वासन्तीय पूजा का अनुष्ठान करता है, वह पुत्र-पौत्रादि सभी अभीप्सित वस्तुओं को प्राप्त करता है।
चैत्रे मासि सिते पक्षेप्तम्यादि-दिन-त्रये।
पूयेद् विधि-वद् दुर्गांदशम्यां तु विसर्जयेत्॥
अर्थात् चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी, अष्टमी और नवमी- इन तीन दिनों से विधिपूर्वक भगवती दुर्गा की पूजा करे और दशमी के दिन विसर्जन करे।

'कालिका-पुराणमें 'वासन्तीय पूजाका केवल 'अष्टमी-कल्पनिर्दिष्ट किया गया है-
सिताष्टम्यां तु चैत्रस्यपुष्पैस्तत्-काल-सम्भवै:।
अशोकैरपि य: कुर्यान्मन्त्रेणानेन पूजनम्॥
न तस्य जायते शोकोरोगी वाप्यथ दुर्गतिः।
अर्थात् चैत्र शुक्लाष्टमी में उस काल में विकसित होने वाले पुष्पों सेविशेष कर अशोक के फूलों से  दुर्गे दुर्गे रक्षणि स्वाहा इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए जो देवी जी की पूजा करता हैउसे रोगशोक या किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता। यह मंत्र उपनीतों(यज्ञोपवीत धारण करने वालों) के लिये है। स्त्रियाँ व अनुपनीत ह्रीं दुर्गे दुर्गे रक्षणि नमः से पूजा करें।

'देवी पुराणमें 'वासंतीय पूजाके लिए केवल 'नवमी-कल्पका विधान किया गया है-
नवम्यां पूजयेद् देवीं,
महिषासुर-र्दिनीम्
कुंकुमागुरु-कर्पूरपानान्न - ध्वज  तर्पणै:॥
कुंकुमैर्मरु - पत्रैश्चविजयाख्य  पदं लभेत्।
अर्थात् चैत्र शुक्ला नवमी के दिन कुंकुम, अगरुकपूरपान(पेय पदार्थ)न्नध्वजतर्पण द्वारा और कुंकुम तथा मरुपत्र(शमी) से भगवती महिषासुर-मर्दिनी की पूजा करे। इस प्रकार पूजा करने वाला 'विजय' नामक पद को प्राप्त करता है।
चैत्र नवरात्रि का समापन दिवस यानि नवमी तिथि भगवान् श्रीराम का जन्म दिन-रामनवमी होता है।

     रुद्रयामल तन्त्र के अनुसार भगवान विष्णु के पूछने पर भगवान शिव ने विष्णुजी को बतलाया कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में रक्त-दन्तिका माता का पूजन करना चाहिए। रेवती या अश्विनी नक्षत्र में देवी-घट स्थापित करे। प्रतिदिन जवा-कुसुम, लाल-करवीरब्रह्-पुष्प या श्वेत पुष्प - पल्लव से पूजा करे।
 कलश स्थापन हेतु त्याज्य समय
     अहिर्बुध्न्यवैधृति योग और अपराह्न में कुम्भ स्थापित न करे। देवी की स्थापना के उद्देश्य से कलश-स्थापन होता है। वैधृति में घट-स्थापन करने से राज्य-नाशचौर-भयग्नि-भय होता है। इसलिए वैधृति योग त्याज्य है। अपराह्न में कुम्भ-स्थापन करने से कलत्र का विनाश होता हैबुद्धि भ्रष्ट होती है। इसलिए अपराह्न काल भी वर्जित है। जो साधक मोह से दुर्गा-कलश अपराह्न में स्थापित करते हैंउन साधकों का गृह-ङ्ग होता हैयश की हानि होती है। इसलिए कलश की स्थापना हेतु अपराह्न का समय त्याज्य है।

     सभी शुभ कार्यों के लिए अभिजीत मुहूर्त सदा ही उचित रहता है। विहित समय पर कलश-स्थापन कर प्रति-दिन वेद-पाठादिसप्तशती-पाठदेवी कवच, सिद्धकुञ्जिका स्तोत्र, सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र आदि नाना प्रकार के स्तोत्रादिकों का पाठ करना चाहिए।
     रुद्रयामल तन्त्र में शिवजी ने यह भी बतलाया है कि चैत्र नवरात्रि में ‘रक्त-दन्तिका’ देवी के प्रसन्नार्थ त्रिकाल-पूजन करे। अष्टमी के दिन रात्रि में जागरण करे। नवमी के दिन पारण करे। दशमी के दिन कलश-विसर्जन और अभिषेक करे। इस प्रकार क्त-दन्तिकोत्सव करे। मान्यता है कि इससे साधक के युर्बल की वृद्धि होती है, पुत्र प्राप्त होता है और दैवी शक्ति उस साधक को मिलती है।



     जनपद जालौन में झांसी के समीपवर्ती बेतवा के घने बीहड़ों में स्थित रक्तदंतिका मंदिर तांत्रिक साधना का मुख्य केंद्र माना जाता है। एक समय यहां देवी को प्रसन्न करने के लिए सिद्ध तांत्रिक बलि चढ़ाते थे। इसी कारण रात में मंदिर परिसर में किसी को ठहरने की इजाजत नहीं थी। कोटरा क्षेत्र में सैदनगर के पास रक्तदंतिका मंदिर की ख्याति रहस्यपूर्ण तांत्रिक साधना केंद्र के रूप में रही है। इस मंदिर में पहले कोई प्रतिमा नहीं थी। प्रतिमा  के बजाय पुरातन काल से यहाँ दो रक्तिम शिलाएं उत्कीर्ण हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि ये देवी के दांत हैं। किंवदंती है कि इन दांतों को धो भी दें तो कुछ देर बाद उनमें अपने आप रक्त निकल आएगा।

सबसे पहले समाधि वैश्य और सुरथ राजा ने भगवती की पूजा की जिसके फल से समाधि वैश्य को 'मोक्ष' और सुरथ सजा को राज्य-लाभ हुआ था
     चैत्र नवरात्रि जिस दिन आरम्भ होती हैउसी दिन विक्रमी संव्रत् का नया वर्ष प्रारम्भ होता है। चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य राजा होने के साथ ही जनहित-लोकमंल के लिए समर्पित साधक भी थे। उनकी आदर्शनिष्ठा की झलक द्वात्रिंशत्पुत्तलिका या सिंहासन बतीसी में मिलती है। हिन्दू धर्म के पालन में एक आदर्श स्थापित करने वाले राजा विक्रमादित्य को लोकमानस और शासन तन्त्र के आदर्श समन्वय के प्रतीक के रूप में मान्यता दी गई और उनके राज्याभिषेक को नवीन संत्सर से जोड़कर उनकी कीर्ति को अमर बना दिया गया। भगवान् के मत्स्यावतार की प्रादुर्भाव-तिथि अर्थात् मत्स्य जयंती भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को होती है। इसी प्रकार चैत्र नवरात्रि का समापन दिवस यानि नवमी तिथि भगवान् श्रीराम का जन्म दिन-रामनवमी होता है।

नवरात्र व्रत में यदि कोई श्रद्धालु पूरे नौ दिन व्रत न रख सकें तो उनको अपनी सामर्थ्य के अनुसार सप्तरात्र, पंचरात्र, त्रिरात्र, युग्मरात्र अथवा एकरात्र व्रत का सहारा ले लेना चाहिए-

१- प्रतिपदा से सप्तमी तिथि तक व्रत रखने से सप्तरात्र-व्रत पूरा होता है।
२- पंचमी को एकभुक्त-व्रत (एक समय भोजन), षष्ठी को नक्त-व्रत(दिन में कुछ न खाकर केवल रात्रि में ही खाना), सप्तमी को अयाचित-व्रत (बिना माँगे स्वयं मिला भोजन ग्रहण करना), अष्टमी को उपवास (निराहार) और नवमी को पारण(व्रत खोलना) करने से पंचरात्र व्रत पूरा होता है।
३- सप्तमी, अष्टमी और नवमी को एक भुक्त रहने से त्रिरात्र व्रत पूरा होता है. 
४- नवरात्रि के प्रारंभ के दिन(प्रतिपदा) और अंतिम दिन(नवमी) व्रत रखने से, युग्मरात्र व्रत होता है।
५- नवरात्र के आरंभ या समाप्ति के दिन केवल एक दिन व्रत करने से एकरात्रि व्रत पूर्ण हो जाता है.

     अपनी शक्ति के अनुसार मां दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए इनमें से एक व्रत तो सबको अवश्य ही करना चाहिए। इस प्रकार व्रत रखने के साथ-साथ नित्य भगवती की आराधना करने से मनुष्य को निश्चित ही अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। नवरात्र में हर दिन नैवेद्य की विशिष्टता रहती है-

  • नवरात्र के पहले दिन अर्थात् प्रतिपदा तिथि को शैलपुत्री दुर्गा माँ को घी का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये।
  • नवरात्र के दूसरे दिन अर्थात् द्वितीया तिथि को ब्रह्मचारिणी दुर्गा माँ को चीनी का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसको ब्राह्मण को दे दें।
  • नवरात्र के तीसरे दिन अर्थात् तृतीया तिथि को चंद्रघण्टा(चण्डघण्टा) दुर्गा माँ को दूध का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसका ब्राह्मण को दान करें।
  • नवरात्र के चौथे दिन अर्थात् चतुर्थी तिथि को कूष्माण्डा दुर्गा माँ को अपूप(पुए/मालपुए) का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसका ब्राह्मण को दान करें।
  • नवरात्र के पांचवें दिन अर्थात् पञ्चमी तिथि को स्कंदमाता स्वरूपिणी दुर्गा माँ को केले का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसका ब्राह्मण को दान करें।
  • नवरात्र के छ्ठे दिन अर्थात् षष्ठी तिथि को कात्यायनी दुर्गा माँ को मधु का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इस शहद को ब्राह्मण को प्रसाद रूप में दे दें।
  • नवरात्र के सातवें दिन अर्थात् सप्तमी तिथि को कालरात्रि दुर्गा माँ को गुड़ का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसका ब्राह्मण को दान करें।
  • नवरात्र के आठवें दिन अर्थात् अष्टमी तिथि को महागौरी दुर्गा माँ को नारियल का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसका ब्राह्मण को दान करें।
  • नवरात्र के नौवें दिन अर्थात् नवमी तिथि को सिद्धिदात्री दुर्गा माँ को धान का लावा(खील), तिल अथवा खीर का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इस प्रसाद को ब्राह्मण को दे दें।
     शक्ति आराधना के पावन पर्व वासन्तीय नवरात्र के सम्बन्ध में दिये गए उपरोक्त विवरण से चैत्र नवरात्रियों की प्राचीनतागरिमा और महत्ता का ज्ञान होता है। इसमें सन्देह नहीं कि वर्ष में चार बार यह जो नव-रात्र महा-पर्व का अवसर ता हैवह साधकों और उपासकों - दोनों ही के लिए समान रूप से महत्व-शाली है। इस अवसर पर दृढ़ता-पूर्वक साधना-रत रहकर साधक जहाँ ष्ट-सिद्धि का लाभ करने से सफल-मनोरथ हो सकता हैवहाँ निष्ठा और क्ति-पूर्वक पराम्बा के स्मरण-कीर्तन द्वारा उपासक आत्म-साक्षात्कार कर अपने लक्ष्य पर सहज ही पहुँच सकता है। नवरात्रि के अवसर पर जगजननी अम्बा श्रीदुर्गा के श्रीचरणारविन्दों में हमारा अनन्त बार साष्टांग प्रणाम है.....


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प्र त्येक धर्मशील जिज्ञासु के मन में ये प्रश्न उठते ही हैं कि जीव का ब्रह्म से मिलन कैसे हो? जीव की ब्रह्म के साथ एक-रूपता कैसे हो? इस हेतु हमारे आगम ग्रंथों में अनेक विद्याएँ उपलब्ध हैं। शक्ति-उपासना में इसी सन्दर्भ में दश-महाविद्याएँ भी आती हैं। उनमें महाविद्या भगवती षोडशी अर्थात श्रीविद्या का तीसरा महत्त्व-पूर्ण स्थान है, श्रीविद्या को सामान्य रूप से,  श्री प्राप्त करने की विद्या कह सकते हैं और आध्यात्मिक रूप से इसे मोक्ष प्राप्त करने की अत्यन्त प्राचीन परम्परा कहा जा सकता है। शब्दकोशों के अनुसार श्री के कई अर्थ हैं- लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु, कुबेर, त्रिवर्ग(धर्म-अर्थ व काम), सम्पत्ति, ऐश्वर्य, कान्ति, बुद्धि, सिद्धि, कीर्ति, श्रेष्ठता आदि। इससे भी श्रीविद्या की महत्ता ज्ञात हो जाती है। राजराजेश्वरी भगवती ललिता की आराधना को सम्पूर्ण भारत में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जगद्गुरु श्री शंकराचार्य के चारों मठों में ( 1 . गुजरात के द्वारका में, 2. उत्तराखंड के जोशीमठ में स्थित शारदा पीठ, 3. कर्नाटक के श्रृंगेरी पीठ व 4. उड़ीसा के पुरी में) इन्हीं का यजन-पूजन

महाकाली महिमा तथा काली एकाक्षरी मन्त्र पुरश्चरण

का ल अर्थात् समय/मृत्यु की अधिष्ठात्री भगवती महाकाली हैं। यूं तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि योगमाया भगवती आद्याकाली के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाई जाती है। परंतु तान्त्रिक मतानुसार आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन ' काली जयंती ' बतलायी गयी है। जगत के कल्याण के लिये वे सर्वदेवमयी आद्या शक्ति अनेकों बार प्रादुर्भूत होती हैं, सर्वशक्ति संपन्न वे भगवान तो अनादि हैं परंतु फिर भी भगवान के अंश विशेष के प्राकट्य दिवस पर उन स्वरूपों का स्मरण-पूजन कर यथासंभव उत्सव करना मंगलकारी होता है। दस महाविद्याओं में प्रथम एवं मुख्य महाविद्या हैं भगवती महाकाली। इन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविद्याएँ हैं। विद्यापति भगवान शिव की शक्तियां ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टि से  भी कालतत्व की प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओं की आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकाल की प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपों में दस महाविद्याओं के नाम से विख्य

गायत्री वेदमाता की महिमा (कवच, 108 नाम स्तोत्र)

श्रा वण शुक्ल पूर्णिमा के दिन  रक्षाबंधन, संस्कृत दिवस, लव-कुश जयंती    के साथ-साथ "भगवती गायत्री जयंती" मनाई जाती है। वेदमाता कहलाने वाली ये भगवती माँ अपने गायक/जपकर्ता का पतन से त्राण कर देती हैं; इसीलिए वो 'गायत्री' कहलाती हैं। जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही धर्म-कर्म के लिये योग्य कहलाता है और दान, जप, होम व पूजा सभी कर्मों के लिये वही शुद्ध पात्र है। पंचमुखी देवी गायत्री श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन श्रावणी उपाकर्म किया जाता है जिसके अंतर्गत  प्रायश्चित संकल्प करके दशविध स्नान के बाद  फिर शुद्ध स्नान कर नवीन यज्ञोपवीत का मंत्रों से संस्कार करके उस यज्ञोपवीत का पूजन कर उसे धारण किया जाता है फिर  पुराने यज्ञोपवीत का त्याग कर दिया जाता है । फिर गायत्री पूजन करें।  तत्पश्चात् यथाशक्ति गायत्री मंत्र जपा जाता है।  इसके बाद सप्तर्षि पूजन करके हवन करके  ऋषि तर्पण, पितृ तर्पण करते हैं।  चूंकि इस दिन गायत्री जयंती है अतः सच्चे मन से वेदजननी माँ गायत्री से संबन्धित स्तोत्रों का पाठ करना, गायत्री मंत्र से हवन, मन ही मन गायत्री मंत्र स्मरण वेदमाता की विशेष कृप

तारा महाविद्या करती हैं भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा

भ गवती आद्याशक्ति के दशमहाविद्यात्मक दस स्वरूपों में एक स्वरूप भगवती तारा का है।   क्रोधरात्रि में भगवती तारा का प्रादुर्भाव हुआ था । चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को महाविद्या तारा की जयन्ती तिथि बतलाई गई है। महाविद्या काली को ही नीलरूपा होने के कारण तारा भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि ये सर्वदा मोक्ष देने वाली, तारने वाली हैं इसलिये इन्हें तारा कहा जाता है-  तारकत्वात् सदा तारा सुख-मोक्ष-प्रदायि नी।  महाविद्याओं के क्रम में ये द्वितीय स्थान पर परिगणित की जाती हैं।  रात्रिदेवी की स्वरूपा शक्ति  भगवती  तारा दसों  महाविद्याओं में  अद्भुत प्रभाववाली और  सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी  कही गयी हैं। भगवती तारा के तीन रूप हैं-  तारा, एकजटा और नीलसरस्वती।  श्री तारा महाविद्या के  इन   तीनों रूपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं किन्तु भिन्न होते  हुए भी सबकी शक्ति समान और एक ही है।   1. नीलसरस्वती अनायास ही वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिये इन्हें नीलसरस्वती भी कहते हैं ।  जिन्होंने नीलिमा युक्त रूप में प्रकट होकर विद्वान

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