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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

वैदिक सोमयज्ञ होली का आध्यात्मिक रहस्य

हो
ली का पर्व आते ही सर्वत्र उल्लास छा जाता है। हास-परिहासव्यंग्य-विनोदमौज-मस्ती और मिलने जुलने का प्रतीक लोकप्रिय पर्व होली वास्तव में एक वैदिक यज्ञ हैजिसका मूल स्वरूप आज विस्मृत हो गया है आनन्दोल्लास का पर्व होली प्रेम, सम्मिलन, मित्रता एवं एकता का पर्व है। होलिकोत्सव में होलिका दहन के माध्यम से वैरभाव का दहन करके प्रेमभाव का प्रसार किया जाता है। होली के आयोजन के समय समाज में प्रचलित हँसी-ठिठोलीगायन-वादनचाँचर (हुड़दंग) और अबीर इत्यादि के उद्भव और विकास को समझने के लिये हमें उस वैदिक सोमयज्ञ के स्वरूप को समझना पड़ेगा, जिसका अनुष्ठान इस महापर्व के मूल में निहित है।
जो सिंदूरारूण विग्रहा देवी परम तृप्त हैं, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक सर्वेश्वर का जिन्हें संनिधान प्राप्त है, जो अनन्तब्रह्माण्डजननी ऐश्वर्य-माधुर्य की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी भगवती का भी सर्वोत्तम सारसर्वस्व हैं, वे ही श्रीराधारानी हैं। सर्वेश्वर भी जिनके पादारविन्द-रज की आराधना करते हैं, उनसे बढ़कर किसकी तृप्ति हो सकती है; उनका तर्पण होने पर सारे संसार का तर्पण हो जाता है।
     वैदिक यज्ञों में सोमयज्ञ सर्वोपरि है। वैदिक काल में प्रचुरता से उपलब्ध सोमलता का रस निचोड़कर उससे जो यज्ञ सम्पन्न किये जाते थेवे सोमयज्ञ कहे गये हैं यह सोमलता कालान्तर में लुप्त हो गयी। हिन्दू धर्म ग्रंथों में इस सोमलता के अनेक विकल्प दिये गये हैंजिनमे पूतीक और अर्जुन वृक्ष ,प्रमुख हैं औषधि के रूप में अर्जुन वृक्ष को हृदय के लिए अत्यंत लाभ कारी माना गया हैसोमरस इतना शक्तिवर्धक और उल्लासकारी होता था कि उसका पान कर ऋषियों को अमरता जैसी अनुभूति होती थी। 
     इस दिन यज्ञ अनुष्ठान  के साथ कुछ ऐसे मनोविनोद  पूर्ण कृत्य किये जाते थे जिनका प्रयोजन हर्ष और उल्लास मय वातावरण उपस्थित करना होता था। इन सोमयागों के तीन प्रमुख भेद थे-एकाअहीन और सत्रयाग। यह वर्गीकरण अनुष्ठान दिवसों की संख्या के आधार पर है। सत्रयाग का अनुष्ठान पूरे वर्षभर चलता था। उनमें प्रमुखरूप से ऋत्विग्गण ही भाग लेते थे और यज्ञ का फल ही दक्षिणा के रूप में मान्य था। वामयन भी इसी प्रकार का एक सत्रयाग हैजिसका अनुष्ठान ३६० दिनों में सम्पन्न होता है। इसका उपान्त्य(अन्तिम दिन से पूर्व का) दिन 'महाव्रतकहलाता है। महाव्रत’ में प्राप्य महा’ शब्द वास्तव में प्रजापति का द्योतक  है, जो वैदिक परम्परा में संवत्सर के अधिष्ठाता माने जाते हैं और उन्हीं पर सम्पूर्ण वर्ष की सुदृढ़-समृद्धि निर्भर है। महाव्रत के अनुष्ठान का प्रयोजन वस्तुत: इन प्रजापति को प्रसन्न करना है-
प्रजापतिर्वाव महाँस्तस्यैतद् व्रन्नमेव [न्हाव्रतम्]
     यज्ञवेदी के समीप एक उदुम्बर वृक्ष(गूलर) की टहनी गाड़ी जाती थीक्योंकि गूलर का फल माधुर्य गुण की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है। 'हरिश्चन्द्रोपाख्यामें कहा गया है कि जो निरन्तर चलता रहता हैकर्म में निरत रहता हैउसे गूलर के स्वादिष्ट फल खाने के लिये मिलते हैं-चरन् वै मधु विन्देत चरन्स्वादुमुदुम्बरम्'(ऐतरेय ब्राह्मण)। गूलर का फल इतना मीठा होता है कि पकते ही इसमें कीडे पड़ने लगते हैं। उदुम्बरवृक्ष की यह टहनी सामगान की मधुमयता की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति करती थी। इसके नीचे बैठे हुए वेदपाठी अपनी-अपनी शाखा के मंत्रो का पाठ करते थे। सामवेद के गायकों की चार श्रेणियां थीं- उद्गाता, प्रस्तोता, प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य। पहले ये समवेत रूप से अपने-अपने भाग को गाते थेफिर सभी मिलकर एक साथ समवेत रूप से गान करते थे। होली में लकड़ियों को चुनने से लगभग दो सप्ताह पूर्व गाड़ी जाने वाली रण्ड वृक्ष की टहनी इसी औदुम्बरी(उदुम्बर की हनी) का प्रतीक है। धीरे-धीरे जब उदुम्बरवृक्ष का मिलना कठिन हो गया तो अन्य वृक्षों की टहनियाँ औदुम्बरी के रूपमें स्थापित की जाने लगीं। एरण्ड एक ऐसा वृक्ष हैजो सर्वत्र सुलभ माना गया है। संस्कृत में एक कहावत हैजिसके अनुसार जहाँ कोई भी वृक्ष सुलभ न होवहाँ एरण्ड को ही वृक्ष मान लेना चाहिये-.
निरस्तपादपे देशे एरण्डोपि द्रुमायते उद्गाता तो उदुम्बर काष्ठ से बनी आसन्दी पर ही बैठकर सामगान करता है। सामगाताओं की यह मण्डली महावेदी के विभिन्न स्थानों पर घूम-घूमकर पृथक्-पृक् सामों का गान करती थी। सामगान के अतिरिक्त महाव्रत-अनुष्ठान के दिन यज्ञवेदी के चारों ओर, सभी कोणों मेँ दुन्दुभि अर्थात् नगाड़े भी बजाये जाते थे-
र्वासु स्रक्तिषु दुन्दुभयो व्वदन्ति' (ताण्ड्य ब्राह्मण ५।५।१८)। इसके साथ ही जल से भरे घड़े लिये हुई स्त्रियाँ दम्मधु इदम्धु (यह मधु हैयह मधु है), हती हुई यज्ञवेदी के चारों ओर नृत्य करती थीं- रिकुम्भिन्यो मार्जालीयं यन्तिइदं मध्विति’ (ताण्ड्य ब्राह्मण ५।६।१५)। ताण्ड्य ब्राह्मण ग्रंथ में इसका विशद विवरण उपलब्ध होता है। उस समय वे निम्नलिखित गीत को गाती भी जाती थीं-
गावो हाऽऽरे सुरभय दम्मधु,
गावो घृतस्य मात इदम्मधु

इस नृत्य के समानान्तर अन्य स्त्रियाँ और पुरुष वीणावादन करते थे। उस समय प्रचलित वीणाओँ के अनेक प्रकार इस प्रसंग में मिलते हैं। इनमें अपघाटिला, काण्डमयीपिच्छोदराबाण इत्यादि मुख्य वीणाएँ थीं। शततन्त्रीका’ नाम से विदित होता है कि कुछ वीणाएँ सौ-सौ तारों वाली भी थीं। इन्हीं शततन्त्रीका जैसी वीणाओं से न्तू वाद्य का विकास हुआ।
लोकप्रिय पर्व होली वास्तव में एक वैदिक यज्ञ है, जिसका मूल स्वरूप आज विस्मृत हो गया है।
     कल्पसूत्रों मेँ महाव्रत के समय बजायी जाने वाली कुछ अन्य वीणाओं के नाम भी मिलते हैं। ये हैं - अलाबुवक्रा(मतन्त्रीका, वेत्रवीणा), कापिशीर्ष्णीपिशीवीणा(शूर्पा) इत्यादि। शारदीया वीणा भी होती थीजिससे आगे चलकर आज के सरोद वाद्य का विकास हु
     होली में दिने वाली हँसी-ठिठोली का मूल भिगर-अपगर-संवा’ में निहित है। भाष्यकारों के अनुसार अभिगर ब्राह्मण का वाचक है और 'पगशूद्र का। ये दोनों एक दूसरे पर क्षेप-प्रत्याक्षेप करते हुए हास-परिहास करते थे। इसी क्रम में विभिन्न प्रकार की बोलियां बोलते थेविशेष रूप से ग्राम्य बोलियाँ बोलने का प्रदर्शन किया जाता था-
सर्व्वा त्वाचो वदन्ति संस्कृताश्च ग्राम्यवाचश्च
(ताण्ड्य ब्राह्मण ५।५।२० तथा इस पर साय-भाष्य)

     महाव्रत के ये विधान वर्षभर की एकरसता को दूर कर यज्ञानुष्ठाता ऋत्विजों को स्वस्थ मनोरञ्जन का वातावरण प्रदान करते थे। यज्ञों की योजना ऋषियों ने मानव-जीवन के समानान्तर की हैजिसके हास-परिहास भी अभिन्न अङ्ग हैं।

     महाव्रत के दिन घर-घर में विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पक्वान्न बनाये जाते थे-कुले कुलेन्नं क्रियते। घर में कोई जब उस दिन पकवान्नों को बनाये जाने का कारण पूछता थातब उत्तर दिया जाता था कि यज्ञानुष्ठान करने वाले इन्हें खायेंगे-तद् यत् पृच्छेयुः किमिदं कुर्वन्ति इति इमे यजमाना अन्नमत्स्यन्ति इति ब्रूयु:।

लेकिन हास-परिहास और मौज-मस्ती के इस वातारण में भी सुरक्षा के संर्भ को ओझल नहीं जाता था। राष्ट्ररक्षा के लिये जनमानस को सग ने रने की शिक्षा देने के लिये इस अवसर पर यज्ञवेदी के चारों र शस्त्रास्त्र और कवचधारी राजपुरुष तथा सैनिक परिक्रमा भी करते रहते थे।

     होली के आयोजन में, महाव्रत के इन विधि-विधानों का प्रभाव अद्यावधि निरन्तर परिलक्षित होता है। दोनों के अनुष्ठान का दिन भी एक ही है- फाल्गुनी पूर्णिमा।

होलिकोत्सव-वसंतोत्सव-मदनोत्सव

      प्रारम्भ में उत्सवों और पर्वों का रम्भ अत्यन्त लघु बिन्दु से होता हैजिसमेँ निरन्तर विकास होता रहता है। सामाजिक आवश्यकताएँ इनके विकास में विशेष भूमिका निभाती हैं। यही कारण है कि होली जो मूलत: एक वैदिक सोमयज्ञ के अनुष्ठान से प्रारम्भ हुआआगे चलकर परम भागवत प्रह्लाद और उनकी बुआ होलिका के आख्यान से भी जुड़ गया! गवामयन के अन्तर्गत महाव्रत के इस परिवर्धित और उपबृंहित पर्व-संस्करण में 'नव-शस्येष्टि(नयी फसल के अनाज का सेवन करने के लिए किया गया अनुष्ठान) तथा मदनोत्सव अथवा वसन्तोत्सव का समावेश भी इसी क्रम में आगे हो गया।
     वसन्त ऋतु के आगमन के स्वागत उत्सव के कारण होली वसंतोत्सव के रूप में मनाई जाती है। मदनोत्सव के पीछे यह रहस्य है कि मानव जीवन में धर्म, अर्थ और मोक्ष के साथ काम भी एक पुरुषार्थ के रूप में प्रतिष्ठित है। कामस्तदाग्रे संवर्तताधि कहकर वेदों ने भी इसे स्वीकार किया है। नृत्य-संगीत प्रभृति समस्त कलाएँ, हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद तथा आनन्द और उल्लास इसी तृतीय पुरुषार्थ के नानाविध अङ्ग हैं। होलिकोत्सव के रूप में हिन्दू समाज ने मनोरञ्जन को जीवन में स्थान देने के लिये तृतीय पुरुषार्थ के स्वस्थ और लोकोयोगी स्वरूप को धर्माधिष्ठित मान्यता प्रदान की है. जैसा कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण का स्पष्ट कथन है-
धर्माविरूद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ

हे अर्जुन! मैं प्राणियों में धर्मानुकूल कामप्रवृत्ति हूँ।

शिवजी ने तृतीय नेत्र से फाल्गुन कृष्णाष्टमी को काम/मदन का दहन किया था। तब कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर होलाष्टक के अंतिम दिन अर्थात् धुलैण्डी के दिन शिवजी ने, कामदेव का प्रद्युम्न के रूप में पुनर्जन्म होने का वचन दिया था। इसलिए होली को मदनोत्सव के रूप में मनाया जाता है।

होली का आध्यात्मिक रहस्य

     उमंग, एकता, भाईचारे व सौहार्द्र का प्रतीक होली का पावन त्यौहार आपसी मतभेद भुलाकर सबसे प्रेम करने का उत्तम संदेश देता है। प्रेम-प्रकृति में विद्यमान वह निराकार और सर्वशक्तिमान भाव है, जो हमें द्वैत से अद्वैत की ओर ले जाता है। निश्छल व सच्चे भगवत्प्रेम ने ही सदा भक्त प्रह्लाद की रक्षा की। इस प्रेमके वास्तविक अर्थ को समझना अति आवश्यक है। जो सर्वेश्वर शक्तिमान् अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक भगवान् हैं, वे प्रेम से, रसरीति से अत्यन्त सुलभ साधारण से हो जाते हैं। कहा भी जाता है - प्रेम कुछ का कुछ बना देता है। अल्पज्ञ सर्वज्ञ हो जाता है और सर्वज्ञ अल्पज्ञ हो जाता है। अल्पशक्तिमान् सर्वशक्तिमान् हो जाता है, सर्वशक्तिमान् अल्पशक्तिमान् हो जाता है। परिच्छिन्न व्यापक हो जाता है, व्यापक परिच्छिन्न हो जाता है। प्रेम रूपी रंग में अद्भुत शक्ति है। प्रेमरंग में रंगे हुए प्रेमी के लिये सम्पूर्ण संसार ही प्रेमास्पद प्रियतम हो जाता है। होली में गाया जाता है-
उड़त गुलाल लाल भये बदरा।
उड़त गुलाल लाल भये अम्बर।
होली में रंगों द्वारा जगत् रंग जाता है। गुलाल के उड़ने से अम्बर यानि आकाश भी लाल हो गया, बादल भी लाल हो गए। बादल व आकाश इस सारे भौतिक प्रपञ्च के उपलक्षण हैं।

‘सिन्दूरारुणविग्रहाम्’- सिन्दूर के समान अरुण विग्रह है भगवती का। वह अरुणिमा, माँ की अतिशय करुणा की प्रतीक है। देवी आर्द्र हैं-'आर्द्राम्' (श्रीसूक्त ४)। कठोरता तो उनमें है ही नहीं। जीवों पर असीम करुणा है। उसी से हर समय आर्द्र हैं। ‘तृप्तां तर्पयन्तीम्' (श्रीसूक्त ४) जो स्वयं तृप्त हैं और सबको तृप्त करती हैं।

     इस भौतिक जगत् की भौतिकता मिट जाती है। इसमें ब्रह्मात्मकता का आविर्भाव हो जाता है। सर्वत्र व्याप्त भगवती राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी जी की आराधना करने वाले उनका ध्यान करते हैं-
सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत्.....
(श्रीललिता सहस्त्रनामस्तोत्र)
अतिमधुरचाप-हस्तामपरिमित-मोदबाणसौभाग्याम्।
अरुणामतिशय-करुणामभिनव-कुलसुन्दरीं वन्दे।
(श्रीललितात्रिशती ध्यानम्)

सिन्दूरारुणविग्रहाम्- सिन्दूर के समान अरुण विग्रह है भगवती का। ये अरुणिमा, माँ की अतिशय करुणा की प्रतीक है। देवी आर्द्र हैं-'आर्द्राम्(श्रीसूक्त ४)। कठोरता तो इनमें है ही नहीं। जीवों पर असीम करुणा है। उसी से हर समय आर्द्र हैं। तृप्तां तर्पयन्तीम्' (श्रीसूक्त ४) जो स्वयं तृप्त हैं और सबको तृप्त करती हैं। जो स्वयं तृप्त है वही सबको तृप्त कर सकता है। जो परम तृप्त हैं, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक सर्वेश्वर का जिन्हें संनिधान प्राप्त है, जो अनन्तब्रह्माण्डजननी ऐश्वर्य-माधुर्य की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी भगवती का भी सर्वोत्तम सारसर्वस्व हैं, वे ही श्रीराधारानी हैं। सर्वेश्वर भी जिनके पादारविन्द-रज की आराधना करते हैं, उनसे बढ़कर किसकी तृप्ति हो सकती है; उनका तर्पण होने पर सारे संसार का तर्पण हो जाता है।
     लालिमा को संस्कृत में लौहित्य कहते हैं। लौहित्य अर्थात् सविशेष ज्ञान, तत्तदवस्तु ज्ञान, प्रपञ्चज्ञान। अखण्ड बोध को भगवान का स्वरूप माना गया है। अखण्ड बोध में लौहित्य है। प्रकाशात्मक शिवजी सजातीय विजातीय स्वगत-भेदशून्य परमात्मा हैं। अतः शिवजी में भी है लोहित्य। भगवती गिरिजा के प्रेम की लालिमा ही भगवान सदाशिव में लौहित्य रूप से है।
     हरि एवं हर का हरिहरात्मक रूप प्रेम का अद्भुत उदाहरण है। भगवान नारायण व भगवान शिव एक ही परमात्म तत्व की दो धाराएँ हैं। जहां शिवनिन्दकों पर भगवान नारायण कुपित हो जाते हैं तो वहीं विष्णुनिन्दक भगवान शिव का कोपभाजन बन जाते हैं। हरिहरात्मक भगवान् श्रीकृष्ण करुणावरुणालय हैं। उन्होंने जीवों को संसार में भेजा है। कर्मों के अनुसार फलोपभोग के लिये।
     माँ के हदय में करुणा रहती है, यद्यपि कभी-कभी वह बालक के हाथ में खिलौना पकड़ाकर खेलने के लिये छोड़ देती है; दयार्द्र होकर उसका ध्यान फिर भी रखती है। माँ समीप ही रहती है, ताकि बालक पर कभी अड़चन आए तो सीधे वह माँ की गोदी में आ जाये। भगवान् ने जीवों को कर्मफलोपभोग के लिये संसार में भेजा अवश्य है, परंतु अपने तक आने का 'प्रेम' रूपी अमोघ सम्बल देकर भेजा है। प्रेम प्रत्येक प्राणी में है। ऐसा कोई जीव नहीं, जिसमें प्रेम नहीं। यहाँ तक कि बड़े से बड़े राक्षस में भी प्रेम होता है; अन्यत्र न सही, किंतु अपनी पत्नी में, अपने बच्चों में, अपने सुख में। संसार में कोई भी प्रेमविहीन है ही नहीं।

     यदि जीव चाहे तो प्रभु में प्रेम करके प्रभु तक पहुँच सकता है। जब यह सिद्ध है कि प्रेमविहीन कोई  नहीं, तब प्रेम के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता। क्योंकि सच्चिदानन्दघन प्रभु में प्रेमास्पदता है, प्रेमरूपता है; अत: कारण-विधया प्रत्येक कार्य में प्रेम अनुस्यूत(ग्रथित/मिला हुआ) है।
     अणु-अणु, परमाणु-परमाणु में प्रेम तत्त्व विद्यमान है। एक परमाणु दूसरे परमाणु से बिना स्नेह(प्रेम) के कैसे मिले? एक परमाणु जब दूसरे परमाणु से मिलता है, तब स्नेह या प्रेम से ही मिलता है। पति-पत्नी, पिता-पुत्र सभी स्नेह की शक्ति से ही जुडे हैं। बिना स्नेह (प्रेम) के कोई किसी से जुड़ता है क्या? सब नाते/सम्बन्ध स्नेहमूलक हैं। सारा विश्वप्रपञ्च स्नेह के आधार पर जुड़ा है। सारा संसार स्नेह का ही परिणाम, उल्लास, विकास है। स्नेह या प्रेम सबमें अनुस्यूत है।

'प्रेमक्या है?

'जिसमें सभी रस, सभी भाव उन्मज्जित-निमज्जित हों वह रससिन्धु ही प्रेम है'-
सर्वे रसाश्च भावाश्च तरङ्गा इव वारिधौ।
उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति यत्र स प्रेमसंज्ञक:॥
(चैतन्यचन्द्रोदय)

     इस तरह प्राणिमात्र के पास प्रेम है। जब प्राणी को घबराहट हो तो इसी प्रेम का सहारा पकड़कर भगवान् के मङ्गलमय अङ्क में पहुँच जाना चाहिये। देखो! प्रेम का अद्भुत प्रभाव! आज इस होली के दिन, जिनकी बड़ी से बड़ी आपस में दुश्मनी होती है, वह मिट जाती है। रंग प्रेम ही है। आज के दिन जब व्यक्ति घर से बाहर मिलने चलते हैं तो यह नहीं देखते कि यह गरीब है या अमीर, यह शत्रु है या मित्र? गरीब हो चाहे अमीर, शत्रु हो या मित्र सबसे बड़े प्रेम से गले लगकर मिलते हैं। होली का दिन शत्रुता खोने का दिन है। सबसे प्रेमपूर्वक मिलने का दिन है। सारी भावनाओं को दूर करके अखण्ड ब्रह्मात्मभाव की बात है।
   राधाकृष्ण, प्रिया-प्रियतम अनन्तब्रह्माण्डनायक सर्वशक्तिमान, सर्वाधिष्ठान आनन्दकन्द, श्रीकृष्णचन्द्र और उनकी आह्लादिनी शक्ति प्रेमात्मक हैं। वे ही सर्वरूपो में विलासित हो रहे हैं। प्रेम के प्रतीक वे ईश्वर ही भोक्ता- भोग्य और प्रेरयिताके रूपमें प्रकट हो करके लीला कर रहे हैं। श्रीकृष्ण के साथ ग्वालबाल और राधारानी के साथ उनके सखीवृन्द के रूप में प्रेम ही क्रीडा कर रहा है। श्यामसुन्दर के प्रेम में  ही सारा अन्तःकरण, अन्तरात्मा, रोम-रोम रँगा हुआ है। 
लालिमा को संस्कृत में लौहित्य कहते हैं। लौहित्य अर्थात् सविशेष ज्ञान, तत्तदवस्तु ज्ञान, प्रपञ्चज्ञान। अखण्ड बोध को भगवान का स्वरूप माना गया है। अखण्ड बोध में लौहित्य है। प्रकाशात्मक शिवजी सजातीय विजातीय स्वगत-भेदशून्य परमात्मा हैं। अतः शिवजी में भी है लोहित्य। भगवती गिरिजा के प्रेम की लालिमा ही भगवान सदाशिव में लौहित्य रूप से है।

     प्रेम जहाँ होता है, वहाँ कोई अन्तर नहीं होता है। किसी प्रकार के भेदभाव की कल्पना तक नहीं रहती। अग्नि सब जगह है, कोई काष्ठ(सूखी लकड़ी) ऐसा नहीं जिसमें वह(अग्नि) नहीं है। हर एक काष्ठ में अग्नि है। काष्ठ में अग्नि प्रकट करने के लिये उस काष्ठ से सम्बन्ध जोड़ दो, जिसमें वह अग्नि प्रज्वलित(प्रकट) है। अव्यक्त अग्नि वाले काष्ठ का व्यक्त अग्नि वाले काष्ठ से सम्बन्ध जुड़ते ही उसमें भी अग्नि का प्राकट्य हो जाता है। इसी तरह श्यामसुन्दर और उनकी प्राणेश्वरी राधारानी में प्रेम प्रकट है।

     अन्यत्र प्रेम, प्रेम के आश्रय और उसके विषय में भेद है; पर यहाँ नहीं। जो प्रेम है, वही उसका आश्रय है और वही उसका विषय है। ऐसी स्थिति में इन्होंने(प्रेमात्मक प्रियतम श्रीराधामाधव ने) जिसे छू दिया, वही शुद्ध प्रेम हो गया। रंग, रोली, अबीर - ये सब वस्तुएँ इनके स्पर्शमात्र से शुद्ध प्रेम रूप हो जाती हैं। ये सब सांसारिक पदार्थ भगवत्संस्पर्शमात्र से भगवत्स्वरूप हो जाते हैं। गन्धक को पारद में घोटें तो कुछ समय के पश्चात गन्धक जैसे पारद(पारा) समान हो जाती है, वैसे ही पूर्ण के सम्बन्ध से अपूर्ण वस्तु भी पूर्ण हो जाती है, प्राकृत वस्तु दिव्य-अप्राकृत हो जाती है।

     सांसारिक तृष्णानिन्दनीय कही गई है। पर यदि आपको भगवत्सम्मिलन की तृष्णाहो तो यह बड़ी उत्तम बात है, निन्दनीय नहीं है। भगवान् के मुखचन्द्र की तृष्णा, पादारविन्द-नखमणिचन्द्र-चन्द्रिका की तृष्णा इतनी उत्तम है कि इसके ऊपर लाखों वैराग्य, लाखों ज्ञान को राई-नमक की तरह झोंक देंभगवत्प्रेम के बिना इनका कोई अर्थ, महत्त्व नहीं। इसलिये यह भगवत्प्रेम रूपी तृष्णा बडी कीमती चीज है; बड़े भाग्य से मिलती है। सांसारिक तृष्णा जहां व्यक्ति को भवसागर में डुबोने वाली होती है वहीं भगवत्प्रेम रुपिणी तृष्णा तारने वाली बन जाती है। इसी प्रकार भगवत्संस्पृष्ट वस्तुकी महिमा बढ़ जाती है। इसी दृष्टि से भगवद्धाम की अद्भुत महिमा है।
     श्रीप्रबोधानन्द सरस्वती लिखते हैं-को चाहे पापी हो, पुण्यात्मा हो, देवता हो, राक्षस हो, वह वृन्दावन धाम में प्रविष्ट हो करके सद्य:(तत्काल) आनन्दघन हो जाता है’-
यत्र प्रविष्ट: सकरलोपि जन्तुरानन्दसच्चिद्घनतामुपैति!
(श्री वृन्दावनमहिमामृतशतक)

     प्रेम का सुंदर चित्रण 'श्रीमद्भागवत' में देखने को मिलता है। जैसे लवण(नमक) की खान में जो भी वस्तु पड़ जाती है, थोड़े ही दिनों में वह भी लवण बन जाती है। वैसे ही भगवद्धाम में प्रविष्ट व्यक्ति तत्क्षण आनन्दघन हो जाता है। यह बात दूसरी है कि अभी व्यक्तियों को उस आनन्दघनता की अनुभूति तत्काल नहीं हो पाती। अपने में आनन्दघनता के प्राकट्य को व्यक्ति तत्काल अनुभव नहीं कर पाता, ठीक वैसे ही जैसे आनन्दघन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को यशोदारानी आनन्दघन नहीं समझ पाती थीं। जैसे लौकिक माता-पिता अपने लौकिक-प्राकृतिक बालक को बांध देते हैं, वैसे ही माँ यशोदा ने भगवान श्रीकृष्ण को ओखली से बॉंधा-
बबन्ध प्राकृतं यथा
(श्रीमद्भा० १० ।९ । १४)

     यशोदारानी को यह नहीं मालूम पड़ा कि मैं अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक को बाँध रही हूँ। ऐश्वर्याधिष्ठातृ महाशक्ति ने भगवान् को बाँधने के उपक्रम को देखकर सोचा-अरे! हमारे देखते-देखते यह अज-अनन्त अपरिच्छिन्न को बाँधेगी? हमारे प्रभु को ही बाँधेगी?इधर यशोदा ने हठ कर लिया-कहाँ तक नहीं बँधेगा; आखिर हमारा लाला ही तो है। इसे बांधकर रहूँगी। दोनों का टंटा(झगड़ा) पड़ गया। दुनिया भर की रस्सी बटोरते-बटोरते बॉंधने की कोशिश की, पर हर बार रस्सी दो अङ्गुल छोटी, दो अङ्गुल कम! -
द्वयङ्गुलोनमभूत्तेन’, तदपि द्वयङ्गुलं न्यूनम्।
(श्रीमद्भा० १०।९।१५-१६)

    यदि भक्त में भगवान के प्रति असीम प्रेम हो व भक्त का परिश्रम पूरा हो जाय और भगवान् की अनुकम्पा उछल जाय तो दो अङ्गुल की कमी पूरी हो जाय। भक्तजन का परिश्रम अभी नहीं हुआ और भगवदनुकम्पा का अभी विर्भाव नहीं हुआ, यही बँधने में देरी है।
     तो बाँधते-बाँधते नन्दरानी थक गयीं। हाँफने लगीं, गरम-गरम श्वास श्यामसुन्दर के श्रीअङ्ग में लगा और मैया के माथे की पसीने को बूँद भी श्रीअङ्ग पर पडी। भक्तजन का परिश्रम पूर्ण हो गया। भगवान् का ध्यान गया-माँ का परिश्रम पूरा हो गया, अनुकम्पा प्रकट हो गयी। दो अङ्गुल की कमी पूरी हो गयी। जैसे साधारण बालक को उसकी माँ बाँध देती है वैसे ही अनन्त अखण्ड अपरिच्छिन्न श्यामसुन्दर को माँ यशोदा ने बाँध दिया -
स्वमातु: स्विन्नगात्राया विस्रस्तकबरस्रज:।
दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्ण: कृपयाऽऽसीत् स्वबन्धने॥
(श्रीमद्भागवत् १० । ९ । १८)
भक्तजन का परिश्रम पूर्ण हो गया। भगवान् का ध्यान गया-‘माँ का परिश्रम पूरा हो गया, अनुकम्पा प्रकट हो गयी। दो अङ्गुल की कमी पूरी हो गयी। जैसे साधारण बालक को उसकी माँ बाँध देती है वैसे ही अनन्त अखण्ड अपरिच्छिन्न श्यामसुन्दर को माँ यशोदा ने बाँध दिया’

कितना अगाध प्रेम था यशोदा मैया का जिस प्रेम ने भगवान को भी बांध दिया!
हिरण्यकशिपु ने कितनी ही कठोर यातनाएँ दीं पर फिर भी प्रह्लाद ने प्रभु से प्रेम करना नहीं छोड़ा। प्रह्लाद ने प्रभु भक्ति का किंचित भी परित्याग नहीं किया जिस कारण भक्त की रक्षा के लिए भगवान को नृसिंह जी का रूप धरना ही पड़ा। 
अवधूतगीता (५।११) में लिखा है-
न हि मोक्षपदं न हि बन्धपदं न हि पुण्यपदं न हि पापपदम्।
न हि पूर्णपदं न हि रिक्तपदं
किमु रोदिषि मानस सर्व-सम्॥
‘इस आत्मा में न तो मोक्षपद है और न ही बन्धपद। पुण्यपद भी नहीं है और पापपद भी नहीं है। पूर्णपद भी नहीं है और अपूर्णपद भी नहीं है। इसलिये हे मन! तू रुदन क्यों करता है, तुम तो सर्वत्र समरूप हो।

     जहां परमात्मा के प्रति सच्चा प्रेम है वहाँ न तो बन्धन का आभास होता है और न ही मोक्ष की चाह होती है और न ही पुण्य-पाप की चिंता होती है; हृदय में एकमात्र अनन्त-अण्ड-निर्विकार-पूर्णतम पुरुषोत्तम और उनका वह अखण्ड प्रेम ही भरा होता है। भगवान तथा भगवत्प्रेम से भिन्न कुछ भी नहीं है। सच्चा भक्त वही है जो भगवान के सिवा कोई दूसरी वस्तु नहीं चाहता। जिसमें भगवान के प्रति अगाध प्रेम भरा हो और स्वराज्य, वैराग्य, ब्रह्मपद व मोक्षपद की भी जिसने उपेक्षा कर दी हो वही सच्चा भगवत्प्रेमी है। जब तक उस भगत्तत्त्व का प्राकट्य नहीं होता, तब तक सब प्राकृत-जैसा(क्षुद्र) है। उसी के प्राकट्य के लिये हायज्ञों का अनुष्ठान, अङ्गन्यास, करन्यास, भूतशुद्धि, भूशुद्धि, मंत्र जप, नामजप, गङ्गास्नान, श्रीवृन्दावनधाम में निवास, भगवन्नाम के रसिक भक्तों/साधु/संतों का सान्निध्य, सत्संगादि का आलम्बन किया जाता है। श्रीराधाकृष्ण आनन्दस्वरूप हैं इनमें नन्द का पूर्ण प्राकट्य है। इनके संस्पर्श की देर है। इनके स्पर्श से सब चिन्मय हो जाता है। चिन्मय(चैतन्यरूप, परब्रह्म) के स्पर्श से सबमें चिन्मयता आती हैब्रह्मात्मता आती है, सारा प्रपञ्च(माया) चिन्मय हो जाता है। उसकी लौकिकता, प्राकृतता, भौतिकता बाधित हो जाती है। उसमें अलौकिकता का आविर्भाव हो जाता है यही होली की लीला का आध्यात्मिक रहस्य है

     'वैदिक सोमयज्ञ' होली की हार्दिक शुभकामनाएँ। जब सबसे प्रेम करेंगे तो स्वतः ही भगवान के संस्पर्श का अनुभव होने लगेगा। आइये सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करें और सबको सबसे प्रेम करने की, भगवद्भक्ति करने की प्रेरणा दें। त्वचा को हानि पहुंचाने वाले रंगों का प्रयोग करने के स्थान पर हल्दी, टेसू आदि से बने हुए प्राकृतिक रंगों से होली खेलें। ऐसे सुंदर होलिकोत्सव पर्व को प्रतिवर्ष मनाने का सौभाग्य हमें जिनकी कृपा से प्राप्त होता है उन भगवान को हमारा बारम्बार प्रणाम है....


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