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गवान श्रीहरि के चौबीस प्रमुख अवतार हैं, उन अवतारों की प्रादुर्भाव(जयन्ती) तिथि पर भक्तजन उत्सव किया करते हैं। अवतारों की जयंती तिथियों पर श्रद्धालुगण उन अवतारों की विविध प्रकार से आराधना किया करते हैं। पुराणों के अनुसार लीलाविहारी परमकृपालु भगवान् नारायण धर्म की संस्थापना के लिए समय-समय पर विविध अवतार लिया करते हैं। चैत्र शुक्ल तृतीया श्रीमत्स्य भगवान की जयंती तिथि है।
चार युगों का एक पर्याय होता है और १००० पर्यायों का एक कल्प होता है। प्रत्येक कल्प का एक विशिष्ट नाम होता है जैसे- श्वेतवाराह कल्प, नीललोहित कल्प आदि। हर कल्प में जो कुछ घटित होता है वह लगभग समान ही रहता है परंतु कुछ न कुछ अंतर अवश्य होता है। विविध कल्पों में भगवान विविध लीलाएँ किया करते हैं। एक कल्प में जब 'शङ्खासुर' नामक असुर ने चारों वेदों को छीनकर समुद्र के गर्भ में छिपा लिया था तब श्रीमत्स्य भगवान ने अपने चक्र के द्वारा उस दुष्ट शङ्खासुर का वध किया तथा वेदों को पुनः ब्रह्माजी को दे दिया। इसी तरह एक अन्य कल्प में भगवान मत्स्य ने श्रुतियाँ(चतुर्वेद) चुराने वाले 'हयग्रीव' नामक असुर को मारकर श्रुतियों को मुक्त कराकर ब्रह्माजी को सौंपा था।
आदाय वेदा: सकला: समुद्रान् ,
निहत्य शङ्खासुरमत्युदग्रम्।
दत्ता: पुरा येन पितामहाय,
विष्णुं तमाद्यं भज मत्स्यरूपम्॥
अर्थात् अत्यन्त भीषण शङ्खासुर का वध कर, समुद्र के गर्भ से समस्त वेदों को निकालकर प्रजापति ब्रह्माजी को प्रदान करने वाले भगवान् विष्णु के आदि-स्वरूप मत्स्यावतार का मैं भजन करता हूँ।
वर्तमान कल्प से पूर्व कल्प की बात है ब्रह्माजी अपने दिन के कार्य से श्रान्त होकर योगनिद्रा का आश्रय ले रहे थे। श्रुतियाँ सहज अलस भाव से उनके मुख से निकलीं। उन श्रुतिस्वरूप के मुख से निद्रा में और प्रकट भी क्या होता। दितिपुत्र हयग्रीव ने उन श्रुतियों को स्मरण कर लिया-चुरा लिया। एक असुर श्रुति का न शुद्धोच्चारण कर सकता है और न ही उसका दर्शन, वह तो मलिन बुद्धि से श्रुतियों का अनर्थ ही करेगा। श्रुतियों के उद्धार के लिए एवं श्रुतियों की परंपरा को विशुद्ध रखने के लिये भगवान विष्णु ने मत्स्यरूप धारण किया।
कृतयुग के आदि में सत्यव्रत-नाम से विख्यात एक राजर्षि थे। ये ही वर्तमान महाकल्प में श्राद्धदेव-नाम से प्रसिद्ध विवस्वान् के पुत्र हुए, जिन्हें भगवान ने वैवस्वत मनु बना दिया था। राजा सत्यव्रत बड़े क्षमाशील, समस्त श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न और सुख-दुःख को समान समझने वाले एक वीर पुरुष थे। वे पुत्र को राज्यभार सौंपकर स्वय तपस्या के लिये वन में चले गये और मलय पर्वत के एक शिखर पर उत्तम योग का आश्रय लेकर घोर तप में संलग्न हो गये। दस हजार वर्ष बीतने के पश्चात् कमलासन ब्रह्मा राजा के समक्ष प्रकट हुए और बोले-‘वरं वृणीष्व - वर माँगो।’ तब राजा ने पितामह के चरणों में प्रणाम करके कहा-‘देव! मैं आपसे केवल एक ही उत्तम वर प्राप्त करना चाहता हूँ, वह यह है कि प्रलयकाल उपस्थित होने पर मैं चराचर समस्त भूत(प्राणी)-समुदाय की रक्षा करने में समर्थ हो सकूँ।' यह सुनकर विश्वात्मा ब्रह्मा "एवमस्तु-यही हो" इस प्रकार कहकर वहीं अन्तर्हित हो गये और देवताओं ने राजा पर महान् पुष्पवृष्टि की।
एक दिन की घटना है कि राजर्षि सत्यव्रत 'कृतमाला' नामक नदी में स्नान करके तर्पण कर रहे थे। इतने में ही जल के साथ एक हिलसा जाति की स्वर्णवर्ण की शफरी(छोटी-सी मछली) उनकी अञ्जलि में आ गयी। राजा ने जल के साथ ही उसे फिर से नदी में डाल दिया। तब उस मछली ने बड़ी करुणा के साथ राजा से कहा-‘राजन्! आप बड़े दयालु हैं। आप जानते ही हैं कि बड़े-बड़े जलजन्तु अपनी जाति वाले छोटे-छोटे जलजन्तुओं को खा जाते हैं; तब फिर आप मुझे इस नदी के जल में क्यों छोड़ रहे हैं?’
राजा सत्यव्रत ने उस मछली की अत्यन्त दीनतापूर्ण वाणी सुनकर उसे अपने कमण्डलु में रख लिया और आश्रम पर ले आये। एक ही रात में वह मछली इतनी बढ़ गयी कि उसके रहने के लिये कमण्डलु में स्थान ही नहीं रह गया।
तब वह राजा से बोली-‘राजन् अब तो इस कमण्डलु में मेरा किसी प्रकार भी निर्वाह नहीं हो सकता, अत: मेरे सुखपूर्वक रहनेके लिये कोई बड़ा–सा स्थान नियत कीजिये। मैं आपकी शरण में हूँ। मेरी सुविधा का आपको प्रबन्ध करना चाहिए।’ तब राजर्षि सत्यव्रत ने उस मछली को कमण्डलु से निकालकर एक बहुत बड़े पानी के मटके में रख दिया, परंतु दो ही घड़ी में वह वहाँ भी बढ़कर तीन हाथ की हो गयी। फिर उसने राजा से कहा-‘राजन्! यह मटका भी मेरे लिये पर्याप्त नहीं है, अत: मुझे सुखपूर्वक रहने के लिये कोई दूसरा बड़ा-सा स्थान दीजिये।’ राजा सत्यव्रत ने वहाँ से उस मछली को उठाकर एक बड़े सरोवर में डाल दिया, परंतु थोडी ही देर में उसने उस सरोवर के जल को भी घेर लिया और कहा-‘राजन्! यह भी मेरे सुखपूर्वक रहने के लिये पर्याप्त नहीं है।’ इस प्रकार राजा उसे अगाध जलराशि वाले सरोवरों में छोड़ते गये और वह उन्हें अपनी शरीर-वृद्धि से परिव्याप्त करती गयी। तब राजा ने उसे समुद्र में डाल दिया। समुद्र में छोड़े जाते समय उन लीला-मत्स्य ने कहा-‘वीरवर नरेश! समुद्र में बहुत से विशालकाय मगरमच्छ रहते हैं, वे मुझे निगल जायेंगे, अत: आप मुझे समुद्र में मत डालिये।’
मत्स्य भगवान् की वह मधुर वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत की बुद्धि मोहाच्छन्न हो गयी। तब उन्होंने पूछा-‘हमें मत्स्यरूप से मोहित करने वाले आप कौन हैं? आपने एक ही दिन में सौ योजन विस्तार वाले सरोवर को आच्छादित कर लिया। ऐसा पराक्रमशाली जलजन्तु तो हमने आज तक न तो देखा था और न सुना ही था। निश्चय ही आप साक्षात् सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी अविनाशी श्रीहरि हैं। जीवों पर अनुग्रह करने के लिये ही आपने जलचर का रूप धारण किया है। पुरुषश्रेष्ठ! आप जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कर्ता हैं; आपको नमस्कार है। विभो! हम शरणागत भक्तों के आप ही आत्मा और आश्रय हैं। यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियों के अभ्युदय के लिये ही होते हैं तथापि मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपने यह मत्स्य रूप किस उद्देश्य से धारण किया है?’
राजा के यों पूछने पर मत्स्य भगवान् बोले-“शत्रुसूदन! आज से सातवें दिन भूर्लोक आदि तीनों लोक प्रलय-पयोधि में निमग्न हो जायेंगे। उस समय प्रलयकाल की जलराशि में त्रिलोकी के डूब जाने पर मेरी प्रेरणा से एक विशाल नौका तुम्हारे पास आयेगी। तब तुम समस्त औषधियों, छोटे-बड़े सभी प्रकार के बीजों और प्राणियों के सूक्ष्मशरीरों को लेकर सप्तर्षियों के साथ उस बड़ी नाव पर चढ़ जाना और निश्चिन्त होकर उस एकार्णव के जल में विचरण करना। उस समय प्रकाश नहीं रहेगा, केवल ऋषियों के दिव्य तेज का ही सहारा रहेगा। जब झंझावात के प्रचण्ड वेग से नाव डगमगाने लगे, उस समय मैं इसी रूप में तुम्हारे निकट उपस्थित होऊँगा। तब तुम वासुकि नाग के द्वारा उस नाव को मेरे सींग में बाँध देना। इस प्रकार जब तक ब्राह्मी निशा रहेगी, तब तक मैं तुम्हारे तथा ऋषियों के द्वारा अधिष्ठित उस नाव को प्रलय-सागर में खींचता हुआ विचरण करूँगा। उस समय तुम्हारे प्रश्न करने पर मैं उनका उत्तर दूँगा, जिनसे मेरी महिमा, जो 'परब्रह्म' नाम से विख्यात है, तुम्हारे हदय में प्रस्फुटित हो जायगी।” राजा से यों कहकर मत्स्य भगवान् वहीं अन्तर्हित हो गये।
राजर्षि सत्यव्रत भगवान् के बताये हुए उस काल की प्रतीक्षा करने लगे। वे कुशों को, जिनका अग्रभाग पूर्व की ओर था, बिछाकर उस पर ईशानकोण की ओर मुख करके बैठ गये और मत्स्यरूपधारी श्रीहरि के चरणों का चिंतन करने लगे। इतने में ही राजा ने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा भङ्ग करके चारों ओर पृथ्वी को डुबाता हुआ बढ़ रहा है और भयंकर मेघ वर्षा कर रहे हैं। तब उन्होंने भगवान् के आदेश का ध्यान किया और देखा कि नाव आ गयी। फिर तो राजा ओषधि, बीज और सप्तर्षियों को साथ लेकर उस नाव पर सवार हो गये। तब सप्तर्षियों ने प्रसन्न होकर कहा-‘राजन्! केशव का ध्यान कीजिए। वे ही हम लोगों की इस संकट से रक्षा करके कल्याण करेंगे।’
प्रबल पवन से नौका चञ्चल हो उठी। तदनन्तर राजा के ध्यान करते ही श्रीहरि मत्स्यरूप धारण करके उस प्रलयाब्धि में प्रकट हो गये। मत्स्य भगवान का शरीर स्वर्ण-सा देदीप्यमान तथा चार लाख कोस के विस्तार वाला था। उन मत्स्य भगवान के एक सींग भी था। नागराज वासुकि पहले ही नौका में विराजमान थे। अंधकार में राजा ने पूर्वकथनानुसार उस नाव को वासुकि महासर्प की रज्जु द्वारा मत्स्यभगवान् के सींग में बाँध दिया और स्वयं प्रसन्न होकर उन मधुसूदन की स्तुति करने लगे।
नौका में सप्त-ऋषियों के तेज से प्रकाश हो रहा था। राजा सत्यव्रत के स्तवन कर चुकने पर मत्स्यरूप धारी पुरुषोत्तम भगवान् ने प्रलय-पयोधि में विहार करते हुए उन्हें तत्त्वज्ञान का उपदेश किया, जो ‘मत्स्यपुराण’ नाम से प्रसिद्ध है। प्रलयकाल व्यतीत हुआ। भगवान् के आदेश से हिमालय के एक शृङ्ग में राजर्षि सत्यव्रत ने अपनी नौका बाँध दी। वह शृङ्ग अब भी नौका-बंधन शृङ्ग कहलाता है। तत्पश्चात् प्रलयान्त में भगवान् ने हयग्रीव असुर को मारकर उससे श्रुतियाँ(चारों वेद) छीन ली और ब्रह्माजी को दे दी। भगवान् की कृपा से राजा सत्यव्रत ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होकर वर्तमान 'वैवस्वत' मन्वन्तर के इस 'श्वेतवाराह कल्प' में वैवस्वत मनु हुए।
पुराणों के अनुसार चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन ही कृतमाला नदी के जल से प्रकट होकर मत्स्य भगवान राजा सत्यव्रत के हाथ में आये थे, अतः यह मत्स्य भगवान की जयंती तिथि है। मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशी मत्स्य द्वादशी कहलाती है। मत्स्यद्वादशी श्रीमत्स्य भगवान की विशेष अर्चा की तिथि है। इन दोनों दिनों में शास्त्रोक्त विधि के अनुसार उपवास रखकर तथा भगवान की प्रतिमा बनाकर षोडशोपचार से अर्चन-पूजन और दानादि द्वारा मत्स्य भगवान की विशेष आराधना करनी चाहिए। नाम मंत्रों का जप करने की अद्भुत महिमा है। श्रीहरि भक्तों को चैत्र शुक्ल तृतीया और चैत्र शुक्ला द्वादशी अर्थात् मत्स्य जयंती एवं मत्स्य द्वादशी को ‘श्रीमत्स्यावतार’ भगवान की पूजा करने के साथ-साथ श्री मत्स्य भगवान के द्वादशाक्षर मन्त्र का भी यथाशक्ति जप करना चाहिए।
मान्यता है कि श्रीमत्स्य भगवान्, महाविद्या तारा से उद्भूत हुए हैं। श्री मीन-विग्रह भगवान् विष्णु के नाम-मन्त्र जप से दीर्घायु एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। श्रीमीन-विग्रह भगवान् विष्णु के अनुग्रह से मनुष्यों को आनन्द के साथ-साथ 'परब्रह्म' का ज्ञान भी होता है। श्रीमत्स्य भगवान् को प्रसन्न करने के लिए उनके १२ अक्षर वाले मन्त्र का जप करना चाहिये, इसके जप की विधि नीचे दी जा रही है-
विनियोग- ॐ अस्य श्रीमत्स्यावतार-द्वादशाक्षर-मन्त्रस्य श्रीब्रह्मा ऋषि:, गायत्रीछन्द:, श्रीमीनविग्रह भगवान् रमानाथ देवता, श्री बीजं, मं कीलकं मम दीर्घायु-शरीरारोग्य-लक्ष्मी-फलप्राप्त्यर्थे जपे विनियोग:।
(विनियोग पढ़कर थोड़ा-सा जल हाथ में लेकर भूमि पर छोड़ें)
ऋष्यादिन्यास
श्रीब्रह्माऋषये नम: शिरसि।
(यह कहकर सिर को स्पर्श करें)।
गायत्री-छन्दसे नम: मुखे।
(बोलकर मुख को स्पर्श करें)
मीन-विग्रह भगवान्-रमानाथ देवतायै नम: हृदि:।
(यह कहकर हृदय को स्पर्श करें)
श्रीं-वीजाय नम: गुह्ये।
(कहकर बाएँ हाथ से नितंब को स्पर्श करें)
मं-कीलकाय नम: नाभौ।
(ऐसा बोलकर बोलकर दाहिने हाथ से नाभि स्पर्श करें)
मम दीर्घायु-शरीरारोग्य-लक्ष्मीफल-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नम: अञ्जलौ।
(बोलकर अंजलि मुद्रा-दोनों हाथ जोड़ लें)
करन्यास-
श्रां अंगुष्ठाभ्यां नम:। (कहकर तर्जनी से अंगूठे को स्पर्श करें)
श्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा। (यह बोलकर अंगूठे से तर्जनी को स्पर्श करें)
श्रूं मध्यमाभ्यां वषट्। (बोलकर अंगूठे से मध्यमा को स्पर्श करें)
श्रैं अनामिकाभ्यां हुम्। (बोलकर अंगूठे से अनामिका को स्पर्श करें)
श्रौं कनिष्ठाभ्यां वौषट्। (बोलकर अंगूठे से छोटी अंगुली को स्पर्श करें)
श्र: करतलकरपृष्ठाभ्यां फट्। (दोनों हथेलियों के अग्र भाग व पृष्ठ भाग को स्पर्श करें)
षडङ्गन्यास
श्रां हृदयाय नम:।(बाएँ हाथ की पाँच उंगलियों से हृदय को स्पर्श करें)
श्रीं शिरसे स्वाहा।(सिर को स्पर्श करें)
श्रूं शिखायै वषट्।(मस्तक के मध्य शिखा स्थान को स्पर्श करें)
श्रूं शिखायै वषट्।(मस्तक के मध्य शिखा स्थान को स्पर्श करें)
श्रैं कवचाय हुम्।(बाएं हाथ से दाहिना कंधा और दाहिने हाथ से बायां कंधा स्पर्श करें)
श्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्।(तर्जनी से दायीं आंख, अनामिका से बायीं आंख और मध्यमा से दोनों आंखों के मध्य त्रिनेत्रस्थल को एक साथ स्पर्श करें)
श्र: अस्त्राय फट्।(तर्जनी व मध्यमा उंगली को बाएँ हाथ की हथेली पर रखकर बाएँ से दाहिनी ओर सिर से एक बार घुमाकर तीन बार ताली बाजाएं)
श्रीमत्स्यावतार-ध्यान
नात्यघोरो हि न सम-आकण्ठं वा नराकृति:। घनश्यामश्चतुर्बाहु:, शङ्ख-चक्र-गदाधर:॥
शृङ्गि-मत्स्य-निभो मूर्धा, लक्ष्मीर्वक्षसि राजते।
पद्म-चिह्नित-सर्वाङ्ग:, सुन्दरश्चारु-लोचन:॥
अर्थात् भगवान् मत्स्य के सारे शरीर के सभी अङ्ग ‘कमलपुष्प’ से अंकित होने के कारण बहुत ही सुन्दर हैं और उनके नेत्र बड़े ही सुन्दर हैं। ‘मत्स्य’ के शिरो-भाग के समान उनकी मूर्धा है और उनके वक्ष:स्थल में भगवती लक्ष्मी जी शोभायमान हैं। न वे अत्यन्त अघोर हैं, न कण्ठ के समान मानव- आकृति है। काले मेघ के समान ‘श्यामवर्ण’ एवं चार भुजाओं वाले शंख-चक्र-गदा-पद्म-धारी साक्षात् भगवान् विष्णु ही हैं।
श्रीमत्स्य भगवान् की पञ्चोपचार पूजा
लं पृथिव्यात्मकं गन्धं श्रीमीन-विग्रह भगवान् रमानाथाय समर्पयामि नम:
हं आकाशात्मकं पुष्पं श्रीमीन-विग्रह भगवान् रमानाथाय समर्पयामि नम:
यं वाय्वात्मकं धूपं श्रीमीन-विग्रह भगवान् रमानाथाय घ्रापयामि नम:।
रं वह्न्यात्मकं दीपं श्रीमीन-विग्रह भगवान् रमानाथाय दर्शयामि नम:।
वं अमृतात्मकं नैवेद्यं श्रीमीन-विग्रह भगवान् रमानाथाय निवेदयामि नम:।
सं सर्वात्मकं ताम्बूलादि सर्वोपचाराणि मनसा परिकलप्य श्रीमीन-विग्रह भगवान् रमानाथाय समर्पयामि नम:।
श्रीमत्स्य भगवान का मन्त्र
॥ॐ नमो भगवते मं मत्स्याय श्रीं॥
मत्स्य भगवान् की निम्न श्लोकों से स्तुति की जानी चाहिए-
प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम्।
विहित-वहित्रचरित्र-मखेदम्॥
केशव धृत-मीनशरीर जय जगदीश हरे॥
अर्थात् हे मीनावतारधारी केशव! हे जगदीश्वर! हे हरे! प्रलयकाल में बढ़े हुए समुद्रजल में बिना क्लेश नौका चलाने की लीला करते हुए आपने वेदों की रक्षा की थी, आपकी जय हो।
(दशावतार स्तोत्र)
श्रीमदभागवत महापुराण में कहा गया है-
प्रलयपयसि धातु: सुप्तशक्तेर्मुखेभ्य:
श्रुतिगणमपनीतं प्रत्युपादत्त हत्वा।
दितिजमकथयद् यो ब्रह्म सत्यव्रतानां
तमहमखिलहेतुं जिह्यमीनं नतो·स्मि।।
(श्रीमद्भागवत ८।२४।६१)
'प्रलयकालीन समुद्र में जब ब्रह्माजी सो गये थे, उनकी सृष्टि-शक्ति लुप्त हो चुकी थी, उस समय उनके मुखों से निकली हुई श्रुतियों को चुराकर हयग्रीव दैत्य पाताल में ले गया था। भगवान् ने उसे मारकर वे श्रुतियां ब्रह्माजी को लौटा दीं एवं राजर्षि सत्यव्रत तथा सप्तर्षियों को ब्रह्मतत्त्व का उपदेश किया। उन समस्त जगत् के परम कारण लीला-मत्स्य भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।'
'म'कारादि श्री मत्स्याष्टोत्तर - शतनाम - स्तोत्रम्
श्री मत्स्यावतार श्रीहरि विष्णु जी के एक सौ आठ नाम प्रस्तुत हैं -
श्री मत्स्यावताराय नमो नमः।
मत्स्यो महालयाम्भोधि-सञ्चारी मनुपालकः।
महीनौका-पृष्ठदेशो महासुरविनाशनः॥१॥
महाम्नाय-गणाहर्ता महनीय-गुणाद्भुतः।
मरालवाह-व्यसनच्छेत्ता मथितसागरः॥२॥
महासत्वो महायादोगणभुङ् - मधुराकृतिः।
मदोल्लुंठन-सङ्क्षुब्ध-सिन्धुभङ्ग-हतोर्ध्वखः॥३॥
महाशयो महाधीरो महौषधिसमुद्धरः।
महायशा महानन्दो महातेजा महावपुः॥४॥
महीपङ्क-पृषत्पृष्ठो महाकल्पार्णव-ह्रदः।
मित्रशुभ्रांशु-वलयनेत्रो मुखमहानभाः॥५॥
महालक्ष्मी-नेत्ररूप-गर्वसर्वङ्कषाकृतिः।
महामायो महाभूतपालको मृत्युमारकः॥६॥
महाजवो महापृच्छच्छिन्न-मीनादिराशिकः।
महातलतलो मर्त्यलोकगर्भो मरुत्पतिः॥७॥
मरुत्पति-स्थानपृष्ठो महादेव-सभाजितः।
महेन्द्राद्यखिल-प्राणि-मारणो मृदिताखिलः॥८॥
मनोमयो माननीयो मनस्वी मानवर्धनः।
मनीषि-मानसाम्भोधि-शायी मनुविभीषणः॥९॥
मृदुगर्भो मृगाङ्काभो मृग्यपादो महोदरः।
महाकर्तरिकापुच्छो मनोदुर्गमवैभवः॥१०॥
मनीषी मध्यरहितो मृषाजन्मा मृतव्ययः।
मोघे-तरोरु-सङ्कल्पो मोक्षदायी महागुरुः॥११॥
मोहासङ्ग समुज्जृम्भत् -सच्चिदानन्दविग्रहः।
मोहको मोहसंहर्ता मोहदूरो महोदयः॥१२॥
मोहितोत्तारित-मनुर्मोचिताश्रित-कश्मलः।
महर्षिनिकर - स्तुत्यो मनुज्ञानोपदेशकः॥१३॥
मही-नौ-बन्धनाहीन्द्र - रज्जुबद्धैकशृङ्गकः।
महोवात -हतोर्वीनौ -स्तम्भनो महिमाकरः॥१४॥
महाम्बुधि-तरङ्गाप्त - सैकतीभूतविग्रहः।
मरालवाह-निद्रान्त-साक्षी मधुनिषूदनः॥१५॥
महाब्धिवसनो मत्तो-महामारुत-वीजितः।
महाकाशालयो मूर्छत्तमोम्बुधि-कृताप्लवः॥१६॥
मुदिताब्दारि-विभवो मुषितप्राणिचेतनः।
मृदुचित्तो मधुरवाङ् - मृष्टकामो महेश्वरः॥१७॥
मरालवाह-स्वापान्त - दत्तवेदो महाकृतिः।
महीश्लिष्टो महीनाथो मरुन्माला-महामणिः॥१८॥
महीभार-परीहर्ता महाशक्ति-र्महोदयः।
महन्महान्-मग्नलोको महाशान्ति-र्महन्मनः॥१९॥
महावेदाब्धि-सञ्चारी महात्मा मोहितात्मभूः।
मन्त्र-स्मृतिभ्रंश-हेतु- र्मन्त्रकृन्-मन्त्रशेवधिः॥२०॥
मन्त्रमन्त्रार्थ तत्त्वज्ञो मन्त्रार्थो मन्त्रदैवतम्।
मन्त्रोक्त-कारिप्रणयी मन्त्रराशि-फलप्रदः॥२१॥
मन्त्रतात्पर्य-विषयो मनोमन्त्राद्य-गोचरः।
मन्त्रार्थवित्-कृतक्षेमो रामं रक्षतु सर्वतः॥२२॥
॥मकारादि श्री मत्स्याष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् शुभमस्तु॥
यहूदियों के धर्मग्रन्थ में, बाइबिल व कुरान में भी मनु की इस जलप्रलय और नौकारोहण का प्रकारान्तर से वर्णन है। चीन तथा प्राचीन आस्ट्रेलिया एवं अमेरिका के निवासियों में भी यह चरित प्रसिद्ध है। बहुत थोड़ा अन्तर इनकी कथाओं में मिलता है। हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में वर्णित इस मूल कथा से विदेशी कथाओं का मिलना बताता है कि सब जातियाँ भारत से गयी हैं और मनु की संतति हैं। देश, काल के प्रभाव से कथा में परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है। अतः यह बात भली-भांति सिद्ध हो जाती है कि भगवान् मत्स्य ही विश्व-संस्कृति के रक्षक व प्रतिष्ठापक हैं।
श्रीमत्स्यावतार जयन्ती पर द्वितीया महा-विद्या भगवती तारा से उद्भूत विश्व के संरक्षक श्रीमत्स्यावतार भगवान् विष्णु को हमारा अनेकों बार प्रणाम....
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