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गवान् नारायण को प्रसन्न करने हेतु हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार पवित्र एकादशी तिथियों पर उपवास रखने व श्रीहरि की आराधना करने का बहुत महत्व है। कुल 26 प्रकार की एकादशी तिथियाँ होती हैं। फाल्गुन शुक्ला एकादशी को 'आमलकी' एकादशी नाम दिया गया है। एकादशी व्रत के विधान से जुड़ी सामान्य बातें जानने के लिए यहाँ क्लिक करें। नारद पुराण के अनुसार आमलकी एकादशी को उपवास करके द्वादशी को प्रातःकाल संपूर्ण उपचारों से भगवान् पुण्डरीकाक्ष का भक्तिपूर्वक पूजन करे। तदनंतर ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा दे। इस प्रकार फाल्गुन शुक्लपक्ष में आमलकी नाम वाली इस एकादशी को विधिपूर्वक पूजन आदि करके मनुष्य भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।
पद्म पुराण में वर्णित माहात्म्य के अनुसार एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा-"हे श्रीकृष्ण! मैंने विजया एकादशी का माहात्म्य, जो महान् फल देने वाला है, सुन लिया। अब फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम व माहात्म्य बताने की कृपा कीजिये।"
भगवान श्रीकृष्ण बोले- महाभाग धर्मनन्दन! सुनो तुम्हें इस समय यह प्रसङ्ग सुनाता हूँ, जिसे राजा मान्धाता के पूछने पर महात्मा वसिष्ठ ने कहा था । फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम ‘आमलकी’ है । इसका पवित्र व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति कराने वाला है।
मान्धाता ने पूछा- "द्विजश्रेष्ठ! यह ' आमलकी ' कब उत्पन्न हुई, मुझे बताइये।"
वसिष्ठ जी ने कहा- महाभाग! सुनो - पृथ्वी पर ' आमलकी ' की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह बताता हूँ। आमलकी महान् वृक्ष है, जो सब पापों का नाश करने वाला है। भगवान् विष्णु के थूकने पर उनके मुख से चन्द्रमा के समान कान्तिमान एक विन्दु प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा। उसी से आमलक (आँवले) का महान् वृक्ष उत्पन्न हुआ, जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है। इसी समय समस्त प्रजा की सृष्टि करने के लिए भगवान ने ब्रह्माजी को उत्पन्न किया। उन्हीं से इन प्रजाओं की सृष्टि हुई। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अंतःकरण वाले महर्षियों को ब्रहमाजी ने जन्म दिया। उनमें से देवता और ॠषि उस स्थान पर आये, जहाँ विष्णुप्रिया आमलकी का वृक्ष था।
महाभाग! उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। वे एक-दूसरे पर दृष्टिपात करते हुए उत्कण्ठापूर्वक उस वृक्ष की ओर देखने लगे और खड़े-खड़े सोचने लगे कि प्लक्ष(पाकर) आदि वृक्ष तो पूर्व कल्प की ही भाँति हैं, जो सब-के-सब हमारे परिचित हैं, किन्तु इस वृक्ष को हम नहीं जानते। उन्हें इस प्रकार विस्मित देख आकाशवाणी हुई- ‘महर्षियो! यह सर्वश्रेष्ठ आमलक का वृक्ष है, जो विष्णु को प्रिय है। इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल मिलता है। स्पर्श करने से इससे दोगुना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। इसलिये सदा प्रयत्नपूर्वक आमलकी का सेवन करना चाहिये। यह सब पापों को हरने वाला वैष्णव वृक्ष बताया गया है। इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान् रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं। यह आमलकी मेरे द्वारा सर्वदेवमयी कही गयी है। अत: विष्णुभक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है-
तस्या मूले स्थितो विष्णुस्तदूर्ध्वं च पितामह:। स्कन्धे च भगवान् रुद्र: संस्थित: परमेश्वर:।।
शाखासु मुनय: सर्वे प्रशाखासु च देवताः। पर्णेषु वसवो देवाः पुष्पेषु मरुतस्तथा।।
प्रजानां पतय: सर्वे फलेष्वेव व्यवस्थिता:। सर्वदेवमयी ह्येषा धात्री च कथिता मया॥'
ॠषि बोले - "[अव्यक्त स्वरूप से बोलने वाले महापुरुष!] आप कौन हैं? देवता हैं या कोई और? हमें ठीक-ठीक बताइये।"
आकाशवाणी हुई- "जो सम्पूर्ण भूतों(प्राणियों) के कर्ता और समस्त भुवनों के स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान् पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, वही सनातन विष्णु मैं हूँ।"
देवाधिदेव भगवान विष्णु का यह कथन सुनकर उन ब्रह्मकुमार महर्षियों के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। वे आदि-अन्तरहित भगवान् की स्तुति करने लगे-
ऋषि बोले- "सम्पूर्ण भूतों(प्राणियों) के आत्मभूत, आत्मा एवं परमात्मा को नमस्कार है। अपनी महिमा से कभी च्युत(अलग) न होने वाले अच्युत को नित्य प्रणाम है। अन्तरहित परमेश्वर को बारम्बार प्रणाम है। दामोदर, कवि(सर्वज्ञ) और यज्ञेश्वर को नमस्कार है। मायापते! आपको प्रणाम है। आप विश्व के स्वामी हैं; आपको नमस्कार है।"
ऋषियों के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवान श्रीहरि सन्तुष्ट हुए और बोले- "महर्षियो! तुम्हें कौन-सा अभीष्ट वरदान दूँ?"
ॠषि बोले- "भगवन् ! यदि आप सन्तुष्ट हैं तो हम लोगों के हित के लिए कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरुपी फल प्रदान करनेवाला हो।"
श्रीविष्णुजी बोले- "महर्षियो ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त द्वादशी हो तो वह महान पुण्य देने वाली और बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली होती है। द्विजवरो! उसमें जो विशेष कर्तव्य है, उसको सुनो। आमलकी एकादशी में आँवले के वृक्ष के पास जाकर वहाँ रात्रि में जागरण करना चाहिये। इससे मनुष्य सब पापों से छूट जाता है और सहस्र गोदानों का फल प्राप्त करता है। विप्रगण! यह व्रत सभी व्रतों में उत्तम व्रत है, जिसे मैंने तुम लोगों को बताया है।"
ॠषि बोले- "भगवन् ! इस व्रत की विधि बतलाइये। यह कैसे पूर्ण होता है? इसके देवता, नमस्कार और मंत्र क्या हैं? पूजन की कौन-सी विधि है तथा उसके लिये मन्त्र क्या है? इन सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन कीजिये।"
भगवान् श्रीविष्णुजी ने कहा- द्विजवरो ! इस व्रत की जो उत्तम विधि है, उसको श्रवण करो! एकादशी को प्रात:काल दन्तधावन करके यह सङ्कल्प करे कि ‘हे पुण्डरीकाक्ष ! हे अच्युत ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दुसरे दिन भोजन करुँगा। आप मुझे शरण में रखें।’ ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, मर्यादा भंग करनेवाले तथा गुरुपत्नीगामी मनुष्यों से वार्तालाप न करे। अपने मन को वश में रखते हुए नदी में, पोखरे में, कुएँ पर अथवा घर में ही स्नान करे। स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाये।
विद्वान् पुरुष को चाहिए कि वह परशुराम जी की सोने की प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी चाहिए। स्नान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे। इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आँवले के वृक्ष के पास जाय। वहाँ वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़ बुहार, लीप पोतकर शुद्ध करे। शुद्ध की हुई भूमि में मन्त्रपाठपूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करे। कलश में पञ्चरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे। श्वेत चन्दन से उसको चर्चित करे। उस कलश के कण्ठ में फूल की माला पहनाये। सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलाये। जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखे। तात्पर्य यह कि सब ओर से सुन्दर और मनोहर दृश्य उपस्थित करे। पूजा के लिए नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकर रखे। कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे दिव्य लाजों(खीलों) से भर दे। फिर उसके ऊपर सुवर्णमय परशुरामजी की स्थापना करे।
‘विशोकाय नम:’ कहकर उनके चरणों की, ‘विश्वरुपिणे नम:’ से दोनों घुटनों की, ‘उग्राय नम:’ से जाँघो की, ‘दामोदराय नम:’ से कटिभाग की, ‘पद्मनाभाय नम:’ से उदर की, ‘श्रीवत्सधारिणे नम:’ से वक्ष: स्थल की, ‘चक्रिणे नम:’ से बायीं बाँह की,‘गदिने नम:’ से दाहिनी बाँह की, ‘वैकुण्ठाय नम:’ से कण्ठ की,‘यज्ञमुखाय नम:’ से मुख की, ‘विशोकनिधये नम:’ से नासिका की,‘वासुदेवाय नम:’ से नेत्रों की, ‘वामनाय नम:’ से ललाट की,‘सर्वात्मने नम:’ से नारायण के सम्पूर्ण अङ्गों तथा मस्तक की पूजा करे।
ये ही परशुरामजी की पूजा के मंत्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से शुद्ध [आँवले के] फल के द्वारा देवाधिदेव परशुरामजी को अर्घ्य प्रदान करे । अर्घ्य का मंत्र इस प्रकार है -
नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोSस्तु ते ।
गृहाणार्घ्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे ॥
‘ देवदेवेश्वर! जमदग्निनन्दन! श्री विष्णुस्वरुप परशुरामजी! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आँवले के फल के साथ दिया हुआ मेरा यह अर्ध्य ग्रहण कीजिये। ’
तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से जागरण करे। नृत्य, संगीत, वाद्य, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णुसम्बन्धिनी कथा-वार्ता आदि के द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे। उसके बाद भगवान् विष्णु के नाम ले-लेकर आमलक वृक्ष की परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे। फिर सवेरा होने पर श्रीहरि की आरती करे। ब्राह्मण की पूजा करके वहाँ की सब सामग्री उसे निवेदित कर दे। परशुरामजी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि ‘परशुरामजी के स्वरुप में भगवान् विष्णु मुझ पर प्रसन्न हों।’ तत्पश्चात् आमलकी का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और तब प्रातः का स्नान करने के बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराये। तदनन्तर कुटुम्बियों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे।
ऐसा करने से जो पुण्य होता है, वह सब बतलाता हूँ; सुनो। सम्पूर्ण तीर्थों के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने से जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधि के पालन से सुलभ होता है। समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है; इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है , जिसका मैंने तुमसे पूरा-पूरा वर्णन किया है।
वशिष्ठजी कहते हैं- "महाराज ! इतना कहकर देवेश्वर भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियों ने उक्त व्रत का पूर्णरुप से पालन किया। नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए।"
इस तरह माहात्म्य बतलाकर अंत में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "युधिष्ठिर! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्य को सब पापों से मुक्त करनेवाला है।"
इस प्रकार यह उत्तम आमलकी एकादशी का पावन माहात्म्य है। आँवला आध्यात्मिक रूप से तो महत्व रखता ही है बल्कि आयुर्वेद में भी स्वास्थ्य की दृष्टि से आमलकी का बहुत महत्व बताया गया है। आमलकी एकादशी पर परशुराम स्वरूपधारी भगवान् नारायण को हमारा अनेकों बार प्रणाम।
पद्म पुराण में वर्णित माहात्म्य के अनुसार एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा-"हे श्रीकृष्ण! मैंने विजया एकादशी का माहात्म्य, जो महान् फल देने वाला है, सुन लिया। अब फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम व माहात्म्य बताने की कृपा कीजिये।"
भगवान श्रीकृष्ण बोले- महाभाग धर्मनन्दन! सुनो तुम्हें इस समय यह प्रसङ्ग सुनाता हूँ, जिसे राजा मान्धाता के पूछने पर महात्मा वसिष्ठ ने कहा था । फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम ‘आमलकी’ है । इसका पवित्र व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति कराने वाला है।
मान्धाता ने पूछा- "द्विजश्रेष्ठ! यह ' आमलकी ' कब उत्पन्न हुई, मुझे बताइये।"
वसिष्ठ जी ने कहा- महाभाग! सुनो - पृथ्वी पर ' आमलकी ' की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह बताता हूँ। आमलकी महान् वृक्ष है, जो सब पापों का नाश करने वाला है। भगवान् विष्णु के थूकने पर उनके मुख से चन्द्रमा के समान कान्तिमान एक विन्दु प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा। उसी से आमलक (आँवले) का महान् वृक्ष उत्पन्न हुआ, जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है। इसी समय समस्त प्रजा की सृष्टि करने के लिए भगवान ने ब्रह्माजी को उत्पन्न किया। उन्हीं से इन प्रजाओं की सृष्टि हुई। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अंतःकरण वाले महर्षियों को ब्रहमाजी ने जन्म दिया। उनमें से देवता और ॠषि उस स्थान पर आये, जहाँ विष्णुप्रिया आमलकी का वृक्ष था।
महाभाग! उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। वे एक-दूसरे पर दृष्टिपात करते हुए उत्कण्ठापूर्वक उस वृक्ष की ओर देखने लगे और खड़े-खड़े सोचने लगे कि प्लक्ष(पाकर) आदि वृक्ष तो पूर्व कल्प की ही भाँति हैं, जो सब-के-सब हमारे परिचित हैं, किन्तु इस वृक्ष को हम नहीं जानते। उन्हें इस प्रकार विस्मित देख आकाशवाणी हुई- ‘महर्षियो! यह सर्वश्रेष्ठ आमलक का वृक्ष है, जो विष्णु को प्रिय है। इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल मिलता है। स्पर्श करने से इससे दोगुना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। इसलिये सदा प्रयत्नपूर्वक आमलकी का सेवन करना चाहिये। यह सब पापों को हरने वाला वैष्णव वृक्ष बताया गया है। इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान् रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं। यह आमलकी मेरे द्वारा सर्वदेवमयी कही गयी है। अत: विष्णुभक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है-
तस्या मूले स्थितो विष्णुस्तदूर्ध्वं च पितामह:। स्कन्धे च भगवान् रुद्र: संस्थित: परमेश्वर:।।
शाखासु मुनय: सर्वे प्रशाखासु च देवताः। पर्णेषु वसवो देवाः पुष्पेषु मरुतस्तथा।।
प्रजानां पतय: सर्वे फलेष्वेव व्यवस्थिता:। सर्वदेवमयी ह्येषा धात्री च कथिता मया॥'
ॠषि बोले - "[अव्यक्त स्वरूप से बोलने वाले महापुरुष!] आप कौन हैं? देवता हैं या कोई और? हमें ठीक-ठीक बताइये।"
आकाशवाणी हुई- "जो सम्पूर्ण भूतों(प्राणियों) के कर्ता और समस्त भुवनों के स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान् पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, वही सनातन विष्णु मैं हूँ।"
देवाधिदेव भगवान विष्णु का यह कथन सुनकर उन ब्रह्मकुमार महर्षियों के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। वे आदि-अन्तरहित भगवान् की स्तुति करने लगे-
ऋषि बोले- "सम्पूर्ण भूतों(प्राणियों) के आत्मभूत, आत्मा एवं परमात्मा को नमस्कार है। अपनी महिमा से कभी च्युत(अलग) न होने वाले अच्युत को नित्य प्रणाम है। अन्तरहित परमेश्वर को बारम्बार प्रणाम है। दामोदर, कवि(सर्वज्ञ) और यज्ञेश्वर को नमस्कार है। मायापते! आपको प्रणाम है। आप विश्व के स्वामी हैं; आपको नमस्कार है।"
ऋषियों के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवान श्रीहरि सन्तुष्ट हुए और बोले- "महर्षियो! तुम्हें कौन-सा अभीष्ट वरदान दूँ?"
ॠषि बोले- "भगवन् ! यदि आप सन्तुष्ट हैं तो हम लोगों के हित के लिए कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरुपी फल प्रदान करनेवाला हो।"
श्रीविष्णुजी बोले- "महर्षियो ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त द्वादशी हो तो वह महान पुण्य देने वाली और बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली होती है। द्विजवरो! उसमें जो विशेष कर्तव्य है, उसको सुनो। आमलकी एकादशी में आँवले के वृक्ष के पास जाकर वहाँ रात्रि में जागरण करना चाहिये। इससे मनुष्य सब पापों से छूट जाता है और सहस्र गोदानों का फल प्राप्त करता है। विप्रगण! यह व्रत सभी व्रतों में उत्तम व्रत है, जिसे मैंने तुम लोगों को बताया है।"
ॠषि बोले- "भगवन् ! इस व्रत की विधि बतलाइये। यह कैसे पूर्ण होता है? इसके देवता, नमस्कार और मंत्र क्या हैं? पूजन की कौन-सी विधि है तथा उसके लिये मन्त्र क्या है? इन सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन कीजिये।"
भगवान् श्रीविष्णुजी ने कहा- द्विजवरो ! इस व्रत की जो उत्तम विधि है, उसको श्रवण करो! एकादशी को प्रात:काल दन्तधावन करके यह सङ्कल्प करे कि ‘हे पुण्डरीकाक्ष ! हे अच्युत ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दुसरे दिन भोजन करुँगा। आप मुझे शरण में रखें।’ ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, मर्यादा भंग करनेवाले तथा गुरुपत्नीगामी मनुष्यों से वार्तालाप न करे। अपने मन को वश में रखते हुए नदी में, पोखरे में, कुएँ पर अथवा घर में ही स्नान करे। स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाये।
मृत्तिका लगाने का मंत्र-
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे।
मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोट्यां समर्जितम्॥[पद्मपुराण- ४७।४३]
' वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने भी तुम्हें अपने पैरों से नापा था। मृत्तिके! मैंने करोड़ों जन्मों में जो पाप किये हैं, मेरे उन सब पापों को हर लो। '
स्नान का मंत्र-
त्वं मात: सर्वभूतानां जीवनं तत्तु रक्षकम्।
स्वेदजोद्भिज्जजातीनां रसानां पतये नम:॥
स्नातोSहं सर्वतीर्थेषु ह्रदप्रस्रवणेषु च।
नदीषु देवखातेषु इदं स्नानं तु मे भवेत्॥[पद्मपुराण- ४७।४४-४५]
‘ जल की अधिष्ठात्री देवी! मातः! तुम सम्पूर्ण भूतों के लिए जीवन हो। वही जीवन, जो स्वेदज और उद्भिज्ज जाति के जीवों का भी रक्षक है। तुम रसों की स्वामिनी हो। तुम्हें नमस्कार है। आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरों में स्नान कर चुका। मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानों का फल देनेवाला हो। ’ विद्वान् पुरुष को चाहिए कि वह परशुराम जी की सोने की प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी चाहिए। स्नान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे। इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आँवले के वृक्ष के पास जाय। वहाँ वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़ बुहार, लीप पोतकर शुद्ध करे। शुद्ध की हुई भूमि में मन्त्रपाठपूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करे। कलश में पञ्चरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे। श्वेत चन्दन से उसको चर्चित करे। उस कलश के कण्ठ में फूल की माला पहनाये। सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलाये। जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखे। तात्पर्य यह कि सब ओर से सुन्दर और मनोहर दृश्य उपस्थित करे। पूजा के लिए नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकर रखे। कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे दिव्य लाजों(खीलों) से भर दे। फिर उसके ऊपर सुवर्णमय परशुरामजी की स्थापना करे।
‘विशोकाय नम:’ कहकर उनके चरणों की, ‘विश्वरुपिणे नम:’ से दोनों घुटनों की, ‘उग्राय नम:’ से जाँघो की, ‘दामोदराय नम:’ से कटिभाग की, ‘पद्मनाभाय नम:’ से उदर की, ‘श्रीवत्सधारिणे नम:’ से वक्ष: स्थल की, ‘चक्रिणे नम:’ से बायीं बाँह की,‘गदिने नम:’ से दाहिनी बाँह की, ‘वैकुण्ठाय नम:’ से कण्ठ की,‘यज्ञमुखाय नम:’ से मुख की, ‘विशोकनिधये नम:’ से नासिका की,‘वासुदेवाय नम:’ से नेत्रों की, ‘वामनाय नम:’ से ललाट की,‘सर्वात्मने नम:’ से नारायण के सम्पूर्ण अङ्गों तथा मस्तक की पूजा करे।
ये ही परशुरामजी की पूजा के मंत्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से शुद्ध [आँवले के] फल के द्वारा देवाधिदेव परशुरामजी को अर्घ्य प्रदान करे । अर्घ्य का मंत्र इस प्रकार है -
नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोSस्तु ते ।
गृहाणार्घ्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे ॥
‘ देवदेवेश्वर! जमदग्निनन्दन! श्री विष्णुस्वरुप परशुरामजी! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आँवले के फल के साथ दिया हुआ मेरा यह अर्ध्य ग्रहण कीजिये। ’
तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से जागरण करे। नृत्य, संगीत, वाद्य, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णुसम्बन्धिनी कथा-वार्ता आदि के द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे। उसके बाद भगवान् विष्णु के नाम ले-लेकर आमलक वृक्ष की परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे। फिर सवेरा होने पर श्रीहरि की आरती करे। ब्राह्मण की पूजा करके वहाँ की सब सामग्री उसे निवेदित कर दे। परशुरामजी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि ‘परशुरामजी के स्वरुप में भगवान् विष्णु मुझ पर प्रसन्न हों।’ तत्पश्चात् आमलकी का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और तब प्रातः का स्नान करने के बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराये। तदनन्तर कुटुम्बियों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे।
ऐसा करने से जो पुण्य होता है, वह सब बतलाता हूँ; सुनो। सम्पूर्ण तीर्थों के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने से जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधि के पालन से सुलभ होता है। समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है; इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है , जिसका मैंने तुमसे पूरा-पूरा वर्णन किया है।
वशिष्ठजी कहते हैं- "महाराज ! इतना कहकर देवेश्वर भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियों ने उक्त व्रत का पूर्णरुप से पालन किया। नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए।"
इस तरह माहात्म्य बतलाकर अंत में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- "युधिष्ठिर! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्य को सब पापों से मुक्त करनेवाला है।"
इस प्रकार यह उत्तम आमलकी एकादशी का पावन माहात्म्य है। आँवला आध्यात्मिक रूप से तो महत्व रखता ही है बल्कि आयुर्वेद में भी स्वास्थ्य की दृष्टि से आमलकी का बहुत महत्व बताया गया है। आमलकी एकादशी पर परशुराम स्वरूपधारी भगवान् नारायण को हमारा अनेकों बार प्रणाम।
Kya har 24 ekadashi ke fast ke baad Udyapan karana jaroori hai. Agar Ekadashi Vrat continuous (for years) kiya jaye to bhi Udyapan har saal karna jaroorat hai or Udayapan sirf unhe karna chahiye jo sirf 1 year ke liye ekadashi ka vrat kar rahe hai
जवाब देंहटाएंजी हाँ यदि व्रती हर साल 24 एकादशी व्रत लगातार करता आ रहा है तो भी उसके द्वारा प्रत्येक वर्ष एकादशी उद्यापन किया जाना चाहिए... हाँ इसमें छूट है कि उतना अधिक विधि विधान न कर सके तो संक्षिप्त रूप से करे...जैसे -यदि पंडित जी न आ सकें तो स्वयम् करे...यदि विस्तृत हवन नहीं कर सकते तो संक्षिप्त हवन करे अन्यथा हवन की जगह मंदिर में तिल, घृत व दक्षिणा का अतिरिक्त दान करे .. यदि 24 नैवेद्य न बने तो जितने बन सके उतने नैवेद्य प्रस्तुत कर दे.. यदि 24 ब्राह्मण न मिल सकें तो कम से कम 12 या 5 या 3 या 1 को ही भोजन करा ले या फिर अपने घर के आस पास के लोगों में प्रसाद बाँट दे... लेकिन उद्यापन करे अवश्य क्योंकि इससे वर्ष भर के 24 एकादशी व्रतों को पूर्णता प्राप्त हो जाती है और व्रत निष्फल नहीं होता है..
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