नोट - यहाँ प्रकाशित साधनाओं, स्तोत्रात्मक उपासनाओं को नियमित रूप से करने से यदि किसी सज्जन को कोई विशेष लाभ हुआ हो तो कृपया हमें सूचित करने का कष्ट करें।

⭐विशेष⭐


23 अप्रैल - मंगलवार- श्रीहनुमान जयन्ती
10 मई - श्री परशुराम अवतार जयन्ती
10 मई - अक्षय तृतीया,
⭐10 मई -श्री मातंगी महाविद्या जयन्ती
12 मई - श्री रामानुज जयन्ती , श्री सूरदास जयन्ती, श्री आदि शंकराचार्य जयन्ती
15 मई - श्री बगलामुखी महाविद्या जयन्ती
16 मई - भगवती सीता जी की जयन्ती | श्री जानकी नवमी | श्री सीता नवमी
21 मई-श्री नृसिंह अवतार जयन्ती, श्री नृसिंहचतुर्दशी व्रत,
श्री छिन्नमस्ता महाविद्या जयन्ती, श्री शरभ अवतार जयंती। भगवत्प्रेरणा से यह blog 2013 में इसी दिन वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को बना था।
23 मई - श्री कूर्म अवतार जयन्ती
24 मई -देवर्षि नारद जी की जयन्ती

आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष।
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ग्रहण में मन्त्र पुरश्चरण का विधान

भौ
गोलिक व वैज्ञानिक दृष्टि के अलावा ग्रहण का धार्मिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्व है। ग्रहण काल में मंत्र जप, स्तोत्र पाठ एवं दान देने का अनंत गुना महत्त्व है।  ग्रहण के मोक्ष के उपरांत अपनी क्षमता के अनुसार अवश्य दान दें। महाभारत के दानधर्म पर्व के 145 अध्याय के अनुसार शिव जी पार्वती जी से कहते हैं कि - शरद व वसंत ऋतु, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा, मघा नक्षत्र, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण- ये सब अत्यन्त शुभकारक काल हैं। 1.दाता हो, 2.देने की वस्तु हो, 3.दान लेने वाला पात्र हो, 4.उत्तम व्यवस्था हो और 5.उत्तम देश, 6. उत्तम काल हो- इन सबका सम्पन्न होना शुद्धि कही गयी है। जब कभी इन सबका संयोग जुट जाये, तभी दान देना महान फलदायक होता है। इन छः गुणों से युक्त जो दान है, वह अत्यन्त अल्प होने पर भी उस का प्रभाव अनन्त होकर निर्दोष दाता को मरणोपरान्त स्वर्ग की प्राप्ति करवाता है। 
चंद्र ग्रहण

ग्रहण की अवधि में मंत्र का जप करने से मंत्र का पुरश्चरण करने के समान ही फल होता है। जो बहुत अधिक मंत्र जप नहीं कर सकते हैं उनके लिये यह विधि सबसे सरल है।  गुरु से प्राप्त किए गए मंत्र का ग्रहण के पर्वकाल में जप करने से जपकर्ता का वह मंत्र सिद्ध होता है। ग्रहण पुरश्चरण, लघु पुरश्चरण की श्रेणी में आता है। जैसे चाकू आदि की धार समय समय पर तेज की जाती है वैसे ही ग्रहण में जप करने से मंत्र की शक्ति बढ़ जाती है। कहते हैं कि दीक्षा प्राप्त व्यक्ति, संध्या करने वाले यज्ञोपवीतधारी गायत्री जापक यदि ग्रहण में अपने इष्ट मंत्रों का जप न करें तो मंत्र की शक्ति में कुछ मलिनता आ जाती है
ग्रहण का तात्विक रहस्य - दर्शन शास्त्र की दृष्टि से देखें तो सूर्य को प्रमाण तथा चन्द्रमा को प्रमेय माना जाता है। सूर्य 'ज्ञान' रूप तथा चन्द्र 'क्रिया' रूप है। दोनों के संयोग की दशा में "माया प्रमाता" राहु की बन आती है। राहु ज्ञान व क्रिया को ग्रस लेने की कला का कौशल जानता है। ग्रास बनाकर यह राहु, सूर्य व सोम को पचा नहीं सकता, क्योंकि यह "माया प्रमाता" होने से सिर्फ ढक सकता है। राहु तमोरूप भी है लेकिन सूर्य-सोम तो प्रकाश रूप हैं। इसलिये अन्धकार से प्रकाश की मुक्ति हो ही जाती है। यही ग्रहण के स्पर्श, मध्य और ग्रहण की मुक्ति का तात्त्विक रहस्य है।

अतएव सूर्य, चन्द्र व राहु का संघट्ट होने से प्रमाण, प्रमेय और प्रमाता का अद्वय भाव उल्लसित हो जाता है। जीवन का वह क्षण जिसमें अद्वय चिन्मात्र का चमत्कार प्रतिफलित हो जाये, अत्यन्त पवित्र और महापुण्यप्रद माना जाता है।

"स्वच्छन्द तंत्र" ग्रहण को परिभाषित करता हुआ कहता है -

राहु-रादित्य-चन्द्रौ च त्रय एते ग्रहा यदा।

दृश्यन्ते समवायेन तन्-महा-ग्रहणं भवेत्‌॥

राहु, सूर्य और चंद्रमा जब ये तीनों ग्रह एक साथ एक सीध में समवय दिखाई देते हैं तो यह महाग्रहण होता है। ग्रहण के अवसर पर -

"स कालः सर्व-लोकानां महा-पुण्यतमो भवेत्‌।

तत्र स्नानं तथा दानं पूजा-होम-जपादिकम्।

यत्-कृतं साधके-र्देवि तदनन्त-फलं भवेत्‌॥......

ध्यान-मन्त्रादि-युक्तस्य सिद्ध्यन्ते नात्र संशयः"

 हे देवि! ग्रहण में स्नान - दान, पूजा, होम, जप जो करें उसका अनंतफल मिलता है। चाहे ध्यान किया जाय, मन्त्रों का मनन किया जाय, इन सभी कार्यो की तत्काल सिद्धि होती है।


पक्ष-द्वयेऽपि देवेशि ग्रहणं चन्द्र-सूर्ययोः।

नाना-सिद्धि-प्रद ह्येतत्-साधकस्याभि-योगिनः॥(स्व०तंत्र सप्तम पटल श्लोक ८५)

अर्थात् दोनों पक्षों में होने वाले ये सूर्य - चंद्र के ग्रहण नाना सिद्धियाँ साधकों - योगियों को देने वाले हैं।

ग्रहण में प्रमेय व प्रमाता में स्वभाविकतः क्षोभ उत्पन्न होता है। उस क्षोभ का यदि क्षय हो जाये तथा यदि साधक की वृत्ति परासंविद् में प्रवेश पा ले, क्षण मात्र भी उसके प्रति यदि ध्यान लग जाय तो एक चमत्कार ही हो जाता है। हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है और साधक के समस्त जागतिक द्वन्द्व दूर हो जाते हैं।


ग्रहण में स्तोत्र पाठ करने का महत्व-
 जिनको मंत्र गुरु द्वारा प्राप्त नहीं है तो वे ग्रहण में "स्तोत्रों" का पाठ करें। ग्रहण में स्तोत्र पाठ करने का भी विशेष फल है। गर्ग संहिता के अध्याय 59 में वर्णित श्री कृष्ण सहस्रनाम स्तोत्र में कहा गया है कि एक समय उग्रसेन को नारद जी ने सूर्यग्रहण में ही श्री राधिका सहस्रनाम का पाठ सुनाया था। 
अतः जो मंत्र जप न कर सके, वे ग्रहण में उत्तम स्तोत्रों का पाठ करें। स्तोत्रात्मक उपासनाएं जो हमने ब्लॉग में दी हैं, कर सकते हैं। 
ग्रहण में पूजन मानसिक रूप से करें क्योंकि ग्रहण व सूतक में देवमूर्ति का स्पर्श वर्जित है।

स्तोत्र पुरश्चरण
अगर किसी भी स्तोत्र की फलश्रुति का पूरा-पूरा लाभ लेना हो तो उसका एक अयुत = १०००० बार पाठ करके पुरश्चरण करना चाहिये। जो दस हजार पाठ न कर सके वह ग्रहण में स्तोत्र का लगातार पाठ करते हुए पुरश्चरण करे। ग्रहण में सहस्रनाम स्तोत्र, अष्टोत्तरशत नाम स्तोत्र, कवच स्तोत्र मुख्य रूप से पढ़े जाते हैं। हमने इस ब्लॉग में भी कई स्तोत्र दिये हैं। ग्रहण के दौरान जितने पाठ  हों गिनते जायें। ग्रहण के बाद अगले दिन स्तोत्र पुरश्चरण के अंगों को करे- स्तोत्र की जप संख्या का दसवाँ हिस्सा निकाल कर उतनी संख्या में हवन करे, हवन संख्या का दशांश  तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन व मार्जन की दशांश संख्या के बराबर ब्राह्मण भोजन करे।  अगर इसमें असमर्थ हो तो उस अंग से संबधित संख्या के दोगुने जप से हवन की पूर्ति हो जाती है। जैसे 21 बार स्तोत्र पढ़ा हो तो उसके दशांश का दोगुना यानि २१÷१०*२ = ४ बार जपने से हवन की पूर्ति होगी, ४÷१०*२=०.८ = लगभग १ बार जपने से तर्पण की पूर्ति होगी, इसी तरह १ बार जप करने से मार्जन व १ बार पाठ करने से ब्राह्मण भोजन की पूर्ति होगी। संकल्प नीचे दे दिया है।

ग्रहण से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें -
🌞• सूर्यग्रहण - इसमें सूर्य एवं पृथ्वी के मध्य में चंद्रमा आते हैं तथा चंद्रमा की छाया पृथ्वी पर आती है। सूर्यग्रहण अमावस्या के दिन लगता है।
🌝• चंद्रग्रहण - इसमें सूर्य व चंद्रमा के बीच  पृथ्वी आ जाती है। पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्रमंडल न दिखाई देने की स्थिति चंद्रग्रहण कहलाती है। यह पूर्णिमा तिथि को लगता है।
🌚• खग्रास ग्रहण - यदि चंद्रबिंब या सूर्यबिंब पूर्ण रूप से दिखाई देना बंद हो जाये, तो ‘खग्रास ग्रहण’ कहलाता है। यह पूर्ण ग्रहण होता है। 
⌛• ग्रहण जब शुरू होता है वह स्पर्श कहलाता है और जब ग्रहण समाप्त हो जाता है वह मोक्ष कहलाता है। स्पर्श से मोक्ष के बीच का समय "ग्रहण का पर्वकाल" कहलाता है।
🌜• खंडग्रास ग्रहण - यदि सूर्य या चंद्रमा का बिंब आंशिक रूप से ही ढक पाता है, तो उससे ‘खंडग्रास ग्रहण’ होता है । 
कंकणाकृति ग्रहण - इसमें सूर्यबिंब चूड़ी या कंगन के समान आकार में ढक जाता है। कंकणाकृति सूर्यग्रहण में सूर्य संपूर्ण रूप से ढका हुआ दिखाई नहीं देता; परंतु सूर्य के बाहर का भाग कंगन की तरह चमकता है। 
ग्रस्तास्त ग्रहण - यह सूर्य ग्रहण के समय होता है। अगर सूर्यग्रहण होते होते ही सूर्य अस्त हो जाता है, तो रात भर ग्रहण से मुक्त नहीं माना जाता है अर्थात मंदिर व मूर्ति स्पर्श व भोजन न करें। इस ग्रस्तास्त ग्रहण में जब सुबह ग्रहण मुक्त सूर्य दिख जाये तभी मोक्ष माना जाता है। ग्रस्तास्त ग्रहण में दूसरे दिन सवेरे शुद्ध सूर्यबिंब देखने के उपरांत ही भोजन करें। बच्चे, वृद्ध व्यक्ति, शक्तिहीन तथा बीमार व्यक्ति, साथ ही गर्भवती महिलाएं ग्रस्तास्त ग्रहण के मोक्षस्नान उपरांत ही हलका आहार ले सकती हैं, इनको छूट है।


ग्रहण विषयक शास्त्रोक्त मत -

मंत्र महार्णव के अनुसार रुद्रयामल में कहा गया है कि 

अपि शुद्धोदकैः स्नात्वा शुचौ देशे समाहितः। ग्रासाद्विमुक्ति-पर्यन्तं जपेन्मन्त्र-मनन्यधीः।

इति कृत्वा न संदेहो जपस्य फल-भाग्भवेत्‌।

अर्थात् शुद्ध जल से स्नान करके पवित्र स्थान पर शान्तचित्त होकर ग्रहण के प्रारम्भ से ग्रहण की समाप्ति पर्यन्त जो मन्त्र का जप करे वह जप के फल का भागी होता है इसमें कोई सन्देह नहीं है। 

ग्रहणकालीन जप की अनिवार्यता बतलाने हेतु वहाँ पर ही लिखा गया है कि - श्राद्धादेरनुरोधेन यदि जाप्यं त्यजेन्नरः। स भवेद्देवता द्रोही पितृन्‌ सप्त नयेदधः॥ अर्थात् श्राद्ध के कारण जो व्यक्ति जप को छोड़ देता है, वह देवता का द्रोही होता है और अपने सात पितरों को नरक में ले जाता है। इसका तात्पर्य है कि यदि संकल्प लेकर आपने ग्रहण-पुरश्चरण करना आरंभ कर दिया है तो "अरे! मुझे तो ग्रहण में श्राद्ध भी करना था" यह सोचकर उस पुरश्चरण के जप को आधे में नहीं छोड़ें, पुरश्चरण को ही पूर्ण करें उसी में श्राद्ध की पूर्णता है।


अब ग्रहण-पुरश्चरण की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए शास्त्र-प्रमाण प्रस्तुत है। वृहत तंत्रसार के अनुसार रुद्रयामल में लिखा है-

अथवान्य-प्रकारेण पौरश्चारणिको-विधि: चन्द्र-सूर्योपरागे च स्नात्वा प्रयत-मानस:। स्पर्शनादि विमोक्षान्तं जपेन्मन्त्रं समाहित:। जपाद्दशांशतो-होमं तथा होमात्तु-तर्पणम्। तर्पणस्य दशांशेन चाभिषेकं समाचरेत्‌| अभिषेक-दशांशेन कुर्याद्ब्राह्मण-भोजनम्‌ | एवं कृत्वा तु मन्त्रस्य जायते सिद्धिरुत्तमा ॥

अर्थात् चंद्र या सूर्य ग्रहण के पुरश्चरण के लिए पहले शुद्ध जल से स्नान करे फिर ग्रहण के स्पर्श से मोक्ष तक एकाग्रता से जप करे। उसके बाद में पुरश्चरण के बाकी अंग होम, तर्पण,अभिषेक व ब्राह्मण भोजन करने से मंत्र की उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है।


श्राद्ध या मंत्र जप न कर सके तो ग्रहण में किसी के मत से देव-पितृ-तर्पण करना चाहिए। ग्रहण काल में जो भी वस्त्र छुआ या पहना गया उसका ग्रहण के मोक्ष के उपरान्त प्रक्षालन कर देने से शुद्धि होती है। ग्रहण में अब्राह्मण को दिया दान केवल दान मात्र होता है, सामान्य ब्राह्मण को दिया दान दूना व श्रोत्रिय ब्राह्मण को दिया दान लाख गुना होता है और सत्पात्र को दान दिया जाय तो दान का फल अनन्त होता है।

 ग्रहणे शयनाद्रोगी, मूत्रे कृते दारिद्र्यम्‌, पुरीषे कृमिः, मैथुने ग्रामशूकरः, अभ्यङ्गे कुष्ठी, भोजने नरक इति।

ग्रहण में शयन करने से रोगी होता है, मूत्रोत्सर्ग करने से दरिद्रता आति है, शौच (मलत्याग) से कृमि होता है। ग्रहण में मैथुन करने से अगले जन्म में ग्राम-शूकर, तेल का लेपन करने से कुष्ठी, भोजन आदि करने से नरक होता है।

दुष्ट-राशिजं ग्रहणं नावलोक्यम्‌, शुभमपि जल-पटादि-व्यवधानेन-अवलोकनीयम्‌।

अर्थात् अनिष्ट फलप्रद ग्रहण को न देखे। शुभ फलदायक ग्रहण को भी जल या शीशे के प्रतिबिंब में या वस्त्र आदि के आवरण से देखना चाहिए, प्रत्यक्ष देखना दोष है।


सूर्य ग्रहण


ग्रहण के पालनीय नियम
ग्रहण के सूतक काल में भोजन करना वर्जित है इसलिए अन्न पदार्थ न खाएं। लेकिन पानी पीना, मल-मूत्रोत्सर्ग एवं विश्राम करने जैसे कर्म किए जा सकते हैं।
ग्रहण के सूतक में तथा ग्रहण पर्वकाल में मंदिर में देव मूर्तियों का स्पर्श करना मना है, अन्यथा मूर्तियां अशुद्ध हो जाती हैं।
ग्रहण के पर्वकाल में अर्थात ग्रहण के स्पर्श से लेकर मोक्ष होने तक पानी पीना, मल-मूत्रोत्सर्ग, मैथुन एवं सोने जैसे कर्म निषिद्ध होने से नहीं करें। ग्रहण काल में झाड़ू नहीं लगायें। इस समय सुई, चाकू, तलवार जैसी सामग्री नहीं पकड़नी चाहिये।
  • यदि बच्चे, वृद्ध व्यक्ति, शक्तिहीन तथा बीमार व्यक्ति, महिलायें अगर ग्रहण के दौरान खाना पीना व मल मूत्र न रोक सकें तो उनको छूट है, जितनी क्षमता हो उतना ही रुक कर खा-पी लें व मल मूत्र कर सकते हैं।
ग्रहण में मंत्र/स्तोत्र जप करने वाले ग्रहण से 2-4 घंटे पहले से ही पानी तक नहीं पीयें न खावें, अन्यथा मंत्र जप के समय मूत्र, वायु आदि का तीव्र वेग आयेगा और पुरश्चरण में बाधा पहुंचेगी।

 ग्रहण का पर्वकाल स्थानीय समय के अनुसार ही मान्य होता है।  आपके शहर में ग्रहण के स्पर्श तथा मोक्ष का क्या समय रहेगा ये आप इस वेबसाइट पर जाकर अपने शहर का नाम डालकर देख सकते हैं- https://www.drikpanchang.com/eclipse/eclipse-date-time.html

पिछला ग्रहण -
चंद्रग्रहण = 8 नवंबर 2022

अगला (प्रभावी) ग्रहण - 
चंद्रग्रहण = २८-२९ अक्टूबर २०२३

ग्रहण के मोक्ष के उपरांत मोक्षस्नान करें। जो मोक्ष के समय नहाने में असमर्थ हो उसे भी कम से कम अपने हाथ - पैर व मुंह तो अवश्य धो लेना चाहिये। 

⭐जो यज्ञोपवीत पहनते हैं वे सूर्य ग्रहण या चंद्रगहण के मोक्ष के बाद नहाकर नया जनेऊ बदलें। जैसा कि ज्योतिषार्णव ग्रंथ में लिखा है-
उपाकर्मणि चोत्सर्गे सूतक द्वितये तथा।
 श्राद्धकर्मणि यज्ञादौ शशिसूर्यग्रहेऽपि च।
नवयज्ञोपवीतानि धृत्वा जीर्णानि च त्यजेत्
अर्थात् उपाकर्म में, जननाशौच या मरणाशौच में और श्राद्ध करते समय, यज्ञ से पहले, सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण के उपरान्त भी नया जनेऊ पहने और पुराना यज्ञोपवीत उतार दे।

ग्रहण पुरश्चरण विधि
 ग्रहण के स्पर्शकाल के पहले ही स्नान कर लेना चाहिये। संभव हो तो सारी सामग्री पहले सूतक से पहले ही व्यवस्थित कर ले। सूतक लग गया हो तो इस तरह से व्यवस्था करे कि भगवान के मंदिर से या मूर्तियों से स्वयं के अंग का स्पर्श न होने पाये। 
मंत्र जप के बीच में किसी से न बोलें। घर के लोगों से पहले ही कह दें कि इतने बजे से इतने बजे तक पूजा करनी है व्यवधान न डालें।

सामग्री - जप के लिये आसन लें, कुश का आसन हो तो उत्तम है।
• रुद्राक्ष या कोई अन्य माला ले लें। जपमाला का ग्रहण के सूतक से पहले ही मालासंस्कार हो चुका हो अन्यथा करमाला पर भी जप होता ही है। 
• यज्ञोपवीत पहनने वाले लोग ग्रहण के सूतक समय के पहले ही जनेऊ यथास्थान संभाल कर रख लें। ग्रहण के सूतक से पहले ही नये जनेऊ को संस्कारित कर लें, यदि किसी कारण से न कर पायें तो ग्रहणमोक्ष के स्नान के बाद भी संस्कारित कर के पहन सकते हैं।
• स्वयं को तिलक लगाने के लिये कुमकुम चंदन घोलकर यथास्थान रखे।
• ग्रहण होने से पहले ही आचमन पात्र को जल से भर दें व कुश डालकर यथास्थान रख दें। 
• एक घड़ी रखें सामने जिससे ग्रहण के दौरान समय का पता लगते रहे।
आचमनीअक्षत, फूल - तीन।

सर्वप्रथम चार आचमन करके तत्व शोधन करे -
ऐं आत्म तत्वं शोधयामि नमः।
ह्रीं विद्या तत्वं शोधयामि नमः।
क्लीं शिव तत्वं शोधयामि नमः।
ऐं ह्रीं क्लीं सर्व तत्वं शोधयामि नमः।

फिर मूल मंत्र से तीन बार प्राणायाम करे।

पहले स्वयं का तिलक करे फिर स्वयं पर जल छिड़ककर स्वयं का पवित्रीकरण करें-
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत् पुंडरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः॥

फूल लेकर कहे- "ह्रीं आधार शक्ति कमलासनाय नमः॥" और आसन के नीचे फूल दबा दें।

फिर आसन पर जल छिड़क कर आसन को शुद्ध करे-
पृथ्वी त्वया धृता लोका देवी त्वम् विष्णुना धृता।
त्वम् च धारय मां नित्यं पवित्रं कुरु चासनम्।।

हाथ में जल फूल व अक्षत लेकर संकल्प करे -
श्रीगणपतिर्जयति। श्री गुरुभ्यो नमः | श्री गणेश विष्णु शिव दुर्गा सूर्येभ्यो नमः। र्विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य भूप्रदेशे------प्रदेशे ---- नाम्नि संवत्सरे---- सूर्य (उत्तरायणे / दक्षिणायने), ---- ऋतुः, -----मासे, --------पक्षे, ----तिथौ, -----वासरे .......गोत्रोत्पन्नो ...(आपका नाम)... अहं राहुग्रस्ते ...... (अगर सूर्य ग्रहण है तो दिवाकरे कहे , चंद्रग्रहण हो तो निशाकरे कहें), श्री....(मंत्र के देवी/देवता का नाम).....देवतायां .......(मंत्र का नाम)... मंत्रसिद्धिकामो ग्रासादि मुक्तिपर्यन्तं ...(मंत्र का नाम)...मन्त्रस्य जपरूपं पुरश्चरणं करिष्ये।

  • "मंत्र का नाम" में - जो मंत्र जपना हो उसके सुप्रसिद्ध नाम को कहना है जैसे - नवार्ण मंत्र , गायत्री, शिव पंचाक्षर, काली एकाक्षरी, महा मृत्युंजय मंत्र आदि आदि। अथवा वह मंत्र ही इति लगाकर बोल दें जैसे- "ह्रीं इति मंत्रसिद्धिकामो"
  • संकल्प में आया हुआ देवतायां शब्द देवी या देवता दोनों के लिये प्रयुक्त हो सकता है।

उपरोक्त सङ्कल्प करने के बाद हाथ का जल भूमि पर छोड़े।

अंतर्मातृका न्यास करे
विनियोगः- अस्य अन्तर्मातृकान्यास-मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, मातृका सरस्वती देवता, ह लो बीजानि, स्वराः शक्तयः, अव्यक्तं कीलकं, ग्रहण पुरश्चरणे देवभावाप्तये अन्तर्मातृका न्यासे विनियोगः।
 अं नमः।  आं नमः।  इं नमः।  ईं नमः।  उं नमः।  ऊं नमः।  ऋं नमः।  ॠं नमः।  ऌं नमः।  ॡं नमः।  एं नमः।  ऐं नमः।  ओं नमः।  औं नमः।  अं नमः।  अः नमः। कं नमः।  खं नमः।  गं नमः।  घं नमः।  ङं नमः।  चं नमः।  छं नमः।  जं नमः।  झं नमः।  ञं नमः।  टं नमः।  ठं नमः। डं नमः।  ढं नमः।  णं नमः।  तं नमः।  थं नमः।  दं नमः।  धं नमः।  नं नमः।  पं नमः।  फं नमः। बं नमः।  भं नमः।  मं नमः।  यं नमः।  रं नमः।  लं नमः। वं नमः।  शं नमः।  षं नमः।  सं नमः।   हं नमः।  क्षं नमः।

इसके बाद अपने-अपने मूलमंत्र का विनियोग कीजिये, न्यास कीजिये। 
मंत्र के देवता का ध्यान कीजिये।
मंत्र देवता की मानस पूजा कीजिये -
मानस पूजा -  लं पृथिवी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्री..(देवता का नाम)...  पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (कनिष्ठिका अंगुली से अंगूठे को मिलाकर अधोमुख(नीची) करके भगवान को दिखाए, यह गन्ध मुद्रा है)

• हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री..(देवता का नाम)... पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (अधोमुख तर्जनी व अंगूठा मिलाकर बनी पुष्प मुद्रा दिखाए)

• यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री..(देवता का नाम)...  पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(ऊर्ध्वमुख(ऊपर को) तर्जनी व अंगूठे को मिलाकर दिखाए)

• रं वह्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्री..(देवता का नाम)...  पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(ऊर्ध्व मुख मध्यमा व अंगूठे को दिखाए)

• वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री..(देवता का नाम)... पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(ऊर्ध्व मुख अनामिका व अंगूठे को दिखाए)

• सौं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलादि सर्वोपचाराणि मनसा परिकल्प्य श्री..(देवता का नाम)... पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(सभी अंगुलियों को मिलाकर ऊर्ध्वमुखी करते हुए दिखाये)
उपरोक्त मुद्राओं को समझने के लिये यहाँ क्लिक करें।
"ह्रीं मालायै नमः पूजयामि।" बोलकर माला पर फूल चढ़ाकर चंदन - अक्षत से पूजा करे। फिर हाथ जोड़कर कहे -
मां माले महामाये सर्वशक्ति स्वरूपिणी।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव।
अविघ्नम् कुरु माले त्वं गृह्णामि दक्षिणे करे।
जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्धये।

इसके बाद ग्रहण के स्पर्श काल से मोक्षपर्यन्तं तक मूलमंत्र का जप करे।  

स्तोत्र पुरश्चरण का संकल्प - जो मंत्र से दीक्षित नहीं है या अन्य कारण से मंत्र नहीं जप सकते वे नीचे का संकल्प करके ग्रहण में किसी एक स्तोत्र का लगातार पाठ करें। पाठ आराम से करें। कितने बार पाठ हो गया इसकी गिनती करते रहें।
श्रीगणपतिर्जयति। श्री गुरुभ्यो नमः | श्री गणेश विष्णु शिव दुर्गा सूर्येभ्यो नमः। र्विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य भूप्रदेशे------प्रदेशे ---- नाम्नि संवत्सरे---- सूर्य (उत्तरायणे / दक्षिणायने), ---- ऋतुः, -----मासे, --------पक्षे, ----तिथौ, -----वासरे .......गोत्रोत्पन्नो ...(आपका नाम)..... अहं राहुग्रस्ते ...... (अगर सूर्य ग्रहण है तो दिवाकरे कहे , चंद्रग्रहण हो तो निशाकरे कहें), श्री....( स्तोत्र के देवी/देवता का नाम).....देवता प्रीत्यर्थे ग्रासादि मुक्तिपर्यन्तं ...( स्तोत्र का नाम)... स्तोत्रस्य पाठरूपं पुरश्चरणं करिष्ये।

घडी में समय भी देखते रहें। ग्रहण के मोक्ष का समय होने पर मंत्र या स्तोत्र का जप समाप्त करें।  अगर आधी माला में ही ग्रहण पूरा हो गया हो तो भी वह माला पूरी कर लें। अब जप समर्पण मंत्र पढ़े -
  • देवता का मंत्र है तो यह वाला जप समर्पण मंत्र पढ़े-
गुह्याति - गुह्यगोप्ता त्वं गृहाणास्मत् कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत् प्रसादात् सुरेश्वरः॥

  • देवी का मंत्र हो तो यह वाला मंत्र पढ़े - 
गुह्याति - गुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत् कृतं जपम् ।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत् प्रसादात् सुरेश्वरि॥

हाथ जोड़कर प्रार्थना करे -
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि/सुरेश्वरः।
यत्पूजितं मया देवि/देव परिपूर्णं तदस्तु मे॥

अच्युत अनन्त गोविंद। शिव शिव शिव।
हरि-हर स्मरणात् परिपूर्णतास्तु।
विष्णुः विष्णुः विष्णुः।

अब स्नान कर लें। ग्रहण का समय पूरा होकर शुद्ध चंद्रमा/ सूर्य दिखने पर ही मोक्ष अर्थात् ग्रहण पूर्ण माना जाता है। ग्रहण मोक्ष के बाद गोमूत्र गंगाजल छिड़क कर शुद्धि करे। जो यज्ञोपवीत पहनते हैं वे मोक्ष के बाद अगर पुनः स्नान किया है तो अभी जनेऊ बदल लें। लेकिन अगर हाथ पैर मुंह  ही धोया हो तो अगले दिन अच्छी तरह नहाकर ही नया यज्ञोपवीत पहनें।  

पुरश्चरण के अन्य आवश्यक अंगों की पूर्ति-
जिस दिन ग्रहण-पुरश्चरण किया जाये उसके अगले दिन स्नान करके (जनेऊ बदल करके ) शुद्धि करके पूजास्थल में उपस्थित हों और पहले तो मंदिर के देवताओं को स्नान कराकर - नित्य की पूजा व नित्य संध्या करे। 
अब पुरश्चरण के अंगों को पूरा करना होगा।

माथे पर तिलक लगा हो, पहले तीन आचमन करे, पवित्रीकरण और तीन प्राणायाम करे।
फिर अंतर्मातृका न्यास करे -
 विनियोगः- अस्य अन्तर्मातृकान्यास-मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, मातृका सरस्वती देवता, ह लो बीजानि, स्वराः शक्तयः, अव्यक्तं कीलकं, ग्रहण पुरश्चरणे देवभावाप्तये अन्तर्मातृकान्यासे विनियोगः।
 अं नमः।  आं नमः।  इं नमः।  ईं नमः।  उं नमः।  ऊं नमः।  ऋं नमः।  ॠं नमः।  ऌं नमः।  ॡं नमः।  एं नमः।  ऐं नमः।  ओं नमः।  औं नमः।  अं नमः।  अः नमः। कं नमः।  खं नमः।  गं नमः।  घं नमः।  ङं नमः।  चं नमः।  छं नमः।  जं नमः।  झं नमः।  ञं नमः।  टं नमः।  ठं नमः। डं नमः।  ढं नमः।  णं नमः।  तं नमः।  थं नमः।  दं नमः।  धं नमः।  नं नमः।  पं नमः।  फं नमः। बं नमः।  भं नमः।  मं नमः।  यं नमः।  रं नमः।  लं नमः। वं नमः।  शं नमः।  षं नमः।  सं नमः।   हं नमः।  क्षं नमः।
इसके बाद ग्रहण काल में जपे हुए (मूल)मंत्र  का विनियोग कीजिये, मूल मंत्र का न्यास कीजिये। 
मूल मंत्र के देवता का ध्यान कीजिये।
मूलमंत्र देवता की मानस पूजा कीजिये -
मानस पूजा -  लं पृथिवी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्री..(देवता का नाम)... पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (कनिष्ठिका अंगुली से अंगूठे को मिलाकर अधोमुख(नीची) करके भगवान को दिखाए, यह गन्ध मुद्रा है)

• हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री..(देवता का नाम)... पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (अधोमुख तर्जनी व अंगूठा मिलाकर बनी पुष्प मुद्रा दिखाए)

• यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री..(देवता का नाम)... पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(ऊर्ध्वमुख(ऊपर को) तर्जनी व अंगूठे को मिलाकर दिखाए)

• रं वह्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्री..(देवता का नाम)... पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(ऊर्ध्व मुख मध्यमा व अंगूठे को दिखाए)

• वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री..(देवता का नाम)... पादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(ऊर्ध्व मुख अनामिका व अंगूठे को दिखाए)

• सौं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलादि सर्वोपचाराणि मनसा परिकल्प्य श्री..(देवता का नाम)... श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि।(सभी अंगुलियों को मिलाकर ऊर्ध्वमुखी करते हुए दिखाये)
उपरोक्त मुद्राओं को समझने के लिये यहाँ क्लिक करें।

इसके बाद "ह्रीं मालायै नमः पूजयामि" बोलकर माला पर फूल चढ़ाकर चंदन - अक्षत से माला की पूजा करे फिर हाथ जोड़कर कहे -
मां माले महामाये सर्वशक्ति स्वरूपिणी।
चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव।

अब हाथ में जल अक्षत पुष्प लेकर पुरश्चरण के बाकी अंगों की पूर्ति के लिये संकल्प करें-
 
श्रीगणपतिर्जयति। श्री गुरुभ्यो नमः | श्री गणेश विष्णु शिव दुर्गा सूर्येभ्यो नमः। र्विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य भूप्रदेशे------प्रदेशे ---- नाम्नि संवत्सरे---- सूर्य (उत्तरायणे / दक्षिणायने), ---- ऋतुः, -----मासे, --------पक्षे, ----तिथौ, -----वासरे ....(आपका नाम).....अहं अद्य मया कृतैतद् ....(मन्त्र का नाम).... मन्त्रस्य  ग्रहण-कालिक ......(जप संख्या).... संख्यक-पुरश्चरण-जपस्य सांगता सिद्ध्यर्थं तद्दशांशहोमम् कृत्वा तद्दशांश-तर्पणं कृत्वा तद्दशांश-मार्जनं कृत्वा तद्दशांश-संख्यक-ब्राह्मणान्-भोजयिष्ये।

हवन- जप का दशांश हवन करें। हवन कुण्ड सामने विधिवत  हवन होना आवश्यक है। हवन कुण्ड नहीं हो तो 1 हाथ लंबाई चौड़ाई की वर्गाकार ईट लगाकर बालू बिछाकर उसमें हवन करे। विधिवत अग्नि स्थापित करे। नवरात्र हवन की जो विधि हमने दी थी उसके अनुसार हवन करे। 
जनेऊ संस्कार न हुआ हो, स्त्री हों, या अन्य कारण से अगर विधिवत होम न हो सके तो होम की जगह हवन संख्या का दोगुना या चौगुना जप करें। संकल्प नीचे दिया है।

तर्पण - हवन संख्या का दशांश तर्पण करें। एक पात्र में जल में पुष्प, दूध, दही, चंदन, पिसी इलायची, अक्षत डालकर रखें। दाहिनी हथेली के देवतीर्थ (हथेली के अग्र भाग) से होते हुए जल अर्पित करके तर्पण करें। 
"....(मंत्र)... ...(मंत्र के देवी देवता का नाम)... देवीं/देवं तर्पयामि नमः।
उदाहरण - क्रीं कालिका देवीं तर्पयामि नमः।

मार्जन - तर्पण संख्या का दशांश मार्जन करें। एक पात्र जल में पुष्प अक्षत व चंदन घोलें।
" ...(मंत्र)... ..(मंत्र के देवी देवता का नाम)... देवीं / देवं अभिषिञ्चामि नमः। " बोलकर दूब या कुश से मस्तक पर जल छिड़कें।
उदाहरण- क्रीं कालिका देवीं अभिषिञ्चामि नमः।

 जप आदि की संख्या का विचार
पुरश्चरण में जप की संख्या का विचार बहुत जरूरी है इसी पर पुरश्चरण की पूर्णता टिकी है।
माला के हिसाब से ही जप को गिनना चाहिये। एक माला में 100 ही मंत्र जप मानें क्योंकि 8 बार जप भूल चूक के लिये रहता है।
⭐ ग्रहण का स्थानीय पर्वकाल प्रायः 1 घंटे ही रहता है। तो इतने समय में अगर गायत्री मंत्र या इतना ही लंबा कोई अन्य मंत्र जपा हो तो ऐसा अनुभव में आया है कि एक घंटे में इतने लंबे मंत्र की 3 माला ही जप में हो पायेंगी अर्थात् कुल 324 के आसपास जप होगा, पूर्णांक में इसे 300 ही मानें।
• कोई एकाक्षरी जैसे लघु मंत्र को इस एक घंटे में यदि जपता है तो 15 माला के आसपास जप होगा अर्थात्  लगभग 1620 बार। एक माला पर 100 ही जप मानने से इसे 1500 बार जप कह सकते हैं। तो इस 300 या 1500 संख्या का ही दशांश निकालें।
• अगर एक घंटे के ग्रहण में मंत्र का 300 बार जप होता है तो - इसमें दशांश हवन 30 बार होगा, दशांश तर्पण 3 बार होगा, दशांश मार्जन 1 बार करें और एक ब्राह्मण को भोजन करा दें। 
• अगर ग्रहण में 1500 बार मंत्र जप होता है तो- इसमें दशांश हवन 150 बार होगा, दशांश तर्पण 16 बार होगा, दशांश मार्जन 1 बार करें और एक ब्राह्मण को भोजन करा दें। 
• आशा है उपरोक्त उदाहरण को समझकर आप अन्य किसी मंत्र का भी दशांश निकाल सकेंगे।
⭐ इसी तरह अगर किसी लंबे ग्रहण में पर्वकाल 3 घंटे के आसपास रहे तो उसमें गायत्री जैसे लंबे मंत्रों का लगभग 9 से 11 माला जप अर्थात् लगभग 900 से 1100 संख्या में जप प्रायः हो ही जाता है। तीन घंटे में एकाक्षरी मंत्र में 45 माला के लगभग जप होगा।

दोगुने जप से मंत्र पुरश्चरणांगों की पूर्ति
अगर हवन, तर्पण नहीं कर सके तो उस उस दशांश संख्या का दो गुना जप करे। इसके लिये अलग-अलग संकल्प करना सुविधाजनक रहेगा। संकल्प निम्न प्रकार से करे -

हवन न कर पाने की स्थिति में संकल्प-
श्रीगणपतिर्जयति। र्विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य भूप्रदेशे------प्रदेशे ---- नाम्नि संवत्सरे---- सूर्य (उत्तरायणे / दक्षिणायने), ---- ऋतुः, -----मासे, --------पक्षे, ----तिथौ, -----वासरे ....(आपका नाम)....अहं अद्य मया कृतैतद् ....(मन्त्र का नाम).... मन्त्रस्य  ग्रहण-कालिक ......(कुल जपसंख्या).... संख्यक-पुरश्चरण-जपस्य सांगता सिद्ध्यर्थं तद्दशांशहोमाभावे मूलमन्त्रस्य ....(होम की संख्या की दोगुनी संख्या).... संख्यक जपम् करिष्ये।

तर्पण न कर सकने की स्थिति में संकल्प-
तर्पण संख्या का दोगुना( या चौगुना ) जपें। मार्जन का विकल्प करना ठीक नहीं, मार्जन  कर ही लें, इसका उल्लेख नीचे संकल्प में कर दिया है।
श्रीगणपतिर्जयति। र्विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य भूप्रदेशे------प्रदेशे ---- नाम्नि संवत्सरे---- सूर्य (उत्तरायणे / दक्षिणायने), ---- ऋतुः, -----मासे, --------पक्षे, ----तिथौ, -----वासरे ....(आपका नाम)....अहं अद्य मया कृतैतद् ....(मन्त्र का नाम).... मन्त्रस्य  ग्रहण-कालिक ......(कुल जप संख्या).... संख्यक-पुरश्चरण-जपस्य सांगता सिद्ध्यर्थं तदंगत्वेन तर्पणस्थाने मूलमन्त्रस्य (तर्पण की संख्या का दोगुना) संख्यक जपम् कृत्वा ( मार्जन संख्या ) वारं मार्जनं करिष्ये।

ब्राह्मण भोजन न कर पाने की स्थिति में -
सामने कुछ दक्षिणा रखे और हाथ में जल लेकर चौगुने जप का संकल्प करे जो निम्न प्रकार है। 
श्रीगणपतिर्जयति। र्विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य भूप्रदेशे------प्रदेशे ---- नाम्नि संवत्सरे---- सूर्य (उत्तरायणे / दक्षिणायने), ---- ऋतुः, -----मासे, --------पक्षे, ----तिथौ, -----वासरे ....(आपका नाम).....अहं अद्य मया कृतैतद् ....(मन्त्र का नाम).... मन्त्रस्य  ग्रहण-कालिक ......(जप संख्या).... संख्यक-पुरश्चरण-जपस्य सांगता सिद्ध्यर्थं ब्राह्मण-भोजनाभावे मूलमन्त्रस्य चत्वारि (4) संख्यक जपं करिष्ये एवं तदंगत्वेन इमां निष्क्रय दक्षिणां च ब्राह्मणाय सम्प्रददे।

यह एक ब्राह्मण के भोजन की पुरश्चरणांग पूर्ति के रूप में 1*4 = 4 बार जप के लिये संकल्प लिखा है।

• हालांकि जप से अंग की पूर्ति हो जाती है। लेकिन कहीं यह भी कहा गया है कि ब्राह्मण भोजन का कोई विकल्प नही करना चाहिए। अतः किसी ब्राह्मण को या मंदिर में पंडित जी को जितने से 4 लोगों का भोजन हो  सके उतनी दक्षिणा दे दें।
• या हो सके तो २ लोगों के भोजन लायक साबुत दाल चावल भी दे आये।

⭐ कुछ संख्याओं को संस्कृत में क्या कहते हैं लिख देते हैं ताकि संकल्प में समस्या न हो-
4 चत्वारि, 16- षोडश,  २० - विंशति,  32 - द्वात्रिंशत्, 
40 -चत्वारिंशत , 80 -अष्टाशीति, 
60 - षष्टि,  90-नवति, 100-शत,
110-दशाधिकशतम्,
150 - पञ्चाशदधिकशत, 
200 - द्विशत,  300 - त्रिशत, 
900 - नवशत ,  1000 - सहस्र , 
1100 - शताधिक सहस्रम्।


दोगुने जप से स्तोत्र के पुरश्चरणांगों की पूर्ति
स्तोत्र के पुरश्चरण के अंगों को पूरा करने के लिये हवन, तर्पण, मार्जन, ब्राह्मण भोजन की संख्या का दोगुना निकाल कर संस्कृत में लिखकर कहीं पर पहले ही लिख ले ताकि संकल्प में आसानी हो। अपने सामने कुछ दक्षिणा रख ले और हाथ में जल अक्षत फूल लेकर निम्न प्रकार से संकल्प करे-
श्रीगणपतिर्जयति। श्री गुरुभ्यो नमः | श्री गणेश विष्णु शिव दुर्गा सूर्येभ्यो नमः। र्विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य भूप्रदेशे------प्रदेशे ---- नाम्नि संवत्सरे---- सूर्य (उत्तरायणे / दक्षिणायने), ---- ऋतुः, -----मासे, --------पक्षे, ----तिथौ, -----वासरे ....(आपका नाम).....अहं अद्य मया कृतैतद् ....( स्तोत्र का नाम).... स्तोत्रस्य  ग्रहण-कालिक ......(स्तोत्रपाठ की कुल संख्या).... संख्यक-स्तोत्रपुरश्चरण जपस्य सांगता सिद्ध्यर्थं तद्दशांश होमाभावे अस्य स्तोत्रस्य ....(होम की संख्या की दोगुनी संख्या).... संख्यक पाठम् कृत्वा तदंगत्वेन तर्पणस्थाने स्तोत्रस्य (तर्पण की संख्या का दोगुना) संख्यक पाठम् कृत्वा (मार्जन संख्या) वारं मार्जनं कृत्वा ब्राह्मण-भोजनाभावे  स्तोत्रस्य (ब्राह्मण संख्या का दोगुना) संख्यक जपं करिष्ये एवं तदंगत्वेन इमां निष्क्रय दक्षिणां च ब्राह्मणाय सम्प्रददे।

इसके बाद पुरश्चरण के अंग की दोगुनी जितनी-जितनी संख्या लिखी या कही है उस अनुसार स्तोत्र जप करें।

ग्रहण शान्ति
ग्रहण प्रतिकूल होने पर ग्रहण शान्ति स्तोत्र का ११ बार पाठ कर लें।
ग्रहण कब-कब प्रतिकूल होता है-
यस्य राशिं समासाद्य ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः।
तस्य स्यात्तु महान्रोगः अपमृत्युश्च जायते॥
अर्थात् चंद्र ग्रहण के समय जिस राशि पर चंद्रमा हो अथवा सूर्य ग्रहण के समय जिस राशि पर सूर्य हो उस राशि के जातकों पर महारोग, अपमृत्यु भय रहता है।
अन्य लोग भी यह स्तोत्र पढ़ सकते हैं, इससे शुभ ही होगा। 
सूर्य ग्रहण हो तो सूर्य ग्रहण वाला स्तोत्र पढ़े।चंद्रग्रहण हो तो चंद्रग्रहण वाला स्तोत्र पढ़े।
इसमें अष्ट दिक्पालों से ग्रहण की पीड़ा हरने की प्रार्थना की गई है।

सूर्य ग्रहण पीडाहर स्तोत्रम्
योऽसौ वज्रधरो देव आदित्यानां प्रभुर्मतः।
सहस्रनयनः सूर्य ग्रहपीडां व्यपोहतु॥१॥
श्री इंद्राय नमः।

मुखं यः सर्वदेवानां सप्तार्चिरमितद्युतिः।
सूर्योपरागसम्भूतामग्निः पीडां व्यपोहतु॥२
श्री अग्नये नमः।

यः कर्मसाक्षी लोकानां यमो महिषवाहनः।
चन्द्रसूर्योपरागोत्थां ग्रहपीडां व्यपोहतु॥३
श्री यमाय नमः।

रक्षोगणाधिपः साक्षात् प्रलयानिलसन्निभः।
करालो निर्ऋतिः सूर्यग्रहपीडां व्यपोहतु॥४
श्री निर्ऋतये नमः।

नागपाशधरो देवो नित्यं मकरवाहनः।
सलिलाधिपतिः सूर्यग्रहपीडां व्यपोहतु॥५
श्री वरूणाय नमः।

प्राणरूपो हि लोकानां वायुः कृष्णमृगप्रियः।
सूर्योपरागसम्भूतां ग्रहपीडां व्यपोहतु॥६
श्री वायवे नमः।

योऽसौ निधिपतिर्देवः खड्गशूलधरो वरः।
सूर्योपरागसम्भूतं कलुषं मे व्यपोहतु॥७
श्री कुबेराय नमः।

योऽसौ शूलधरो रुद्रः शङ्करो वृषवाहनः।
सूर्योपरागजं दोषं विनाशयतु सर्वदा॥८
श्री रुद्राय नमः।

चन्द्र ग्रहण पीड़ा हर स्तोत्रम्
योऽसौ वज्रधरो देव आदित्यानां प्रभुर्मतः।
सहस्रनयनः चन्द्र ग्रहपीडां व्यपोहतु॥१
श्री इंद्राय नमः।

मुखं यः सर्वदेवानां सप्तार्चिरमितद्युतिः।
चन्द्रोपरागसम्भूतामग्निः पीडां व्यपोहतु॥२
श्री अग्नये नमः।

यः कर्मसाक्षी लोकानां यमो महिषवाहनः।
चन्द्रसूर्योपरागोत्थां ग्रहपीडां व्यपोहतु॥३
श्री यमाय नमः।

रक्षोगणाधिपः साक्षात् प्रळयानिलसन्निभः।
करालो निर्ऋतिः चन्द्र ग्रहपीडां व्यपोहतु॥४
श्री निर्ऋतये नमः।

नागपाशधरो देवो नित्यं मकरवाहनः।
सलिलाधिपतिः चन्द्र ग्रहपीडां व्यपोहतु॥५
श्री वरूणाय नमः।

प्राणरूपो हि लोकानां वायुः कृष्णमृगप्रियः।
चन्द्रोपरागसम्भूतां ग्रहपीडां व्यपोहतु॥६
श्री वायवे नमः।

योऽसौ निधिपतिर्देवः खड्गशूलधरो वरः।
चन्द्रोपरागसम्भूतं कलुषं मे व्यपोहतु॥७
श्री कुबेराय नमः।

योऽसौ शूलधरो रुद्रः शङ्करो वृषवाहनः।
चन्द्रोपरागजं दोषं विनाशयतु सर्वदा॥८
श्री रुद्राय नमः।

प्रार्थना
जप के अंत में हाथ जोड़कर कहे -
श्री गणेश विष्णु शिव दुर्गा सूर्येभ्यो नमः।
इन्द्रादि दश दिक्पालेभ्यो नमो नमः।
त्रैलोक्ये यानि भूतानि चराणि स्थावराणि च।
ब्रह्मेशविष्णुयुक्तानि तान्यायान्तु हरन्त्वघम्॥
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञ क्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्॥
अच्युत अनन्त गोविंद। शिव शिव शिव।
हरि-हर स्मरणात् परिपूर्णतास्तु।
आसन के नीचे जल छिड़ककर मस्तक से लगायें।
श्रीविष्णवे नमः। श्रीविष्णवे नमः। श्रीविष्णवे नमः।

इस प्रकार से यह ग्रहण का पुरश्चरण विधान सम्पन्न होता है। आपकी साधना शुभ हो।

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