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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

त्राणकर्त्री वेदमाता गायत्री की जयंती (गायत्री हृदय)

श्रा
वण शुक्ल पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन, संस्कृत दिवस, लव-कुश जयंती के साथ-साथ "भगवती गायत्री जयंती" मनाई जाती है। मतांतर से ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भी देवी गायत्री की जयन्ती तिथि बतलायी गई है।गौ, गंगा तथा गायत्री हिन्दुत्व की त्रिवेणी कहलाती है। ये तीनों ही अति पवित्र कहे गए हैं तथा भव बंधनों से मुक्ति दिलाते हैं। समस्त वेदों का सार तथा समस्त देवों की शक्तियाँ गायत्री मंत्र में निहित हैं।
वेदमाता कहलाने वाली ये माँ भगवती अपने गायक/जपकर्ता का पतन से त्राण कर देती हैं; इसीलिए 'गायत्री' कहलाती हैं। जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही धर्म-कर्म के लिये योग्य कहलाता है और दान, जप, होम व पूजा सभी कर्मों के लिये वही शुद्ध पात्र है।
नित्य संध्या करने वाला होने के कारण शास्त्रों में ब्राह्मणों को दान करने के लिये कहा जाता है। क्योंकि जो दान की वस्तु को पाता है उसे प्रतिग्रह का दोष लग जाता है लेकिन यदि वह व्यक्ति गायत्री जप करता है तो प्रतिग्रह के दोष से मुक्त हो जाता है। कोई भी शुभ कर्म हो विवाह, अनुष्ठान, पूजा आदि हो तो सबसे पहले संध्या की जाती है, अतः यज्ञोपवीत धारकों के लिये गायत्री जप की अनिवार्यता सिद्ध होती है।

श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन श्रावणी उपाकर्म किया जाता है जिसके अंतर्गत पुराने यज्ञोपवीत का त्याग कर दिया जाता है। फिर प्रायश्चित संकल्प करके दशविध स्नान के बाद ऋषि तर्पण, पितृ तर्पण करते हैं। फिर शुद्ध स्नान कर नवीन यज्ञोपवीत का मंत्रों से संस्कार करके उस यज्ञोपवीत का पूजन कर उसे धारण किया जाता है। तत्पश्चात् यथाशक्ति गायत्री मंत्र जपा जाता है। जनेऊ साक्षात माँ गायत्री का ही प्रतिरूप है। 
यज्ञोपवीत

यज्ञोपवीत संस्कार एवं धारण की विधि

यदि जनेऊ का कोई तन्तु टूट जाए या शौच के समय कान पर टांगना भूल जाए तो वह जनेऊ जीर्ण हो जाता है अतः नया जनेऊ धारण करे। जीर्ण होने पर, नातक(जननाशौच),  सूतक में, हर चार महीने में, श्रावण पूर्णिमा पर नया जनेउ पहनना चाहिए। इसी दिन यज्ञोपवीत पूजित - अभिमंत्रित करके रख लिए जाते हैं और वर्ष भर में उनको पहना जा सकता है।

जनेऊ का मन्त्र से संस्कार किया जाता है तब जाकर वह द्विज के लिए पूजा संध्या हेतु अनुकूल हो जाता है। जनेऊ या यज्ञोपवीत प्रायः पंडित जी स्वयम् बनाकर लोगों को देते हैं जिनका संस्कार उन्होंने किया होता है। ऐसे संस्कृत जनेउ न मिल सकें तो आजकल जनेऊ(प्रायः असंस्कृत) बाजार में ब्राह्मणों द्वारा पूजा पाठ की दुकानों पर रखे जाते हैं वहां से खरीद सकते हैं। असंस्कृत हों  तो इनका संस्कार करना होता हैे। श्रावणी पर न हो सके तो अन्य किसी दिन भी जनेऊ को संस्कृत कर सकते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार  के द्वारा जनेऊ में विभिन्न देवताओं का आवाहन स्थापन व पूजन किया जाता है इसकी विधि निम्नलिखित है-

जनेऊ को एक विशेष प्रकार से मोड़कर रखा जाता है ताकि उलझे नहीं, इसलिए सबसे पहले जनेउ को पहनने लायक पूरा खोल ले, फिर सावधानी से जैसे उलझे नहीं वैसे पलाश या पीपल या आम आदि के पत्ते पर रखकर इसे जल से धो दे।  इसके बाद निम्नलिखित एक-एक मन्त्र पढ़कर चावल अथवा एक-एक फूल को यज्ञोपवीत पर छोड़ता जाय-

प्रथमतन्तौ ॐ ओंकार-मावाहयामि । द्वितीयतन्तौ ॐ अग्नि-मावाहयामि । तृतीयतन्तौ ॐ सर्पाना-वाहयामि । चतुर्थतन्तौ ॐ सोम-मावाहयामि । पञ्चमतन्तौ ॐ पितृना-वाहयामि । षष्ठतन्तौ ॐ प्रजापति-मावाहयामि । सप्तमतन्तौ ॐ अनिल-मावाहयामि । अष्टमतन्तौ ॐ सूर्य-मावाहयामि । नवमतन्तौ ॐ विश्वान् देवानावाहयामि । 
प्रथमग्रन्थौ ॐ ब्रह्मणे नम:, ब्रह्माण-मावाहयामि । द्वितीयग्रन्थौ ॐ विष्णवे नम:, विष्णु-मावाहयामि । तृतीयग्रन्थौ ॐ रुद्राय नम:, रुद्र-मावाहयामि ।

इसके बाद 'प्रणवाद्या-वाहित-देवताभ्यो नम: यथा-स्थानं न्यसामि' कहकर उन-उन तन्तुओंमे न्यास कर चन्दन लगाए फिर चावल चढ़ाकर धूप दीप से पूजा करे । फिर उस जनेऊ को दस बार गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित करे।किसी अन्य मन्त्र से दीक्षित हो तो उसका जप करके भी अभिमंत्रित करे।

यज्ञोपवीत-धारण-विधि 

इसके बाद नूतन यज्ञोपवीत धारण का संकल्प करे-

ओऽम् गणपतिर्जयति विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः हरि हरि नमः परमात्मने परब्रह्म पुरुषोत्तमाय श्रीमद्भग्वतो महापुरुषस्य विष्णोराग्ययाः प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवराह कल्पे सप्तमे वैवस्वत मन्वंतरे कलियुगे कलि प्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखंडे भारतवर्षे ___ नाम्नि स्थाने ____ नाम सम्वत्सरे __ ऋतौ __मासे ____पक्षे ____ तिथौ ___वासरे ____काले कायिक वाचिक मानसिक ज्ञाताज्ञात सकल दोष परिहारार्थं श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं नूतन यज्ञोपवीतम् धारयित्वा पुरातन जीर्ण यज्ञोपवीतस्य परित्यागं अहम् करिष्ये।

 निम्नलिखित विनियोग पढ़कर जल गिराये । 
विनियोग- ॐ यज्ञोपवीतमिति मन्त्रस्य परमेष्ठी ऋषि:, लिड्गोक्ता देवता:, त्रिष्टुप् छन्द:, यज्ञोपवीत-धारणे विनियोग।

फिर नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर जनेऊ पहने व आचमन करे । फिर यदि कोई साधक दो जनेऊ पहनते हैं तो वो दूसरा यज्ञोपवीत भी धारण करे । एक-एक करके यज्ञोपवीत पहनना चाहिये ।

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत् सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्य-मग्र् यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज: ॥
ॐ यज्ञोपवीत-मसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनो-पनह्यामि ।

जीर्ण यज्ञोपवीत का त्याग - इसके बाद निम्नलिखित मन्त्र पढकर पुराने जनेऊ को कण्ठी जैसा बनाकर सिर पर से पीठ की ओर को निकाल दे -
एतावद्दिन-पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया।
जीर्ण-त्वात् त्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा-सुखम्॥

बाद में उसे जल में प्रवाहित कर दे या पवित्र पेड़ के नीचे मिट्टी में दबा दे।
इसके बाद यथासंख्या गायत्री मन्त्र का जप करे और आगे का वाक्य बोलकर भगवान‍ को एक आचमनी जल अर्पित करके जप समर्पित कर दे - ॐ तत्सत् यत्कृतम् सर्वं श्रीब्रह्मार्पण-मस्तु।

 इस प्रकार श्रावणी के दिन सभी द्विज अपने जीर्ण यज्ञोपवीत(जनेऊ) को त्याग करके नया यज्ञोपवीत धारण करते हैं तथा देवी गायत्री के प्रीत्यर्थ पूजन, हवन तथा जप करते - कराते हैं। गायत्री जयंती पर सच्चे मन से माँ गायत्री से संबन्धित स्तोत्रों का पाठ करना, गायत्री मंत्र से हवन, मन ही मन गायत्री मंत्र जप वेदमाता की विशेष कृपा दिलाता है।


देेवी गायत्री का निवास श्री यन्त्र में भी है। ऋग्वेदीय काल में सूर्योपासना अनेक रूपों में होती थी । सभी द्विजों की प्रातः एवं संध्या काल की प्रार्थना में गायत्री मंत्र को स्थान प्राप्त होना सूर्योंपासना को निश्चित करता है। 'गायत्री' ऋग्वेद में एक छन्द का नाम भी है । सावित्र (सविता अथवा सूर्य देव संबंधी मंत्र) मन्त्र इसी गायत्री छन्द में उपलब्ध होता है (ऋग्वेद, ३ ६२ १ ०)।

गायत्री का अर्थ है "गायन्त त्रायते इति गायत्री" अर्थात "गाने वाले की रक्षा करने वाली ।"

गायत्री मंत्र की ख्याति अपने देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी है। इस मंत्र का भावार्थ है हम सविता देव के वरणीय प्रकाश को धारण करते हैं । वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।



गायत्री का एक नाम 'सावित्री' भी है । यज्ञोपवीत संस्कार या उपनयन-संस्कार के अवसर पर आचार्य गायत्री अथवा सावित्री मन्त्र उपनीत ब्रह्मचारी को प्रदान करता है ।उपनीत व्यक्ति को संध्योपासना में गायत्री मन्त्र का जप तथा मनन करना अनिवार्य माना गया है । जो ऐसा नहीं करते वे "सावित्रीपतित" समझे जाते हैं।



गायत्री त्रिपदा, छन्दयुक्ता, मंत्रात्मिका और वेदमाता कही गयी है। मनुस्मृति (२ ७७-७८, ८१-८३ ) में इसका  महत्त्व बतलाया गया है ।



पद्मपुराण में गायत्री जी को ब्रह्मा जी की पत्नी कहा गया है। यह पद गायत्री को कैसे प्राप्त हुआ इसकी कथा भी शास्त्रों में दी हुई है। देवी गायत्री का ध्यान इस प्रकार बताया गया है :

श्वेता त्वं श्वेतरूपासि शशांकेन समा मता।
बिभ्रती विपुलावूरू कदलीगर्भ-कोमलौ।।



गायत्री शापविमोचक मन्त्र 

जापक प्रायः सोचता है कि मंत्र का इतना जप हो रहा है तो पूर्ण फल क्यों नहीं मिल रहा। ऐसा कहा जाता है कि गायत्री मन्त्र को ब्रह्माजी,  वसिष्ठ ऋषि शुक्राचार्य, और विश्वामित्र ऋषि का शाप मिला हुआ है, इसका  शापोद्धार न होने के कारण साधक को मन्त्र का पूरा फल नहीं मिल पाता और धर्म अर्थ काम मोक्ष की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न हो सकती है। 
"शापमुक्ता हि गायत्री चतुर्वर्ग फलप्रदा।
अशापमुक्ता गायत्री चतुवर्ग फलान्तका॥" (गायत्री रहस्य)
इसीलिए गायत्री मन्त्र के जापक को जपकाल में नित्य अथवा कभी कभी इन शापविमोचक मन्त्रों का भी पाठ करते रहना चाहिए इससे शापोद्धार हो जाता है।

श्री ब्रह्म शाप विमोचन मन्त्र -

ॐ अस्य श्रीब्रह्म-शापविमोचन-मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः। कामदुघा गायत्री छन्दः। भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रह्म-शापविमोचनी गायत्री शक्तिर्देवता। ब्रह्म-शापविमोचनार्थे जपे विनियोगः ॥

ॐ गायत्रीं ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः । तां पश्यन्ति धीराः सुमनसो वाचमग्रतः
ॐ वेदान्त-नाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्। ॐ देवि गायत्रि! त्वं ब्रह्म शापाद्विमुक्ता भव ॥


श्री वसिष्ठ शापविमोचन मन्त्र -

 ॐ अस्य श्रीवसिष्ठशाप-विमोचनमन्त्रस्य निग्रहानुग्रहकर्ता वसिष्ठऋषिः । विश्वोद्भवा गायत्री छन्दः । वसिष्ठानुगृहीता गायत्रीशक्तिर्देवताः । वसिष्ठ शाप विमोचनार्थं जपे विनियोगः ॥ 
 
 तत्त्वानि चाङ्गेष्वग्निचितो धियांसः ध्यायति विष्णोरायुधानि बिभ्रत् । जनानता सा परमा च शश्वत् । गायत्रीमासाच्छुरनुत्तम च धाम ॐ देवि गायत्री त्वं वसिष्ठ शापाद्विमुक्ता भव।
ॐ सोऽहमर्कमयं ज्योति-रात्मज्योतिरहं शिवः । आत्मज्योति-रहं शुक्रः सर्वज्योती-रसोऽस्म्यहं ॥
 अब योनि मुद्रा दिखाकर तीन बार गायत्री मन्त्र का जप करे फिर बोले - ॐ देवि गायत्रि! त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ता भव ॥
 
श्री विश्वामित्र शापविमोचन मन्त्र -

ॐ अस्य श्रीविश्वामित्र-शापविमोचन-मन्त्रस्य नूतनसृष्टि-कर्ता विश्वामित्रऋषिः । वाग्देहा गायत्री छन्दः । विश्वामित्रानुगृहीता गायत्री शक्तिः सविता देवता । विश्वामित्रशाप-विमोचनार्थे जपे विनियोगः ॥

तत्त्वानि चाङ्गेष्वग्निचितो धियांसस्त्रिगर्भां यदुद्भवां देवाश्चोचिरे विश्वसृष्टिम् । तां कल्याणीमिष्टकरीं प्रपद्ये यन्मुखान्निःसृतो वेदगर्भः ॥ ॐ गायत्रि त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव ॥
ॐ गायत्रीं भजाम्यग्निमुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवाः । देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणी-मिष्टकरीं प्रपद्ये ॥ ॐ देवि गायत्रि! त्वं विश्वामित्र शापाद्विमुक्ता भव ॥ 

श्री शुक्र शाप विमोचन मन्त्र -

ॐ अस्य श्रीशुक्र-शापविमोचन-मन्त्रस्य श्रीशुक्र ऋषिः । अनुष्टुप्छन्दः । देवी गायत्री देवताः । शुक्र शाप-विमोचनार्थं जपे विनियोगः ॥ 

सोऽहमर्क-मयं ज्योतिरर्क-ज्योतिरहं शिवः । आत्म-ज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योती-रसोऽस्म्यहं ॥ ॐ देवि गायत्रि! त्वं शुक्र शापाद्विमुक्ता भव ॥ 

प्रार्थना - ॐ अहो देवि महादेवि सन्ध्ये विद्ये सरस्वति। अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोनि-र्नमोऽस्तुते ॥ 
ॐ देवि गायत्रि त्वं ब्रह्म-शापाद्विमुक्ता भव । वसिष्ठशापाद्-विमुक्ता भव । विश्वामित्र-शापाद्विमुक्ता भव । शुक्र-शापाद्विमुक्ता भव ॥


श्रीगायत्री हृदय स्तोत्रम् 

हरिः ॐ
नमस्कृत्य भगवान् याज्ञवल्क्यः स्वयम्भुवं परिपृच्छति।
त्वं नो ब्रूहि ब्रह्मन् गायत्र्युत्पत्तिं-तुरीयां श्रोतुमिच्छामि।
ब्रह्मज्ञानोत्पत्तिं प्रकृतिं परिपृच्छामि॥१॥

श्रीभगवानुवाच
प्रणवेन व्याहृतयः प्रवर्तन्ते तमसस्तु परं ज्योतिः।
कः पुरुषः? स्वयम्भूर्विष्णुरिति।
अथ ताः स्वाङ्गुल्या मथ्नाति। मथ्यमानात् फेनो भवति।
फेनाद् बुद्बुदो भवति। बुद्बुदादण्डं भवति। अण्डात् आत्मा भवति।
आत्मनिः आकाशो भवति। आकाशाद्वायुर्भवति। वायोर्ग्निर्भवति।
अग्नेरोङ्कारो भवति। ओङ्काराद् व्याहृतिर्भवति।
व्याहृत्या गायत्री भवति। गायत्र्याः सावित्री भवति।
सावित्र्याः सरस्वती भवति। सरस्वत्या वेदाः भवन्ति।
वेदेभ्यो ब्रह्मा भवति। ब्रह्मणो लोका भवन्ति। तस्माल्लोकाः प्रवर्तन्ते।
चत्वारो वेदाः साङ्गाः सोपनिषदः सेतिहासास्ते-सर्वे गायत्र्याः प्रवर्तन्ते।
यथाग्निर्देवानां, ब्राह्मणो मनुष्याणां, मेरुः शिखरिणां, गङ्गा नदीनां,
वसन्त ऋतूणां, ब्रह्मा प्रजापतीनां, एवमसौ मुख्यः।
गायत्र्या गायत्रीछन्दो भवति॥२॥

किं भूः ? किं भुवः ? किं स्वः ? किं महः ? किं जनः ?
किं तपः ? किं सत्यम् ?  किं तत् ? किं सवितुः ?
किं वरेण्यम् ? किं भर्गः ? किं देवस्य ? किं धीमहि ?
किं धियः ? किं यः ? किं नः ? किं प्रचोदयात् ?॥३॥

भूरिति भूर्लोको, भुव इत्यन्तरिक्षलोकः, स्वरिति स्वर्लोको,
महरिति महर्लोको, जन इति जनो लोकः, तप इति तपो लोकः,
सत्यमिति सत्यलोकः, भूर्भुवः स्वरिति त्रैलोक्यं तदिति
तेजो यत्तेजसोऽग्निर्देवता सवितुरित्यादित्यस्य
वरेण्यमित्यन्नम् अन्नमेव प्रजापतिः। 
भर्ग इत्यापः, आपो वै भर्गः।
यदापस्तत् सर्वा देवताः।
देवस्य सवितुर्देवो वा यः पुरुषः स विष्णुः।
धीमहीत्यैश्वर्यं, यदैश्वर्यं स प्राण इत्यध्यात्मं, तदध्यात्मम्।
तत् परमं पदं, तन्महेश्वरः, धिय इति महीति। पृथिवी मही।
यो नः प्रचोदयादिति कामः। काम इमान् लोकान् प्रच्यायवते।
यो नृशंसः। योऽनृशंसोऽस्याः स परो धर्म इत्येषा वै गायत्री॥४॥

किं गोत्रा? कत्यक्षरा? कति पादा? कति कुक्षिः? कति शीर्षा? ॥५॥

साङ्ख्यायन गोत्रा, चतुर्विंशत्यक्षरा वै गायत्री,
त्रिपदा, षट्कुक्षिः, पञ्च शीर्षा॥६॥

केऽस्यास्त्रयः पादा भवन्ति? का अस्या षट् कुक्षयः?
कानि च पञ्च शीर्षाणि?॥७॥

ऋग्वेदोऽस्याः प्रथमः पादो भवति, यजुर्वेदो द्वितीयः सामवेदस्तृतीयः।
पूर्वा दिक् प्रथमा कुक्षिर्भवति। दक्षिणा द्वितीया, पश्चिमा तृतीया,
उत्तरा चतुर्थी, ऊर्ध्वा पञ्चमी, अधोऽस्याः षष्ठी।
व्याकरणमस्याः प्रथमं शीर्षां भवति, शिक्षा द्वितीयं,
कल्पस्तृतीयं, निरुक्तं चतुर्थं, ज्योतिषामयनमिति पञ्चमम्॥८॥

किं लक्षणम्? किं विचेष्टितम्? किमुदाहृतम्?॥९॥

लक्षणं मीमांसा, अथर्ववेदो विचेष्टितं, छन्दो विचितिरुदाहृतम्॥१०॥

को वर्णः? कः स्वरः? श्वेतो वर्णः षट् स्वराः॥११॥

पूर्वा भवति गायत्री, मध्यमा सावित्री, पश्चिमा स्नध्या सरस्वती।
रक्ता गायत्री, श्वेता सावित्री, कृष्णा सरस्वती॥१२॥

प्रणवे नित्ययुक्ता स्याद् व्याहृतिषु च सप्तसु।
सर्वेषामेव पापानां सङ्करे समुपस्थिते।
शतसाहस्रमभ्यस्ता गायत्री पावनं महत्॥१३॥

उषः काले रक्ता, मध्याह्ने श्वेताऽपराह्मे कृष्णा ।
पूर्व सन्धि ब्राह्मी, मध्य सन्धि माहेश्वरी, परा सन्धि वैष्णवी।
हंसवाहिनी ब्राह्मी, वृषवाहिनी माहेश्वरी, गरुडवाहिनी वैष्णवी॥१४॥

पूर्वाह्मकाले सन्ध्या गायत्री, कुमारी रक्ताङ्गी रक्त-वासास्त्रिनेत्रा
पाशाङ्कुशा-क्षमाला कमण्डलु-करा हंसारूढा ऋग्वेदसहिता,
ब्रह्मदैवत्या भूर्लोक व्यवस्थितादित्य-पथगामिनी॥१५॥

मध्याह्नकाले सन्ध्या सावित्री युवती श्वेताङ्गी श्वेतवासास्त्रिनेत्रा
पाशाङ्कुशत्रिशूलडमरुहस्ता वृषभारूढा यजुर्वेदसहिता,
रुद्रदैवत्या भुवर्लोक व्यवस्थितादित्य -पथगामिनी॥१६॥

सायाह्मकाले सन्ध्या सरस्वती वृद्ध कृष्णाङ्गी,
कृष्णवासा-स्त्रिनेत्रा शङ्ख-गदा-चक्र-पद्महस्त-गरुडारूढा
सामवेदसहिता विष्णु-दैवत्या स्वर्लोक व्यवस्थितादित्य-पथगामिनी॥१७॥

कान्यक्षर दैवतानि भवन्ति?॥१८॥

प्रथममाग्नेयं, द्वितीयं प्राजापत्यं, तृतीयं सौम्यं,
चतुर्थमैशानं, पङ्चमादित्यं, षष्ठं बार्हस्पत्यं,
सप्तमं भगदैवत्यं, अष्टमं पितृदैवत्यं, नवममर्यमणं,
दशमं सावित्रं, एकादशं त्वाष्ट्रं, द्वादशं पौष्णं,
त्रयोदशमैन्द्राग्नं, चतुर्दशं वायव्यं, पञ्चदशं वामदेव्यं,
षोडशं मैत्रावरुणं, सप्तदशं वाभ्रव्यं,
अष्टादशं वैश्वदेव्यं, एकोनविंशतिकं वैष्णव्यं,
विंशतिकं वासवं, एकविंशतिकं तौषितं,
द्वाविंशतिकं कौबेरं, त्रयोविंशतिकं आश्विनं,
चतुर्विंशतिकं ब्राह्मं इत्यक्षरदैवतानि भवन्ति ॥ १९॥

द्यौर्मूर्ध्निसङ्गतास्ते, ललाटे रुद्रः,
भ्रुवोर्मेघः चक्षुशोश्चन्द्रादित्यौ,
कर्णयोः शुक्रबृहस्पती, नासिके वायुदैवत्ये,
दन्तौष्ठावुभयसन्ध्ये, मुखमग्निः,
जिह्वा सरस्वती, ग्रीवासाध्यानुगृहीतिः, स्तनयोर्वसवः, बाह्वोर्मरुतः,
हृदयं पर्जन्यमाकाशमुदरं, नाभिरन्तरिक्षं,
कट्योरिन्द्राग्नी, जघनं प्राजापत्यं, कैलासमलयावूरु,
विश्वेदेवा जानुनी, जह्नुकुशिकौ जङ्घाद्वयं, खुराः पितराः,
पादौ वनस्पतयः, अङ्गुलयो रोमाणि, नखाश्च मुहूर्तास्तेऽपि ग्रहाः,
केतुर्मासा ऋतवः, सन्ध्या-कालस्तथाच्छादनं संवत्सरो
निमिष-महोरात्र आदित्य-श्चन्द्रमाः॥२०॥

सहस्रपरमां देवीं शतमध्यां दशावराम्।
सहस्रनेत्रां गायत्रीं शरणमहं प्रपद्ये॥ २१॥

ॐ तत्सवितुर्वरेण्याय नमः।
ॐ तत् पूर्व जयाय नमः।
ॐतत् प्रातरादित्य प्रतिष्ठाय नमः॥२२॥

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
तत् सायं प्रातरधीयानोऽपापो भवति॥ २३॥

य इदं गायत्रीहृदयं ब्राह्मणः पठेत् अपेयपानात् पूतो भवति।
अभक्ष्यभक्षणात् पूतो भवति। अज्ञानात् पूतो भवति।
स्वर्णस्तेयात् पूतो भवति। गुरु तल्पगमनात् पूतो भवति ।
अपङ्क्ति पावनात् पूतो भवति । ब्रह्महत्यायाः पूतो भवति।
अब्रह्मचारी ब्रह्मचारी भवति। इत्यनेन हृदयेनाधीतेन
क्रतु सहस्रेणेष्टो भवति।
षष्टि शतसहस्राणि जप्यानि फलानि भवन्ति अष्टौ ब्राह्मणान्
सम्यग् ग्राहयेदर्थसिद्धिर्भवति॥२४॥

य इदं नित्यमधीयानो ब्राह्मणः प्रयतः शुचिः सर्वपापैः प्रमुच्यते इति।
ब्रह्मलोके महीयते इत्याह भगवान् याज्ञवल्क्यः॥२५॥
॥श्री गायत्री हृदयं शुभमस्तु॥


श्रावण मास की पूर्णिमा अर्थात वेदमाता गायत्री जी की जयंती तिथि के अलावा किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को गायत्री व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इसमें श्रीसूर्यदेव को अर्घ्य देन व उनका पूजन करने का विधान है। 
यज्ञोपवीत संस्कार विधिवत होते ही अत्यंत अनिवार्य है कि प्रातः सायं नित्य संध्या करे। उत्तम पक्ष है कि प्रतिदिन त्रिकाल संध्या करे। कभी समयाभाव हो तो संध्याकाल में पवित्र होकर शुद्ध आसन में मंदिर में बैठकर आचमनादि करके गायत्री मंत्र का दस बार जप करने से उस समय की संध्या का फल मिल जाता है। गायत्री मन्त्र ऋग्वेद ३।६२।१० में वर्णित है। संध्या का लोप होने पर प्रायश्चित स्वरूप गायत्री मंत्र का अष्टोत्तरशत जप करे। गायत्री मन्त्र का जप शत बार, सहस्र, दस सहस्र बार करने से अनेक रोगों का नाश होता है। (देवी भागवत, हेमाद्रि, २, ६२-६३)
देवी भागवत ग्रन्थ में गायत्री की प्रशंसा तथा पवित्रता के विषय में बहुत कुछ कहा गया है।

जो यज्ञोपवीत में अधिकृत नहीं हैं वह क्या करें ?
इसका समाधान भी है। श्री रामचरित मानस में गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने गायत्री मंत्र के सरल भावार्थ को चौपाई के रूप में लिखा है। इसका नित्य जप करना गायत्री मंत्र के सदृश ही फलप्रद माना जाता है -
जनक सुता जग जननि जानकी।
अतिसय प्रिय करुनानिधान की। 
ताके जुगपद कमल मनावउं।
जासु कृपाँ निरमल मति पावउं।
अर्थात राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा-निधान श्रीरामचन्द्र जी की अत्यन्त प्रिय श्रीजानकी जी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता(प्रणाम करता) हूँ, जिनकी कृपा से मैं निर्मल बुद्धि पाऊँ। 

  ब्रह्म अर्थात परमात्मा की प्राप्ति करवाने के कारण देवी गायत्री को ब्रह्मविद्या कहा गया है.... ब्रह्मविद्या माँ गायत्री की जयंती तिथि पर देवी गायत्री को हमारा अनेकों बार प्रणाम।


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