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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

श्रावण पूर्णिमा - रक्षा बंधन, संस्कृत दिवस एवं लव कुश जयंती - एक पावन दिवस

श्रा
वण शुक्ल पूर्णिमा के दिन स्नेह के प्रतीकात्मक त्योहार रक्षाबंधन को मनाया जाता है। आप सभी को रक्षाबंधन की बहुत - बहुत शुभकामनायें। रक्षाबंधन के साथ-साथ आज संस्कृत दिवस, लव-कुश जयंती और "भगवती गायत्री जयंती" भी है।  ॥गायत्री देव्यै नमः॥ यूं तो श्रावण पूर्णिमा पर ही भगवती गायत्री जी की जयंती कही गयी है, पर गंगा दशहरा के दिन भी इनकी जयंती बतलाई गई है। वेदमाता को  बारंबार नमन। रक्षाबंधन के विषय में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया था कि प्राचीन काल में जब देवासुर-संग्राम में देवता दानवों से पराजित हो गए थे; तब वे दुःखी होकर दैत्यराज बलि के साथ गुरु शुक्राचार्य के पास गए और उनको सब कुछ कह सुनाया। इस पर शुक्राचार्य बोले,"विषाद न करो दैत्यराज! इस समय देवराज इन्द्र के साथ वर्षभर के लिए तुम संधि कर लो, क्योंकि इन्द्र-पत्नी शची ने इन्द्र को रक्षा-सूत्र बांधकर अजेय बना दिया है। उसी के प्रभाव से दानवेंद्र! तुम इन्द्र से परास्त हुए हो।" गुरु शुक्राचार्य के वचन सुनकर सभी दानव निश्चिंत होकर वर्ष बीतने की प्रतीक्षा करने लगे। यह रक्षाबंधन का ही विलक्षण प्रभाव है, इससे विजय, सुख, पुत्र, आरोग्य व धन प्राप्त होता है। इस कथा से यह बात भी सामने आती है कि रक्षाबंधन सिर्फ भाई-बहिन के प्रेम का ही पर्व नहीं है अपितु रक्षा हेतु बांधे गए उस प्रेम व रक्षा के भरोसे रूपी प्रतीक से प्रिय जनों को बांधने का पर्व है; ठीक उसी तरह जैसे रक्षा सूत्र इन्द्र की पत्नी ने इन्द्र को बांधा था।

॥गायत्री देव्यै नमः॥ श्रावण पूर्णिमा पर ही भगवती गायत्री जी की जयंती कही गयी है, पर गंगा दशहरा के दिन भी इनकी जयंती मानी जाती है। वेदमाता को  नमन।

     एक अन्य प्रसंग भी है जब रक्षाबंधन के दिन द्वापर युग में पांडवों के साथ वन में विचरण करते हुए भगवान कृष्ण के हाथ में चोट लग गई तो द्रौपदी ने तुरंत अपनी धोती का एक हिस्सा फाड़कर भगवान कृष्ण के हाथ की कलाई में लपेट दिया। उस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को अपनी बहन मानकर यह वचन दिया कि यदि कभी भी द्रौपदी के ऊपर कोई संकट आए तो श्रीकृष्ण का नाम लेते ही वो स्वयं सहायता हेतु तत्क्षण उपस्थित हो जाएंगे। इस बात की पुष्टि द्रौपदी के चीर हरण के वक्त हो गई, जब द्रौपदी ने अपनी लाज बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया और उन्होंने द्रौपदी की साड़ी को माया द्वारा इतना लंबा बना दिया कि दु:शासन उसे खींचते-खींचते थक गया। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपनी बहन द्रौपदी की लाज बचाई।


रक्षा सूत्र बांधने की विधि-
     श्रावण मास की पूर्णिमा को प्रातःकाल उठकर शौचादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर श्रुति-स्मृति-विधि से स्नान करके देवताओं व पितरों का तर्पण करके उपाकर्म विधि से वेदोक्त ऋषियों का तर्पण करना चाहिए। तदनंतर प्रातः या अपराह्नकाल में आप चाहें तो कलावा/रक्षासूत्र बँधवायें। या फिर रक्षापोटलिका बनाएँ- कपास या रेशम के वस्त्र में अक्षत, सरसों, दूर्वा तथा चन्दन आदि पवित्र पदार्थ रखकर पोटली बना लें और उसे ताम्रपात्र पर रखकर प्रतिष्ठित कर लें। तत्पश्चात प्रसन्नचित्त होकर इस मंत्र से दाहिने हाथ में पंडित/ब्राह्मण/बहिन या पत्नी द्वारा रक्षासूत्र/रक्षापोटलिका बंधवायें। बांधते समय इस मंत्र को बोलना चाहिए-

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। 
तेन त्वामभिबध्नामि, रक्षे मा चल मा चल॥
अर्थात् जिससे [इन्द्र की कलाई पर बांधने से] महाबलशाली राजा दानवेन्द्र बली भी बंध गए थे [एक वर्ष तक], उसी रक्षा सूत्र को हे यजमान! मैं तुम्हारे हाथ में बांधता हूं। हे रक्षासूत्र! तुम कलाई से चलायमान मत होना, चलायमान मत होना [हटना नहीं]।


येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।  तेन त्वामभिबध्नामि, रक्षे मा चल मा चल॥ अर्थात् जिससे [इन्द्र की कलाई पर बांधने से] महाबलशाली राजा दानवेन्द्र बली भी बंध गए थे [एक वर्ष तक], उसी रक्षा सूत्र को हे यजमान! मैं तुम्हारे हाथ में बांधता हूं। हे रक्षासूत्र! तुम कलाई से चलायमान मत होना, चलायमान मत होना [हटना नहीं]।


     तत्पश्चात्  यथाशक्ति दान देना चाहिये। जो इस विधि से रक्षाबंधन करता है, वह वर्षभर सुखी रहकर पुत्र-पौत्र-धन से परिपूर्ण हो जाता है। हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार भद्रा की घड़ी विषैली कही गयी है जिस समय में रक्षा बंधन नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही सूर्यास्त के बाद भी रक्षाबंधन नहीं किया जाना चाहिए


संस्कृत पर एक गीत याद हो आया- "कविकोकिल-वाल्मीकि-विरचिता रामायणरमणीय कथा।  अतीव-सरला मधुरमंजुलानैव क्लिष्टा न च कठिना॥" इसका भाव यही है कि कोयल से मीठे स्वर वाले कवि वाल्मीकि जी के द्वारा संस्कृत में ही रामायण की रमणीय कथा रची गयी। ऐसी बहुत सरल और मधुर-मनोहर भाषा है संस्कृत जो न तो क्लिष्ट है और न ही कठिन।

संस्कृत दिवस

आज देववाणी संस्कृत दिवस भी है। ऐसी मान्यता है कि देववाणी संस्कृत की उत्पत्ति श्रावणी पूर्णिमा को हुई थी। अतः श्रावण मास की पूर्णिमा को 1969 से संस्कृत दिवस की शुरुआत हुई। इस दिन को इसीलिए चुना गया था कि इसी दिन प्राचीन भारत में शिक्षण सत्र शुरू होता था। इसी दिन वेद पाठ का आरंभ होता था तथा इसी दिन छात्र शास्त्रों के अध्ययन का प्रारंभ किया करते थे। पौष माह की पूर्णिमा से श्रावण माह की पूर्णिमा तक अध्ययन बन्द हो जाता था। प्राचीन काल में फिर से श्रावण पूर्णिमा से पौष पूर्णिमा तक अध्ययन चलता था, इसीलिए इस दिन को संस्कृत दिवस के रूप से मनाया जाता है।
संस्कृत पर एक गीत याद हो आया-

"कविकोकिल-वाल्मीकि-विरचिता रामायणरमणीय कथा। 
अतीव-सरला मधुरमंजुलानैव क्लिष्टा न च कठिना॥"

इसका भाव यही है कि कोयल से मीठे स्वर वाले कवि वाल्मीकि जी के द्वारा संस्कृत में ही रामायण की रमणीय कथा रची गयी। ऐसी बहुत सरल और मधुर-मनोहर भाषा है संस्कृत जो न तो क्लिष्ट है और न ही कठिन।

     संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति की परिचायक है। आजकल देश में ही नहीं, विदेश में भी संस्कृत उत्सव बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। यदि संस्कृत ही नहीं होती तो कहाँ होते वे दिव्य स्तोत्र और अद्भुत ज्ञान के भंडार हमारे ग्रंथ? हमारे ऋषि-मुनियों को बारंबार नमन है जिन्होंने इतनी सुन्दर भाषा हमें दी। कभी नारद पुराण पढ़िएगा उसमें व अन्य कुछ पुराणों में भी संस्कृत व्याकरण की बढ़िया जानकारी दी गयी है।
श्रावणी पूर्णिमा के दिन पुराने यज्ञोपवीत को त्यागकर नए यज्ञोपवीत का मंत्रों से संस्कार करके उस नूतन यज्ञोपवीत को धारण किया जाता है।

 श्रावणी उपाकर्म

इस दिन श्रावणी उपाकर्म किया जाता है जिसके अंतर्गत पुराने यज्ञोपवीत का त्याग कर दिया जाता है। फिर प्रायश्चित संकल्प करके दशविध स्नान के बाद ऋषि, पितृ तर्पण करते हैं। फिर शुद्ध स्नान कर नवीन यज्ञोपवीत का मंत्रों से संस्कार करके उस यज्ञोपवीत का पूजन कर उसे धारण किया जाता है। तत्पश्चात् यथाशक्ति गायत्री मंत्र जपा जाता है,
 चूंकि आज गायत्री जयंती भी है अतः माँ गायत्री से संबन्धित स्तोत्रों का आज पाठ करना वेदमाता की विशेष कृपा दिलाता है। गायत्री जी के स्तोत्र पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

लव कुश जयंती - सबसे प्रथम बार रामलीला का वाचन लव कुश के द्वारा ही किया गया था। और एक बार अयोध्या से निकले अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को इन दोनों ने पक़ड़कर एक पेड़ से बाँध दिया था।


 लव-कुश जयंती

इसी के साथ ही आज लव-कुश जयंती भी है। श्रावण पूर्णिमा को ही श्रीरामचंद्र जी व सीता माता के वीर जुड़वां पुत्रों लव और कुश का जन्म हुआ था। उनका जन्म तथा पालन महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में हुआ था। प्रथम बार रामलीला का वाचन इन दोनों के द्वारा ही किया गया था। एक बार अयोध्या से निकले अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को उन दोनों ने पक़ड़कर एक पेड़ से बाँध दिया। तब उस घोड़े की रक्षा कर रहे सैनिकों ने उसे छोड़ देने को कहा पर बालकों ने मना कर दिया। इस पर उन्होंने बच्चों को बहुत धमकाया, लेकिन जब वे नहीं माने तो युद्ध शुरू हो गया। जल्द ही सैनिकों के पैर उखड़ गए। एक सैनिक ने जाकर यह बात शत्रुघ्न को बताई तो वे तुरंत वहाँ पहुँचे। लव ने एक ही बाण से उनके रथ को तहस-नहस कर दिया। वे बेहोश होकर गिर पड़े। यह बात श्रीराम को पता चली तो उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने लक्ष्मण को भेजा। लक्ष्मण के भी समझाने पर जब बात नहीं बनी तो दोनों ओर से बाण चलने लगे। जल्द ही लक्ष्मण घायल होकर मूर्च्छित हो गए। इसके बाद हनुमान के साथ वानर सेना लेकर आए भरत का भी वही हश्र हुआ। सूचना मिलने पर अंततः श्रीराम स्वयं वहाँ पहुँचे और बालकों से पूछा- "बच्चो, तुम्हारे माता-पिता कौन हैं?" लव बोले- "हमें अपने पिता का नाम तो नहीं पता। हाँ, हमारी माता का नाम है सीता।" यह सुनते ही श्रीराम उन्हें पहचान गए कि ये तो उनके ही पुत्र हैं। उनके हाथ से धनुष छूट गया और वे सुध-बुध खोकर जमीन पर गिर पड़े। इसके बाद बच्चों ने हनुमान जी को पकड़कर पेड़ से बाँध दिया और श्रीराम का मुकुट लेकर माँ के पास पहुँचे। मुकुट देखते ही सीता घबरा गईं कि कहीं बच्चों ने उनके स्वामी श्रीराम को कोई नुकसान तो नहीं पहुँचा दिया। वे वाल्मीकि और बच्चों के साथ वहाँ पहुँचीं, तब तक श्रीराम को होश आ चुका था। शीघ्र ही बच्चों को पता चल गया कि श्रीराम ही उनके पिता हैं। कालांतर में जब सीता जी धरती पर समा गईं तब श्रीरामचंद्र जी ने वानप्रस्थ आश्रम अपनाने का निश्चय कर भरत का राज्यभिषेक करना चाहा तो भरत नहीं माने। तब दक्षिण कोसल प्रदेश में कुश और उत्तर कोसल में लव का अभिषेक किया गया था।
श्रावणी पूर्णिमा के दिन श्रवण कुमार का भी पूजन और स्मरण किया जाता है।

श्रवण कुमार पूजन

श्रावणी पूर्णिमा के दिन श्रवण कुमार का भी पूजन और स्मरण किया जाता है। इस संबंध में यह कथा प्रचलित है कि श्रवण कुमार माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने के लिए उन्हें कांवर में बिठाकर ले जा रहे थे। रास्ते में रुक कर श्रवण उनके लिए जल लाने के लिए नदी के तट पर पहुंचे। महाराजा दशरथ वहीं शिकार कर रहे थे, पानी भरने की आवाज सुनकर उन्हें ऐसा लगा कि जैसे वहां कोई हिरण है। इस पर उन्होंने शब्दवेधी बाण चला दिया, जिससे श्रवण कुमार की मृत्यु हो गई। अपनी इसी भूल के प्रायश्चित के उद्देश्य से राजा दशरथ ने इस दिन श्रवण कुमार के स्मरण-पूजन की परंपरा विकसित की।

जय हो बाबा बर्फानी की। श्रावणी पूर्णिमा के दिन बाबा अमरनाथ के दर्शन की भी बडी महिमा है।

श्रावणी पूर्णिमा के दिन बाबा अमरनाथ के दर्शन की भी बडी महिमा है। श्रावण मास का अंतिम दिन है और बाबा बर्फानी के दर्शन हो जाएँ इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा? इस प्रकार एक अति पावन दिवस है श्रावण पूर्णिमा का यह दिन जो हमें हमारी संस्कृति को कभी न भूलने का संदेश देता है।


टिप्पणियाँ

  1. कृपया ध्यान दें कि हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार रक्षाबंधन पर भद्राकाल में रक्षासूत्र बंधवाने से हानि होती है। जैसे शनि की क्रूर दृष्टि हानि करती है, वैसे ही शनि की बहन भद्रा का प्रभाव भी हानि करता है। अत: भद्राकाल में रक्षासूत्र नहीं बांधना चाहिए। रावण ने भी भद्राकाल में सूर्पनखा से रक्षासूत्र बंधवा लिया था, परिणाम यह हुआ कि उसी वर्ष उसका कुलसहित नाश हुआ। अतः भद्रा में कोई बहन अपने भाई को राखी न बाँधे! भद्राकाल की कुदृष्टि से कुल में हानि होने की सम्भावना रहती है! अतः इसके बाद ही राखी बाँधना उत्तम है।

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    1. साथ ही यह भी कहना चाहूंगा कि केवल रक्षा धागा(कलावा-जिस लाल धागे को पूजा के अवसर पर बांधा जाता है) या रक्षा पोटलिका, को ही भद्रा में न बांधने का विधान है, क्योंकि केवल उनको ही विशिष्ट(येन बद्धो..आदि) मंत्र द्वारा हाथ पर बांधने का निर्देश शास्त्रों में दिया गया है..
      लेकिन जो बाजार में राखी आती हैं उनमें कलावा नहीं होता है और उनको मंत्र के साथ भी नहीं बांधा जाता, इसलिये उनको भद्रा में भी हाथ में बांधा जा सकता है..

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