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तुर्मास के अंतर्गत आने वाले श्रावण मास जो नागेश्वर भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है, के शुक्ल पक्ष की पंचमी अर्थात् नाग पंचमी का क्या महत्व है, आइये यह जानते हैं। यूं तो प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष वाली पंचमी का अधिष्ठाता नागों को बतलाया गया है। पर श्रावण शुक्ला पंचमी एक विशेष महत्व रखती है। शायद ही कोई हो जो नाग/सर्प से अपरिचित होगा। लगभग हर जगह देखने को मिल जाते हैं ये सर्प। नाग हमेशा से ही एक रहस्य में लिपटे हुए रहे हैं इनके विषय में फैली अनेक किंवदंतियों के कारण। जैसे नाग इच्छाधारी होते हैं, मणि धारण करते हैं, मौत का बदला लेते हैं आदि-आदि। पर जो भी हो, सर्प छेड़ने या परेशान करने पर ही काटते हैं। आप अपने रास्ते जाइए साँप अपने रास्ते चला जाएगा। हाँ कभी मार्ग भटककर अचानक इनका घर में आ जाना डर का कारण हो सकता है पर ऐसे में या किसी भी परिस्थिति में इन साँपों को मारना नहीं चाहिए। कोशिश यही करनी चाहिए कि इनको एक सुरक्षित स्थान पर छोड़ दिया जाये।
सर्प विष
से विविध प्रकार की महत्वपूर्ण औषधियों का निर्माण किया जाता है, विशेष रूप से होम्योपैथी की दवाइयों में। हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में भी
नागों का वर्णन मिलता है कहीं भगवान शिव के गले के आभूषण के रूप में तो कहीं भगवान
विष्णु के शेषनाग के रूप में। ऐसी मान्यता है कि शेषनाग ही श्रीरामचंद्र जी के
भ्राता लक्ष्मण जी के रूप में अवतरित हुए थे।
कालिय नाम के नाग का मर्दन श्रीकृष्ण द्वारा किया गया था और तारा महाविद्या को भी सर्पों के आभूषणों से युक्त बतलाया गया है। यज्ञोपवीत का संस्कार करते समय भी उसमें रुद्रादि देवों के साथ साथ सर्पानावाहयामि कहकर सर्पों का आवाहन किया जाता है ताकि यज्ञोपवीत भली प्रकार द्विज की रक्षा कर सके।
साँप को
दूध पिलाना गलत है। कहीं-कहीं इस दिन कुप्रथा के चलते भूखे रखे गए साँपों को जबरन दूध
पिलाकर मारा जाता है क्योंकि साँप दूध नहीं पीते; यदि पी भी लें तो पाचन न होने से
या प्रत्यूर्जता से उनकी मृत्यु हो जाती है। एक भ्रांति सी फैली हुई है कि
शास्त्रों में नाग को दूध पिलाने को कहा है जबकि ऐसा नहीं है। यदि कहीं ऐसी प्रथा हो
तो- उसमें शास्त्रों का दोष नहीं है, ऐसा करने वालों या उनके पूर्वजों द्वारा ही अपने
मन से उस प्रथा को जोड़ा गया है- यह समझें। शास्त्रों में तो पंचमी को नागों को दूध
से स्नान करवाने को कहा गया है वह भी जरूरी नहीं कि नाग असली हो, ताँबे या गोबर या मिट्टी से बने नाग का ही स्नान/अभिषेक किया जाना चाहिए।
भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय ३२ के अनुसार-
पञ्चम्यां स्नापयन्तीह नागान् क्षीरेण ये नराः।
तेषां कुले प्रयच्छन्ति तेऽभयं प्राणदक्षिणाम्॥
पञ्चमी को जो लोग नागों को दूध से स्नान कराते हैं उनके कुल को नाग अभय व प्राण(रक्षा) रूपी दक्षिणा देते हैं।
शप्तान् - नागान् सदा मात्रा दह्यमानानहर्निशम्।
निर्वापयन्ति स्नपनैर्गवां क्षीराज्य-मिश्रितैः।
माता कद्रू द्वारा शाप दिये जाने कारण अभिशप्त नागों को रात-दिन अंगों में दाह होने लगा। सर्पों को घृत मिश्रित दुग्ध द्वारा स्नान कराने से उस दाह का शमन होता है।
ये स्नापयन्ति तान् - नागान् श्रद्धाभक्ति-समन्विताः॥
तेषां कुले सर्पभयं न भवेदिति निश्चयः।
जो उन नागों को श्रद्धा व भक्ति पूर्वक स्नान कराते हैं उनके कुल में सर्पभय नहीं होता।
जब नागों ने की शिव - स्तुति
स्कंद पुराण के अनुसार व्यास जी से सनत्कुमार जी ने शिप्रा नदी का माहात्म्य बताते समय यह कथा सुनाई - हे महामते व्यास! एक समय की बात है। लीला करने के लिये भगवान् शिव हाथ में कपाल लेकर नागलोक की भोगवती नामक पुरी में भिक्षा के लिये गये ओर घर-घर घूमकर उन्होंने "भिक्षां देहि" (भिक्षा दो) की रट लगायी। किंतु उन भूखे भगवान् शिव को किसी ने भी भिक्षा नहीं दी। तब वे पुरी से बाहर निकले ओर उस स्थान पर गये, जहाँ नागलोक के संरक्षण में अमृत के इक्कीस कुण्ड भरे हुए थे। वहाँ पहुंचकर सर्वान्तर्यामी भगवान् शंकर ने अपने तृतीय नेत्र के मार्ग से अमृत के समस्त कुण्ड को पी लिया ओर फिर वहां से उठकर चल दिये।
कुण्डों में अमृत न होने की बात देख-सुनकर समस्त नागलोक कांप उठा ओर सब एक-दूसरे से पूछने लगे, “यह किसका कर्म है? किसने क्या कर दिया है, जिससे इन कुण्डों का अमृत यहां से चला गया?"
परस्पर ऐसा कहकर वासुकि आदि सभी नाग किसी महात्मा के प्रति अपराध हो जाने की आशंका से नगर छोड़कर बाहर निकले 'क्या करें, कहां जायें? अब हमारा जीवन-निर्वाह कैसे होगा?' इत्यादि चिन्ता प्रकट करते हुए स्त्री व बालकों के साथ वे नाग मन-ही-मन भगवान् श्रीहरि की शरण में गये। तब उन पर अनुग्रह करने के लिये आकाशवाणी हुई -“नागगण! तुम लोगों ने घर पर आये हुए देवता का अपमान किया, अतिथि सत्कार का समय जानकर हाथ में कपाल लिये भिक्षु के वेष में भिक्षा लेने के लिये साक्षात् भगवान् शंकर तुम्हारे द्वार पर आये थे। परंतु भोगवती पुरी में किसी ने भी उनको भिक्षा नहीं दी, तब वे वापस लौट गये। इसी व्यतिक्रम के कारण तुम्हारे कुण्डों का सम्पूर्ण अमृत नष्ट हो गया है। अब तुमलोग पाताल से निकलकर उत्तम महाकाल वन में जाओ। वहाँ तीनों लोकों को पवित्र करनेे वाली श्रेष्ठ नदी शिप्रा बहती है, जो समस्त कामनाओं ओर फलों को देनेे वाली है । वहां जाकर तुम सब लोग विधिपूर्वक स्नान ओर देवाधिदेव भगवान् शिव का भजन करो । ऐसा करनेे पर नागलोक में तुम्हारी नष्ट हुई अमृतराशि पुनः प्राप्त हो जायेगी।" इस आकाशवाणी को सुनकर सभी नाग गण अपने स्त्री- बालक ओर वृद्धों के साथ महाकाल वन में गये। उन्होने उस त्रिभुवनवन्दिता शिप्रा नदी का दर्शन किया। इससे उन्हें बडी प्रसन्नता हुई ओर वहाँ स्नान-दानादि करके उन्होने महादेव जी की आराधना की। कभी मलिन न होने वाली कमलपुष्पों की माला, नाना प्रकार क फूल, अक्षत, वस्त्र, पृुष्प-हार, अनुलेपन, चन्दन, गन्ध, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, दक्षिणा और कपूर की आरती आदि पूजन सामग्री लेकर वे सब-के-सब नागगण महादेव जी की सेवा में उपस्थित हुए। उस समय अमृत की इच्छा रखने वाले नागों ने भगवान् शिव को पूजा करके इस प्रकार शिवजी का स्तवन किया -
नाग बोले- जिनका कहीं अन्त नहीं है, ऐसे ब्रह्मस्वरूप शिवजी को नमस्कार है।
सर्वदेवमय शिव! आपको बार-बार नमस्कार है। चन्द्रचूड! जटा का मुकुट धारण करने वाले ! आपको नमस्कार है।
शंकरात्मन्! आपको नमस्कार है। सबके साक्षी शंकर! आपको नमस्कार है।
समस्त बीजों की उत्पत्ति के कारणभूत महादेव ! आपको नमस्कार है।
अमृत का स्रोत बहाने वाले ईश्वर! आपको नमस्कार है।
हे कमनीय! कामस्वरूप! आपको नमस्कार है। हे सर्वकामवरप्रद! आपको नमस्कार है।
शान्तस्वरूप शिवजी को नमस्कार है। पशुओं (अज्ञानी जीवों) का पालन करने वाले भगवान् पशुपति को नमस्कार है।
मृड (सुखस्वरूप), दान्त (मन और इंद्रियों को वश में रखने वाले) और शान्तरूप आपको नमस्कार है।
नागों के द्वारा इस प्रकार स्तुति करने से प्रसन्न हो भगवान् शंकर प्रत्यक्ष दर्शन देकर बोले- नाग-गण ! किसी पूर्वपुण्य के प्रभाव से तुम सब लोग नागलोक छोड़कर इस उत्तम महाकाल वन में आये हो और बालकों, वृद्धों तथा स्त्रियों के साथ तुमने सरिताओं में श्रेष्ठ शिप्रा का दर्शन किया है। तुम सब श्रेष्ठ नागों ने शिप्रा में स्नान किया है। अतः उसके पुण्यप्रभाव से तुम्हारे घर-घरमें अमृत प्राप्त होगा। तुम शिप्रा का जल ले जाकर अपने अमृत-कुण्डों में छिड़क दो। उससे वे इक्कीसों कुण्ड अमृत से भर जायेंगे ओर स्थिर रहेंगे।
तब उन नागों ने "बहुत अच्छा" कहकर भगवान् महेश्वर को प्रणाम किया और अपने हाथ में शिप्रा नदी का जल लेकर वे नागलोक में लौट गये। तब से नागलोक में शिप्रा का नाम अमृतोद्भवा (या अमृतसम्भवा) प्रसिद्ध हुआ। जो मनुष्य शिप्रा नदी में स्नान-दानादि पुण्यकर्म करते हैँ, उनका पाप शेष नहीं रहता तथा उन्हें कभी आपत्ति और दुर्गति नहीं देखनी पड़ती।
नाग पंचमी व्रत
नाग पंचमी व्रत के विषय में भविष्य पुराण के ब्राह्म खण्ड के अध्याय ३२ में वर्णन प्राप्त होता है। प्राचीन काल में किसी समय सुमन्तु मुनि ने राजा शतानीक से कहा- राजन्! मैं आप से पञ्चमी कल्प का वर्णन करता हूं। पञ्चमी तिथि नागों को अत्यन्त प्रिय है और उन्हें आनन्द देने वाली है। इस दिन नागलोक में विशिष्ट उत्सव होता है। किसी भी पंचमी तिथि को जो नागों को (या नाग -प्रतिमा को) दुग्धस्नान करवाता है उसके कुल को
वासुकि, तक्षक, कालिय, मणिभद्र, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक तथा धनञ्जय – ये सभी नाग अभयदान देते हैं।
नाग पञ्चमी की कथा
एक बार माता के शाप से यज्ञाग्नि में सभी नाग जलने लग गये थे। इसीलिये उस दाह की व्यथा को दूर करने के लिये पञ्चमी को गाय के दूध से नागों( या नाग-प्रतिमा) को आज भी लोग स्नान कराते हैं, इससे सर्प-भय नहीं रहता।
यह सुनकर राजा शतानीक ने पूछा- महाराज! नागमाता ने नागों को
क्यों शाप दिया? और फिर वे कैसे बच गये? इसका आप विस्तारपूर्वक वर्णन करें।
सुमन्तु मुनि ने कहा- एक बार राक्षसों व
देवताओं ने मिलकर जब सागर मंथन किया था तो उच्चैःश्रवा नामक अतिशय श्वेत घोड़ा
निकला जिसे देख नागमाता कद्रू ने अपनी सपत्नी/सौत विनता से कहा कि, “देखो! यह अश्व श्वेतवर्ण का है परन्तु इसके बाल
काले दिखाई पड़ रहे हैं।" तब विनता बोली, “यह अश्व न तो सर्वश्वेत है, न काला है और न ही लाल
रंग का।” यह सुनकर कद्रू बोली, “अच्छा? तो मेरे साथ शर्त करो कि यदि मैं इस अश्व के बालों को कृष्णवर्ण का दिखा
दूँ तो तुम मेरी दासी हो जाओगी और यदि नहीं दिखा सकी तो मैं तुम्हारी दासी हो
जाऊँगी।” विनता ने शर्त स्वीकार कर ली और फिर वो दोनों क्रोध
करती हुई अपने-अपने स्थानों को चली गयीं। कद्रू ने अपने पुत्रों को सारा वृत्तान्त
कह सुनाया और कहा, “पुत्रों! तुम अश्व के बालों के समान
सूक्ष्म होकर उच्चैःश्रवा के शरीर से लिपट जाओ, जिससे यह
कृष्ण वर्ण का दिखने लगेगा और मैं शर्त जीतकर विनता को दासी बना सकूंगी।”
यह सुन नाग बोले, “माँ! यह छल तो हम लोग नहीं
करेंगे, चाहे तुम्हारी जीत हो या हार। छल से जीतना बहुत बड़ा
अधर्म है।” पुत्रों के ऐसे वचन सुनकर कद्रू ने क्रुद्ध होकर
कहा, “तुम लोग मेरी आज्ञा नहीं मानते हो, इसलिए मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम सब, पांडवों
के वंश में उत्पन्न राजा जनमेजय के सर्पयज्ञ में अग्नि में जल जाओगे।”
नागगण, नागमाता का यह शाप सुन बहुत घबड़ाये और वासुकि को साथ लेकर ब्रह्मा जी को सारी बात कह सुनाई। ब्रह्मा जी ने कहा, “वासुके! सर्पयज्ञ में बड़े-बड़े विषधर और दुष्ट नाग नष्ट हो जायेंगे। लेकिन चिंता न करो। यायावर वंश का बहुत बड़ा
तपस्वी जरत्कारू नामक ब्राह्मण होगा जिसके साथ तुम अपनी जरत्कारू नाम की बहिन का
विवाह कर देना और वह जो भी कहे, उसका वचन स्वीकार लेना। उनका आस्तीक नाम का विख्यात पुत्र उत्पन्न होगा, वह जनमेजय के सर्पयज्ञ को रोकेगा ओर तुम लोगों की रक्षा करेगा।” यह
सुन वासुकि आदि नाग प्रसन्न हो उन्हें प्रणाम कर अपने लोक को चले गए।
ब्रह्माजी ने पञ्चमी के दिन यह वर दिया था और आस्तीक मुनि ने पञ्चमी को ही नागों की रक्षा की थी, अतः पञ्चमी
तिथि नागों को बहुत प्रिय है -
पञ्चम्यां तत्र भविता ब्रह्मा प्रोवाच लेलिहान्।
तस्मादियं महाबाहो पञ्चमी दयिता सदा। नागानामानन्दकरी दत्ता वै ब्रह्मणा पुरा॥ (भविष्य पुराण - ब्राह्म पर्व ३२)
कालांतर में
वह यज्ञ जब हुआ तो श्रावण मास के शुक्ल पक्ष को नाग पंचमी के दिन ही आस्तीक मुनि ने नागों की सहायता की थी। अतः
उस दाह की व्यथा को दूर करने के लिए ही गाय के दुग्ध द्वारा नाग प्रतिमा को स्नान
कराने की मान्यता है जिससे व्यक्ति को सर्प का भय नहीं रहता इसीलिए यह
दंष्ट्रोद्धार पंचमी भी कहलाती है।
पञ्चमी के दिन नागों की पूजा करके यह प्रार्थना करनी चाहिये-
सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले ॥
ये च हेलि-मरीचिस्था येऽन्तरे दिवि संस्थिताः।
ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिनः।
ये च वापी-तडागेषु तेषु सर्वेषु वै नमः॥
(भविष्य पुराण, ब्राह्म पर्व २२।३२-२४)
[जो नाग पृथ्वी में, आकाश में, स्वर्ग में, सूर्य की किरणों में, सरोवरों में, वापी, कूप, तालाब आदि में रहते हैं, वे सब हम पर प्रसन्न हों, हम उनको बार-बार नमस्कार करते है।]
नागपंचमी को किसी भी समय घर के मुख्य द्वार के
दोनों ओर नागों के चित्र या एक-एक गोबर से नाग बनाकर उनका दही, दूध, दूर्वा, पुष्प, कुश, गंध, अक्षत और नैवेद्य
अर्पित कर पूजन करना चाहिये। तत्पश्चात नागों को विसर्जित करके ब्राह्मणों को यथाशक्ति भोजन कराना चाहिये और स्वयं अपने परिवार के साथ भोजन करना चाहिये। प्रथम मीठा भोजन करना चाहिये, अनन्तर अपनी अभिरुचि के अनुसार
भोजन करे। ऐसा करने से
व्यक्ति के कुल में कभी सर्पों का भय नहीं होता।
इस प्रकार नियमानुसार जो पञ्चमी को नागों का पूजन करता है, वह श्रेष्ठ विमान में बैठकर नागलोक को जाता है और बाद में द्वापरयुग में बहुत पराक्रमी, रोगरहित तथा प्रतापी राजा होता है। इसलिये घी, खीर तथा गुग्गुल अर्पित करके इन नागों की पूजा करनी चाहिये।
राजा शतानीक ने पूछा- "महाराज! क्रुद्ध सर्प के काटने से
मरने वाला व्यक्ति किस गति को प्राप्त होता है और
जिसके माता-पिता, भाई, पुत्र आदि सर्प के काटने से
मरे हों, उनके उद्धारके लिये कौन-सा व्रत, दान
अथवा उपवास करना चाहिये, यह आप बताये।"
सुमन्तु मुनि ने कहा- राजन्! सर्प के काटने से जो मरता है, वह अधोगति को प्राप्त होता है तथा अगले जन्म में निर्विष सर्प होता है और जिसके माता-पिता आदिसर्प के काटने से मरते हैं, वह उनकी सद्गति के लिये श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को उपवास कर नागों की पूजा करे। यह तिथि महापुण्या
कही गयी है। इस प्रकार बारह महीनों तक चतुर्थी तिथि के दिन एक बार भोजन करना चाहिये और पञ्चमी को व्रत कर नागों की पूजा करनी चाहिये। पृथ्वी पर या दीवार पर या चौकी पर नागों का चित्र बनाये अथवा सोना, तांबे, लकड़ी या मिट्टी का नाग बनाये। पञ्चमी के दिन करवीर कमल, चमेली आदि पुष्प, गन्ध, धूप और विविध नैवेद्यों से उनकी पूजा करे। घी, खीर और लड्डू उत्तम पाँच ब्राह्मणों को खिलाये।
बारह नागों की बारह महीनों में क्रमशः पूजा करे -
श्रावण की पंचमी में- अनन्ताय नमः मंत्र से पूजा करे,
भाद्रपद में - वासुके नमः,
आश्विन - शंखाय नमः,
कार्तिक - पद्माय नमः,
मार्गशीर्ष - कम्बलाय नमः,
पौष - कर्कोटकाय नमः,
माघ -अश्वतराय नमः,
फाल्गुन -धृतराष्ट्राय नमः,
चैत्र -शंखपालाय नमः,
वैशाख -कालियाय नमः,
ज्येष्ठ - तक्षकाय नमः
और
आषाढ़ में - पिंगलाय नमः।
उपरोक्त प्रकार से वर्ष पर्यन्त प्रत्येक शुक्ल पंचमी को व्रत एवं पूजन करके व्रत का उद्यापन करे।
नाग पञ्चमी उद्यापन विधि
12 पंचमी व्रत पूरे होने पर जो श्रावण शुक्ल पंचमी आये उस दिन उद्यापन होता हैI उद्यापन में सर्वप्रथम उपरोक्त प्रकार से पूजा करे। अनन्ताय नमः से लेकर पिंगलाय नमः तक के सभी मंत्र पढ़कर 12 नामों से नाग की पूजा करे। इस दिन सामर्थ्य अनुसार बहुत से ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। विद्वान् ब्राह्मण को सोने का नाग बनाकर उसे देना चाहिये। (सोने का नाग न हो सके तो या तो चाँदी का नाग देदे या फिर सामर्थ्यानुसार दक्षिणा ही दे दे।) यह नाग पंचमी उद्यापन की विधि है। राजन् आपके पिता जनमेजय ने भी अपने पिता परीक्षित के उद्धार के लिये यह व्रत किया था और सोने का बहुत भारी नाग तथा अनेक गौ ब्राह्मण को दान में दी थी। ऐसा करने पर वे पितृ-ऋण से मुक्त हुए थे और राजा परीक्षित ने भी उत्तम लोक को प्राप्त किया था। आप भी इसी प्रकार सोने का नाग बनाकर उसकी पूजा करके उन्हें ब्राह्मण को दान करे, इससे आप भी पितृ-ऋण से मुक्त हो जाएंगे।
हे राजन्! जो कोई भी इस नागपञ्चमी व्रत को करेगा, साँप से डंसे जाने पर भी वह शुभ लोक को प्राप्त होगा और जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस कथा को सुनेगा, उसके कुल में कभी भी सर्प का भय नहीं होगा। इस पञ्चमी व्रत के करने से उत्तम लोक की प्राप्ति होती है।
'नमोsस्तु सर्व सर्पेभ्यो' सभी सर्पों को नाग पंचमी पर नमन...
नागचन्द्रेश्वर मंदिर : नागपंचमी विशेष
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#हिन्दू धर्मावलंबियों समेत अन्य धर्मों में भी शायद ही कोई ऐसा मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर होगा जो वर्ष में एक दिन के लिए खुलता होगा, लेकिन महाकाल की नगरी उज्जैन में एक दुर्लभ नागचन्द्रेश्वर मंदिर है जिसके पट श्रावण शुक्ल पंचमी यानि की नाग पंचमी के दिन ही खुलते हैं| इस साल मंदिर के पट 23 जुलाई दिन सोमवार को खुलेंगे| यह मंदिर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक महाकालेश्वर के सबसे उपरी तल पर स्थित है| हिंदू मान्यताओं के अनुसार सर्प भगवान शिव का कंठाहार और भगवान विष्णु का आसन है लेकिन यह विश्व का संभवत:एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भगवान शिव, माता पार्वती एवं उनके पुत्र गणेशजीको सर्प सिंहासन पर आसीन दर्शाया गया है। इस मंदिर के दर्शनों के लिए नागपंचमी के दिन सुबह से ही लोगों की लम्बी कतारे लग जाती है|
भगवान भोलेनाथ को अर्पित फूल व बिल्वपत्र को लांघने से मनुष्य को दोष लगता है। कहते हैं कि भगवान नागचंद्रेश्वर के दर्शन करने से यह दोष मिट जाता है| महाकाल की नगरी में देवता भी अछूते नहीं रहे वह भी इस दोष से बचने के लिए नागचंद्रेश्वर का दर्शन करते हैं। ऐसा धर्मग्रंथों में उल्लेख है। भगवान नागचंद्रेश्वर को नारियल अर्पित करने की परंपरा है। पंचक्रोशी यात्री भी नारियल की भेंट चढ़ाकर भगवान से बल प्राप्त करते हैं और यात्रा पूरी होने पर मिट्टी के अश्व अर्पित कर उनका बल लौटाते हैं।
मान्यता है कि सर्पो के राजा तक्षक ने भगवान भोलेनाथ की यहां घनघोर तपस्या की थी। तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और तक्षक को अमरत्व का वरदान दिया। ऐसा माना जाता है कि उसके बाद से तक्षक नाग यहां विराजित है, जिस पर शिव और उनका परिवार आसीन है। एकादशमुखी नाग सिंहासन पर बैठे भगवान शिव के हाथ-पांव और गले में सर्प लिपटे हुए है।
इस अत्यंत प्राचीन मंदिर का परमार राजा भोज ने एक हजार और 1050 ई. के बीच पुनर्निर्माण कराया था। 1732 में तत्कालीन ग्वालियर रियासत के राणा जी सिंधिया ने उज्जयिनी के धार्मिक वैभव को पुन:स्थापित करने के भागीरथी प्रयास के तहत महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णोद्वार कराया।
एक प्रचलित कथा के अनुसार, एक बार देवर्षि नारद इंद्र की सभा में कथा सुना रहे थे। इंद्र ने नारद जी से पूछा कि हे मुनि, आप त्रिलोक के ज्ञाता हैं। मुझे पृथ्वी पर ऐसा स्थान बताओ, जो मुक्ति देने वाला हो। यह सुनकर मुनि ने कहा कि उत्तम प्रयागराज तीर्थ से दस गुना ज्यादा महिमा वाले महाकाल वन में जाओ। वहां महादेव के दर्शन मात्र से ही सुख, स्वर्ग की प्राप्ति होती है। वर्णन सुनकर सभी देवता विमान में बैठकर महाकाल वन आए। उन्होंने आकाश से देखा कि चारों ओर साठ करोड़ से भी शत गुणित लिंग शोभा दे रहे हैं। उन्हें विमान उतारने की जगह दिखाई नहीं दे रही थी।
इस पर निर्माल्य उल्लंघन दोष जानकर वे महाकाल वन नहीं उतरे, तभी देवताओं ने एक तेजस्वी नागचंद्रगण को विमान में बैठकर स्वर्ग की ओर जाते देखा। पूछने पर उसने महाकाल वन में महादेव के उत्तम पूजन कार्य को बताया। देवताओं के कहने पर कि वन में घूमने पर तुमने निर्माल्य लंघन भी किया होगा, तब उसके दोष का उपाय बताओ।
नागचंद्रगण ने ईशानेश्वर के पास ईशान कोण में स्थित लिंग का महात्म्य बताया। इस पर देवता महाकाल वन गए और निर्माल्य लंघन दोष का निवारण उन लिंग के दर्शन कर किया। कहते हैं कि यह बात नागचंद्रगण ने बताई थी, इसीलिए देवताओं ने इस लिंग का नाम नागचंद्रेश्वर महादेव रखा।
कैसे पहुंचे-
उज्जैन शहर भोपाल-अहमदाबाद रेल खण्ड पर स्थित एक पवित्र धार्मिक नगर है। यहां हर गाड़ी रुकती है। इंदौर यहां से केवल 65 किलोमीटर दूर है। उज्जैन रेलवे स्टेशन से महाकालेश्वर मंदिर मात्र 3 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां आवागमन के साधन आसानी से मिल जाते हैं।
Very nice
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