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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

तारा महाविद्या करती हैं भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा

गवती आद्याशक्ति के दशमहाविद्यात्मक दस स्वरूपों में एक स्वरूप भगवती तारा का है।  क्रोधरात्रि में भगवती तारा का प्रादुर्भाव हुआ थाचैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को महाविद्या तारा की जयन्ती तिथि बतलाई गई है। महाविद्या काली को ही नीलरूपा होने के कारण तारा भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि ये सर्वदा मोक्ष देने वाली, तारने वाली हैं इसलिये इन्हें तारा कहा जाता है- तारकत्वात् सदा तारा सुख-मोक्ष-प्रदायिनी।
 महाविद्याओं के क्रम में ये द्वितीय स्थान पर परिगणित की जाती हैं। 
रात्रिदेवी की स्वरूपा शक्ति भगवती तारा दसों महाविद्याओं में अद्भुत प्रभाववाली और सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी कही गयी हैं।
भगवती तारा के तीन रूप हैं- तारा, एकजटा और नीलसरस्वती।  श्री तारा महाविद्या के इन तीनों रूपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं किन्तु भिन्न होते हुए भी सबकी शक्ति समान और एक ही है। 

1. नीलसरस्वती

अनायास ही वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिये इन्हें नीलसरस्वती भी कहते हैं। जिन्होंने नीलिमा युक्त रूप में प्रकट होकर विद्वानों को वाक्शक्ति का दान किया इससे भी वे 'नीलसरस्वती' कही गई हैं- दत्ता वाक् नीलया यस्मात् तस्मान्नीलसरस्वती।
करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान कान्ति से युक्त, मस्तक पर बालचन्द्र धारण करने वाली, रक्तिम विग्रह तथा रसना वाली, सुन्दर लाल वस्त्र धारण किये हुए, पूर्णिमा के चन्द्रमा सदृश मुख वाली, अपने चारों हाथों में पाश, कर्तरि[कैंची], महान् अंकुश आदि को धारण करने वाली, नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत, जगत् को तारने अर्थात् मोक्ष प्रदान करने वाली भगवती तारा का भजन करना चाहिये।

२. तारा या उग्रतारा

   भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा करती हैं इसलिये ये उग्रतारा कहलाती हैं - उग्रापत्-तारिणी यस्मादुग्र-तारा प्रकीर्त्तिता। बृहन्नील-तंत्रादि ग्रन्थों में भगवती तारा के स्वरूप की विशेष चर्चा है। हयग्रीव का वध करने के लिये इन्हें नील-विग्रह प्राप्त हुआ था। ये शवरूप शिव पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा में आरूढ़ हैं। भगवती तारा नील वर्ण वाली, नीलकमलों के समान तीन नेत्रों वाली तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग धारण करने वाली हैं। ये व्याघ्रचर्म से विभूषिता तथा कण्ठ में मुण्डमाला धारण करनेवाली हैं।

     शत्रुनाश, वाक्शक्ति की प्राप्ति तथा भोग-मोक्ष की प्राप्ति के लिये भगवती तारा अथवा उग्रतारा की आराधना की जाती है। 

3. एकजटा

    सब जीवों को तारने के कारण वह शिवशक्ति-रूपिणी भगवती ही 'तारा' कही गयी। तारा महाविद्या के ही भेद-प्रभेद होने से आदि कल्प में केवल वह मुक्तकेशी देवी तथा एक जटाधारी रुद्र ही उत्पन्न हुए। इसी कारण वह 'एकजटा' देवी के नाम से प्रसिद्ध हुई तारकत्वात् सदा तारा तस्य भेद-विभेदतः। आद्या कल्पे मुक्तकेशी रुद्रस्तु एकजटः स्वयम्‌। स्माच्च-एकजटा प्रोक्ता" 

भगवती तारा की उपासना मुख्य रूप से तन्त्रोक्त पद्धति से होती है जिसे आगमोक्त पद्धति भी कहते हैं। इनकी उपासना से सामान्य व्यक्ति भी देवगुरु बृहस्पति के समान विद्वान् हो जाता है। 


हयग्रीव का वध करने के लिये इन्हें नील-विग्रह प्राप्त हुआ था। ये शवरूप शिव पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा में आरूढ़ हैं। भगवती तारा नील वर्ण वाली, नीलकमलों के समान तीन नेत्रों वाली तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग धारण करने वाली हैं। ये व्याघ्रचर्म से विभूषिता तथा कण्ठ में मुण्डमाला धारण करनेवाली हैं।


ध्यान
    
 माँ तारा का ध्यान इस प्रकार बतलाया गया है-

ध्यायेत् कोटि-दिवाकरद्युति-निभां बालेन्दुयुक्छेखरां
रक्ताङ्गीं रसनां सुरक्त वसनां पूर्णेन्दुबिम्बाननां।
पाशं कर्तृ-महाङ्कुशादि-दधतीं दोर्भिश्चतुर्भिर्युतां
नानाभूषण-भूषितां भगवतीं तारां जगत्तारिणीं॥

अर्थात् करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान कान्ति से युक्त, मस्तक पर बालचन्द्र धारण करने वाली, रक्तिम विग्रह तथा रसना वाली, सुन्दर लाल वस्त्र धारण किये हुए, पूर्णिमा के चन्द्रमा सदृश मुख वाली, अपने चारों हाथों में पाश, कर्तरि[कैंची], महान् अंकुश आदि को धारण करने वाली, नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत, जगत् को तारने अर्थात् मोक्ष प्रदान करने वाली भगवती तारा का भजन करना चाहिये।
"हम भगवती तारा का स्मरण करते हैं और उन महा उग्र स्वरूपिणी देवी का ही ध्यान करते हैं। वे देवी हमारी चित्तवृत्ति को अपनी ही लीला में लगाये रखें।" माँ तारा के साधारण उपासकों को इसी भाव के इस साथ तारा गायत्री मंत्र का मानसिक जप करना चाहिए।

मंत्र
तारायै विद्महे महोग्रायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात् 
यह तारा गायत्री मन्त्र है, इसका भाव है- "हम भगवती तारा को जानते हैं और उन महान् उग्र स्वरूप वाली  देवी का ही ध्यान करते हैं। वे देवी हमारी चित्तवृत्ति को अपने ही ध्यान में, अपनी ही लीला में लगाये रखें।" माँ तारा के साधारण उपासकों को इसी भाव के इस साथ तारा गायत्री मंत्र का मानसिक जप करना चाहिए।

     भारत में सर्वप्रथम महर्षि वसिष्ठ ने भगवती तारा की आराधना की थी। इसलिये भगवती तारा को वसिष्ठाराधिता तारा भी कहा जाता है। वसिष्ठ ने पहले भगवती तारा की आराधना वैदिक रीति से करनी प्रारम्भ की जो कि सफल न हो सकी। उन्हें अदृश्यशक्ति से संकेत मिला कि वे तान्त्रिक पद्धति के द्वारा जिसे "चिनाचारा" [या चीनाचार] कहा जाता है, से भगवती तारा की उपासना करें। जब महर्षि वसिष्ठ ने तान्त्रिक पद्धति का आश्रय लिया तब उन्हें भगवती का दर्शन व सिद्धि प्राप्त हुई। देवी तारा से वर प्राप्त करके वे वशिष्ठ मुनि नक्षत्र लोक को प्राप्त करके आज भी स्वर्ग में तारे के रूप में चमक रहे हैं। यह कथा 'चीनाचार' तन्त्र में वसिष्ठ मुनि की आराधना उपाख्यान में वर्णित है। इससे यह सिद्ध होता है कि पहले चीन, तिब्बत, लद्दाख आदि में तारा की उपासना प्रचलित थी।

शत्रुनाश, वाक्शक्ति की प्राप्ति तथा भोग-मोक्ष की प्राप्ति के लिये भगवती तारा अथवा उग्रतारा की आराधना की जाती है। रात्रिदेवी की स्वरूपा शक्ति भगवती तारा महाविद्याओं में अद्भुत प्रभाववाली और सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी कही गयी हैं

     'महाचीन' में तारा देवी की आराधना होने का वर्णन ग्रन्थों में प्राप्त होता है। महाचीन अर्थात् तिब्बत को साधनाओं का गढ़ माना जाता है। तिब्बती लामाओं, या गुरुओं के पास साधनाओं की विशिष्ट तथा दुर्लभ विधियां आज भी मौजूद हैं। तिब्बती साधनाओं के सर्वश्रेष्ठ होने के पीछे भी उनकी आराध्या देवी मणिपद्मा का ही आशीर्वाद हैमणिपद्मा भगवती तारा का ही तिब्बती नाम है। इन्हीं की साधनाओं के बल पर वे असामान्य तथा असंभव लगने वाली क्रियाओं को भी करने में सफल हो पाते हैं। तारा महाविद्या की साधनाएं सबसे कठोर साधनाएं हुआ करती हैं। इनकी साधना में किसी प्रकार के नियमों में शिथिलता स्वीकार्य नहीं होती। नियमों का अच्छी तरह से पालन न होने पर ये साधनाएँ सफल नहीं हो पातीं। अतः सामान्य आराधकों को भक्तिपूर्वक माँ का केवल ध्यान एवं कवच, अष्टोत्तरशतनाम, हृदय आदि स्तोत्रों का पाठ करना चाहिये। ध्यान की महिमा, स्तोत्र पाठ से यहाँ तक कि मंत्र जप से भी अधिक बताई गई है। देवी तारा का प्रादुर्भाव मेरु-पर्वत के पश्चिम भाग में 'चोलना' नाम की नदी के या चोलत सरोवर के तटपर हुआ था, जैसा कि स्वतन्त्रतन्त्र में वर्णित है-

मेरो: पश्चिमकूले नु चोत्रताख्यो ह्रदो महान्।
तत्र जज्ञे स्वयं तारा देवी नीलसरस्वती॥

     "महाकाल-संहिता" के काम-कला खण्ड में तारा-रहस्य वर्णित है जिसमें तारारात्रि में तारा की उपासना का विशेष महत्त्व बतलाया गया है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि की रात्रि 'तारारात्रि' कहलाती है-

चैत्रे मासि नवम्यां तु शुक्लपक्षे तु भूपते।
क्रोधरात्रिर्महेशानि तारारूपा भविष्यति॥ (पुरश्चर्यार्णव भाग-3 )

ध्यायेत् कोटि-दिवाकरद्युति-निभां बालेन्दुयुक्छेखरां रक्ताङ्गीं रसनां सुरक्त वसनां पूर्णेन्दुबिम्बाननां। पाशं कर्तृ-महाङ्कुशादि-दधतीं दोर्भिश्चतुर्भिर्युतां नानाभूषण-भूषितां भगवतीं तारां जगत्तारिणीं॥  पूरे विश्वास तथा श्रद्धा से आराधना करने पर माँ तारा निश्चित रूप से अभीष्ट सिद्धि प्रदान करती हैं। माँ तारा को क्रोधरात्रि पर हमारा बारम्बार प्रणाम...

     बिहार के सहरसा जिले में प्रसिद्ध 'महिषी' ग्राम में उग्रतारा का सिद्धपीठ विद्यमान है। वहाँ तारा, एकजटा तथा नीलसरस्वती की तीनों मूर्तियाँ एक साथ है। मध्य में बड़ी मूर्ति तथा दोनों तरफ छोटी मूर्तियाँ हैं। कहा जाता है कि महर्षि वसिष्ठ ने  यहीं भगवती तारा की उपासना करके सिद्धि प्राप्त की थी । तन्त्रशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'महाकाल-संहिता' के गुह्यकालीखण्ड में महाविद्याओं की उपासना का विस्तृत वर्णन है उसके अनुसार भगवती तारा का रहस्य अन्यन्त चमत्कारजनक बतलाया गया है।  पूरे विश्वास तथा श्रद्धा से आराधना करने पर माँ तारा निश्चित रूप से अभीष्ट सिद्धि प्रदान करती हैंमाँ तारा को क्रोधरात्रि पर हमारा बारम्बार प्रणाम...

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टिप्पणियाँ

  1. जी मैं मातारा सतनाम पढ़ना चाहता हूं।मेरा सवाल यह है कि पूजा की प्रक्रिया करने के बाद सीधे-सीधे सतनाम पाठ शुरू कर सकते हैं या कोई कवच, अंग न्यास आदि भी करने होते हैं।

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    1. महोदय, जी हाँ तारा शतनाम (अष्टोत्तरशतनाम) स्तोत्र अदीक्षित द्वारा भी तारा महाविद्या का ध्यान श्लोक पढ़कर(और मन में ध्यान करके) संक्षिप्त पूजा करके सीधे-सीधे पढ़ा जा सकता है उसमें अदीक्षित व्यक्ति को किसी प्रकार के न्यास या कवच पाठ आदि करने की आवश्यकता नहीं है... क्योंकि भगवान के नामों का जप करने की सबको अनुमति है ही... पर हाँ जो गायत्री या अन्य किसी मन्त्र से दीक्षित हैं वे चाहे तो अपने दीक्षा में प्राप्त मन्त्र का न्यास करके गंध पुष्प धूप दीप नैवेद्य से पूजा करके भी इसका पाठ कर सकते हैं क्योंकि आराध्य देव में ही सभी देवताओं का वास होता है. इस स्तोत्र द्वारा 108 अलग अलग नामों से देवी का पूजन भी किया जा सकता है माँ की इच्छा रही तो दस महाविद्याओं के 108 नाम अर्चन की विधि भविष्य में प्रकाशित की जाएगी
      जय माँ तारा

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  2. वैवाहिक सुख के लिए मां तारा के किस मंत्र/स्तोत्र का पाठ करे ?

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  3. Charan spersh Guru ji
    Meea rachna h mera prashna y hai ki kya mai mata tara ka sahasranamam keval padhu y phalstruti bhi padni jaruri h or kya tara kavach or name hindi m pad sakte hai please guru ji marg darshan kare

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कई स्तोत्रों के प्रकाशन से हानि भी बतलाई गई है इसलिये संकेत मात्र कर देता हूँ। स्त्री तथा जिन पुरुषों का यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ है - वे लोग तारा सहस्रनाम व तारा कवच या किसी अन्य स्तोत्र का पाठ करते समय सावधानी रखें कि जिस स्तोत्र में "स्वाहा" न हो उसका पाठ करें और जहाँ कहीं ॐ हो उसकी जगह औं कहना है। फलश्रुति का पाठ करने से पाठ का पूरा फल मिलता है। फलश्रुति बहुत लंबी हो तो वहाँ संक्षेप कर सकते हैं। स्तोत्र का हिंदी अनुवाद भी पढ़ ही सकते हैं, वहाँ भी ॐ तथा स्वाहा का उच्चारण न करें। केवल नाम पढ़ना भी अच्छा ही है। श्रद्धापूर्वक नाम जप से सब कुछ सहज ही मिल जाता है।

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