सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

नवरात्र लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वासन्तीय या चैत्र नवरात्रों का महत्व

व सन्त ऋतु के आगमन के पश्चात एक के  बा द एक  व्रतोत्सव-पर्व- त्यौहारों के आने का क्रम प्रारम्भ होने लगता है ।   वसन्त  ऋतु   में  सभी के हृदय में रस का  संचा र होता है ,  सभी  उमंग से  भरे रहते हैं  इसी कारण  देव-देवी की पूजा इत्यादि में वे प्रसन्न रहते हैं।  साथ ही  बुरे कर्मों  को करने की प्रवृत्ति  से नर और नारी  को  बचाने के लिए  भी इन उत्सवों का प्रयोजन है।  वै शाख का पूरा महीना कुमारी  क न्याओं के लिए व्रत करने का  समय  है। कन्याएँ ठीक पथ पर र हें ,  इसलिए वैशाख के महीने में उनकी माँ ,  दादी इत्यादि व्रत करवाती हैं।  किसी मत से  फा ल्गु न और  चै त्र  मास में  वसन्त-ऋतु  मानी जाती  है और किसी के मत से  चै त्र और  वैशाख   मास में।  वै शाख का दूसरा नाम  ' माधव '  है और  चैत्र मास  का  ‘ मधु ’  नाम है।  हिंदू धर्म के प्रति आस्थावान श्रद्धालुगण वसन्त ऋतु में मधु मा...


नवरात्र में श्री दुर्गा पूजा की विधि

भ वसागर से तारने वाली, परम दयालु, कष्टहारिणी, कृपाकारिणी श्री  दुर्गा जी की  नवरात्रि में शुक्ल प्रतिपदा के  दिन , अष्टमी को महापूजा में, जहाँ अष्टमी-नवमी तिथि मिलते हैं अर्थात् सन्धिपूजा में, प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को दुर्गा जी की उत्तम प्रकार से पूजा करनी चाहिये। अतएव नवरात्र या अन्य दिनों में भी जो श्री दुर्गा की  शास्त्रोक्त पूजा की जाती है उसका विधान यहाँ प्रामाणिक व शुद्ध रूप में प्रस्तुत है।  भगवती दुर्गा जी की पूजा करने के लिए  आसन पर पूर्वमुखी होकर  बैठ जाय।  जल से प्रोक्षण करे - अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं  स बाह्याभ्यंतरः शुचिः।। शिखा बाँधे। तिलक लगाकर आचमन करे - श्री केशवाय नमः। श्री नारायणाय नमः। श्री माधवाय नमः। आचमन के बाद अँगूठे के मूल भागसे होठों को दो बार पोंछकर ' श्री हृषीकेशाय नमः ' बोलकर हाथ धो ले। 3 बार प्राणायाम करे। पहले नवरात्रि में कलश स्थापना कर लें इसकी विधि के लिए यहां क्लिक करें। हाथ में जल-फूल लेकर संकल्प करे- श्री विष्णवे नमः। श्री व...


सिद्धि-प्रदा सिद्धिदात्री जी की महिमा - नवरात्र का नवम दिन

माँ सिद्धिदात्री   दुर्गाजी की  नवीं शक्ति हैं। माता सिद्धिदात्री सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। मार्कण्डेयपुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व - ये आठ सिद्धियाँ होती हैं। ब्रह्मवैवर्त्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय छः में महादेव शिव जी द्वारा सिद्धियों की संख्या अट्ठारह बतायी गयी है। इन अट्ठारह तरह की सिद्धियों के नाम इस प्रकार कहे जाते हैं-       १- अणिमा , २- लघिमा , ३- प्राप्ति , ४- प्राकाम्य, ५- महिमा , ६- ईशित्व और वशित्व , ७- सर्वकामावसायिता , ८- सर्वज्ञत्व , ९- दूरश्रवण , १०- परकायप्रवेशन , ११- वाक्सिद्धि , १२- कल्पवृक्षत्व , १३- सृष्टि , १४- संहारकरणसामर्थ्य , १५- अमरत्व , १६- सर्वन्यायकत्व , १७- भावना और १८- सिद्धि ।


महागौरी जी की महिमा - नवरात्र का आठवां दिन महाष्टमी

म हागौरी माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति हैं। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार माता महागौरी का वर्ण पूर्णतः गौर है। महागौरी माता की इस गौरता की उपमा शङ्ख, चन्द्र और कुन्द के फूल से दी गयी है। ' अष्टवर्षा भवेद् गौरी ' के अनुसार  महागौरी भगवती की आयु सर्वदा आठ वर्ष  की ही मानी गयी है। महागौरी जी के समस्त वस्त्र एवं आभूषण भी श्वेत हैं। देवी महागौरी की चार भुजाएँ हैं। महागौरी माँ का वाहन वृषभ है। महागौरी जी के ऊपर के दाहिने हाथ में अभय-मुद्रा और नीचे के बायें हाथ में वर-मुद्रा है। महागौरी माता की मुद्रा अत्यन्त शान्त है।


शुभङ्करी कालरात्रि माता की महिमा - नवरात्र का सप्तम दिन

का लरात्रि माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति हैं जो नवरात्र की सप्तमी तिथि को पूजी जाती हैं। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार माता कालरात्रि के शरीर का रंग घने अन्धकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश गोल हैं। कालरात्रि जी से विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। इनकी नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयङ्कर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। माँ कालरात्रि का वाहन गर्दभ है। कालरात्रि माँ के ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा सभी को वर प्रदान करती है। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में हाथ में खड्ग (कटार) है-  एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता। लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त-शरीरिणी॥ वामपादोल्लसल्लोह-लताकण्टक-भूषणा। वर्धनमूर्ध-ध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयङ्करी॥ अर्थात् एक वेणी (बालों की चोटी) वाली, जपाकुसुम (अड़हुल) के फूल की तरह लाल कर्ण वाली, उपासक की कामनाओं को पूर्ण ...


कात्यायनी जी की महिमा - नवरात्रों का छठा दिन

दु र्गविनाशिनी भगवती के छठवें स्वरूप का नाम कात्यायनी है। इनका नाम कात्यायनी पड़ने के पीछे हिंदू धर्म-ग्रन्थों में वर्णित एक कथा है कि कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं के कात्य गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए। इन्होंने भगवती पराम्बा की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी। कात्यायन ऋषि की इच्छा थी कि माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। माँ भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली थी। कुछ काल पश्चात् जब दानव महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बहुत बढ़ गया था तब भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिये एक देवी को उत्पन्न किया। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इन देवी की पूजा की। इसी कारण से ये देवी कात्यायनी कहलायीं।


हाल ही की प्रतिक्रियाएं-