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पू
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जिस प्रकार अष्टमी तिथि भगवती राधा तथा भगवान श्रीकृष्ण के आविर्भाव से सम्बद्ध है, उसी प्रकार नवमी तिथि भगवती सीता तथा भगवान् श्रीराम के आविर्भाव की तिथि होने से परमादरणीया है। जिस प्रकार भगवती राधा का आविर्भाव भाद्रपद शुक्ल अष्टमी और भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भाव भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को अर्थात् दो विभिन्न अष्टमी तिथियों में हुआ, उसी प्रकार भगवती सीता का आविर्भाव वैशाख शुक्ल नवमी को और भगवान् श्रीराम का आविर्भाव चैत्र शुक्ल नवमी को अर्थात् दो विभिन्न नवमी तिथियों मेँ हुआ। हिंदू-मात्र के परमाराध्य श्रीसीताराम तथा श्रीराधाकृष्ण से सम्बद्ध ये जयन्ती दिवस अति पावन एवं महत्त्वपूर्ण हैं। मान्यता है कि इन आविर्भाव–दिवसों अर्थात् जयंती तिथियों पर संयमपूर्वक व्रत करने वाले को भुक्ति-मुक्ति की सहज ही प्राप्ति हो जाती है।
भगवती सीता को भक्त जन जानकी, विदेहराजनन्दिनीजू, विदेहवंशवैजयन्ती, वैदेही, किशोरीजू आदि कहकर संबोधित करते हैं। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार श्री जानकी नवमी के पावन पर्व पर जो व्रत रखता है तथा भगवान श्री रामचन्द्र जी सहित भगवती श्री सीता जी का अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिभावपूर्वक विधि-विधान से सोत्साह पूजन-वन्दन करता है, उसे पृथ्वी-दान का फल, महाषोडश-दानका फल, अखिलतीर्थ-भ्रमण का फल और सर्वभूत-दया का फल अनायास ही मिल जाता है। भगवती सीता की प्रसन्नता समस्त मङ्गलों का मूल है। अत: श्री सीतानवमी-व्रत आत्मकल्याणार्थी के लिये सर्वथा आचरणीय है।
परम पुनीत श्री माधवमास-वैशाखमास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि, मङ्गलवार को मध्याह्नकाल में जब पुष्य नक्षत्र था, के दिन संतान-प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिये राजा जनक हल से भूमि जोत रहे थे उसी समय पृथ्वी से विदेहवंशवैजयन्ती सीता देवी का प्राकट्य हुआ। जोती हुई भूमि को तथा हलकी नोंक को भी 'सीता' कहते हैं। अत: प्रादुर्भूता भगवती विश्व में ‘सीता’ के नाम से विख्यात हुईं। वैशाख शुक्ल नवमी की पावन तिथि को भगवती सीता का प्राकट्योत्सव मनाया जाता है। अत: इस योग में किया गया व्रत अत्यन्त पुण्य प्रदान करने वाला होता है।
आइये जानकी-नवमी व्रत के विशेष पालनीय नियमों के विषय में जानते हैं। किसी भी व्रत की पूर्णता उस व्रत में किये गये संयम अर्थात् नियम-पालन से होती है। अत: व्रत में विहित नियमों का नियमत: पालन करना चाहिये।
व्रतकर्ता को चाहिये कि वह अष्टमी को ही प्रात: उठकर आलस्य का त्याग कर शौचादि से निवृत होकर नदी या सरोवर में स्नान कर, प्रात: संध्या-वन्दनादि करके देव, पितरों का तर्पण कर एक बार स्वल्प हविष्यान्न का भोजन कर ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ संयमित रहे। रात्रि में भूमि पर शयन करे।
उत्तम तो यह है कि वैशाख शुक्ल अष्टमी तिथि को ही नित्यकर्मों से निवृत्त होकर शुद्ध भूमि पर पूजन स्थान में सोलह या आठ अथवा चार स्तम्भों का एक सुन्दर मण्डप बनाये, जो तोरणादि से समलंकृत हो(समयाभाव हो तो वैशाख शुक्ल नवमी को भी मण्डप बना सकते हैं)। मण्डप के मध्य में सुन्दर चौकोर वेदिका पर परिकरों सहित भगवती सीता एवं भगवान् श्री राम की स्थापना करनी चाहिये। ध्वजा-पताका आदि से मण्डप को सुशोभित करे। पूजन के लिये स्वर्ण, रजत, ताम्र, पीतल, काठ या मिट्टी-इनमें से यथासामर्थ्य किसी एक वस्तु से बनी हुई प्रतिमा की स्थापना की जा सकती है। मूर्ति के अभाव में चित्र से भी काम लिया जा सकता है।
भगवती सीता एवं भगवान् श्रीराम की प्रतिमा के साथ-साथ पूजन के लिये सीताजी के पिता राजा जनक, माता सुनयना, कुलपुरोहित शतानन्द जी, हल और माता पृथ्वी की भी प्रतिमाएँ स्थापित करनी चाहिये।
यदि जनक जी, सुनयना माँ, कुलपुरोहित शतानन्द जी, हल और माता पृथ्वी की प्रतिमाएँ उपलब्ध न हों तो इनके स्थान पर अलग-अलग थोड़े अक्षत-पुष्प रखकर उनको प्रतीक मानकर उनका पूजन करे। यदि शिवलिंग अथवा शालग्राम उपलब्ध है तो उसी में सबकी पूजा करे; फिर अलग से अक्षतपुञ्ज(बिना टूटे चावलों का छोटा सा ढेर) बनाने की आवश्यकता नहीं है। ध्यान रहे कि शिवलिंग व शालग्राम में आवाहयामि न कहे क्योंकि सृष्टि की सभी शक्तियाँ शिवलिंग व शालग्राम में स्वतः उपस्थित रहती हैं जिनके आवाहन की आवश्यकता नहीं होती।
यदि जनक जी, सुनयना माँ, कुलपुरोहित शतानन्द जी, हल और माता पृथ्वी की प्रतिमाएँ उपलब्ध न हों तो इनके स्थान पर अलग-अलग थोड़े अक्षत-पुष्प रखकर उनको प्रतीक मानकर उनका पूजन करे। यदि शिवलिंग अथवा शालग्राम उपलब्ध है तो उसी में सबकी पूजा करे; फिर अलग से अक्षतपुञ्ज(बिना टूटे चावलों का छोटा सा ढेर) बनाने की आवश्यकता नहीं है। ध्यान रहे कि शिवलिंग व शालग्राम में आवाहयामि न कहे क्योंकि सृष्टि की सभी शक्तियाँ शिवलिंग व शालग्राम में स्वतः उपस्थित रहती हैं जिनके आवाहन की आवश्यकता नहीं होती।
जानकी नवमी के दिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर श्री विदेहराजनन्दिनीजू का स्मरण करे। नित्यकर्म से निवृत्त होकर उक्त मण्डप में सुन्दर आसन पर विराजित सीता माँ की प्रतिमा को नमन करे। यदि वेद तथा शास्त्र में पारंगत निर्मल आचार-व्यवहार सम्पन्न पवित्र ब्राह्मण का आचार्यरूप में वरण करे और उनसे पूजन करवाए तो उत्तम है अन्यथा स्वयं पूजन करे। पूजन विधि यहाँ प्रस्तुत है-
श्रीरामप्रिया सीताजी के पूजन की विधि
दीप जलाने के पश्चात ‘श्रीसीतायै नमः’ इस मूलमन्त्र से प्राणायाम करे। प्राणायाम के पश्चात् व्रत का संकल्प करे।
स्वस्तिवाचन, मङ्गलपाठ करके फिर मण्डप के पास ही अष्टदल कमल पर विधिपूर्वक कलश की स्थापना करनी चाहिये। अब ‘श्रीगणेशाय नमः’ से गणेश जी का, ‘श्रीउमा-महेश्वराभ्यां नमः’ से शिव-पार्वती जी का, ‘श्रीसूर्याय नमः’ से सूर्य देव का, ‘श्रीअग्नये नमः’ से अग्नि देव का, ‘श्रीविष्णवे नमः’ से विष्णु जी का एवं ‘श्रीहनुमते नमः’ से भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान जी का पञ्चोपचार से पूजन करे। पञ्चोपचार-पूजा के मंत्र ये हैं-
१- ॐ लं पृथिव्यात्मकं गंधम् समर्पयामि। (गंध/चन्दन का तिलक लगाएँ)
२- ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पम् समर्पयामि। (फूल चढ़ाएँ)
३- ॐ यं वाय्वात्मकं धूपम् आघ्रापयामि। (धूप दिखाएँ)
४- ॐ रं वह्न्यात्मकं दीपम् दर्शयामि। (दीप दिखाएँ)
५- ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्यम् निवेदयामि। (नैवेद्य चढ़ाएँ)
६- ॐ सौं सर्वात्मकं सर्वोपचाराणि मनसा परिकलप्य समर्पयामि। (दक्षिणा व पुष्पांजलि दें)
जो भक्त मानसिक पूजा करते हैं, उनकी तो पूजन-सामग्री एवं आराध्य सभी भावमय ही होते हैं, वे मनसा परिकलप्य जोड़ लें जैसे- “श्री गणेशाय नमः, ॐ लं पृथिव्यात्मकं गंधम् मनसा परिकलप्य समर्पयामि”आदि कहकर शुद्ध मन से भगवान का पूजन करे। यदि मण्डप में प्रतिष्ठित विग्रह न हो तो मण्डप में स्थापित प्रतिमा या चित्र में प्राणप्रतिष्ठा करनी चाहिये। एतदर्थ उपासक को प्रतिमा के कपोलों(गालों) का स्पर्श करके बायें हाथ में अक्षत(विष्णुजी को चावल की जगह सफेद तिल चढ़ाए जाते हैं)-पुष्प लेकर निम्नलिखित मंत्रों को पढ़ते हुए दाहिने हाथ से उन अक्षतों को प्रतिमा पर छोड़ता जाय –
‘ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञ-मिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ ङ्म् समिमं दधातु। विश्वे देवास इह मादयन्तामो३म्प्रतिष्ठ॥
ॐ अस्यै प्राणा: प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणा: क्षरन्तु च।
अस्यै देवत्वमर्चायै मामहेति च कश्चन॥
परिकरसहित-श्रीजानकीरामाभ्यां नम:’ इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये।
तदनन्तर हाथ में पुष्प लेकर भगवान श्रीराम व भगवती सीता का निम्नलिखित श्लोकों के अनुसार ध्यान करके पुष्पार्पण करना चाहिये-
ध्यानम्
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थम् ।
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्।
वामांकारुढ़ सीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालंकारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम्॥
अर्थात् जो धनुष - बाण धारण किए हुए हैं, बद्ध पद्मासनस्थ हैं और पीले वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नूतन कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो नेत्र बाईं ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं, उन आजानुबाहु, मेघ के समान श्याम, विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का मैं ध्यान करता हूँ।
ताटङ्क-मण्डल-विभूषित-गण्डभागां
चूडामणि-प्रभृतिमण्डन-मण्डिताङ्गीम्।
कौशेयवस्त्र-मणिमौक्तिक-हारयुक्तां
ध्यायेद् विदेहतनयां शशिगौरवर्णाम्॥
‘मण्डलाकार कर्णाभूषणों से जिनके कपोल अति सुन्दर लग रहे हैं चूडामणि आदि अनेकविध आभूषणों से जिनके विभिन्न अङ्ग अलंकृत हैं, जो रेशमी वस्त्र तथा मणि एवं मोती के हारों से विभूषित हैं और जिनका चन्द्रमा के समान गौरवर्ण है, उन जनकात्मजा भगवती सीता का ध्यान करना चाहिये।'
तत्पश्चात् श्री राम जी के साथ जानकी जी को ‘श्रीजानकीरामाभ्यां नमः’ मन्त्र से आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क, पञ्चामृतस्नान, स्नान, वस्त्र, आभूषण, चन्दन, सिन्दूर, सौभाग्यद्रव्य, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, दक्षिणा इन सब उपचारों का समर्पण करें। फिर सीता माँ को प्रणाम करके उनकी एक प्रदक्षिणा करे। आरती एवं मन्त्रपुष्पाञ्जलि के पूर्व मण्डप में प्रतिष्ठित अन्य आराध्यों का भी निम्न रीति से पूजन कर लेना चाहिये-
सीताजी के समीप एक अष्टदलकमल बनाकर उसमें सीताजी की अष्ट दिव्य सखियों का अक्षत-पुष्प से पूजन करें-
१-ॐ श्री चारुशीलायै नमः पूजयामि।
२-ॐ श्री हेमायै नमः पूजयामि।
३-ॐ श्री क्षेमायै नमः पूजयामि।
४-ॐ श्री वरारोहायै नमः पूजयामि।
५-ॐ श्री पद्मगन्धायै नमः पूजयामि।
६-ॐ श्री सुलोचनायै नमः पूजयामि।
७-ॐ श्री लक्ष्मणायै नमः पूजयामि।
८-ॐ श्री सुभगायै नमः पूजयामि।
सखियों के पूजनोपरान्त श्रीरामजी के समीप अक्षतपुञ्ज(कुछ अक्षतों का ढेर) पर पुष्प रखकर उसमें परम ज्ञानशिरोमणि विज्ञान-विभानिधान श्री याज्ञवल्क्य जी का आवाहन एवं पूजन करे- ॐ ज्ञानशिरोमणि विज्ञान-विभानिधान श्री याज्ञवल्क्य-ऋषये नमः श्री याज्ञवल्क्य-ऋषिं आवाहयामि पूजयामि।
याज्ञवलक्य जी के समीप अक्षतपुञ्ज बनाकर जनक जी के पुरोहित श्री शतानन्द जी का पूजन करे-
निधानं सर्वविद्यानां विद्वत्कुल-विभूषणम्।
जनकस्य पुरोधास्त्वं शतानन्दाय ते नम: ।।
‘शतानन्दजी! आप सभी विद्याओं के आगार, विद्वत्-शिरोमणि एवं श्री जनकजी के पुरोहित हैं। आपको नमस्कार है।’
उपर्युक्त मन्त्र से श्री शतानन्द जी की वन्दना करके ‘श्रीशतानन्दाय नम:’ मन्त्र से पञ्चोपचार-पूजन करे।
एक अन्य अक्षतपुञ्ज में फूल रखते हुए श्री गौतमपुत्र श्री शतानन्द जी का पुण्यावाहन करे-
ॐ श्रीगौतमपुत्र श्रीशतानन्दाय नमः श्रीशतानन्दं आवाहयामि पूजयामि।
श्री जनक जी का पूजन
तत्पश्चात् जनक जी के चित्र में या सीताजी के समीप एक अन्य अक्षतपुञ्ज बनाकर उसमें पुष्प अर्पित करते हुए श्रीनिमिवंशोदार श्रीजनकजी महाराज का वहाँ पुण्यावाहन करे-
ॐ श्री निमिवंशोदार महाराज श्रीजनकाय नमः श्रीजनकं आवाहयामि पूजयामि।
तत्पश्चात-
देवी पद्मालया साक्षादवतीर्णा यदालये।
मिथिलापतये तस्मै जनकाय नमो नम:॥
‘जिनके गृह में साक्षात् लक्ष्मीदेवी ही उत्पन्न हुई थीं, उन मिथिलापति श्री जनक जी के लिये बारम्बार नमस्कार है।'
उपर्युक्त मन्त्र से सीता जी के पिता श्री जनक जी की वन्दना करके ‘श्रीजनकाय नम:’ मन्त्र से पञ्चोपचार-पूजन करना चाहिये।
श्री सुनयनाम्बा जी का पूजन
सीताजी के समीप जनक जी के अक्षतपुञ्ज के साथ ही एक अन्य अक्षतपुञ्ज बनाकर उसमें पुष्प अर्पित करते हुए सीताजी की माता सुनयना जी का वहाँ आवाहन करे-
ॐ श्रीसुनयनाम्बायै नमः श्रीसुनयनाम्बां आवाहयामि पूजयामि।
फिर-
सीताया जननी मातर्महिषी जनकस्य च
पूजां गृहाण मद्दत्तां महाबुद्धे नमो ऽस्तु ते॥
‘अम्बा! आप श्री सीताजी की माता तथा महाराज जनक की पटरानी हैं, मेरे द्वारा की हुई इस पूजा को ग्रहण करें। महामति! आपको प्रणाम है।’
उपर्युक्त मन्त्र से हाथ जोड़कर श्री सुनयनाजी की वन्दना करके ‘श्रीसुनयनाम्बायै नम:’ मन्त्र से सीता जी की माता सुनयना जी का पञ्चोपचार-पूजन करना चाहिये।
तदनन्तर श्रीलक्ष्मीनिधि जी महाराज सहित मैथिलों का पूजन करे-
ॐ श्री लक्ष्मीनिधि सहित सर्वेभ्यो मैथिलेभ्यो नमः पूजयामि।
हल में या हल के चित्र में या अन्य अक्षतपुञ्ज में पुष्प अर्पित करके श्री हल का पूजन करे-
जीवयस्यखिलं विश्वं चालयन् वसुधातलम्।
प्रादुर्भावयसे सीतां सीर तुभ्यं नमोऽस्तु ते॥
‘हे हल! पृथ्वी को जोतते समय तुमने सीता जी को प्रकट किया है एवं सम्पूर्ण विश्व का तुम्हारे द्वारा पोषण होता है। तुम्हें नमस्कार है।’
उपर्युक्त मन्त्र से श्री हल की वन्दना करके ‘श्री हलाय नमः’ मन्त्र से पञ्चोपचार-पूजन करे ।
श्री सीताजननी पृथ्वी माता का पूजन
पृथ्वी पर रोली से त्रिकोण बनाकर उसमें श्री पृथ्वीदेवी का पूजन करे-
त्वयैवोपादितं सर्वं जगदेतच्चराचरम्।
त्वमेवासि महामाया मुनीनामपि मोहिनी॥
त्वदायत्ता इमे लोका: श्रीसीतावल्लभा परा।
वन्दनीयासि देवानां सुभगे त्वां नमाम्यहम्॥
‘पृथ्वीमाता! यह सम्पूर्ण चराचर जगत् आप से ही उत्पन्न हुआ है। आप ही मुनियों को भी मोहित करने वाली महामाया हैं। ये सभी लोक आपके अधीन हैं। आप पराशक्ति हैं एवं श्रीसीताजी आपको परमप्रिय हैं। आप देवों के लिये भी वन्दनीय हैं। सुभगे! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।’
उपर्युक्त मन्त्र से श्री पृथ्वीदेवी की वन्दना करके ‘श्रीसुभगायै नम:’ मन्त्र से पञ्चोपचार-पूजन करना चाहिये।
अब अनन्यभाव से श्रीविदेहराजनन्दिनीजू सीता माँ के परम पावन दिव्य जन्मोत्सव को गीत-वाद्यादि से पुरजन-परिजनों सहित मनाये। इसके अंतर्गत यह मङ्गलगीत समवेत स्वर से गाये-
मंगल मिथिलाधाम मंगल मंगल हो।
प्रकटीं सिय सुकुमारि आजु सब मंगल हो॥
मंगल बजत निशान गान सुख मंगल हो।
विप्र सुमन्त्र उचारहिं देव सुख मंगल हो।।
मंगल पुरी सोहात द्वार प्रति मंगल हो।
मंगल जनक लली प्यारी सियकर मंगल हो।।
मंगल सकल समाज, लखि नृप मंगल हो।
जय जय करत महान, प्रजा मुद मंगल हो।।
इतर अरगजा चंदन बरसत, पुर नभ मंगल हो।
देत याचकहिं दान, चाह विधि मंगल हो।।
आस करत तव दास, सदा तव मंगल हो।
चिर जीवे लली हमार, निशदिन मंगल हो।।
कथा
जानकी जी सीता माता की महिमा को मण्डित करने वाली एक पावन कथा यहाँ प्रस्तुत है-
मारवाड़ क्षेत्र में एक वेदपाठी श्रेष्ठ धर्मधुरीण ब्राह्मण निवास करते थे। उनका नाम देवदत्त था। उन ब्राह्मण की बड़ी सुन्दर रूपगर्विता पत्नी थी, उसका नाम शोभना था।
ब्राह्मणदेवता जीविका के लिये अपने ग्राम से अन्य किसी ग्राम में भिक्षाटन के लिये गये हुए थे। इधर ब्राह्मणी कुसंगत में फँसकर व्यभिचार में प्रवृत्त हो गयी। अब तो पूरे गाँव में उसके इस निन्दित कर्म की चर्चाएँ होने लगी। परंतु उस दुष्टा ने गाँव ही जलवा दिया। दुष्कर्मों में रत रहने वाली वह दुर्बुद्धि जब मरी तो जाकर अगला जन्म चाण्डाल के घर में हुआ। पतित्याग करने से वह चाण्डालिनी बनी, ग्राम जलाने से उसे भीषण कुष्ठ हो गया तथा व्यभिचार-कर्म से वह अन्धी भी हो गयी। अपने कर्म का फल उसे भोगना ही था।
इस प्रकार वह अपने कर्म के योग से दिनों दिन दारुण दुख प्राप्त करती हुई देश-देशान्तरमेँ भटकने लगी। एक बार दैवयोग से वह भटकती हुई कौशलपुरी में आयी। संयोगवश उस दिन वैशाखमास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि थी, जो समस्त पापों-का नाश करने में समर्थ है। जानकीनवमी के पावन उत्सव पर भूख-प्यास से व्याकुल वह दुखियारी इस प्रकार प्रार्थना करने लगी-“हे सज्जनों! मुझ पर कृपा करके कुछ भोज्यसामग्री प्रदान करो। मैं भूख से मर रही हूँ…
दु:खिताऽहं दुर्भगाऽहं भोज्यं देहि कृपालव:।”
ऐसा कहती हुई वह स्त्री श्री कनकभवन के सामने बने एक हजार पुष्पमण्डित स्तम्भों से होकर उसमें प्रविष्ट हुई। उसने पुन: पुकार लगायी-“भैया! कोई तो मेरी मदद करो कुछ भोजन दे दो।” इतने में एक भक्त ने उससे कहा-“देवि! आज तो जानकीनवमी है भोजन में अन्न देने वाले को पाप लगता है, इसीलिये आज तो अन्न नहीं मिलेगा। कल पारणा के समय आना, भरपेट ठाकुर जी का प्रसाद मिलेगा।”
परंतु वह नहीं मानी। अधिक कहने पर भक्त ने तुलसी एवं जल उस(चाण्डालिनी) को प्रदान किया।
वह पापिनी भूख से मर गयी। इसी बहाने अनजाने में उससे श्रीजानकीनवमी का व्रत पूरा हो गया। अब तो परम कृपालिनी दयास्वरूपिणी श्रीजानकी जी प्रसन्न हो गयीं तथा कृपा से परिपुष्ट कृपारूपिणी ने समस्त पापों से उसे मुक्त कर दिया। जानकीनवमी व्रत के प्रभाव से वह पापिनी निर्मल होकर स्वर्ग में आनन्द से अनन्त वर्षों तक रही। तत्पश्चात् वह कामरूप देश के महाराज जयसिंह की महारानी कामकला के नाम से विख्यात हुई। जातिस्मरा होने से उसे पूर्वजन्मों की स्मृति थी। उस महान् साध्वी ने अपने राज्य में अनेक देवालय बनवाये, जिनमें श्रीजानकी-रघुनाथ की प्रतिष्ठा करवायी।
आरती
कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं च प्रदीपितम्।
आरार्तिक्यमहं कृर्वे पश्य मे वरदा भव॥
परिकरसहित-श्रीजानकीरामाभ्यां नम:, कर्पूरारार्तिक्यं समर्पयामि।
‘हे देवि! कदली के गर्भ से उत्पन्न हुए कर्पूर को प्रज्वलित करके मैं आपकी आरती कर रहा हूँ। आप इसे देखें तथा मुझे वर प्रदान करें।’
घी की बत्ती तथा कपूर को प्रज्वलित करके नीचे लिखी आरती को गाते और वाद्य आदि बजाते हुए परिकरसहित श्रीजानकी-रामजी की सोत्साह भक्तिपूर्वक आरती करनी चाहिये-
आरति श्रीजनक-दुलारी की। सीताजी रघुबर-प्यारीकी॥
जगत-जननि जगकी विस्तारिणि, नित्य सत्य साकेत विहारिणि।
परम दयामयि दीनोद्धारिणि, मैया भक्तन-हितकारी की॥
आरति श्रीजनक-दुलारी की।
सतीशिरोमणि पति-हित-कारिणि, पति-सेवा-हित-वन-वन-चारिणि।
पति-हित पति-वियोग-स्वीकारिणि, त्याग-धर्म-मूरति-धारी की॥
आरति श्रीजनक-दुलारी की॥
विमल-कीर्ति सब लोकन छाई, नाम लेत पावन मति आई।
सुमिरत कटत कष्ट दुखदाई, शरणागत-जन-भय-हारी की॥
आरति श्रीजनक-दुलारी की। सीताजी रघुबर-प्यारीकी॥
पुष्पाञ्जलि, प्रणाम एवं प्रदक्षिणा
हाथ में पुष्प लेकर जानकी जू के बालस्वरूप का इस प्रकार स्मरण करे-
वन्दे विदेहतनया-पदपुण्डरीकं
कैशोरसौरभ-समाहृत-योगिचित्तम्।
हन्तुं त्रितापमनिशं मुनिहंससेव्यं
सन्मानसालिपरिपीतपरागपुञ्जम्॥ (जानकीस्तवराज १४)
हे सीता माँ! आप समस्त संसार के प्राणियों को अपने नित्य कैशोरसौरभद्वारा यों ही तापत्रय से मुक्त करने वाली हैं, योगीजनों के चित्त को सहसा अपहृत करने वाली हैं, आप परमहंस पदप्राप्त मुनियों से संसेव्य हैं, मैं भक्तजनमानस-भ्रमरावलिद्वारा पीत पराग वाले श्री विदेहवंश-वैजयन्ती जानकी जी के पादपद्मों की वन्दना करता हूँ।
ऐसा ध्यान करने के बाद कहे-
नानासुगन्धिकृसुमैर्यथाकालसमुद्भवै:।
पुष्पाञ्जलिं मया दत्तं गृहाण परमेश्वरि॥
परिकरसहितश्रीजानकीरामाभ्यां नम:, पुष्पाञ्जलिं
समर्पयामि।
‘हे परमेश्वरि! ऋतु के अनुसार उत्पन्न हुए नाना प्रकार के सुगन्धित पुष्पों से युक्त मेरे द्वारा दी जाने वाली इस पुष्पाञ्जलि को स्वीकार करें।’
अब श्रीराम जी के सहित सीता माँ को पुष्पाञ्जलि अर्पित करे।
दशाननविनाशाय माता धरणिसम्भवा।
मैथिली शीलसम्पन्ना पातु न: पतिदेवता।।
'जो रावणके विनाशके लिये पृथ्वी माता के गर्भ से उत्पन्न हुई हैं, पति को ही देवता मानने वाली तथा शीलसम्पन्न हैं, वे मिथिलेशकुमारी हमारी रक्षा करें।'
हाथ जोड़कर उपर्युक्त श्लोक पढ़कर भगवती सीता की कृपा की प्राप्ति हेतु ‘जानकी-स्तोत्र’ का सस्वर पाठ करना चाहिये। सीता माँ का यह स्तोत्र अनुवाद सहित प्रस्तुत है-
जानकी-स्तोत्र
नीलनीरज-दलायतेक्षणां लक्ष्मणाग्रज-भुजावलम्बिनीम्।
शुद्धिमिद्धदहने प्रदित्सतीं भावये मनसि रामवल्लभाम्॥
‘नील कमल-दल के सदृश जिनके नेत्र हैं, जिन्हें श्रीराम की भुजा का ही अवलम्बन है, जो प्रज्वलित अग्नि में अपनी पवित्रता की परीक्षा देना चाहती हैं, उन रामप्रिया श्री सीता माता की मैं मन-ही-मन में भावना (ध्यान) करता हूँ।’
रामपाद-विनिवेशितेक्षणामङ्ग-कान्तिपरिभूत-हाटकाम्।
ताटकारि-परुषोक्ति-विक्लवां भावये मनसि रामवल्लभाम्॥
‘जिनके नेत्र श्रीराम जी के चरणों की ओर निश्चलरूप से लगे हुए हैं, जिन्होंने अपनी अङ्गकान्ति से सुवर्ण को मात कर दिया है तथा ताटका के वैरी श्री राम जी के (द्वारा दुष्टों के प्रति कहे गए) कटुवचनों से जो घबरायी हुई हैं, उन श्री राम जी की प्रेयसी श्री सीता माँ की मैं मन में भावना करता हूँ।’
कुन्तलाकुल-कपोलमाननं, राहुवक्त्रग-सुधाकरद्युतिम्।
वाससा पिदधतीं हियाकुलां भावये मनसि रामवल्लभाम्॥
‘जो लज्जा से हतप्रभ हुई अपने उस मुख को-जिनके कपोल उनके बिथुरे हुए बालों से उसी प्रकार आवृत हैं, जैसे चन्द्रमा राहु के द्वारा ग्रसे जाने पर अन्धकार से आवृत हो जाता है-वस्त्र से ढक रही हैं, उन राम-पत्नी सीता जी का मैं मन में ध्यान करता हूँ।’
कायवाङ्मनसगं यदि व्यधां स्वप्नजागृतिषु राघवेतरम्।
तद्दहाङ्गमिति पावकं यतीं भावये मनसि रामवल्लभाम्॥
‘जो मन-ही-मन यह कहती हुई कि “यदि मैंने श्रीरघुनाथ के अतिरिक्त किसी और को अपने शरीर, वाणी अथवा मन में कभी स्थान दिया हो तो हे अग्ने! मेरे शरीर को जला दो” अग्नि में प्रवेश कर गयीं, उन राम जी की प्राणप्रिय सीता जी का मैं मन में ध्यान करता हूँ।’
इन्द्ररुद्र-धनदाम्बुपालकै: सद्विमान-गणमास्थितैर्दिवि।
पुष्पवर्ष-मनुसंस्तुताङ्घ्रिकां भावये मनसि रामवल्लभाम्॥
‘उत्तम विमानों में बैठे हुए इन्द्र, रुद्र, कुबेर और वरुण द्वारा पुष्पवृष्टि के अनन्तर जिनके चरणों की भलीभाँति स्तुति की गयी है, उन श्रीराम की प्यारी पत्नी श्रीसीता माता की मैं मन में भावना करता हूँ।’
संचयैर्दिविषदां विमानगैर्विस्मयाकुल-मनोऽभिवीक्षिताम्।
तेजसा पिदधतीं सदा दिशो भावये मनसि रामवल्लभाम्॥
‘(अग्नि-शुद्धि के समय) विमानों में बैठे हुए देवगण विस्मयाविष्ट चित्त से जिनकी ओर देख रहे थे और जो अपने तेज से दसों दिशाओं को आच्छादित कर रही थीं, उन रामवल्लभा श्री सीता माँ की मैं मन में भावना करता हूँ।’
उपर्युक्त स्तोत्र को पढ़कर भगवती सीता एवं अन्य उपास्य देवी-देवताओं की प्रदक्षिणा करके उन्हें प्रणाम करना चाहिये तथा भक्ति प्रदान करने के लिये उनसे प्रार्थना करनी चाहिये। इस प्रकार श्री सीता माता की जयन्ती पर गीत, वाद्य, कीर्तन, नृत्य, आनन्द आदि महामाधुर्यरस भरे भाव से ऐसा महामहोत्सव करे कि उसमें एकाग्रचित्त से तल्लीन हो जाय- महामहोत्सवं दिव्यं महामाधुर्यभूषितम्। (भविष्यपुराण)
वैशाख शुक्ला दशमी के दिन व्रत का पारण करके व्रत की सम्पन्नता करनी चाहिये-
यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्।
इष्ट काम समृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च॥
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वरि॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे॥ ॐ तत्सत् यत्कृतम् सर्वं श्रीसीतारामार्पणमस्तु।
ऐसा कहकर विसर्जन करे। अक्षतपुञ्जों के अक्षतों को पेड़ पौधों की जड़ में डाल दें या दान कर दें। तदुपरान्त प्रसाद का वितरण करना चाहिये। जो श्रद्धालु भक्त इस पुण्य-व्रत के अवसर पर श्रीसीताराम जी की सोने/कांस्य/ताँबे की प्रतिमा अथवा चित्र अथवा श्री सीताराम जी की छवि से अङ्कित-पत्र का दान करता है या भूमिदान, गोदान, अन्नदान आदि करता है, उसे परम पुण्य की प्राप्ति होती है। दशमी के दिन व्रत की पूर्णाहुति करके मण्डप का विसर्जन करना चाहिये। इस प्रकार व्रतोत्सव करने वाले पर भगवती सीता तथा भगवान् श्रीराम सदा प्रसन्न रहते हैं।
चार्वङ्गि ते चरणचारणवन्दिसङ्गं
मह्यं विदेहतनये परिदेहि नान्यम्।
याचे वरं वरविदां वरदे भवत्या
येनामुना तव धवे मम रञ्जना स्यात्॥
(जानकीस्तवराज ५२)
भगवान के सच्चे भक्त को चाहिए कि वह मोक्ष की भी चाह न करे मात्र विशुद्ध भक्ति की कामना करे। श्रीजानकीनवमी पर श्री जानकी जी की पूजा, व्रत, उत्सव, कीर्तन करने से उन परम दयामयी श्री सीताजी की कृपा माँ की भक्ति हमें अवश्य प्राप्त होती है। अस्तु, हमें चाहिये कि हम नियमपूर्वक दृढ़संकल्प होकर श्रीजानकीनवमी-व्रतोत्सव का लाभ लें। श्री सीता माँ की जयन्ती पर श्री सीता-राम जी के चरणारविन्दों में हमारा अनेकों बार प्रणाम है....
बहुत सुन्दर प्रस्तुतिकरण !
जवाब देंहटाएंसत्य अहिंसा दया जो जाने .क्रोध लोलुपता मन से भागे |
धैर्य पन्थ पथ पथिक प्रकाश ,साम वेद का पूर्ण केश जानें |
वेद गीत संगीत छंद जो जाने ,ऋग्वेद ब्रह्म की रीढ़ वे माने |
सत्य अहिंसा दया जो जाने ,ज्ञान सत्य प्रेम भक्ति को माने ||
धन्यवाद सुखमंगल जी.... सुन्दर व प्रेरक पंक्तियाँ साझा की हैं आपने... जय जय श्री सीताराम
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