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नोट - यहाँ प्रकाशित साधनाओं, स्तोत्रात्मक उपासनाओं को नियमित रूप से करने से यदि किसी सज्जन को कोई विशेष लाभ हुआ हो तो कृपया हमें सूचित करने का कष्ट करें।

⭐विशेष⭐


23 अप्रैल - मंगलवार- श्रीहनुमान जयन्ती
10 मई - श्री परशुराम अवतार जयन्ती
10 मई - अक्षय तृतीया,
⭐10 मई -श्री मातंगी महाविद्या जयन्ती
12 मई - श्री रामानुज जयन्ती , श्री सूरदास जयन्ती, श्री आदि शंकराचार्य जयन्ती
15 मई - श्री बगलामुखी महाविद्या जयन्ती
16 मई - भगवती सीता जी की जयन्ती | श्री जानकी नवमी | श्री सीता नवमी
21 मई-श्री नृसिंह अवतार जयन्ती, श्री नृसिंहचतुर्दशी व्रत,
श्री छिन्नमस्ता महाविद्या जयन्ती, श्री शरभ अवतार जयंती। भगवत्प्रेरणा से यह blog 2013 में इसी दिन वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को बना था।
23 मई - श्री कूर्म अवतार जयन्ती
24 मई -देवर्षि नारद जी की जयन्ती

आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष।
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पौष मास का माहात्म्य

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ह मारे सनातन हिंदू धर्मग्रन्थों में प्रत्येक महीने के महत्व को भली प्रकार से दर्शाया गया है। हमारी हिंदू संस्कृति में बारहों मास व्रत-पर्व-त्यौहारों से युक्त हैं। आइये जानते हैं पौष मास के माहात्म्य को। पौष मास में धनु - संक्रान्ति होती है। अत: इस मास में भग वत् पूजन का विशेष महत्त्व है। दक्षिण भारत के मन्दि रों में धनुर्मास का उत्सव मनाया जाता है। मान्यता है कि  पौष कृष्ण अष्टमी को श्रा द्ध करके ब्रा ह्मण भोजन कराने से श्राद्ध का उत्तम फल मिलता है।

स्वप्नों का रहस्य

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भ गवान  की बनाई अनोखी रचना है हमारा शरीर.. शरीर को आराम मिले इसलिए हम मनुष्य  नित्य शयन करते हैं और निद्रा में अक्सर स्वप्न देखा करते हैं.. कभी अच्छे तो कभी बुरे.. कुछ सपने याद रहते हैं तो कुछ याद नहीं रहते.. हमारे हिंदू धर्म की मान्यता है कि कुछ स्वप्न पूर्वाभास के रूप में होने से हमारे जीवन को भी प्रभावित किया करते हैं। हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में ऐसी साधनाओं के वर्णन भी मिलते हैं जिनसे अपना भविष्य या किसी प्रश्न का जवाब प्राप्त कर जिज्ञासा को शांत किया जा सकता है।

भगवान कालभैरव की महिमा [कालभैरवाष्टक]

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भ गवान भैरव  अधर्म मार्ग को अवरुद्ध कर, धर्म-सेतु की प्रतिष्ठापना करते हैं।  देवराज इन्द्र भगवान कालभैरव के पावन चरणकमलों की भक्तिपूर्वक निरन्तर सेवा करते हैं। भगवान भैरव व्यालरूपी विकराल यज्ञसूत्र  धारण करने वाले हैं । शिवपुराण में कहा गया है-  ' भैरवः पूर्णरूपो हि शङ्करस्य परात्मन:। ' (शतरुद्र० ८।२) स्वभक्तों को अभीष्ट सिद्धि प्रदान करने वाले , काल को भी कँपा देने वाले , प्रचण्ड तेजोमूर्ति , अघटितघटन -सुघट-विघटन-पटु , काल भैरवजी भगवान्  शङ्कर के पूर्णावतार हैं , जिनका अवतरण ही पञ्चानन  ब्रह्मा एवं विष्णु के  गर्वापहरण के लिये हुआ था। भैरवी- यातना-चक्र में तपा-तपाकर पापियों के अनन्तानन्त पापों को  नष्ट कर देने की विलक्षण क्षमता इन्हें प्राप्त है।

कमला महाविद्या हैं सिद्धिदात्री-स्वरूपिणी वैष्णवी शक्ति

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श्री की अधिष्ठात्री शक्ति महाविद्या कमला की जयन्ती तिथि दीपावली के दिन ही बतलाई गई है।  श्रीमद्भागवत के आठवें स्कन्ध के आठवें अध्याय में भगवती कमला के उद्भव की विस्तृत कथा आई है। देवताओं एवं असुरों द्वारा अमृत-प्राप्ति के उद्देश्य से किये गये समुद्र-मन्थन के फलस्वरूप इनका प्रादुर्भाव हुआ था । इन्होंने भगवान् विष्णु को पतिरूप में ग्रहण किया था। महाविद्याओं में ये दसवें स्थान पर परिगणित हैं। भगवती कमला वैष्णवी शक्ति हैं तथा भगवान विष्णु की लीला-सहचरी हैं अतः इनकी उपासना जगदाधार-शक्ति की उपासना है। 

दीपावली में भगवती महालक्ष्मी का पूजन विधान

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का र्तिक कृष्ण अमावास्या को दीपावली की अद्भुत वेला में श्रीमहालक्ष्मी एवं भगवान गणेश की नूतन प्रतिमाओं का प्रतिष्ठापूर्वक विशेष पूजन किया जाता है। कुछ भक्तजन इस दिन 'कमला जयंती' पर महालक्ष्मी जी के लिए व्रत भी रखते हैं। महालक्ष्मी पूजन के लिये किसी चौकी अथवा कपड़े के पवित्र आसन पर गणेश जी के दाहिने भाग मेँ माता महालक्ष्मी को स्थापित करना चाहिये। पूजन के दिन घर को स्वच्छ कर पूजन-स्थान को भी पवित्र कर लेना चाहिये एवं स्वयं भी पवित्र होकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सायंकाल इनका पूजन करना चाहिये। मूर्तिमयी श्रीमहालक्ष्मीजी के पास ही किसी पवित्र पात्र मेँ केसरयुक्त चन्दन से अष्टदल कमल बनाकर उस पर द्रव्य-लक्ष्मी (रुपयों) - को भी स्थापित करके एक साथ ही दोनों की पूजा करनी चाहिये। पूजन करने वाले को चाहिये कि वह पूजन के लिये पूजाघर में सामग्री लेकर जल्दी (सायं पांच बजे के आसपास कोई शुभ मुहूर्त हो तो उसी समय) उपस्थित हो क्योंकि लक्ष्मीपूजन आदि के बाद दीपमालिका पूजन करके ही घर के प्रत्येक कोने में दीप सजाने होते हैं, इस दिन शाम को अंधेरा होते ही घर व घर के चारों ओर प्रकाश की सुंदर व्

गोवत्स द्वादशी व्रत का विधान

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का र्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी ' गोवत्सद्वादशी ' के नाम से जानी जाती है। इस व्रत में भक्तिपूर्वक गोमाता का पूजन किया जाता है। इस व्रत में प्रदोषव्यापिनी तिथि ग्रहण की जाती है। यदि प्रदोषव्यापिनी तिथि दोनों दिन हो तो ' वत्सपूजा व्रतश्चैव कर्तव्यौ प्रथमेsहनि ' के अनुसार, 'पूर्वा' को ग्रहण करना चाहिए, यह बहुतों का कहना है किन्तु कोई 'परा'(दूसरी) भी कहते हैं। दोनों दिन प्रदोषव्यापिनी न हो तो 'परा' तिथि लेनी चाहिये। 

रमा एकादशी का माहात्म्य

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ए कादशी २६ प्रकार की बतलाई गई हैं। उन्हीं छब्बीस एकादशियों में से कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का माहात्म्य पद्म पुराण में वर्णित किया गया है। एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा कि हे जनार्दन! मुझ पर आपका स्नेह है; अतः कृपा कर बताइये कि कार्तिक के कृष्ण पक्ष में कौन सी एकादशी होती है? भगवान श्रीकृष्ण बोले कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम 'रमा' है। 'रमा' परम उत्तम और बड़े-बड़े पापों को हरने वाली है ।

एकादशी व्रत का पवित्र विधान

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सं कल्प शब्द ' व्रत ' का ही दूसरा नाम है। मन को उचित दिशा प्रदान करके दृढ़ बनाने के विधि-विधान का शुभ संकल्प ही व्रत है। भारतीय संस्कृति के अंतर्गत हमारे ऋषि-मुनियों ने धार्मिक व्रतों के अनुपालन का आदेश दिया है ताकि मानवमात्र व्रतों के  पालन से अनेक प्रकार के रोगों से मुक्त होकर स्वस्थ जीवन-यापन करते हुए भगवत्प्राप्ति का सहज सुलभ साधन कर सके। सभी व्रतों का विधान अलग होते हुए भी ध्येय सबका समान ही है। मन पर नियन्त्रण और शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य की प्राप्ति व्रत का प्रतिफल है । मन सभी क्रियाक्रलापों का आधार है और संकल्प-विकल्प का उद्गम स्थान भी।

स्त्री के अखण्ड सुहाग का प्रतिमान है 'करवाचौथ'

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भा रतीय हिन्दू स्त्रियों के लिये करवाचौथ का व्रत अखण्ड सुहाग को देने वाला माना जाता है । विवाहित स्त्रियाँ इस दिन अपने पति की दीर्घ आयु एवं स्वास्थ्य की मङ्गल-कामना करके रजनीश अर्थात् चन्द्रमा  को अर्घ्य अर्पित  कर व्रत पूर्ण करती हैं। स्त्रियों में इस दिन के प्रति इतना अधिक श्रद्धाभाव होता है कि वे कई दिन पूर्व से ही इस व्रत की तैयारी प्रारम्भ कर देती हैं। यह व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी को किया जाता है, यदि यह दो दिन चन्द्रोदयव्यापिनी हो या दोनों ही दिन न हो तो पूर्वविद्धा लेनी चाहिये। करकचतुर्थी को ही 'करवाचौथ' भी कहा जाता है ।

चातुर्मास्य व्रत की महिमा

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  स मय-समय पर आते रहने वाले उन अवसरों का लाभ हमें अवश्य उठाना चाहिये जिनका हिन्दू धर्म ग्रन्थों में महत्व बताया गया है। हमारे हिन्दू धर्म ग्रन्थों में चातुर्मास का बहुत महत्व बताया गया है, जिसमें सूर्य के मिथुन राशि में आने पर भगवान् विष्णु जी की प्रतिमा को शयन कराते हैं और चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के पहुँचने पर उनको उठाया जाता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका  है कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी को चातुर्मास के नियमों को ग्रहण करके चातुर्मास्य व्रत का प्रारम्भ किया जाता है । किसी कारणवश एकादशी या द्वादशी को यदि चातुर्मास का नियम पालन संकल्प न हो पाये तो इन नियमों के पालन का संकल्प पूर्णिमा को भी किया जा सकता है। इस तरह चातुर्मास का अनुष्ठान आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी, द्वादशी से द्वादशी तक या आषाढ़ की पूर्णिमा से कार्तिक की पूर्णिमा तक किया जाता है।

छिन्नमस्ता महाविद्या हैं वज्र वैरोचनीया व शिवभाव-प्रदा

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भ गवती आद्याशक्ति से उत्पन्न दस महाविद्याओं में अनेक गूढ़ रहस्य छिपे हुए हैं। इन्हीं में से एक हैं भगवती छिन्नमस्ता, जिनकी जयंती वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को बतलाई गई है। माँ छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यन्त ही गोपनीय है। जिसको कोई अधिकारी साधक ही जान सकता है। परिवर्तनशील जगत् का अधिपति कबन्ध को बतलाया गया है और उसकी शक्ति ही भगवती छिन्नमस्ता कहलाती हैं। विश्व में वृद्धि-ह्रास तो सदैव होता ही रहता है। जब ह्रास  की मात्रा कम और विकास की मात्रा अधिक होती है तब भुवनेश्वरी माँ का प्राकट्य होता है। इसके विपरीत जब निर्गम अधिक और आगम कम होता है तब छिन्नमस्ता माँ का प्राधान्य होता है।

श्रीनृसिंहचतुर्दशीव्रत दिलाता है सनातन मोक्ष

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ज ब स्वयंप्रकाश परमात्मा अपने भक्तों को सुख देने के लिये अवतार ग्रहण करते हैं, तब वह तिथि और मास भी पुण्य के कारण बन जाते हैं। जिनके नाम का उच्चारण करने वाला पुरुष सनातन मोक्ष को प्राप्त होता है, वे परमात्मा कारणों के भी कारण हैं । सम्पूर्ण विश्व के आत्मा, विश्वस्वरूप और सबके प्रभु हैं। वे ही भगवान् भक्त प्रह्लाद का अभीष्ट सिद्ध करने के लिये श्रीनृसिंहावतार के रूप में प्रकट हुए थे और जिस तिथि को भगवान् नरसिंहजी का प्राकट्य हुआ था, वह तिथि वैशाख शुक्ला चतुर्दशी एक महोत्सव बन गयी।

वगलामुखी महाविद्या हैं ब्रह्मास्त्र-स्वरूपिणी और भोग-मोक्ष-दायिनी

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भ गवती वगलामुखी को  वल्गा,  पीताम्बरा या बगला भी कहा जाता है। व्यष्टि रूप में शत्रुओं को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली तथा समष्टि रूप में परमात्मा की संहार शक्ति ही भगवती वगला हैं। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को इनकी जयंती बतलाई गई है। पीताम्बरा विद्या के नाम से विख्यात माँ वगलामुखी की साधना-आराधना प्रायः शत्रुभय से मुक्ति और वाक्-सिद्धि के लिये की जाती है। इनकी उपासना में हरिद्रामाला, पीत-पुष्प एवं पीतवस्त्र प्रयुक्त करने का विधान है। महाविद्याओं में इनका आठवाँ स्थान है। इनके ध्यान में बताया गया है कि ये सुधासमुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मण्डप में रत्नमय सिंहासन पर विराज रही हैं। ये पीतवर्ण के वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले षुष्पों की ही माला धारण करती हैं। इनके एक हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्गर है।

मातंगी महाविद्या देती हैं अभीष्ट फल

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भ गवान शिवजी का नाम मतङ्ग है, इनकी शक्ति भगवती मातंगी हैं। अक्षय तृतीया अर्थात् वैशाख शुक्ल तृतीया को भगवती मातंगी की प्रादुर्भाव या जयन्ती तिथि बतलायी गयी है। मातङ्गी देवी के ध्यान में बताया गया है कि ये श्यामवर्णा हैं और चन्द्रमा को मस्तक पर धारण किये हुए हैं। भगवती मातङ्गी त्रिनेत्रा, रत्नमय सिंहासन पर आसीन, नीलकमल के समान कान्ति वाली तथा राक्षस-समूहरूप अरण्य को भस्म करने में दावानल के समान हैं। इन्होंने अपनी चार भुजाओं में पाश, अङ्कुश, खेटक और खड्ग धारण किया है। ये असुरों को मोहित करने वाली एवं भक्तों को अभीष्ट फल देने वाली हैं। गृहस्थ-जीवन को सुखी बनाने, पुरुषार्थ-सिद्धि और वाग्विलास में पारंगत होने के लिये माता मातङ्गी की आराधना-साधना करना श्रेयस्कर है। महाविद्याओं में ये नवें स्थान पर परिगणित हैं।

अक्षय फलदायिनी-चिरंजीवी तिथि-अक्षयतृतीया

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भा रतवर्ष संस्कृति प्रधान देश है। हिन्दू  संस्कृति में व्रत-त्यौहारों का विशेष महत्त्व है। व्रत और त्योहार नयी प्रेरणा एवं स्फूर्ति का संवहन करते हैं। इससे मानवीय मूल्यों की वृद्धि बनी रहती है और संस्कृति का निरन्तर परिपोषण तथा संरक्षण होता रहता है। भारतीय मनीषियों ने व्रत-पर्वों का आयोजन कर व्यक्ति और समाज को पथभ्रष्ट होने से बचाया है । भारतीय कालगणना के अनुसार, चार स्वयंसिद्ध अभिजित् मुहूर्त हैं- चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ीपड़वा), आखातीज (अक्षय तृतीया) , दशहरा और दीपावली के पूर्व की प्रदोष-तिथि। भारतीय लोक-मानस सदैव से ऋतु-पर्व मनाता रहा है । हर ऋतुके परिवर्तन को मंगलभाव के साथ मनाने के लिये व्रत, पर्व और त्योहारों की एक श्रृंखला लोक जीवन को निरन्तर आबद्ध किये हुए है। इसी श्रृंखला में अक्षयतृतीया का पर्व वसन्त और ग्रीष्म के सन्धिकाल का महोत्सव है।

योग्य अधिकारी को दर्शन देते हैं भगवान परशुराम

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भ गवान् परशुराम स्वयं भगवान् विष्णु के अंशावतार हैं। इनकी गणना दशावतारों में होती है। जब वैशाखमास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र मेँ रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के छ: ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु स्थित था, तब उस योग में माता रेणुका के गर्भ से भगवान् परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ - वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां पुनर्वसौ। निशाया: प्रथमे यामे रामाख्य: समये हरि:॥ स्वोच्चगै: षड्ग्रहैर्युक्ते मिथुने राहुसंस्थिते। रेणुकायास्तु यो गर्भादवतीर्णो विभु: स्वयम्॥

तारा महाविद्या करती हैं भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा

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भ गवती आद्याशक्ति के दशमहाविद्यात्मक दस स्वरूपों में एक स्वरूप भगवती तारा का है।   क्रोधरात्रि में भगवती तारा का प्रादुर्भाव हुआ था । चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को महाविद्या तारा की जयन्ती तिथि बतलाई गई है। महाविद्या काली को ही नीलरूपा होने के कारण तारा भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि ये सर्वदा मोक्ष देने वाली, तारने वाली हैं इसलिये इन्हें तारा कहा जाता है-  तारकत्वात् सदा तारा सुख-मोक्ष-प्रदायि नी।  महाविद्याओं के क्रम में ये द्वितीय स्थान पर परिगणित की जाती हैं।  रात्रिदेवी की स्वरूपा शक्ति  भगवती  तारा दसों  महाविद्याओं में  अद्भुत प्रभाववाली और  सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी  कही गयी हैं। भगवती तारा के तीन रूप हैं-  तारा, एकजटा और नीलसरस्वती।  श्री तारा महाविद्या के  इन   तीनों रूपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं किन्तु भिन्न होते  हुए भी सबकी शक्ति समान और एक ही है।   1. नीलसरस्वती अनायास ही वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिये इन्हें नीलसरस्वती भी कहते हैं ।  जिन्होंने नीलिमा युक्त रूप में प्रकट होकर विद्वान

श्री रामनवमी विशेष-पापनाशक श्री सीता-राम जी की आराधना दिलाती है मुक्ति

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भ गवान श्रीराम की जयंती तिथि श्रीरामनवमी सारे जगत के लिये सौभाग्य का दिन है; क्योंकि अखिल विश्वपति सच्चिदानन्दघन श्रीभगवान् इसी दिन दुर्दान्त रावण के अत्याचार से पीड़ित पृथ्वी को सुखी करने और सनातन धर्म की मर्यादा को स्थापित करने के लिये श्रीरामचन्द्रजी के रूपमें प्रकट हुए थे। श्री राम सबके हैं, सबमें हैं, सबके साथ सदा संयुक्त हैं और सर्वमय हैं। जो कोई भी जीव उनकी आदर्श मर्यादा-लीला-उनके पुण्यचरित्र का श्रद्धापूर्वक गान, श्रवण और अनुकरण करता है, वह पवित्रहृदय होकर परम सुख को प्राप्त कर सकता है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को ' श्रीरामनवमी ' का व्रत होता है।

हिंदू नवसंवत्सर मंगलमय हो (2081 - कालयुक्त)

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हि न्दू धर्मग्रन्थों में साठ प्रकार के संवत्सरों का वर्णन मिलता है। चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि से नये संवत्सर का आरम्भ होता है, यह अत्यन्त पवित्र तिथि है । इसी तिथि से पितामह ब्रह्माजी ने सृष्टिनिर्माण प्रारम्भ किया था- 'चैत्रे मासि जगत् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेsहनि। शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति।।' नूतन संवत्सर की इस प्रथम तिथि को रेवती नक्षत्र में, विष्कुम्भ योग में दिन के समय भगवान् के आदि अवतार मत्स्यरूप का प्रादुर्भाव भी माना जाता है- कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुक्लपक्षगा । रेवत्यां योगविष्कुम्भे दिवा द्वादशनाडिका: ।। मत्स्यरूपकुमार्या च अवतीर्णो हरि: स्वयम् ।  (स्मृतिकौस्तुभ)

आनन्दोल्लास के पर्व होलिकोत्सव का महत्व

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व सन्त पञ्चमी के आते ही प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन आने लगता है। दिन छोटे हो जाते हैं। जाड़ा कम होने लगता है। उधर पतझड़ शुरू हो जाता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का डंडा रोप दिया जाता है [होलाष्टक प्रारम्भ होने पर भी शाखा रोपी जाती है]। होली के पर्व के स्वागत हेतु आम्रमञ्जरियों पर भ्रमरावलियां मँडराने लगती हैं। वृक्षों में कहीं-कहीं नवीन पत्तों के दर्शन होने लगते हैं। प्रकृति में एक नयी मादकता का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार होली पर्व के आते ही एक नवीन रौनक, नवीन उत्साह एवं उमंग की लहर दिखाई देने लगती  है। होली जहाँ एक ओर एक सामाजिक एवं धार्मिक त्यौहार है, वहीं यह रंगों का त्यौहार भी है। बालक,वृद्ध, नर-नारी-सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते  हैं। इस देशव्यापी त्योहार में वर्ण अथवा जाति भेद का कोई स्थान नहीं।

महाशिवरात्रि व्रत की महिमा व पूजा विधि

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ह मारे हिन्दू धर्म में व्रतों का बड़ा ही महत्व बतलाया गया है। इनमें से भी सभी के द्वारा करने योग्य ' पञ्चमहाव्रत ' बतलाये गए हैं। इन पाँच व्रतों में से एक व्रत है- महाशिवरात्रि । महाशिवरात्रि का अर्थ उस रात्रि से है जिसका शिवतत्त्व के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। भगवान् शिवजी की अतिप्रिय रात्रि को ' शिवरात्रि ' कहा गया है। रुद्राभिषेक-शिवार्चन और रात्रि-जागरण ही इस व्रत की प्रमुख विशेषता है।  यूं तो प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है परन्तु फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी महाशिवरात्रि कहलाती है।

भीष्माष्टमी पर करें भीष्म-तर्पण

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मा घ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी 'भीष्माष्टमी' के नाम से प्रसिद्ध है। महाभारत में वर्णन है कि भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान था।  माघ शुक्लाष्टमी तिथि को बाल ब्रह्मचारी भीष्मपितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने प्राण छोड़े थे। उनकी पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है । इस दिन प्रत्येक हिन्दू को भीष्मपितामह के निमित्त कुश, तिल, जल लेकर तर्पण करना चाहिए, चाहे उसके माता-पिता जीवित ही क्यों न हों। इस व्रत के करने से मनुष्य सुन्दर और गुणवान् संतति प्राप्त करता है- माघे मासि सिताष्टम्यां सतिलं भीष्मतर्पणम् । श्राद्धं च ये नराः कुर्युस्ते स्युः सन्ततिभागिनः ॥

सारस्वतोत्सव पर जानिये सरस्वती जी की महिमा

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भ गवती शारदा विद्या, बुद्धि, ज्ञान एवं वाणी की अधिष्ठात्री तथा सर्वदा शास्त्र-ज्ञान देने वाली देवी हैं। हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में इन्हीं माँ वागीश्वरी की जयंती वसन्त पञ्चमी के दिन बतलाई गई है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी को मनाया जाने वाला यह सारस्वतोत्सव या सरस्वती-पूजन अनुपम महत्त्व रखता है। सरस्वती माँ का मूलस्थान शशाङ्क-सदन अर्थात् अमृतमय प्रकाश-पुञ्ज है। जहां से वे अपने उपासकों के लिये निरंतर पचास अक्षरों के रूप में ज्ञानामृत की धारा प्रवाहित करती हैं। शुद्ध ज्ञानमय व आनन्दमय विग्रह वाली माँ वागीश्वरी का तेज दिव्य व अपरिमेय है और इनकी ही शब्दब्रह्म के रूप में स्तुति की जाती हैं। सृष्टिकाल में ईश्वर की इच्छा से आद्याशक्ति ने स्वयं को पाँच भागों में विभक्त किया था। वे राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा एवं सरस्वती के रूप में भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न अंगों से उत्पन्न हुईं थीं। उस समय श्रीकृष्ण के  कण्ठ से उत्पन्न होने वाली देवी का नाम सरस्वती हुआ। ये नीलसरस्वती-रूपिणी देवी ही तारा महाविद्या हैं।

शाकंभरी भगवती हैं करुणहृदया व कृपाकारिणी (श्री शाकम्भरी साधना)

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भ गवती शाकंभरी को शताक्षी देवी के नाम से भी जाना जाता है। पौष मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को इन्हीं शाकम्भरी माँ की जयन्ती मनाई जाती है । देवी भागवत में वर्णन है कि राजा जनमेजय के पूछने पर व्यास जी ने देवी शताक्षी के प्रकट होने की कथा सुनायी थी। शाकम्भरी  माता के स्मरण मात्र से ही  दुखों से छुटकारा मिलकर  सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है ।देवी भागवत के अनुसार भुवनेश्वरी महाविद्या ही भगवती शाकम्भरी के रूप में प्रादुर्भूत हुईं थीं । कथा इस प्रकार है कि प्राचीन समय में हिरण्याक्ष वंशीय दुर्गम नामक दैत्य ने वेदों को नष्ट करने के उद्देश्य से हिमालय पर तप किया सोचा कि वेद न रहेंगे तो देवता भी न रहेंगे। जब एक हजार वर्ष बाद ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा तो दुर्गमासुर बोला- " सुरेश्वर! सब वेद मेरे पास आ जायें। मुझे वह बल दीजिये जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ। " ब्रह्माजी " ऐसा ही हो । " कहकर सत्यलोक चले गये। तब से ब्राह्मणों को वेद विस्मृत हो गये। इससे स्नान, संध्या, नित्य-होम-यज्ञ, श्राद्ध, जप आदि वैदिक क्रियायें नष्ट हो गईं। सारे भूमण्डल

पवित्र माघ मास का माहात्म्य

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भा रतीय संवत्सर का ग्यारहवाँ चान्द्रमास और दसवाँ सौरमास 'माघ' कहलाता है।  इस महीने में मघा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने से इसका नाम माघ पड़ा। हिन्दू  धर्म के दृष्टिकोण से इस माघ मास का बहुत अधिक महत्व है। मान्यता है कि इस मास में शीतल जल में डुबकी लगाने-नहाने वाले मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्गलोक जाते हैं- माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥       माघ में प्रयाग  में स्नान, दान, भगवान् विष्णु के पूजन और हरिकीर्तन के महत्त्व का वर्णन तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में भी किया है- माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥ देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥ पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥

मकर-संक्रान्ति का महापर्व [श्री सूर्य स्तोत्राणि]

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सू र्य ही पञ्चदेवों में एकमात्र ऐसे देव हैं जिनके दर्शन सर्वसुलभ और नित्य ही हुआ करते हैं । हनुमान जी इनके शिष्य तथा यमराज-शनिदेव इन्हीं के पुत्र हैं ।  जगत्  की समस्त घटनाएँ तो सूर्यदेव की ही लीला-विलास हैं। भगवान् सूर्य अपनी कर्म-सृष्टि-रचनाकाल की लीला से श्रीब्रह्मा-रूप में प्रात:काल में जगत् को प्रकाशित कर संजीवनी प्रदान कर प्रफुल्लित करते हैं। मध्याह्नकाल में ये आदित्य भगवान अपनी ही प्रचण्ड रश्मियों के द्वारा श्रीविष्णुरूप से सम्पूर्ण दैनिक कर्म-सृष्टि का आवश्यकतानुसार यथासमय पालन-पोषण करते हैं, ठीक इसी प्रकार भगवान् आदित्य सायाह्नकाल में अपनी रश्मियों के द्वारा श्रीमहेश्वररूप से सृष्टि के दैनिक विकारों को शोषित कर कर्म-जगत् को हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ और निरोग बनाते हैं ।

अनूठे सिद्धयोगी श्री तैलंगस्वामी जी के संस्मरण

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ब हुत वर्ष पूर्व आंध्रप्रदेश के विशाखापत्तनम जिले के होलिया गाँव में एक उदार व प्रजावत्सल जमींदार हुए जिनका नाम था- श्रीनृसिंहधर । ये कट्टर ब्राह्मण थे - तीनों समय संध्या किया करते थे। इनकी पत्नी श्रीमती विद्यावती इनसे बढ़कर धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। गृह-देवता शंकर की पूजा में अधिक समय व्यतीत करती थीं और अधिक व्रत-उपवास किया करती थीं। अपनी मनोकामना व्रत-उपवास-पूजा से पूरी न होती समझकर एक दिन उन्होंने आपने पति से कहा- “ शायद मेरे भाग्य में संतान सुख नहीं , मेरा अनुरोध है कि आप ‘ धर-वंश ’ की रक्षा के लिये एक विवाह और कर लें। ”