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र्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी 'गोवत्सद्वादशी' के नाम से जानी जाती है। इस व्रत में भक्तिपूर्वक गोमाता का पूजन किया जाता है। इस व्रत में प्रदोषव्यापिनी तिथि ग्रहण की जाती है। यदि प्रदोषव्यापिनी तिथि दोनों दिन हो तो 'वत्सपूजा व्रतश्चैव कर्तव्यौ प्रथमेsहनि' के अनुसार, 'पूर्वा' को ग्रहण करना चाहिए, यह बहुतों का कहना है किन्तु कोई 'परा'(दूसरी) भी कहते हैं। दोनों दिन प्रदोषव्यापिनी न हो तो 'परा' तिथि लेनी चाहिये।
इस व्रत में दूध देने वाली और बछड़े के समान वर्ण वाली गाय का बछड़े सहित इस मन्त्र से गंध-पुष्पादि द्वारा पूजन करे-
माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट नमो नम: स्वाहा॥
(ऋग्वेद ८ । १०१ । १५)
(ऋग्वेद ८ । १०१ । १५)
पूजन करने के पश्चात गाय के पैरों में पुष्पाक्षत-तिल व जल युक्त ताँबे के पात्र से अग्रलिखित मन्त्र द्वारा अर्घ्य देते हैं-
क्षीरोदार्णवसंभूते सुरासुरनमस्कृते।
सर्वदेवमये मातर्गृहाणार्घ्य नमोस्तुते॥
इस मन्त्र का यह आशय है- 'क्षीर समुद्र से उत्पन्न देवता और दैत्य से नमस्कृत सर्वदेवमयी गोमाता आपको नमस्कार है। हमारे अर्घ्य को आप ग्रहण करें।'
इस प्रकार पूजन कर गौ को ग्रास के लिए उड़द के बड़े आदि देकर निम्न मन्त्र से गौ माता से प्रार्थना करे-
सर्वदेवमये देवि सर्वदेवैरलंकृते।
मातर्ममाभिलषितं सफलं कुरु नन्दिनी॥
अर्थात् 'सर्वदेवमयी हे देवि! सब देवताओं से अलंकृत माता हे नन्दिनि! मेरे सभी मनोरथ सफल करो।'
इस दिन तेल में पका, बटलोही का पकाया हुआ, गाय का दूध, घी, दही और मट्ठा का वर्जन करे। साथ ही रात को उड़द का भोजन, जमीन पर सोना व ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
मान्यता है कि इस व्रत के प्रभाव से व्रती सभी सुखों को भोगते हुए अन्त में गौ के शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षों तक गोलोक में वास करता है।
कथा
सत्ययुग की बात है, महर्षि भृगु के आश्रम-मण्डल में भगवान् शंकर के दर्शन की अभिलाषा से करोड़ों मुनिगण तपस्या कर रहे थे। एक दिन उन तपस्यारत मुनियों को दर्शन देने के लिये भगवान शंकर एक बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर हाथ में डंडा लिये काँपते हुए उस आश्रम मेँ आये। उनके साथ सवत्सा गौ के रूप में जगन्माता पार्वती जी भी थीं। वत्स अर्थात बछड़े के रूप में कार्तिकेय जी थे। वृद्ध ब्राह्मण बने भगवान शंकर महर्षि भृगु के पास जाकर बोले- हे मुने! मैं यहाँ स्नान कर जम्बूक्षेत्र में जाऊँगा और दो दिन बाद लौटूँगा, तब तक आप इस गाय की रक्षा करें।
मुनियों के द्वारा उस गौ की सभी प्रकार से रक्षा करने की प्रतिज्ञा करने पर भगवान् शंकर अन्तर्हित हो गये और फिर थोड़ी देर बाद एक व्याघ्र के रूप में प्रकट होकर बछड़े सहित गौ को डराने लगे। ऋषिगण भी व्याघ्र के भय से आक्रान्त हो आर्तनाद करते हुए यथासम्भव उसे हटाने का प्रयास कर रहे थे। उधर गाय भी रँभा रही थी। शीघ्र ही उन मुनियों को निदान भी मिल गया। उन शान्तचित्त मुनियों ने क्रुद्ध हो ब्रह्माजी से प्राप्त और भयंकर शब्द करने वाले घंटे को बजाना प्रारम्भ किया। उस शब्द से व्याघ्र तो भागकर अदृश्य हो गया तथा उसके स्थान पर भगवान् शंकर प्रकट हो गये, भगवती उमा जगज्जननी पार्वती भी गोरूप त्यागकर वत्सरूपी कार्तिकेय तथा अन्य गणों के साथ भगवान् भोलेनाथ के वामभाग में विराजित हो गयीं। ब्रह्मवादी ऋषियों ने उनका पूजन किया। उस दिन कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की द्वादशी थी, इसीलिये यह व्रत 'गोवत्स द्वादशी' रूप में प्रारम्भ हुआ।
एक अन्य कथा के अनुसार राजा उत्तानपाद ने पृथ्वी पर इस व्रत को प्रचारित किया। उनकी रानी सुनीति इस व्रत को किया करती थीं, जिसके प्रभाव से उन्हें ध्रुव-जैसा पुत्र प्राप्त हुआ।
आज भी माताएँ पुत्ररक्षा और संतान-सुख के लिये इस व्रत को करती हैं। इसी द्वादशी से आरम्भ करके पाँच दिनों में पूर्वरात्रि(संध्या के पश्चात) में नीराजनविधि नारद जी ने कही है। इसके अंतर्गत मातृ-प्रमुख स्त्रियों को देवता, ब्राह्मण, गाय, घोड़े, ज्येष्ठ, छोटे और श्रेष्ठ - इनका नीराजन(आरती) करना चाहिए। गोवत्स द्वादशी पर उमा-महेश्वर एवं गोमाता को हमारा बारम्बार प्रणाम...
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