सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

आनन्दोल्लास के पर्व होलिकोत्सव का महत्व

सन्त पञ्चमी के आते ही प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन आने लगता है। दिन छोटे हो जाते हैं। जाड़ा कम होने लगता है। उधर पतझड़ शुरू हो जाता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का डंडा रोप दिया जाता है [होलाष्टक प्रारम्भ होने पर भी शाखा रोपी जाती है]। होली के पर्व के स्वागत हेतु आम्रमञ्जरियों पर भ्रमरावलियां मँडराने लगती हैं। वृक्षों में कहीं-कहीं नवीन पत्तों के दर्शन होने लगते हैं। प्रकृति में एक नयी मादकता का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार होली पर्व के आते ही एक नवीन रौनक, नवीन उत्साह एवं उमंग की लहर दिखाई देने लगती  है। होली जहाँ एक ओर एक सामाजिक एवं धार्मिक त्यौहार है, वहीं यह रंगों का त्यौहार भी है। बालक,वृद्ध, नर-नारी-सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते  हैं। इस देशव्यापी त्योहार में वर्ण अथवा जाति भेद का कोई स्थान नहीं।

इसमें जहाँ एक ओर उत्साह-उमङ्ग की लहरें हैं, तो वहीं दूसरी ओर कुछ बुराइयाँ भी आ गयी हैं । कुछ लोग इस अवसर पर अबीर, गुलाल के स्थान पर कीचड़, मिट्टी, कष्ट से छूटने वाले-त्वचा पर दुष्प्रभाव छोड़ने वाले रसायन-काँच मिले हुए रंग प्रयोग कर देते हैं; शराब आदि पीकर फूहड़पना कर अपशब्द बोलते हैं। जिससे मित्रता के स्थान पर शत्रुता का जन्म होता है। अश्लील व गंदे हँसी-मजाक सबके हृदय को चोट पहुंचाते हैं। अतः इन सबका त्याग करना चाहिए।

     भविष्यपुराण के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन सब लोगों को अभयदान देना चाहिये, जिससे सम्पूर्ण प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे। बालक गाँव के बाहर से लकडी-कंडे लाकर ढेर लगायें। उसमें होलिका का पूर्ण सामग्री सहित विधिवत् पूजन करें। फिर उसमें आग लगाकर होलिका-दहन करें। पूजा के समय यह मंत्र पढ़ा जाता है-

असृक्याभय-संत्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै:।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूति-प्रदा भव॥

मान्यता है कि ऐसा करने से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं ।

हिरण्यकशिपु की होलिका नामक बहन वरदान के प्रभाव से अग्नि-स्नान करने पर भी जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि-स्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद तो जल जाएगा पर होलिका बच निकलेगी। हिरण्यकशिपु की बहन ने प्रह्लाद को लेकर अग्निस्नान किया जिसमें होलिका तो जल गयी पर प्रह्लाद सुरक्षित बच गए

     इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञपर्व भी कहा जाता है। खेत से नवीन अन्न लाकर उसका यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परंपरा भी है। उस अन्न को होला कहते हैं। इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। कर्म- मीमांसा एवं पुराणों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि होलिका - महोत्सव का आरम्भिक नाम 'होलाका' था। महर्षि जैमिनि कृत 'कर्म-मीमांसा-शास्त्र' में 'होलाकाधिकरण' नामक स्वतंत्र कर्मकाण्ड का वर्णन है। होलिका-पूर्णिमा को 'हुताशनी' कहा गया है । 'लिङ्ग - पुराण' में फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा गया है और इसे बाल - क्रीड़ाओं से पूर्ण एवं लोगों को ऐश्वर्य देनेवाली बताया गया है। होलिकोत्सव मनाने के सम्बन्थ में अनेक मत प्रचलित हैं। यहाँ कुछ प्रमुख मतों का उल्लेख किया गया है-

( १ ) ऐसी मान्यता है कि इस पर्व का सम्बन्ध 'काम-दहन' से है। हमारे हिन्दू धर्म की मान्यता है कि इसी दिन भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था। तभी से इस त्यौहार का प्रचलन हुआ।

हमारे हिन्दू धर्म की मान्यता है कि इसी दिन भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था।  होली सम्मिलन, मित्रता एवं एकता का पर्व है। इस दिन द्वेषभाव भूलकर सबसे प्रेम और भाईचारे से मिलना चाहिये। एकता, सद्भावना एवं सोल्लास का परिचय देना चाहिये। यही इस पर्व का मूल उदेश्य एवं संदेश है।

( २ ) फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है। भारत के कई प्रदेशों में होलाष्टक शुरू होने पर पेड़ की शाखा काटकर उसमें रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़े बांधते हैं। इस शाखा को जमीन पर गाड़ देते हैं। सभी लोग इसके नीचे होलिकोत्सव मनाते हैं।

( ३ ) यह त्यौहार हिरण्यकशिपु की बहन की स्मृति में भी मनाया जाता है। कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु की होलिका नामक बहन वरदान के प्रभाव से अग्नि-स्नान करने पर भी जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि-स्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद तो जल जाएगा पर होलिका बच निकलेगी। हिरण्यकशिपु की बहन ने प्रह्लाद को लेकर अग्निस्नान किया जिसमें होलिका तो जल गयी किन्तु प्रह्लाद श्रीहरि की कृपा से जीवित बच गये। तभी से इस त्यौहार को मनाने की प्रथा चल पड़ी।

( ४ ) इस दिन आम्रमञ्जरी व चन्दन को मिलाकर खाने का भी बड़ा माहात्म्य है। कहते हैं जो लोग फाल्गुन पूर्णिमा के दिन एकाग्र चित्त से हिंडोले में झूलते हुए श्रीगोविन्द पुरुषोत्तम के दर्श करते हैं, वे निश्चय ही वैकुण्ठलोक में वास करते हैं।

जो लोग फाल्गुन पूर्णिमा के दिन एकाग्र चित्त से हिंडोले में झूलते हुए श्रीगोविन्द पुरुषोत्तम के दर्शन करते हैं, वे निश्चय ही वैकुण्ठलोक में वास करते हैं।

( ५ ) भविष्योत्तर पुराण में इस उत्सव के सम्बन्ध में यह कथा दी गई है-

कथा
महाराज युधिष्ठिर ने जब भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गांव एवं नगर में उत्सव क्यों होता है? प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ा-मय हो जाते हैं और 'होलाका' जलाते हैं? 'होलाका' में किस देवता की पूजा होती है? किसने इस उत्सव का प्रचार किया? इसमें क्या-क्या कर्मानुष्ठान होते हैं? तब भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु की एक कथा कही। 
     राजा रघु के पास जाकर लोग यह कहने लगे कि 'ढुण्ढा' नामक एक राक्षसी बच्चों को दिन - रात डराया करती है और बच्चे उसके उत्पीड़न से सूख जाते हैं। राजा द्वारा पूछने पर उनके पुरोहित ने बताया कि वह मालिन की पुत्री एक राक्षसी है। उसे भगवान शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि मार नहीं सकते और न ही वह अस्त्र-शस्त्र या जाड़ा, गर्मी या वर्षा से मर सकती है केवल क्रीड़ा-युक्त बच्चों से वह भयभीत हो सकती है । पुरोहित ने यह भी बताया कि 'फाल्गुन की पूर्णिमा' को शीतऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग समुदायों में एकत्रित होकर हँसें एवं आनन्द मनाएँ। बच्चे लकडियों के टुकडे, घास आदि एकत्रित करें तथा बड़े लोग  रक्षोघ्न-मन्त्रों के उच्चारण सहित उसमें आग लगाएं । प्रज्वलित अग्नि-देव का सभी लोग तालियाँ बजाकर स्वागत कर प्रदक्षिणा करें, हँसें और अपनी-अपनी भाषा में सर्वथा मुक्त होकर उच्च-स्वर से गायन, अट्टहास, क्रीड़ा करें। इस प्रकार के 'होलिका' अर्थात्  'सर्व दुष्टापह होम' से वह 'ढुण्ढा' राक्षसी भयभीत होकर मर जाएगी । 
    जब चक्रवर्ती राजा ने 'सर्व दुष्टापह होम' का विधिवत अनुष्ठान किया तो "ढुण्ढा" राक्षसी मर गई और वह दिन "होलाका ज्वलन" या होलिका दहन नाम से प्रसिद्ध हो गया । दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिका - भस्म को प्रणाम करना चाहिए। इस होम से सम्पूर्ण समुदाय रोगमुक्त होकर आनन्द से रहता है


     पुराणों में 'ढुण्ढा' राक्षसी के अन्य नाम भी मिलते है । यथा- शीतोष्णा, असृक्या, सन्धिजा, अरुकूण्ठा, होलाका/होलिका आदि। इन नामों के अर्थों का विवेचन करने पर तथा पौराणिक कथानकों के मन्तव्यों पर ध्यान देने से 'ढुण्ढा' राक्षसी के तात्विक स्वरूप का बोध होता है । 'ढुण्ढा' शब्द, ठुण्ठ या 'ठूँठ' शब्द का अपभ्रंश है । जिस प्रकार कोई वृक्ष मधुरसात्मक प्राण-रस से वंचित होकर शुष्क हो केवल 'ठूँठ' जैसा ही रह जाता है, ठीक उसी प्रकार 'ढुण्ढा' राक्षसी के प्रकोप से बालकों का शरीर सूख कर केवल 'ठूंठ' जैसा रह जाता है

इस दिन आम्रमञ्जरी व चन्दन को मिलाकर खाने का भी बड़ा माहात्म्य है।  इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञपर्व भी कहा जाता है । खेत से नवीन अन्न लाकर उसका यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परंपरा भी है। उस अन्न को होला कहते हैं। इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।

     दूसरे शब्दों में शिशिर और वसन्त की सन्धि - रूपा ऋतु एक ओर स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से सौम्य बालकों के लिए पीड़ादायक होती है, तो दूसरी ओर सम्वत्सराग्नि के क्षीण होने के कारण सम्पूर्ण समुदाय को काम-मोह-अज्ञान रूपी जड़ता से आबद्ध कर देती है। इससे बचने के लिए ही हमारे ऋषियों ने रंग-वर्षण और राग-रागिनी-मय होली गायन के पावन उत्सव के रूप में सर्व-दुष्टापह अग्नि प्रज्ज्वलन का विधान हमें दिया है। आवश्यकता है कि आज हम उक्त  मन्तव्यों को पुन: समझकर पूर्णतः निरोग बनते हुए नवीन संवत्सराग्नि को धारण करें

होलिका-पूर्णिमा को 'हुताशनी' कहा गया है । 'लिङ्ग - पुराण' में फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा गया है और इसे बाल - क्रीड़ाओं से पूर्ण एवं लोगों को ऐश्वर्य देनेवाली बताया गया है।

     होली आनन्दोल्लास का पर्व है । लेकिन इसमें जहाँ एक ओर उत्साह-उमङ्ग की लहरें हैं, तो वहीं दूसरी ओर कुछ बुराइयाँ भी आ गयी हैं । कुछ लोग इस अवसर पर अबीर, गुलाल के स्थान पर कीचड़, मिट्टी, कष्ट से छूटने वाले-त्वचा पर दुष्प्रभाव छोड़ने वाले रसायन-काँच मिले हुए रंग प्रयोग कर देते हैं; शराब आदि पीकर फूहड़पना कर अपशब्द बोलते हैं। जिससे मित्रता के स्थान पर शत्रुता का जन्म होता है। अश्लील व गंदे हँसी-मजाक सबके हृदय को चोट पहुंचाते हैं। अतः इन सबका त्याग करना चाहिए। होली नामक प्रेम का संदेश देने वाला यह पर्व एक वैदिक सोमयज्ञ है। होलिकोत्सव में वैरभाव का दहन करके प्रेमभाव का प्रसार किया जाता है। होली प्रेम, सम्मिलन, मित्रता एवं एकता का पर्व है। इस दिन द्वेषभाव भूलकर सबसे प्रेम और भाईचारे से मिलना चाहिये। एकता, सद्भावना एवं सोल्लास का परिचय देना चाहिये। यही इस पर्व का मूल उदेश्य एवं संदेश है। आप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनायें तथा भगवान को हमारा बारंबार प्रणाम....


टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही बेहतरीन और लाभप्रद जानकारी। आपकी हिंदू धर्म के प्रति अपार आस्था और सहयोग के लिए दिल से धन्यवाद और साधुवाद। प्रणाम

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

कृपया टिप्पणी करने के बाद कुछ समय प्रतीक्षा करें प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है। अंतर्जाल (इन्टरनेट) पर उपलब्ध संस्कृत में लिखी गयी अधिकतर सामग्री शुद्ध नहीं मिलती क्योंकि लिखने में उचित ध्यान नहीं दिया जाता यदि दिया जाता हो तो भी टाइपिंग में त्रुटि या फोंट्स की कमी रह ही जाती है। संस्कृत में गलत पाठ होने से अर्थ भी विपरीत हो जाता है। अतः पूरा प्रयास किया गया है कि पोस्ट सहित संस्कृत में दिये गए स्तोत्रादि शुद्ध रूप में लिखे जायें ताकि इनके पाठ से लाभ हो। इसके लिए बार-बार पढ़कर, पूरा समय देकर स्तोत्रादि की माननीय पुस्तकों द्वारा पूर्णतः शुद्ध रूप में लिखा गया है; यदि फिर भी कोई त्रुटि मिले तो सुधार हेतु टिप्पणी के माध्यम से अवश्य अवगत कराएं। इस पर आपकी प्रतिक्रिया व सुझाव अपेक्षित हैं, पर ऐसी टिप्पणियों को ही प्रकाशित किया जा सकेगा जो शालीन हों व अभद्र न हों।

इस महीने सर्वाधिक पढ़े गए लेख-

हाल ही की प्रतिक्रियाएं-