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घ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी 'भीष्माष्टमी' के नाम से प्रसिद्ध है। महाभारत में वर्णन है कि भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान था। माघ शुक्लाष्टमी तिथि को बाल ब्रह्मचारी भीष्मपितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने प्राण छोड़े थे। उनकी पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है। इस दिन प्रत्येक हिन्दू को भीष्मपितामह के निमित्त कुश, तिल, जल लेकर तर्पण करना चाहिए, चाहे उसके माता-पिता जीवित ही क्यों न हों। इस व्रत के करने से मनुष्य सुन्दर और गुणवान् संतति प्राप्त करता है-
माघे मासि सिताष्टम्यां सतिलं भीष्मतर्पणम् ।
श्राद्धं च ये नराः कुर्युस्ते स्युः सन्ततिभागिनः ॥
महाभारत के अनुसार जो मनुष्य माघ शुक्ला अष्टमी को भीष्म के निमित्त तर्पण, जलदान आदि करता है, उसके वर्षभर के पाप नष्ट हो जाते हैं-
शुक्लाष्टम्यां तु माघस्य दद्याद् भीष्माय यो जलम् ।
संवत्सरकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥
व्रत-विधि
इस दिन प्रातः नित्यकर्म से निवृत्त होकर यदि संभव हो तो किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर स्नान करें। अन्यथा घर पर ही विधिपूर्वक स्नान कर भीष्मपितामह के निमित्त हाथ में तिल, जल आदि लेकर अपसव्य [दाहिने कंधे पर जनेऊ करें। यज्ञोपवीत न हो तो उत्तरीय अर्थात् गमछे को दाहिने रखने का विधान है।] और दक्षिणाभिमुख होकर निम्न मंत्रों से तर्पण करें-
वैयाघ्रपदगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च ।
गङ्गापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे ॥
भीष्मः शान्तनवो वीरः सत्यवादी जितेन्द्रियः ।
आभिरद्भिरवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम् ॥
यह तर्पण दाहिने हाथ पर बने पितृतीर्थ द्वारा अंजलि देकर करें अर्थात् उपरोक्त मंत्रों को पढ़ते हुए तिल-कुश युक्त जल को तर्जनी और अंगूठे के मध्य भाग से होते हुए पात्र पर छोड़ें।
इसके बाद पुनः सव्य[वापस पहले की तरह बायें कंधे पर जनेऊ कर लें।] होकर निम्न मंत्र से गङ्गापुत्र भीष्म को अर्घ्य देना चाहिये-
वसूनामवताराय शान्तनोरात्मजाय च ।
अर्घ्यं ददामि भीष्माय आबालब्रह्मचारिणे ॥
इसके बाद तर्पण और अर्घ्य वाले इस जल को किसी पवित्र वृक्ष की जड़ पर डाल दें।
इसके बाद तर्पण और अर्घ्य वाले इस जल को किसी पवित्र वृक्ष की जड़ पर डाल दें।
कथा
भीष्म पितामह हस्तिनापुर के राजा शान्तनु के पुत्र थे। देवनदी भागीरथी श्रीगङ्गा जी इनकी माता थीं। इनका बचपन का नाम देवव्रत था। इन्होंने देवगुरु वृहस्पति से शास्त्र तथा परशुराम जी से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी। इनके समकालीन शस्त्र-शास्त्र का इनके जैसा कोई ज्ञाता नहीं था। वीर होने के साथ ही ये सदाचारी और धार्मिक थे। सब प्रकार से योग्य देखकर महाराज शान्तनु ने इन्हें युवराज घोषित कर दिया था।
एक बार महाराज शान्तनु शिकार खेलने गए थे। वहाँ मत्स्यगन्धा नामक एक निषादकन्या उन्हें दिखी जो पाराशर ऋषि के वरदान से अपूर्व लावण्यवती हो गयी थी। उसके शरीर से एक योजन दूर तक कमल की सुगंध निःसृत हो रही थी। महाराज शान्तनु उसके रूपलावण्य पर मुग्ध हो गये। उन्होंने उसके पिता निषादराज से उस कन्या से विवाह के लिये याचना की। निषादराज ने शर्त रखी कि इस कन्या से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का अधिकारी हो।
राजा उदास हो गये, वे राजकुमार देवव्रत के अधिकार को छीना जाना अनुचित मानते थे, पर मत्स्यगन्धा को वे अपने हृदय से निकाल न सके और बीमार से रहने लगे। राजकुमार देवव्रत को जब राजा की बीमारी और कारण का पता लगा तो वे निषादराज के पास गये और निषादराज से कन्या को अपने पिता के लिये माँगा। निषादराज ने अपनी शर्त राजकुमार देवव्रत के सामने भी रख दी। इस पर देवव्रत ने कहा कि इस कन्या से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का अधिकारी बनेगा, मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि मैं राजसिंहासन पर नहीं बैठूँगा। इस पर निषादराज ने कहा कि आप राज्य सिंहासन पर नहीं बैठेंगे, परंतु आपका पुत्र तो मेरे दौहित्रों से सिंहासन छीन सकता है! ऐसा सुनकर राजकुमार देवव्रत ने सभी दिशाओं व देवों को साक्षी मानकर आजीवन ब्रह्मचारी रहने व विवाह न करने की भीषण प्रतिज्ञा की। इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम 'भीष्म' पड़ा।
अपने पिता के सुख के लिये इतने बड़े व्रत को निभाने वाले आजीवन बालब्रह्मचारी भीष्म का चरित्र हम सबके लिये अनुकरणीय है। उनकी पुत्रहीन अवस्था में मृत्यु हुई, परंतु इनके अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत के कारण सम्पूर्ण हिन्दू समाज पुत्र की भांति इनका तर्पण करता है। 'भीष्मं तर्पयामि' कहते हुए पतितपावनी गङ्गा माता के पुत्र भीष्म को भीष्माष्टमी पर हमारा प्रणाम...
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