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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

सारस्वतोत्सव पर जानिये सरस्वती जी की महिमा

गवती शारदा विद्या, बुद्धि, ज्ञान एवं वाणी की अधिष्ठात्री तथा सर्वदा शास्त्र-ज्ञान देने वाली देवी हैं। हमारे हिन्दू धर्मग्रन्थों में इन्हीं माँ वागीश्वरी की जयंती वसन्त पञ्चमी के दिन बतलाई गई है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी को मनाया जाने वाला यह सारस्वतोत्सव या सरस्वती-पूजन अनुपम महत्त्व रखता है। सरस्वती माँ का मूलस्थान शशाङ्क-सदन अर्थात् अमृतमय प्रकाश-पुञ्ज है। जहां से वे अपने उपासकों के लिये निरंतर पचास अक्षरों के रूप में ज्ञानामृत की धारा प्रवाहित करती हैं। शुद्ध ज्ञानमय व आनन्दमय विग्रह वाली माँ वागीश्वरी का तेज दिव्य व अपरिमेय है और इनकी ही शब्दब्रह्म के रूप में स्तुति की जाती हैं।
सृष्टिकाल में ईश्वर की इच्छा से आद्याशक्ति ने स्वयं को पाँच भागों में विभक्त किया था। वे राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा एवं सरस्वती के रूप में भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न अंगों से उत्पन्न हुईं थीं। उस समय श्रीकृष्ण के  कण्ठ से उत्पन्न होने वाली देवी का नाम सरस्वती हुआ। ये नीलसरस्वती-रूपिणी देवी ही तारा महाविद्या हैं।

सरस्वतीं शुक्लवर्णां सुस्मितां सुमनोहराम् ॥ कोटिचन्द्रप्रभामुष्ट पुष्टश्रीयुक्तविग्रहाम् । वह्निशुद्धां शुकाधानां वीणापुस्तकधारिणीम् ॥ रत्नसारेन्द्र निर्माणनवभूषणभूषिताम् । सुपूजितां सुरगणैर्ब्रह्मविष्णुशिवादिभिः ॥ वन्दे भक्त्या वन्दितां च मुनीन्द्रमनुमानवै: ।

'श्रीमद्देवीभागवत' व 'श्रीदुर्गासप्तशती' में आद्याशक्ति द्वारा महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती के नाम से तीन भागों में विभक्त होने की कथा जगद्विख्यात है। सत्त्वगुण-सम्पन्ना भगवती सरस्वती के अनेक नाम हैं, जिनमें वाक्, वाणी, गीः, धृति, भाषा, शारदा, वाचा, धीश्वरी, वागीश्वरी, ब्राह्मी, गौ, सोमलता, वाग्देवी और वाग्देवता आदि अधिक प्रसिद्ध हैं।
      अमित तेजस्विनी व अनन्त गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा एवं आराधना के लिये निर्धारित शारदा माँ का आविर्भाव-दिवस, माघ शुक्ल पञ्चमी श्रीपञ्चमी के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस दिन माँ की विशेष अर्चा-पूजा व व्रतोत्सव द्वारा इनके सांनिध्य प्राप्ति की साधना की जाती है। शास्त्रों में सरस्वती देवी की इस वार्षिक पूजा के साथ ही बालकों के अक्षरारम्भ-विद्यारम्भ की तिथियों पर भी सरस्वती-पूजन का विधान बताया गया है। बुध ग्रह की माता होने से हर बुधवार को की गयी माँ शारदा की आराधना बुध ग्रह की अनुकूलता व माँ सरस्वती की प्रसन्नता दोनों प्राप्त कराती है। सच्चे श्रद्धालु आराधक की निष्कपट भक्ति से अति प्रसन्न होने पर देवी सरस्वतीजी ऐसी कृपा बरसाती हैं कि उसकी वाणी सिद्ध हो जाती है जो कुछ कहा जाय, वही सत्य हो जाता है।

ध्यान

सरस्वती-पूजन के समय निम्नांकित श्लोकों से सरस्वती जी का ध्यान करना चाहिये। देवीभागवत में सरस्वती माता का यह ध्यान है-

सरस्वतीं शुक्लवर्णां सुस्मितां सुमनोहराम्॥
कोटिचन्द्र-प्रभामुष्ट पुष्ट श्रीयुक्त-विग्रहाम्।
वह्निशुद्धां शुकाधानां वीणापुस्तक-धारिणीम्॥
रत्नसारेन्द्र निर्माण-नवभूषण-भूषिताम्।
सुपूजितां सुरगणै-र्ब्रह्म-विष्णु-शिवादिभिः॥
वन्दे भक्त्या वन्दितां च मुनीन्द्र-मनुमानवै:।

इसके अतिरिक्त  सरस्वती जी की स्तुति के लिये ये दो श्लोक जगद्विख्यात हैं-

या कुन्देदु-तुषार-हारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्ड-मण्डितकरा या श्वेतपद्मासना॥
या ब्रह्माच्युतशङ्कर-प्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा।।
अर्थात् जो कुन्द के फूल, चन्द्रमा, बर्फ और हारके समान श्वेत हैं; जो शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं; जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं; जो श्वेत कमलासन पर बैठती हैं; ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते हैं और जो सब प्रकार की जड़ता हर लेती हैं, वे भगवती सरस्वती मेरा पालन करें।

शुक्लां ब्रह्मविचारसार-परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं 
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फाटिक-मालिकां च दधतीं पद्मासने संस्थितां,
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥।। ६ ।।
अर्थात् जिनका रूप श्वेत है, जो बह्मविचार की परम तत्व हैं, जो समस्त संसार में फैल रही हैं, जो हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, अभय देती हैं, मूर्खतारूपी अन्धकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिक मणि की माला लिये रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान होती हैं और बुद्धि देने वाली हैं, उन आद्या परमेश्वरी भगवती सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ।

शुक्लां ब्रह्मविचारसार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं  वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्। हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्, वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥

पूजन

     संवत्सरप्रदीप, श्रीमद्देवीभागवत, श्रीदुर्गासप्तशती तथा  ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में माँ सरस्वती के पूजन की विधि मिलती है। उसके अनुसार वसन्त पञ्चमी को प्रातः उठकर शौचादि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर विधिपूर्वक देवी शारदा की पूजा करें।
     भगवती  सरस्वती की पूजा में सर्वप्रथम आचमन, प्राणायाम आदि द्वारा अपनी बाह्याभ्यंतर शुचिता सम्पन्न करें। फिर हाथ में  जल लेकर देश-काल आदि बोलते हुए-

'ॐ श्रीगणपतिर्जयतिः विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्त्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे बौद्धावतारे आर्यावर्तैकदेशे ...(शहर का नाम)....नगरे/ग्रामे, शिशिर ऋतौ, ..(संवत्सर का नाम)... नाम्नि संवत्सरे,  माघ मासे, शुक्ल पक्षे, पंचमी तिथौ, ..(वार का नाम)...वासरे, ..(गोत्र का नाम)...गोत्रीय ..(आपका नाम)... अहम् ..(प्रातः/मध्याह्न/सायाह्न)... काले श्री सरस्वती देवी प्रीत्यर्थे यथालब्धपूजनसामग्रीभिः भगवत्याः सरस्वत्याः पूजनमहं करिष्ये।'

कहकर सरस्वती-पूजन का संकल्प करें। फिर श्रीगणेशजी की आदिपूजा करके कलश स्थापन कर उसमें वाग्देवी का आवाहन करना चाहिये। तदनंतर वैदिक या पौराणिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए उपचार सामग्रियाँ भगवती को सादर समर्पित करें।
     वेदोक्त अष्टाक्षरी मंत्र 'श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा' अथवा जिस मंत्र से दीक्षित हो उसी से प्रत्येक वस्तु का सरस्वती  देवी को समर्पण करें। पञ्चोपचार पूजा इस तरह करें-
- 'ऐं सरस्वत्यै नमः लं पृथिव्यात्मकं गंधं समर्पयामि।' कहकर माँ सरस्वती जी को गंध-तिलक अर्पित करें।
 'ऐं सरस्वत्यै नमः हं आकाशात्मकं पुष्पम् समर्पयामि।' से माँ सरस्वती को फूल अर्पित करें।
- 'ऐं सरस्वत्यै नमः यं वाय्वात्मकं धूपम् आघ्रापयामि।' बोलकर सरस्वती जी को धूप दिखाएँ।
- 'ऐं सरस्वत्यै नमः रं वह्न्यात्मकं दीपम् दर्शयामि।' कहकर माँ को दीप दिखाएँ।
- 'ऐं सरस्वत्यै नमः वं अमृतात्मकं नैवेद्यं समर्पयामि।' मंत्र से माँ को नैवेद्य अर्पित करें।
- 'ऐं सरस्वत्यै नमः सौं सर्वात्मकं ताम्बूलादि सर्वोपचाराणि मनसा परिकल्प्य समर्पयामि।' द्वारा माँ शारदा को पूगीफल-पान अर्पित करें व सभी उपचार समर्पित करने की भावना करें। अंत में देवी सरस्वतीजी की आरती कर उनकी स्तुति करें।

सृष्टिकाल में ईश्वर की इच्छा से आद्याशक्ति ने स्वयं को पाँच भागों में विभक्त किया था। वे राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा एवं सरस्वती के रूप में भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न अंगों से उत्पन्न हुईं थीं। उस समय श्रीकृष्ण के  कण्ठ से उत्पन्न होने वाली देवी का नाम सरस्वती हुआ।

श्रीसरस्वतीजी की आरती

जय सरस्वती माता, मैया जय सरस्वती माता।
सद्गुण, वैभवशालिनि, त्रिभुवन विख्याता।। जय० ।।

चन्द्रवदनि, पद्मासिनि द्युति मंगलकारी ।
सोहे हंस-सवारी, अतुल तेजधारी।। जय० ।।

बायें कर में वीणा, दूजे कर माला।
शीश मुकुट-मणि सोहे, गले मोतियन माला।। जय० ।।

देव शरण में आये, उनका उद्धार किया।
पैठि मंथरा दासी, असुर-संहार किया।।जय०।।

वेद-ज्ञान-प्रदायिनि, बुद्धि-प्रकाश करो।
मोहाज्ञान तिमिर का सत्वर नाश करोजय०।।

धूप-दीप-फल-मेवा-पूजा स्वीकार करो।
ज्ञान-चक्षु दे माता, सब गुण-ज्ञान भरो।।जय०।।

माँ सरस्वती की आरती, जो कोई जन गावे।
हितकारी, सुखकारी ज्ञान-भक्ति पावे।।जय०।।

अमित तेजस्विनी व अनन्त गुणशालिनी देवी सरस्वती की पूजा एवं आराधना के लिये निर्धारित शारदा माँ का आविर्भाव-दिवस, माघ शुक्ल पञ्चमी श्रीपञ्चमी के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस दिन माँ की विशेष अर्चा-पूजा व व्रतोत्सव द्वारा इनके सांनिध्य प्राप्ति की साधना की जाती है। शास्त्रों में सरस्वती देवी की इस वार्षिक पूजा के साथ ही बालकों के अक्षरारम्भ-विद्यारम्भ की तिथियों पर भी सरस्वती-पूजन का विधान बताया गया है।

     स्तुतिगान के अनन्तर सरस्वती जी की सांगीतिक आराधना भी यथासंभव करके भगवती को निवेदित गन्ध-पुष्प-मिष्टान्नादि का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। पुस्तक व लेखनी में देवी सरस्वती का निवास होने से उनकी पूजा की जाती है। माघ शुक्ल पञ्चमी को अनध्याय भी कहते हैं।

नैवेद्य

     सत्वगुण से माता सरस्वती की उत्पत्ति होने से इनकी आराधना में प्रयुक्त नैवेद्य आदि उपचार समग्रियों में से अधिकांश श्वेतवर्ण की होती हैं। यथा- दूध-दही-मक्खन, धान का लावा[खील], सफेद तिल के लड्डू, गन्ना व गन्ने का रस, पका हुआ गुड़, मधु, श्वेत चन्दन, श्वेत परिधान[रेशमी/सूती], श्वेत अलंकार[चाँदी-मोती युक्त], खोए का श्वेत मिष्टान्न, अदरक, मूली, शर्करा, श्वेत धान्य के अक्षत, तण्डुल, शुक्ल मोदक, घृत, सैन्धवयुक्त हविष्यान्न, यवचूर्ण या गोधूमचूर्ण का घृतसंयुक्त पिष्टक, नारियल व इसका जल, श्रीफल, बदरीफल, ऋतुकालोद्भव पुष्प-फलादि।


या कुन्देदुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता । या वीणा वर दण्ड मण्डितकरा या श्वेत पद्मासना ॥ या ब्रह्माच्युत शङ्कर: प्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता । सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्यापहा ॥

सरस्वती जी के मंत्र

     'ऐं'
यह माँ शारदा का अति सरल व सिद्धिप्रद एकाक्षर बीजमन्त्र है। यह सभी वर्णों द्वारा जपनीय है। दीक्षा लेकर इसे जपना मंगलकारी है। मन्त्रमहार्णव के अनुसार सूर्य ग्रहण के दिन कुश की जड़ से उक्त "सरस्वती एकाक्षरी मन्त्र" को जीभ पर लिखकर चाट जाय और ग्रहण के मोक्ष पर्यन्त इस मंत्र का जप करे। फिर प्रतिदिन ११०० बार जप वर्षभर करे तो विद्या प्राप्ति होती है।

अन्य मंत्र - अब जो मंत्र दिये जा रहे हैं उनमें प्रणव तथा स्वाहा लगा है अतएव केवल यज्ञोपवीत पहनने वाले ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य, दीक्षा लेकर इनमें से किसी एक का जप करें।
देवीभागवत व ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णन है कि श्रीविष्णुजी ने वाल्मीकि को सरस्वतीजी का मंत्र बतलाया था। जिसके जप से उनमें कवित्व शक्ति उत्पन्न हुई थी। वह मंत्र है-
'श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा ।'
इसका चार लाख जप करने से मन्त्रसिद्धि होती है। आगम-ग्रन्थों में सरस्वती जी के अन्य मन्त्र भी निर्दिष्ट हैं। जिनमें
'ऐं वाग्वादिनी वद वद स्वाहा'
सबीज दशाक्षर मन्त्र है जो सर्वार्थसिद्धिप्रद व सर्वविद्याप्रदायक कहा गया है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में इनका यह मन्त्र भी निर्दिष्ट है- 
'ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।'

सरस्वती माँ का मूलस्थान शशाङ्कसदन अर्थात् अमृतमय प्रकाशपुञ्ज है। जहां से वे अपने उपासकों के लिये निरंतर पचास अक्षरों के रूप में ज्ञानामृत की धारा प्रवाहित करती हैं। शुद्ध ज्ञानमय व आनन्दमय विग्रह वाली माँ वागीश्वरी का तेज दिव्य व अपरिमेय है और वे ही शब्दब्रह्म के रूप में स्तुत होती हैं।
सरस्वती जी के स्तोत्र
   भगवती सरस्वती के कुछ स्तोत्र यहां
दिए जा रहे हैं। जब तक मंत्र की दीक्षा नहीं मिल सामान्य उपासकों को स्तोत्र द्वारा ही सरस्वती देवी की स्तुति करनी चाहिये। जो यज्ञोपवीत नहीं पहनते तथा स्त्री शूद्रों को इतनी सावधानी रखनी चाहिये कि प्रणव तथा स्वाहा रहित स्तोत्रों का ही पाठ करें। वे प्रणव(ॐ) की जगह "औं" कह सकते हैं।

अगस्त्य-मुनि-प्रोक्तम् श्रीसरस्वतीस्तोत्रम्

श्रीगणेशाय नमः।
या कुन्देन्दु-तुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणा-वरदण्ड-मण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत-शङ्कर-प्रभृतिभि-र्देवैस्सदा वन्दिता,
सा मां पातु सरस्वती भगवती निश्शेषजाड्यापहा॥१॥

दोर्भिर्युक्ता चतुर्भिः स्फटिक-मणिनिभैरक्ष-मालान्दधाना,
हस्तेनैकेन पद्मं सितमपिच शुकं पुस्तकं चापरेण।
भासा कुन्देन्दु-शङ्ख-स्फटिक-मणिनिभा भासमानाऽसमाना
सा मे वाग्देवतेयं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना॥२॥

(जो चार हाथों से सुशोभित हैं और उन हाथों में क्रमशः स्फटिकमणि की बनी हुई अक्षमाला, श्वेत कमल, शुक और पुस्तक धारण किये हुए हैं तथा जो कुन्द, चन्द्रमा, शङ्ख ओर स्फटिक मणि के सदृश देदीप्यमान होती हुई उनके समान रूपवाली हैं, वे ही ये वाग्देवता सरस्वती परम प्रसन्न होकर सर्वदा मेरे मुख में निवास करें।)

सुरासुर-सेवितपाद-पङ्कजा करे विराजत्कमनीय -पुस्तका।
विरिञ्चि-पत्नी कमलासन-स्थिता सरस्वती नृत्यतु वाचि मे सदा॥३॥

सरस्वती सरसिज-केसरप्रभा तपस्विनी सित-कमलासन-प्रिया।
घनस्तनी कमल-विलोल-लोचना मनस्विनी भवतु वर-प्रसादिनी॥४॥

सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि।
विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा॥५॥

सरस्वति नमस्तुभ्यं सर्वदेवि नमो नमः।
शान्तरूपे शशिधरे सर्वयोगे नमो नमः॥६॥

नित्यानन्दे निराधारे निष्कलायै नमो नमः।
विद्याधरे विशालाक्षि शुद्धज्ञाने नमो नमः॥७॥

शुद्धस्फटिक-रूपायै सूक्ष्मरूपे नमो नमः।
शब्दब्रह्मि चतुर्हस्ते सर्वसिद्‍ध्यै नमो नमः॥८॥

मुक्तालङ्कृत-सर्वाङ्ग्यै मूलाधारे नमो नमः।
मूलमन्त्र-स्वरूपायै मूलशक्त्यै नमो नमः॥९॥

मनोमयि महायोगे वागीश्वरि नमो नमः।
वाण्यै वरदहस्तायै वरदायै नमो नमः॥१०॥

वेद्यायै वेदरूपायै वेदान्तायै नमो नमः।
गुणदोष-विवर्जिन्यै गुणदीप्त्यै नमो नमः॥११॥

सर्वज्ञाने सदानन्दे सर्वरूपे नमो नमः।
सम्पन्नायै कुमार्यै च सर्वज्ञायै नमो नमः॥१२॥

योगरूपे रमादेव्यै योगानन्दे नमो नमः।
दिव्यज्ञायै त्रिनेत्रायै दिव्यमूर्त्यै नमो नमः॥१३॥

अर्धचन्द्र-जटाधारि चन्द्रबिम्बे नमो नमः।
(अर्धचन्द्रधरे देविचन्द्ररूपे नमो नमः)
चन्द्रादित्य-जटाधारि चन्द्रबिम्बे नमो नमः॥१४॥
(चन्द्रादित्यसमे देवि चन्द्रभूषे नमो नमः)

अणुरूपे महारूपे विश्वरूपे नमो नमः।
अणिमाद्यष्ट-सिद्धायै आनन्दायै नमो नमः॥१५॥

ज्ञानविज्ञान-रूपायै ज्ञानमूर्ते नमो नमः।
नानाशास्त्र-स्वरूपायै नानारूपे नमो नमः॥१६॥

पद्मदे पद्मवंशे च पद्मरूपे नमो नमः।
परमेष्ठ्यै परामूर्त्यै नमस्ते पापनाशिनी॥१७॥

महादेव्यै महाकाल्यै महालक्ष्म्यै नमो नमः।
ब्रह्मविष्णुशिवाख्यायै ब्रह्मनार्यै नमो नमः॥१८॥

कमलाकर-पुष्पा च कामरूपे नमो नमः।
(कमलाकरगेहायै कामरूपे नमो नमः)
कपालि-कर्मदीप्तायै कर्मदायै नमो नमः॥१९॥
(कपालि-प्राणनाथायै कर्मदायै नमो नमः।)

फलश्रुति
सायं प्रातः पठेन्नित्यं षाण्मासात्सिद्धिरुच्यते।
चोरव्याघ्रभयं नास्ति पठतां श‍ृण्वतामपि॥२०॥

[सायंकाल व प्रातःकाल इसे छः मास तक प्रतिदिन पढ़ने से छः मास में सिद्धि होती है। इसे पढ़ने या सुनने से चोर का, व्याघ्र(बाघ/हिंसक जंतु) का भय नहीं होता।]

इत्थं सरस्वती-स्तोत्रमगस्त्यमुनि-वाचकम्।
सर्वसिद्धिकरं नॄणां सर्वपाप-प्रणाशनम्॥२१॥

[यह सर्व सिद्धिदायक व मनुष्यों दे सभी पापों का नाश करने वाला श्रीसरस्वती स्तोत्र श्रीअगस्त्य मुनि ने कहा है।]
॥अगस्त्यमुनि-प्रोक्तं सरस्वती-स्तोत्रं शुभमस्तु॥

श्री सिद्ध सरस्वती स्तोत्रम्

यह श्रीसरस्वती भगवती की बीजमन्त्रगर्भित स्तुति है! इसे आरूढा सरस्वती स्तोत्रम् भी कहते हैं।

विनियोग पढ़कर जल छोड़ें - अस्य श्री सिद्ध-सरस्वतीस्तोत्र-मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्रीसरस्वती देवता, धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः।

ध्यान करें-

आरूढा श्वेतहंसे भ्रमति च गगने दक्षिणे चाक्षसूत्रं
वामे हस्ते च दिव्याम्बर-कनकमयं पुस्तकं ज्ञानगम्या।
सा वीणां वादयन्ती स्वकर-करजपैः शास्त्र-विज्ञान-शब्दैः
क्रीडन्ती दिव्यरूपा कर-कमलधरा भारती सुप्रसन्ना॥१॥

जो श्वेत हंस पर सवार होकर आकाश में विचरण करती हैं, जिनके दाहिने हाथ में अक्षमाला और बायें हाथ में दिव्य स्वर्णिम वस्त्र से आवेष्टित पुस्तक शोभित है, जो ज्ञानगम्या हैं, जो वीणा बजाती हुई और अपने हाथकी करमाला से शास्त्रोक्त बीजमन्त्रों का जप करती हुई क्रीडारत हैं, जिनका दिव्य रूप है तथा जो हाथों में कमल धारण करती हैं, वे सरस्वती देवी मुझ पर प्रसन्न हों।

श्वेतपद्मासना देवी श्वेतगन्धानुलेपना।
अर्चिता मुनिभिः सर्वैः ऋर्षिभिः स्तूयते सदा।
एवं ध्यात्वा सदा देवीं वाञ्छितं लभते नरः॥२॥

जो भगवती श्वेत कमल पर आसीन हैं, जिनके शरीर में श्वेत चन्दन का अनुलेप है, मुनिगण जिनकी अर्चना करते हैं तथा सभी ऋषि सदा जिनका स्तवन करते हैं- इस प्रकार सदा देवी का ध्यान करके मनुष्य मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है।

अब स्तोत्र का पाठ करे -

शुक्लां ब्रह्म-विचारसार-परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फाटिक-मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥३॥

जिनका रूप श्वेत है, जो ब्रह्मविचार की परम तत्त्व हैं, आदिशक्ति हैं, सब संसार में व्याप्त हैं, हाथों में वीणा और पुस्तक धारण किये रहती हैं, भक्तों को अभय देती हैं, मूर्खतारूपी अन्धकार को दूर करती हैं, हाथ में स्फटिक-मणि की माला लिये रहती हैं, कमल के आसन पर विराजमान हैं और बुद्धि देने वाली हैं, उन परमेश्वरी भगवती सरस्वती की मैं वन्दना करता हूँ।

या कुन्देन्दु-तुषारहार-धवला या शुभ्र-वस्त्रावृता
या वीणा-वरदण्ड-मण्डित करा या श्वेत-पद्मासना।
या ब्रह्माच्युत-शङ्कर-प्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष-जाड्यापहा॥४॥

जो कुन्द के फूल, चन्द्रमा, हिम और हार के समान श्वेत हैं; जो शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं; जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं; जो श्वेत कमलासन पर बैठती हैं; ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते हैं और जो सब प्रकारकी जड़ता का हरण कर लेती हैं, वे भगवती सरस्वती मेरी रक्षा करें।

ह्रीं ह्रीं हृद्यैकबीजे शशिरुचि-कमले कल्पविस्पष्टशोभे
भव्ये भव्यानुकूले कुमति-वनदवे विश्व-वन्द्यांघ्रिपद्मे।
पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणतजन-मनोमोद-सम्पादयित्रि
प्रोत्फुल्ल-ज्ञानकूटे हरि-निजदयिते देवि संसारसारे॥५॥

'ह्रीं-ह्रीं'- इस एकमात्र मनोहर बीजमन्त्र वाली, चन्द्रमा की कान्ति वाले श्वेत कमल के समान विग्रह वाली, प्रत्येक कल्प में व्यक्तरूप से सुशोभित होनेे वाली, भव्य स्वरूप वाल, प्रिय तथा अनुकूल स्वभाव वाली, कुबुद्धिरूपी वन को दग्ध करने के लिये दावानल स्वरूपिणी, सम्पूर्ण जगत के द्वारा वन्दित चरणकमल वाली, कमलारूपा, कमलके आसन पर विराजमान रहनेे वाली, शरणागत जनों के मन को आह्लादित करनेे वली, महान्‌ ज्ञान की शिखरस्वरूपिणी, भार्यारूप में भगवान्‌ विष्णु की आत्मशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित तथा संसार की तत्त्वस्वरूपिणी हे देवि! (मैं आपकी स्तुति और वन्दना करता हूँ।)

ऐं ऐं ऐं दृष्टमन्त्रे कमलभव-मुखाम्भोज-भूतस्वरूपे
रूपारूप-प्रकाशे सकलगुणमये निर्गुणे निर्विकारे।
न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदित-विभवे नापि विज्ञानतत्त्वे
विश्वे विश्वान्तरात्मे सुरवर-नमिते निष्कले नित्यशुद्धे॥६॥

ऐं ऐं ऐं-इस बीजमन्त्र से दृष्टिगत होनेे वाली, पद्मयोनि ब्रह्माजी के मुख-कमल से उत्पन्न, अपने ही स्वरूप में स्थित, मूर्त तथा अमूर्तरूप में प्रकाशित होनेे वाली, सम्पूर्ण गुणोंं से समन्वित, निर्गुण, निर्विकार, न तो स्थूल रूपवाली और न ही सूक्ष्म रूपवाली, अविदित ऐश्वर्यवाली,  विज्ञानतत्त्व से भी परे, विश्वरूपिणी, विश्व की अन्तरात्मास्वरूपा, श्रेष्ठ देवताओं के द्वारा वन्दित, निष्कल तथा नित्यशुद्धस्वरूपिणी! (हे देवि! मैं आपकी स्तुति और वन्दना करता हूँ।)

ह्रीं ह्रीं ह्रीं जाप्यतुष्टे हिमरुचि-मुकुटे वल्लकी-व्यग्रहस्ते
मातर्मातर्नमस्ते दह दह जडतां देहि बुद्धिं प्रशस्ताम्।
विद्ये वेदान्तवेद्ये परिणतपठिते मोक्षदे मुक्तिमार्गे।
मार्गातीतस्वरूपे भव मम वरदा शारदे शुभ्रहारे॥७॥

ह्रीं ह्रीं ह्रीं - के जप से प्रसन्न होने वाली, हिम की कान्ति वाले मुकुट से सुशोभित तथा वीणा के वादन में व्यग्रहस्तवाली हे मातः! आपको नमस्कार है; मेरी मूर्खताको पूर्ण रूप से जला दीजिये और हे जननि! मुझे उत्तम बुद्धि प्रदान कीजिये। विद्यास्वरूपिणी, वेदान्त के द्वारा जाननेे योग्य, अधीत विद्या को दृढ़ता प्रदान करनेे वाल, मोक्ष देनेे वाली, मोक्ष की साधनभूता, मार्गातीतस्वरूपा तथा धवलहार से सुशोभित हे शारदे! आप मेरे लिये वरदायिनी होवें।

धीं धीं धीं धारणाख्ये धृतिमति-नतिभिर्नामभिः कीर्तनीये
नित्येऽनित्ये निमित्ते मुनिगणनमिते नूतने वै पुराणे।
पुण्ये पुण्यप्रवाहे हरिहरनमिते नित्यशुद्धे सुवर्णे
मातर्मात्रार्धतत्त्वे मतिमति मतिदे माधव-प्रीतिमोदे॥८॥

धीं धीं धीं - धारणास्वरूपा! धृति, मति, नति आदि नामों से पुकारी जानेे वाली, नित्यानित्यस्वरूपिणी, जगत्‌ की निमित्तकारणभूता, नवीना एवं सनातनी, पुण्यमयी, पुण्यका विस्तार करनेवाली, विष्णु तथा शिव से नमस्कृत, नित्यशुद्धस्वरूपिणी, सुन्दर वर्णवाली, अर्धमात्रा-तत्वस्वरूपा, विशेषरूप से सूक्ष्म बुद्धि प्रदान करने वाली, भगवान्‌ विष्णु के प्रति अनन्य प्रेम रखने वालों को आनन्द प्रदान करने वाली हे मातः! (मुझे बुद्धि प्रदान कीजिये।)

ह्रूं ह्रूं ह्रूं स्वस्वरूपे दह दह दुरितं पुस्तकव्यग्रहस्ते
सन्तुष्टाकारचित्ते स्मितमुखि सुभगे जृम्भिणि स्तम्भविद्ये।
मोहे मुग्धप्रवाहे कुरु मम विमति-ध्वान्त-विध्वंसमीडे
गीर्गौर्वाग्भारति त्वं कविवर-रसना-सिद्धिदे सिद्धिसाध्ये॥९॥

ह्रूं ह्रूं ह्रूं - आत्मस्वरूपिणी, [हे सरस्वति !] मेरे पापोंको पूर्णरूप से भस्म कर दीजिये। पुस्तक से सुशोभित हाथ वाली, प्रसन्नविग्रहा तथा सन्तुष्टचित्ता, मुस्कानयुक्त मुखमण्डलवाली, सौभाग्यशालिनी, जृम्भास्वरूपिणी, स्तम्भनविद्यास्वरूपा, मोहस्वरूपिणी तथा मुग्धप्रवाहवाली [हे देवि!] आप मेरे कुबुद्धिरूपी अन्धकार का नाश कर दीजिये। गीः, गौः, वाक्‌ तथा भारती-इन नामों से सम्बोधित होने वाली, श्रेष्ठ कवियों की वाणीी को सिद्धि प्रदान करने वाली तथा सिद्धियों को सफल बना देने वाली हे देवि! मैं आपकी स्तुति करता हूँ।

आत्मनिवेदनम् -
स्तौमि त्वां त्वां च वन्दे मम खलु रसनां नो कदाचित्त्यजेथा
मा मे बुद्धिर्विरुद्धा भवतु न च मनो देवि मे यातु पापम्।
मा मे दुःखं कदाचित्क्वचिदपि विषयेऽप्यस्तु मे नाकुलत्वं
शास्त्रे वादे कवित्वे प्रसरतु मम धीर्मास्तु कुण्ठा कदापि॥१०॥

हे देवि! मैं आपकी स्तुति तथा आपकी वन्दना करता हूँ, आप कभी भी मेरी वाणी का त्याग न करें, मेरी बुद्धि [धर्म के] विरुद्ध न हो, मेरा मन पापकर्मों की ओर प्रवृत्त न हो, मुझे कभी भी कहीं भी दुःख न हो, विषयों में मेरी थोड़ी भी आसक्ति न हो; शास्त्र में, तत्त्वनिरूपण में और कवित्व में मेरी बुद्धि सदा विकसित होती रहे और उसमें कभी भी कुण्ठा न आने पाये।

फलश्रुतिः -
इत्येतैः श्लोकमुख्यैः प्रतिदिनमुषसि स्तौति यो भक्तिनम्रो
वाणी वाचस्पतेरप्यविदित-विभवो वाक्पटुर्मृष्ट-कण्ठः।
सः स्यादिष्टाद्यर्थ-लाभैः सुतमिव सततं पातितं सा च देवी
सौभाग्यं तस्य लोके प्रभवति कविता विघ्नमस्तं व्रयाति॥११॥

जो मनुष्य भक्ति के साथ विनम्र होकर प्रतिदिन उषाकाल में इन उत्तम श्लोकों से सरस्वती देवी की स्तुति करता है, वह बृहस्पति के भी द्वारा अज्ञात वाग्वैभव से सम्पन्न, वाक्पटु तथा मुक्तकण्ठ हो जाता है। वे भगवती सरस्वती अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति के द्वारा पुत्र की भाँति निरन्तर उसकी रक्षा करती हैं, संसार में उसके सौभाग्य का उदय हो जाता है और उसकी काव्य-रचना की बाधाएँ समाप्त हो जाती हैं।

र्निविघ्नं तस्य विद्या प्रभवति सततं चाश्रुत-ग्रन्थबोधः
कीर्तिस्त्रैलोक्य-मध्ये निवसति वदने शारदा तस्य साक्षात्।
दीर्घायुर्लोक-पूज्यः सकल-गुणनिधिः सन्ततं राजमान्यो
वाग्देव्याः सम्प्रसादात्त्रिजगति विजयी जायते सत्सभासु॥१२॥

वाग्देवता शारदा की महती कृपा से उस मनुष्यकी विद्या निर्बाधरूप से निरन्तर बढ़ती रहती है, उसे अश्रुत ग्रन्थों का भी अवबोध हो जाता है, तीनों लोकों में उसकी कीर्ति फैल जाती है और साक्षात्‌ सरस्वती उसके मुख में वास करती हैं । वह दीर्घायु, लोकपूज्य, समस्त गुणों की खान, राजाओं के लिये सम्माननीय और त्रिलोकी के अन्दर विद्वानों की सभाओं में सदा विजयी होता है।

ब्रह्मचारी व्रती मौनी त्रयोदश्यां निरामिषः।
सारस्वतो जनः पाठात्सकृदिष्टार्थ-लाभवान्॥१३॥

त्रयोदशी के दिन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए निरामिषभोजी होकर, नियमपूर्वक मौन रहकर सरस्वती का भक्त इस स्तोत्र के एक बार पाठ कर लेनेमात्र से अपने अभीष्ट अर्थ को प्राप्त कर लेता है।

पक्षद्वये त्रयोदश्यामेक-विंशति-संख्यया।
अविच्छिन्नः पठेद्धीमान्ध्यात्वा देवीं सरस्वतीम्॥१४॥

बुद्धिमान्‌ मनुष्य को चाहिये कि [महीनेके] दोनों पक्षोंमें [पड़ने वाली] त्रयोदशी तिथि को सरस्वती देवी का ध्यान करके अनवरत इक्कीस बार [इस स्तोत्र का] पाठ करे।

सर्वपाप-विनिर्मुक्तः सुभगो लोकविश्रुतः।
वाञ्छितं फलमाप्नोति लोकेऽस्मिन्नात्र संशयः॥१५॥

ऐसा व्यक्ति समस्त पापों से मुक्त, सौभाग्यशाली और लोक में विख्यात हो जाता है, वह इस संसार में वांछित फल प्राप्त करता है, इसमें संदेह नहीं है।

ब्रह्मणेति स्वयं प्रोक्तं सरस्वत्याः स्तवं शुभम्।
प्रयत्नेन पठेन्नित्यं सोऽमृतत्त्वाय कल्पते॥१६॥

स्वयं ब्रह्माजी के द्वारा कहे गये इस कल्याणकारी सरस्वतीस्तोत्र का पाठ प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये, ऐसा करने से वह मनुष्य अमृतत्व प्राप्त कर लेता है।
॥श्रीरुद्र-यामल-तन्त्रोक्तं श्रीमद्ब्रह्मणा विरचितं  श्रीसरस्वती-स्तोत्रम् शुभमस्तु॥

वाक्सिद्धिदायिनी भगवती सरस्वती की महिमा और प्रभाव असीमित है। ऋग्वेद १०।१२५ सूक्त के आठवें मंत्र के अनुसार वाग्देवी सौम्य गुणों की दात्री व वसु-रुद्रादित्यादि सभी देवों की रक्षिका हैं। ये ही राष्ट्रीय भावना प्रदान करती हैं और लोकहित के लिये संघर्ष करती हैं। ब्रह्माजी की शक्ति ये ही हैं। सृष्टि-निर्माण वाग्देवी का कार्य है। ज्ञानदायिनी माँ सरस्वती ने नदी के रूप में अवतार भी लिया था।
    ऐंकाररूपिणी माँ शारदा की ही कृपा से महर्षि वाल्मीकि, व्यास, वसिष्ठ, आदि ऋषि उच्चता को प्राप्त कर कृतार्थ हुए। महाज्ञानस्वरूपिणी माँ वागीश्वरी की महिमा के विषय में जितना कहें कम ही है। ये शारदा देवी हमारी जिह्वा में-बुद्धि में सदा ही वास करती हैं। इनके ही आशीर्वाद से हम सभी बोल-समझ पाते हैं। ऐसी वागीश्वरी माँ की जयंती पर सरस्वतीजी के श्री चरणों में हमारा अनंत बार प्रणाम.....



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