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⭐विशेष⭐


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10 मई - श्री परशुराम अवतार जयन्ती
10 मई - अक्षय तृतीया,
⭐10 मई -श्री मातंगी महाविद्या जयन्ती
12 मई - श्री रामानुज जयन्ती , श्री सूरदास जयन्ती, श्री आदि शंकराचार्य जयन्ती
15 मई - श्री बगलामुखी महाविद्या जयन्ती
16 मई - भगवती सीता जी की जयन्ती | श्री जानकी नवमी | श्री सीता नवमी
21 मई-श्री नृसिंह अवतार जयन्ती, श्री नृसिंहचतुर्दशी व्रत,
श्री छिन्नमस्ता महाविद्या जयन्ती, श्री शरभ अवतार जयंती। भगवत्प्रेरणा से यह blog 2013 में इसी दिन वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को बना था।
23 मई - श्री कूर्म अवतार जयन्ती
24 मई -देवर्षि नारद जी की जयन्ती

आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष।
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शाकंभरी भगवती हैं करुणहृदया व कृपाकारिणी (श्री शाकम्भरी साधना)

गवती शाकंभरी को शताक्षी देवी के नाम से भी जाना जाता है। पौष मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को इन्हीं शाकम्भरी माँ की जयन्ती मनाई जाती है। देवी भागवत में वर्णन है कि राजा जनमेजय के पूछने पर व्यास जी ने देवी शताक्षी के प्रकट होने की कथा सुनायी थी। शाकम्भरी  माता के स्मरण मात्र से ही दुखों से छुटकारा मिलकर सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।देवी भागवत के अनुसार भुवनेश्वरी महाविद्या ही भगवती शाकम्भरी के रूप में प्रादुर्भूत हुईं थीं
कथा इस प्रकार है कि प्राचीन समय में हिरण्याक्ष वंशीय दुर्गम नामक दैत्य ने वेदों को नष्ट करने के उद्देश्य से हिमालय पर तप किया सोचा कि वेद न रहेंगे तो देवता भी न रहेंगे। जब एक हजार वर्ष बाद ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा तो दुर्गमासुर बोला-"सुरेश्वर! सब वेद मेरे पास आ जायें। मुझे वह बल दीजिये जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ।" ब्रह्माजी "ऐसा ही हो" कहकर सत्यलोक चले गये। तब से ब्राह्मणों को वेद विस्मृत हो गये। इससे स्नान, संध्या, नित्य-होम-यज्ञ, श्राद्ध, जप आदि वैदिक क्रियायें नष्ट हो गईं। सारे भूमण्डल में हाहाकार मच गया।
पौष शुक्ल अष्टमी से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक का समय शाकम्भरी नवरात्र कहलाता है। इस समय माँ की आराधना तंत्र-मंत्रादि की साधनाएं सद्यः फलदायिनी होती हैं। दयार्द्रचित्ता उन भगवती शाकंभरी माँ को जयंती पर हमारा अनन्त बार प्रणाम....

इस प्रकार समस्त संसार में घोर अनर्थ उत्पन्न हो गया। देवों को यज्ञ में हवि का भाग मिलना बंद होने से वे निर्जर(जरारहित) होते हुए भी सजर हो गये, उन्हें बुढ़ापे ने घेर लिया। देवता, दुर्गम के वज्र समान शरीर के कारण युद्ध करने में असमर्थ हो भाग चले। तब उस दैत्य ने अमरावती नगरी को अधिकार में कर लिया। पर्वत की कन्दराओं व शिखरों पर जहां भी स्थान मिला, वहीं रहकर देवता परा शक्ति का ध्यान करते हुए समय बिताने लगे। 

अग्नि में हवन न होने से वरुण देव को हवि न मिलने से वर्षा भी बंद हो गयी। घोर सूखा पड़ गया। पृथ्वी पर जल की एक बूंद भी शेष न रही। कुएं, बावड़ियाँ, पोखरे, नदियां सब सूख गये। ऐसी अनावृष्टि से कई वर्ष बीत गये। बहुत-सी प्रजा, गाय-भैंस आदि पशु प्राणों से हाथ धो बैठे। घर-घर में मनुष्यों के शव बिछ गये।
ऐसे भीषण अनिष्टप्रद समय में ब्राह्मण समाधि, ध्यान, पूजा द्वारा जगदम्बा माँ की उपासना करने लगे-
"परमेश्वरी! दया करो। सबके भीतर निवास करने वाली हे देवेश्वरी! तुम्हारी प्रेरणा के अनुसार ही वह दुष्ट दैत्य सब कुछ करता है अन्यथा वह कर ही क्या सकता था। प्रसन्न हो जाओ हे देवेश्वरी! हम तुम्हें प्रणाम करते हैं। कूटस्वरूपा, चिद्रूपा, वेदान्तवेद्या तथा भुवनेशी! तुम्हें बारंबार नमस्कार है। संपूर्ण आगम शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनका संकेत करते हैं, उन सर्वकारणरूपिणी देवी की शरण में हम हैं।"

मेरे हाथ से दुर्गम नामक दैत्य का वध हुआ है अतः मेरा एक नाम 'दुर्गा' है। मैं ही 'शताक्षी' कहलाती हूँ। जो मेरे इन नामों का उच्चारण करता है, वह माया को छिन्न-भिन्न करके मेरा स्थान पाता है।

     इस प्रकार देवों द्वारा स्तुत होने पर भगवती पार्वती ने, जो 'भुवनेशी' एवं 'महेशी' नाम से विख्यात हैं, अपनी अनन्त आँखों से सम्पन्न दिव्य स्वरूप के दर्शन कराये। उनका वह विग्रह कज्जल के पर्वत के समान था। नीलकमल के समान सब नेत्र थे। हाथों में धनुष-बाण, कमल के पुष्प, पल्लव और मूल सुशोभित थे। जिनसे भूख, प्यास और बुढ़ापा दूर हो जाते हैं, ऐसे शाक आदि खाद्य-पदार्थों को माँ ने धारण किया था। अनन्त रस वाले फल हाथ में थे। करोड़ों सूर्यों के समान चमकने वाला वह भगवती का विग्रह करुण-रस का अथाह समुद्र था। 

ऐसी झांकी सामने उपस्थित करने के पश्चात जगत की रक्षा में तत्पर रहने वाली करुणार्द्र हृदया माँ अपनी उन अनन्त आँखों से सहस्रों जलधाराएँ गिराने लगीं। उनके नेत्रों से निकले जल द्वारा पौष शुक्ल अष्टमी से पौष पूर्णिमा तक त्रिलोकी पर महान वृष्टि होती रही। संपूर्ण प्राणियों को दुःखी देखकर भगवती की आँखों से आँसू के रूप में यह जल गिरा था। जल पीने से प्राणियों को बड़ी तृप्ति हुई। संपूर्ण औषधियाँ भी उत्पन्न हो गईं। नदी और समुद्र बढ़ गये। जो देवता पहले लुक-छिपकर रहते थे बाहर निकल आये।

जगत की रक्षा में तत्पर रहने वाली करुणार्द्र हृदया माँ  अपनी अनन्त आँखों से सहस्रों जलधाराएँ गिराने लगीं। उनके नेत्रों से निकले जल द्वारा नौ रात्रियों तक त्रिलोकी पर महान वृष्टि होती रही। संपूर्ण प्राणियों को दुःखी देखकर भगवती की आँखों से आँसू के रूप में यह जल गिरा था। जल पीने से प्राणियों को बड़ी तृप्ति हुई।

     ये देव और ब्राह्मण सभी एक साथ भगवती की स्तुति करने लगे। स्तुति से प्रसन्न होकर इन भगवती शिवा ने अनेक प्रकार के शाक, स्वादिष्ट फल अपने हाथ से उन्हें खाने के लिये दिये। भांति-भांति के अन्न सामने उपस्थित कर दिये। पशुओं के खाने योग्य कोमल एवं अनेक रसों से सम्पन्न नवीन तृण भी उन्हें देने की कृपा की। उसी दिन से इन माँ भगवती का शाकंभरी नाम पड़ गया। 
तदनंतर उन माँ आदिशक्ति ने दुर्गमासुर का वध कर इंद्रादि को स्वर्ग तथा वेद प्रदान कर दिये। ब्राह्मणों से माँ विशेषतयाः बोलीं-"जिसके अभाव में यह अनर्थ हुआ, मुझसे उत्पन्न उस वेदवाणी की सम्यक्  प्रकार से रक्षा करनी चाहिये। मेरी पूजा में सदा संलग्न रहना। कल्याण के लिए इससे श्रेष्ठ कुछ नहीं। मेरी इस महिमा का नित्य पाठ करना। मेरे हाथ से दुर्गम नामक दैत्य का वध हुआ है अतः मेरा एक नाम 'दुर्गा' है। मैं ही 'शताक्षी' कहलाती हूँ। जो मेरे इन नामों का उच्चारण करता है, वह माया को छिन्न-भिन्न करके मेरा स्थान पाता है।शाकम्भरी देवी का शताक्षी के अलावा वनशंकरी भी एक नाम प्रसिद्ध है। देखा जाय तो हिन्दू धर्म ग्रंथों के द्वारा हम मनुष्यों के लिए यह एक संकेत दिया गया है कि हम प्रकृति का संरक्षण करें क्योंकि यह प्रकृति, पेड़ - पौधे, नदियाँ, फल, सब्जी, अन्न , पानी, वेद यह सब मूल प्रकृति रूपिणी शाकम्भरी दुर्गा भगवती की ही देन है।

स्तुति से प्रसन्न होकर इन भगवती शिवा ने अनेक प्रकार के शाक, स्वादिष्ट फल अपने हाथ से उन्हें खाने के लिये दिये। भांति-भांति के अन्न सामने उपस्थित कर दिये। पशुओं के खाने योग्य खाने योग्य कोमल एवं अनेक रसों से सम्पन्न नवीन तृण भी उन्हें देने की कृपा की। उसी दिन से इन माँ भगवती का शाकंभरी नाम पड़ गया।

     देश में माँ शाकम्भरी के तीन शक्तिपीठ हैं। पहला शाकम्भरी माँ का प्रमुख स्थल राजस्थान के अरावली पर्वत के मध्य सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय माताजी के नाम से विश्वविख्यात है।
दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकम्भर के नाम से स्थित है। यहाँ सांभर झील शाकंभरी देवी के नाम पर प्रसिद्ध है। इसी झील के मध्य में इनका प्राचीन मंदिर है, जहां माँ की विशेष पूजा की जाती है।

बाबा भूरादेव - जनश्रुति है कि माँ ने धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने वाले बाबा भूरादेव को वचन दिया था कि मेरे दर्शन से पूर्व जो भक्त भूरादेव के दर्शन नहीं करेगा, उसकी यात्रा पूर्ण नहीं होगी। यही कारण है कि माँ श्रीशाकम्भरी देवी मंदिर से पहले स्थित बाबा भूरादेव मंदिर के दर्शन के उपरांत ही श्रद्धालु माँ के दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं

      तीसरा स्थान उत्तरप्रदेश के मेरठ के पास सहारनपुर में 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बेहट पर है। बेहट स्थित इस सिद्धपीठ में बने माता के पावन भवन में माता शाकंभरी देवी, भीमा देवी, भ्रामरी देवी व शताक्षी देवी की प्रतिमाएं स्थापित हैं। यहाँ जनश्रुति प्रचलित है कि माँ ने धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने वाले बाबा भूरादेव को वचन दिया था कि मेरे (बेहट स्थित मंदिर के)दर्शन से पूर्व जो भक्त भूरादेव के दर्शन नहीं करेगा, उसकी यात्रा पूर्ण नहीं होगी। यही कारण है कि बेहट के माँ श्रीशाकम्भरी देवी मंदिर की यात्रा में पहले पड़ाव बाबा भूरादेव मंदिर के दर्शन के उपरांत ही श्रद्धालु बेहट स्थित देवी माँ के दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं। इस क्षेत्र में माता रक्तदंतिका, माता छिन्नमस्तिका व पंच महादेवों के मंदिर भी स्थित हैं।

इन्हीं भगवती आदिशक्ति शाकम्भरी शताक्षी के लिए कहा गया है- "दारिद्र्य दुःख भय हारिणी का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता" माँ भगवती अपनी संतान की दुर्दशा नहीं देख सकीं और पौष शुक्ल अष्टमी से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक अश्रुजल प्रवाहित कर सूखी धरा को जीवनदान दिया।
    इनके अलावा एक बनशंकरी देवी मंदिर कर्नाटक राज्य के बागलकोट नामक जिले में बादामी में तिलकारण्य नामक वन में स्थित है इसकी भी श्री शाकम्भरी मंदिर के रूप में प्रसिद्धि है। यहाँ शाकम्भरी नवरात्रि के अवसर पर बनशंकरी वार्षिक उत्सव मनाया जाता है। इस वनशंकरी उत्सव में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं और नाव उत्सव आयोजित किया जाता है। इसके अलावा एक रथ यात्रा आयोजित की जाती है, जिसमें वनशंकरी अर्थात् शाकम्भरी देवी के विग्रह को एक रथ में विराजित करके शहर में घुमाया जाता है।
शूलं खड्गं च डमरुं दधानामभयप्रदम्। सिंहासनस्थां ध्यायामि देवी शाकम्भरीमहम् ॥ ३॥   (मैं सिंह के आसन पर विराजित शूल,खड्ग,डमरू व अभय मुद्रा धारण करने वाली चार हाथों वाली शाकंभरी देवी का ध्यान करता हूँ)

शाकम्भरी नवरात्र

     माँ भगवती अपनी संतान की दुर्दशा नहीं देख सकीं और पौष शुक्ल अष्टमी से पौष पूर्णिमा तक निरन्तर अश्रुजल प्रवाहित कर सूखी धरा को जीवनदान दिया। अतः पौष शुक्ल अष्टमी से पौष पूर्णिमा तक का समय शाकम्भरी नवरात्र कहलाता है। हालांकि इसमें प्रायः आठ दिन ही होते हैं परन्तु फिर भी इसे नवरात्रि की ही संज्ञा दी गई है। तिथि वृद्धि या तिथि क्षय होने से किसी वर्ष इसमें सात या फिर नौ दिन भी हो जाते हैं। मान्यता है कि इस समय की गई भगवती की उपासना, आराधना, तंत्र-मंत्रादि की साधनाएं सद्यः फलदायिनी होती हैं।

श्री शाकम्भरी साधना 

श्री शाकम्भरी स्तोत्रात्मक साधना यहाँ प्रस्तुत है। इसके अंतर्गत मां शाकंभरी के चार प्रमुख स्तोत्र यहाँ प्रस्तुत हैं। श्रद्धालु साधक  माँ शाकम्भरी भगवती के चित्र का प्रिन्ट आउट निकाल सकते हैं या फिर दुर्गा जी की मूर्ति चित्र या दुर्गा यन्त्र या श्री यन्त्र के आगे इन चारों स्तोत्रों का शाकंभरी नवरात्रि को(पौष शुक्ल अष्टमी से पौष पूर्णिमा तक) और विशेष रूप से शाकंभरी जयन्ती (पौष  शुक्ल पूर्णिमा) पर सुबह शाम पाठ कर माँ की कृपा प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। यदि कोई साधक शाकम्भरी नवरात्रि में तीनों समय अर्थात् सुबह, दोपहर और सायंकाल में इन स्तोत्रों को पढ़ ले तो अति उत्तम फल प्राप्त होता है... इसमें कवच आदि स्तोत्रों के पाठ और 108 नामों से पूजन होता है। कवच पाठ से साधक की रक्षा होती है और इसके साथ अन्य स्तोत्र भी पढ़ने से पापमुक्ति, आपत्ति से मुक्ति, यश, आरोग्य, विद्या, धन सम्पदा आदि शुभ फलों की प्राप्ति होती है। यदि किसी साधक के पास पर्याप्त समय हो और उसे कोई मनोकामना सिद्ध करनी है तो वह नीचे दिए गए शाकम्भरी कवच का कुल 1000 बार पाठ करे अर्थात 100 दिन तक 10 बार पाठ प्रतिदिन करे, या केवल 10 दिन तक 100 बार पाठ प्रतिदिन करे।

(1) श्री शाकम्भरी-पञ्चकम् 

श्रीवल्लभ-सोदरी श्रितजन-श्चिद्दायिनी श्रीमती श्री-कण्ठार्ध-शरीरगा श्रुति-लसन्माणिक्य-ताटङ्कका ।
श्रीचक्रान्तर-वासिनी श्रुतिशिरः सिद्धान्त-मार्ग-प्रिया
श्रीवाणी गिरिजात्मिका भगवती शाकम्भरी पातु माम् ॥ १॥ 

शान्ता शारद-चन्द्र-सुन्दरमुखी शाल्यन्न-भोज्य-प्रिया
शाकैः पालित-विष्टपा शत-दृशा शाकोल्लसद्-विग्रहा।
श्यामाङ्गी शरणागतार्ति-शमनी शक्रादिभिः शंसिता शङ्कर्यष्ट-फलप्रदा भगवती शाकम्भरी पातु माम्॥२॥

कञ्जाक्षी कलशी भवादिविनुता कात्यायनी कामदा कल्याणी कमलालया करकृतां भोजासि-खेटाभया।
कादंवासव-मोदिनी कुच-लसत्काश्मीरजा-लेपना कस्तूरी-तिलकाञ्चिता भगवती शाकम्भरी पातु माम् ॥ ३॥

 भक्तानन्दविधायिनी भवभयप्रध्वंसिनी भैरवी भर्मालङ्कृति-भासुरा भुवनभीकृद् दुर्गदर्पापहा । भूभृन्नायकनन्दिनी भुवनसूर्भास्यत्परः कोटिभा
 भौमानन्द विहारिणी भगवती शाकम्भरी पातु माम् ॥ ४॥
 
रीताम्नाय-शिखासु रक्तदशना राजीवपत्रेक्षणा
राकाराज-करावदात-हसिता राकेन्दु-बिम्बस्थिता।
रुद्राणी रजनीकरार्भक-लसन्मौली रजोरुपिणी
रक्षः शिक्षणदीक्षिता भगवती शाकम्भरी पातु माम्॥५॥

 श्लोकानामिह पञ्चकं पठति यः स्तोत्रात्मकं शर्मदं सर्वापत्तिविनाशकं प्रतिदिनं भक्त्या त्रिसन्ध्यं नरः।
आयुःपूर्ण-मपारमर्थ-ममलां कीर्ति प्रजामक्षयां शाकम्भर्यनुकम्पया स लभते विद्यां च विश्वार्थकाम्॥६॥ 
(जो यह शाकंभरी पंचक स्तोत्र प्रतिदिन तीन संध्याओं में पाठ करता है उसे माँ शाकम्भरी की अनुकम्पा से दीर्घायु, अपार धन, कीर्ति, सन्तान,विद्या की प्राप्ति होती है)
 
श्रीमच्छङ्कराचार्य-विरचितं शाकम्भरी पञ्चकं शुभमस्तु ओऽम् तत्सत्

(2) श्री शाकम्भरी कवचम् 
शक्र उवाच - 
शाकम्भर्यास्तु कवचं सर्वरक्षाकरं नृणाम् । 
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे कथय षण्मुख ॥ १॥
(इन्द्र बोले - हे छः मुख वाले कार्तिकेय जी मुझे सब प्रकार से रक्षा करने वाले शाकंभरी देवी के उस कवच को कहें जो किसी को भी नहीं कहा गया हो)

 स्कन्द उवाच - 
 शक्र शाकम्भरीदेव्याः कवचं सिद्धिदायकम् । 
 कथयामि महाभाग श्रुणु सर्वशुभावहम् ॥ २॥ 
(स्कन्द बोले - हे महाभाग्यवान् इन्द्र! मैं शाकंभरी देवी के उस सिद्धि दायक शुभ कवच को कहता हूं सुनो)

विनियोग - अस्य श्री शाकम्भरी कवचस्य स्कन्द ऋषिः । शाकम्भरी देवता । अनुष्टुप्छन्दः । चतुर्विधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ॥ 
 
ध्यानम् -
 शूलं खड्गं च डमरुं दधानामभयप्रदम्। सिंहासनस्थां ध्यायामि देवी शाकम्भरीमहम् ॥ ३॥ 
 (मैं सिंह के आसन पर विराजित शूल,खड्ग,डमरू व अभय मुद्रा धारण करने वाली आठ हाथों वाली शाकंभरी देवी का ध्यान करता हूँ) 
 
सर्वत्र जयमाप्नोति धनलाभं च पुष्कलम्। विद्यां वाक्पटुतां चापि शाकम्भर्याः प्रसादतः॥१६॥ (देवी शाकम्भरी के प्रसाद से पाठकर्ता को सर्वत्र विजय मिलती है धन लाभ होता है, विद्या, बोलने में कुशलता की भी प्राप्ति होती है)
भगवती शाकम्भरी
कवचम् -

शाकम्भरी शिरः पातु नेत्रे मे रक्तदन्तिका । 
कर्णो रमे नन्दजः पातु नासिकां पातु पार्वती ॥ ४॥

 ओष्ठौ पातु महाकाली महालक्ष्मीश्च मे मुखम् ।
  महासरस्वती जिह्वां चामुण्डाऽवतु मे रदाम् ॥ ५॥
  
 कालकण्ठसती कण्ठं भद्रकाली करद्वयम् ।
  हृदयं पातु कौमारी कुक्षिं मे पातु वैष्णवी ॥ ६॥ 
  
नाभिं मेऽवतु वाराही ब्राह्मी पार्श्वे ममावतु । 
पृष्ठं मे नारसिंही च योगीशा पातु मे कटिम् ॥ ७॥

ऊरु मे पातु वामोरुर्जानुनी जगदम्बिका। 
जङ्घे  मे  चण्डिकां पातु  पादौ   मे पातु शाम्भवी॥८॥
 
 शिरःप्रभृति पादान्तं पातु मां सर्वमङ्गला। 
 रात्रौ पातु दिवा पातु त्रिसन्ध्यं पातु मां शिवा॥९॥
 
 गच्छन्तं पातु तिष्ठन्तं शयानं पातु शूलिनी। 
 राजद्वारे च कान्तारे खड्गिनी पातु मां पथि॥१०॥
 
 सङ्ग्रामे सङ्कटे वादे नद्युत्तारे महावने।
 भ्रामणेनात्मशूलस्य पातु मां परमेश्वरी ॥ ११॥
 
  गृहं पातु कुटुम्बं मे पशुक्षेत्रधनादिकम्।
   योगक्षैमं च सततं पातु मे बनशङ्करी ॥ १२॥
   
 इतीदं कवचं पुण्यं शाकम्भर्याः प्रकीर्तितम् । 
यस्त्रि-सन्ध्यं पठेच्छक्र सर्वापद्भिः स मुच्यते॥१३॥
 (हे इन्द्र इस शाकम्भरी देवी के शुभदायक कवच का जो कोई भी तीन संध्याओं अर्थात् सुबह , दोपहर और शाम को पाठ करता है उसको सभी आपदाओं से मुक्ति मिल जाती हैै)
 
 तुष्टिं पुष्टिं तथारोग्यं सन्ततिं सम्पदं च शम् ।
  शत्रुक्षयं समाप्नोति कवचस्यास्य पाठतः ॥ १४॥
(पाठकर्ता को संतोष, शान्ति,बल,आरोग्यता, सम्पत्ति की प्राप्ति होती है तथा उसके शत्रुओं का नाश होता है)
  
 शाकिनी-डाकिनी-भूत बालग्रह-महाग्रहाः ।
नश्यन्ति दर्शनात्त्रस्ताः कवचं पठतस्त्विदम्॥१५॥
(शाकिनी, डाकिनी , भूतप्रेत और बाधाकारक बालग्रह, महाग्रह कवच पाठकर्ता के दर्शन से ही त्रस्त हो जाते हैं)
  
सर्वत्र जयमाप्नोति धनलाभं च पुष्कलम्।
विद्यां वाक्पटुतां चापि शाकम्भर्याः प्रसादतः॥१६॥
(देवी शाकम्भरी के प्रसाद से पाठकर्ता को सर्वत्र विजय मिलती है धन लाभ होता है, विद्या, बोलने में कुशलता की भी प्राप्ति होती है)

 आवर्तनसहस्रेण कवचस्यास्य वासव ।
 यद्यत्कामयतेऽभीष्टं तत्सर्वं प्राप्नुयाद् ध्रुवम् ॥ १७॥
 (इसका हजार बार पाठ करने से उस समय जैसी अभीष्ट कामना की गई हो वह प्राप्त होता है )
 ॥ श्री स्कन्दपुराणे स्कन्दप्रोक्तं शाकम्भरी कवचं शुभमस्तु ओऽम् तत्सत् ॥

(3)शाकम्भरी अष्टोत्तरशत-नामावलिः 

अब देवी शाकम्भरी के 108 नाम प्रस्तुत हैं। अर्चन करने के लिए एक पात्र में पुष्प कुमकुम चन्दन जल अक्षत तिल डालकर आचमनी से उस जल को प्रत्येक नाम मन्त्र पढ़ते हुए देवी दुर्गा की प्रतिमा या यन्त्र पर अर्पित करते जाएं। दुर्गा जी के चित्र में फूल अक्षत चढ़ाकर भी अर्चन कर सकते हैं, कोई चाहे तो इन नाम मन्त्रों में अन्त में स्वाहा लगाकर हवन भी कर सकता है। पूजन हवन सम्भव न हो तो इन नामों को पढ़ते हुए नमस्कार ही कर ले... ध्यान रहे कि यदि पूजा कर रहे हों तो अर्चने विनियोगः कहें और यदि केवल नाम मन्त्रों का हाथ जोड़कर पाठ करना है तो पारायणे विनियोगः कहें -

हाथ में जल लेकर बोले "अस्य श्री शाकम्भरी अष्टोत्तर शतनामावलि महामन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः, शाकम्भरी देवता , सौः बीजम् , क्लीं शक्तिः , ह्रीं कीलकम् , श्री शाकम्भरी प्रसाद सिद्धयर्थे श्री शाकम्भर्यष्टोत्तरशत-नाममन्त्र पारायणे (अर्चने) विनियोगः।"

श्रीशाकम्भरी ध्यानम् - 
 शान्ता शारदचन्द्र-सुन्दर-मुखी शाल्यन्नभोज्य-प्रिया
  शाकैः पालितविष्टपा शतदृशा शाकोल्लसद्विग्रहा।
 श्यामाङ्गी शरणागतार्ति-शमनी शक्रादिभिः शंसिता
   शङ्कर्यष्ट-फलप्रदा भगवती शाकम्भरी पातु माम्॥
 
श्रीशाकम्भरी माँ की पंच उपचार पूजा - 
 ॐ शाकम्भर्यै नमः लं गन्धं समर्पयामि 
 ॐ शाकम्भर्यै नमः हं पुष्पं समर्पयामि
 ॐ शाकम्भर्यै नमः यं धूपम् आघ्रापयामि
 ॐ शाकम्भर्यै नमः रं दीपम् दर्शयामि
 ॐ शाकम्भर्यै नमः वं नैवेद्यं निवेदयामि
 ॐ शाकम्भर्यै नमः सौं सर्वोपचाराणि मनसापरिकल्प्य समर्पयामि 

अब इन 108 नाम मन्त्रों द्वारा देवी की पूजा करे या हाथ जोड़कर पाठ करे -

 ॐ शाकम्भर्यै नमः । महालक्ष्म्यै नमः। महाकाल्यै नमः। महाकान्त्यै नमः। महासरस्वत्यै नमः। महागौर्यै नमः। महादेव्यै नमः। भक्तानुग्रहकारिण्यै नमः। स्वप्रकाशात्मरूपिण्यै नमः। महामायायै नमः। माहेश्वर्यै नमः। वागीश्वर्यै नमः। जगद्धात्र्यै नमः। कालरात्र्यै नमः। त्रिलोकेश्वर्यै नमः। भद्रकाल्यै नमः। कराल्यै नमः। पार्वत्यै नमः। त्रिलोचनायै नमः। सिद्धलक्ष्म्यै नमः ॥ २०
 
 ॐ क्रियालक्ष्म्यै नमः । मोक्षप्रदायिन्यै नमः। अरूपायै नमः। बहुरूपायै नमः। स्वरूपायै नमः। विरूपायै नमः। पञ्चभूतात्मिकायै नमः। देव्यै नमः। देवमूर्त्यै नमः। सुरेश्वर्यै नमः। दारिद्र्यध्वंसिन्यै नमः। वीणापुस्तकधारिण्यै नमः। सर्वशक्त्यै नमः। त्रिशक्त्यै नमः। ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकायै नमः। अष्टाङ्गयोगिन्यै नमः। हंसगामिन्यै नमः। नवदुर्गायै नमः। अष्टभैरवात्मिकायै नमः। गङ्गायै नमः॥ ४०
 
 ॐ वेण्यै नमः । सर्वशस्त्र-धारिण्यै नमः। समुद्र-वसनायै नमः। ब्रह्माण्ड-मेखलायै नमः। अवस्थात्रय-निर्मुक्तायै नमः। गुणत्रय-विवर्जितायै नमः। योगध्यानैक-संन्यस्तायै नमः। योगध्यानैक-रूपिण्यै नमः। वेदत्रय-रूपिण्यै नमः। वेदान्तज्ञान-रूपिण्यै नमः। पद्मावत्यै नमः। विशालाक्ष्यै नमः। नाग-यज्ञोपवीतिन्यै नमः। सूर्यचन्द्र-स्वरूपिण्यै नमः। ग्रहनक्षत्ररूपिण्यै नमः। वेदिकायै नमः। वेदरूपिण्यै नमः। हिरण्य-गर्भायै नमः। कैवल्यपद-दायिन्यै नमः। सूर्यमण्डल-संस्थितायै नमः ॥ ६०
 
 ॐ सोममण्डल-मध्यस्थायै नमः । वायुमण्डल-संस्थितायै नमः। वह्निमण्डल-मध्यस्थायै नमः। शक्तिमण्डल-संस्थितायै नमः। चित्रिकायै नमः। चक्रमार्ग-प्रदायिन्यै नमः। सर्वसिद्धान्त-मार्गस्थायै नमः। षड्वर्ग-वर्णवर्जितायै नमः। एकाक्षरप्रणव-युक्तायै नमः। प्रत्यक्ष-मातृकायै नमः। दुर्गायै नमः। कलाविद्यायै नमः। चित्रसेनायै नमः। चिरन्तनायै नमः। शब्द-ब्रह्मात्मिकायै नमः। अनन्तायै नमः। ब्राह्म्यै नमः। ब्रह्मसनातनायै नमः। चिन्तामण्यै नमः। उषादेव्यै नमः ॥ ८०

 ॐ विद्यामूर्ति-सरस्वत्यै नमः । त्रैलोक्य-मोहिन्यै नमः। विद्यादायै नमः। सर्वाद्यायै नमः। सर्वरक्षाकर्त्र्यै नमः। ब्रह्मस्थापित-रूपायै नमः। कैवल्यज्ञान-गोचरायै नमः। करुणा-कारिण्यै नमः। वारुण्यै नमः। धात्र्यै नमः। मधुकैटभमर्दिन्यै नमः। अचिन्त्य-लक्षणायै नमः। गोप्त्र्यै नमः। सदाभक्ताघ-नाशिन्यै नमः। परमेश्वर्यै नमः। महारवायै नमः। महाशान्त्यै नमः। सिद्धलक्ष्म्यै नमः। सद्योजात-वामदेवाघोर-तत्पुरुषेशान-रूपिण्यै नमः। नागेश-तनयायै नमः॥ १००
 
 ॐ सुमङ्गल्यै नमः । योगिन्यै नमः। योगदायिन्यै नमः। सर्वदेवादि-वन्दितायै नमः। विष्णुमोहिन्यै नमः। शिवमोहिन्यै नमः। ब्रह्ममोहिन्यै नमः। श्रीवनशङ्कर्यै नमः ॥ १०८
॥ श्री शाकम्भरी अष्टोत्तरशत-नामावलिः शुभमस्तु ओऽम् तत्सत् ॥

अब निम्नलिखित स्तोत्र से स्तुति करे -

(4) श्री शाकम्भर्यष्टकम् 
शक्तिः शाम्भव-विश्वरूप-महिमा माङ्गल्य-मुक्तामणि- 
र्घण्टा शूलमसिं लिपिं च दधतीं दक्षैश्चतुर्भिः करैः । 
वामैर्बाहुभि-रर्घ्य-शेषभरितं पात्रं च शीर्षं तथा 
चक्रं खेटक-मन्धकारि-दयिता त्रैलोक्य-माता शिवा॥१॥

 देवी दिव्यसरोज-पादयुगले मञ्जुक्वणन्नूपुरा
 सिंहारूढ-कलेवरा भगवती व्याघ्राम्बरा-वेष्टिता ।
 वैडूर्यादि-महार्घरत्न-विलसन्नक्षत्र-मालोज्ज्वला 
 वाग्देवी विषमेक्षणा शशिमुखी त्रैलोक्यमाता शिवा ॥ २॥
 
 ब्रह्माणी च कपालिनी सुयुवती रौद्री त्रिशूलान्विता
  नाना दैत्यनिबर्हिणी नृशरणा शङ्खासि-खेटायुधा ।
 भेरीशङ्ख मृदङ्ग घोषमुदिता शूलिप्रिया चेश्वरी 
माणिक्याढ्य-किरीट-कान्तवदना त्रैलोक्यमाता शिवा ॥ ३॥
  
 वन्दे देवि भवार्ति-भञ्जनकरी भक्तप्रिया मोहिनी 
 मायामोह-मदान्धकार-शमनी मत्प्राण-सञ्जीवनी। 
 यन्त्रं मन्त्रजपौ तपो भगवती माता पिता भ्रातृका 
 विद्या बुद्धिधृती गतिश्च सकलत्रैलोक्य-माता शिवा॥४॥
 
 श्रीमातस्त्रिपुरे त्वमब्जनिलया स्वर्गादिलोकान्तरे
  पाताले जलवाहिनी त्रिपथगा लोकत्रये शङ्करी। 
  त्वं चाराधक-भाग्यसम्पद्विनी श्रीमूर्ध्नि लिङ्गाङ्किता
  त्वां वन्दे भवभीति-भञ्जनकरीं त्रैलोक्यमातः शिवे ॥ ५॥
  
 श्रीदुर्गे भगिनीं त्रिलोकजननीं कल्पान्तरे डाकिनीं
 वीणापुस्तकधारिणीं गुणमणिं कस्तूरिकालेपनीम्।
 नानारत्नविभूषणां त्रिनयनां दिव्याम्बरावेष्टितां
 वन्दे त्वां भवभीति-भञ्जनकरीं त्रैलोक्यमातः शिवे ॥ ६॥ 
 
नैरृत्यां दिशि पत्रतीर्थममलं मूर्तित्रये वासिनीं 
साम्मुख्या च हरिद्रतीर्थमनघं वाप्यां च तैलोदकम्।
गङ्गादित्रयसङ्गमे सकुतुकं पीतोदके पावने
 त्वां वन्दे भवभीति-भञ्जनकरीं त्रैलोक्यमातः शिवे ॥ ७॥

 द्वारे तिष्ठति वक्रतुण्डगणपः क्षेत्रस्य पालस्ततः 
 शक्रेड्या च सरस्वती वहति सा भक्तिप्रिया वाहिनी ।
  मध्ये श्रीतिलकाभिधं तव वनं शाकम्भरी चिन्मयी
   त्वां वन्दे भवभीति-भञ्जनकरीं त्रैलोक्यमातः शिवे ॥ ८॥
   
 शाकम्भर्यष्टकमिदं यः पठेत्प्रयतः पुमान्।
  स सर्वपाप-विनिर्मुक्तः सायुज्यं पदमाप्नुयात्॥९॥
  (शाकम्भरी अष्टक के पाठ से भक्त के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसको 'सायुज्य मुक्ति' प्राप्त होती है)
॥श्रीमच्छङ्कराचार्य-विरचितं शाकम्भर्यष्टकं शुभमस्तु ओऽम् तत्सत्॥

साधना के उपरान्त साधक निम्न श्लोक का उच्चारण करने के बाद एक आचमनी जल देवी की प्रतिमा पर छोड़कर सम्पूर्ण स्तोत्र पाठ भगवती को समर्पित कर दे- ॐ गुह्याति-गुह्य गोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपं। सिद्धिर्भवतु मे देवि! त्वत्प्रसादान्महेश्वरि।।

   इन भगवती आदिशक्ति शाकम्भरी शताक्षी के लिए कहा गया है- "दारिद्र्य दुःख भय हारिणी का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता
माँ आप के समान करुण हृदय अन्य कोई नहीं है। हे मूलप्रकृति! हे शाकंभरी माँ! हे शताक्षी माँ! तेरे समान दरिद्रता, दुख, भय का हरण करने वाली और कौन है, जिसका हृदय सबका उपकार करने के लिए सदा ही दया से आर्द्र(द्रवित) रहता हो।दयार्द्रचित्ता भगवती शाकंभरी माँ को जयंती पर हमारा अनन्त बार प्रणाम...

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