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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

पितृ तर्पण विधि

देव ऋषि तथा पितृगणों के तर्पण की सरल विधि यहाँ प्रस्तुत है। पितृपक्ष में प्रत्येक दिन तर्पण किया जाता है। विशेष रूप से पितृपक्ष की अमावास्या को तो अवश्य तर्पण करना चाहिए।

सर्वप्रथम पूर्व दिशा की ओर मुँह करके, दाहिना घुटना जमीन पर लगाकर बैठे और तीन आचमन करें।

गायत्री मंत्र से शिखा बांध कर, तिलक लगाकर, दोनों हाथोंकी अनामिका अँगुलीमें कुशोंका  पवित्री (पैंती) धारण करें । 

सव्य हो जाये - जनेऊ व अंगोछे को वाम कंधे पर रखें।

फिर हाथमें त्रिकुश , जौ, अक्षत और जल लेकर संकल्प कर लें -

ॐ विष्णवे नम: 

ॐ विष्णवे नम:

ॐ विष्णवे नम:

हरि: ॐ तत्सदद्य श्रीमद्भावतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्री ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशति-तमे कलियुगे कलि-प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे 

- - - प्रदेशे , ----- ग्रामे / नगरे/ क्षेत्रे, 

----- नाम्नि संवत्सरे, - - - - मासे _______ पक्षे ______तिथौ _____वासरे ______गोत्रोत्पन्न: ___(नाम )__शर्मा (वर्मा, गुप्तो) ऽहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्षि-मनुष्य-पितृ-तर्पणं करिष्ये।


तीन कुश को पकड़कर निम्न मंत्र को तीन बार कहें- 

ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगीभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः॥


तदनन्तर एक ताँवे अथवा चाँदी के पात्र में श्वेत चन्दन, जौ, तिल, चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्र मे तर्पण के लिये जल भर दें। फिर उसमें त्रिकुशों को रखें।  अब पात्र को दायें हाथ में लेकर, बायें हाथसे उसे ढक लें और  देवताओं का आवाहन करें -

ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म इमं हवम्। एदं वर्हि र्निषीदत॥

'हे विश्वेदेवगण ! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आवाहन को सुनें, और इस कुश के आसन पर विराजें।'


इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें, और त्रिकुशा द्वारा दायें हाथकी समस्त अङ्गुलियोंके अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थसे ब्रह्मादि देवताओंके लिये पूर्वोक्त पात्रमें से एक-एक अञ्जलि  चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्रमें गिरावें, और निम्नाङ्कित रूपसे उन-उन देवताओंके नाममन्त्र पढ़ते रहें-


(१.) देवतर्पण-


ॐ ब्रह्मास्तृप्यताम् ।


ॐ विष्णुस्तृप्यताम् ।


ॐ रुद्रस्तृप्यताम् ।


ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् ।


ॐ देवास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् ।


ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् ।


ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ संवत्सरसावयवस्तृप्यताम् ।


ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् ।


ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम् ।


ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ नागास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् ।


ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् ।


ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् ।


ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् ।


ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् ।


ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् ।


ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम् ।


ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् ।


(२.) ऋषितर्पण-


इसीप्रकार (देवतीर्थ से ही)  निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अञ्जलि जल दें—


ॐ मरीचिस्तृप्यताम् ।


ॐ अत्रिस्तृप्यताम् ।


ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् ।


ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् ।


ॐ पुलहस्तृप्यताम् ।


ॐ क्रतुस्तृप्यताम् ।


ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् ।


ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् ।


ॐ भृगुस्तृप्यताम् ।


ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥


(३.) मनुष्यतर्पण-


उत्तर दिशाकी ओर मुँह कर, जनेऊ व गमछेको मालाकी भाँति गलेमें धारण कर, सीधे बैठकर  निम्नाङ्कित मन्त्रोंको दो-दो बार पढते हुए


दिव्य मनुष्योंके लिये प्रत्येकको दो-दो अञ्जलि जौ सहित जल प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिकाके मूला-भाग) से अर्पण करें—


ॐ सनकस्तृप्यताम् -2


ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् –2


ॐ सनातनस्तृप्यताम् -2


ॐ कपिलस्तृप्यताम् -2


ॐ आसुरिस्तृप्यताम् -2


ॐ वोढुस्तृप्यताम् -2


ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् -2


(४.) पितृतर्पण-


दक्षिण की ओर मुँह करे। कुशों के मूल ,और अग्रभागको दक्षिणकी ओर करके  अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे। 

बायें घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्य हो जायें - जनेऊ को दायें कंधे पर रखकर बाँये हाथके नीचे ले जायें।

 पात्रस्थ जल में काले तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगूठे और तर्जनी के मध्यभाग से ) दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्कित मन्त्र-वाक्यों को पढ़ते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें—


ॐ कव्यवाड-नल-स्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3 बार


ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3 बार


ॐ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा)तस्मै स्वधा नम: – 3 बार


ॐ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3 बार


ॐ अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3 बार


ॐ सोमपा: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3


ॐ बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3



(५.) यमतर्पण-

इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्रों क पढते हुए चौदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें—


ॐ यमाय नम: – 3


ॐ धर्मराजाय नम: – 3


ॐ मृत्यवे नम: – 3


ॐ अन्तकाय नम: – 3


ॐ वैवस्वताय नमः – 3


ॐ कालाय नम: – 3


ॐ सर्वभूतक्षयाय नम: – 3


ॐ औदुम्बराय नम: – 3


ॐ दध्नाय नम: – 3


ॐ नीलाय नम: – 3


ॐ परमेष्ठिने नम: – 3


ॐ वृकोदराय नम: – 3


ॐ चित्राय नम: – 3


ॐ चित्रगुप्ताय नम: – 3


ध्यातव्य- १.) जिनके पिता जीवित हों, वे लोग मात्र यहीं तक तर्पण करें, इससे आगे का तर्पण नहीं करें। वे इसके बाद नीचे वस्त्रनिष्पीडन से आगे का कर्म करें।

२.) जिनके पिता नहीं हैं वे लोग इससे आगे का भी तर्पण करें, परन्तु यदि माता आदि जीवित हों तो उन उनको छोड़कर के अन्यों का तर्पण करें। 


(६.) मनुष्य-पितृ तर्पण -

 पूर्वोक्त प्रकार से बैठें। बायें घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्य हों - जनेऊ को दायें कंधे पर रखकर बाँये हाथके नीचे ले जायें।

इसके पश्चात् निम्न मन्त्रों से पितरों का आवाहन करें-


ॐ आगच्छन्तु मे पितर इमं ग्रहणन्तु जलाञ्जलिम्।।

 हे पितरों! पधारिये तथा जलांजलि ग्रहण कीजिए। 


तदनन्तर अपने पितृगणोंका नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें-


..(गोत्र का नाम).. गोत्रीय अस्मत्पिता (पिताका नाम) शर्मा  वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3


.... गोत्रीय अस्मत्पितामह: [दादा का नाम ]शर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3


.... गोत्रीय अस्मत्प्रपितामह: (परदादा का नाम) शर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3


जिनकी माता न हो -

.... गोत्रीय अस्मन्माता [माँ का नाम] देवी वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3


.... गोत्रीय अस्मत्पितामही (दादी का नाम) देवी  रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3*


.... गोत्रीय  अस्मत्प्रपितामही (परदादी का नाम) देवी आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: – 3


इसके बाद वेदमंत्रों से जलधारा दी जाती है -

ॐ पितृभ्य:स्वधायिभ्य: स्वधा नम:। पितामहेभ्य: स्वधायिभ्य:।

स्वधा नम: प्रपितामहेभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधा नम: ।

अक्षन्पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृप्यन्त पितर: पितर:शुन्धध्वम् ॥

मधुनक्त मुतोषसो मधुमत्पार्थिव गुं रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता।

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँऽअस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥

 ॐ मधु । मधु। मधु । तृप्यध्वम्‌। तृप्यध्वम्‌ । तृप्यध्वम्‌ ।


 उसके बाद द्वितीय गोत्र तर्पण करें ,द्वितीय गोत्र तर्पण अपने पिता माता आदि की तरह ही होगा।


 जिसमें नाना, परनाना, वृद्धपरनाना, नानी , परनानी एवं वृद्धपरनानीको तीन-तीन अंजलि तिल मिश्रित जल से दें


इसके बाद नाम गोत्रका उच्चारण करते हुए अन्य संबंधी (जो लोग मृत हो गए हों) उनके लिए भी एक-एक अंजलि दी जाती है।


 इन्हें एकोद्दिष्टगण कहते हैं जिसमें हैं- पत्नी, पुत्र, पुत्री, पिताके भाई, मामा, अपना भाई ,सौतेला भाई, बुआ, मौसी, बहन, सौतेली बहन, श्वशुर, गुरु, आचार्य पत्नी, शिष्य, मित्र, आप्तपुरुष आदि प्रिय जन का  तर्पण करें।


इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढते हुए जल गिरावे—


देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसा:।

पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव: खगा:॥

जलेचरा भूमिचराः वाय्वा-धाराश्च जन्तव:। तृप्तिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला:॥

अर्थ- : ‘देवता, असुर , यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध, कूष्माण्ड, वृक्षवर्ग, पक्षी, जलचर जीव और वायु के आधार पर रहनेवाले जन्तु-ये सभी मेरे दिये हुए जल से शीघ्र तृप्त हों ।


पितृतीर्थ से जलधारा गिराए-


नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिता:।  तेषा-माप्या-यनायै-तद्दीयते सलिलं मया॥

येऽबान्धवा बान्धवाश्च येऽन्यजन्मनि बान्धवा:।

ते तृप्तिमखिला यान्तु यश्चा-स्मत्तोऽभि-वाञ्छति॥


आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षि-पितृ-मानवा:।

तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृ-माता-महादय:॥


अतीत-कुल-कोटीनां सप्तद्वीप-निवासिनाम्।

आ ब्रह्मभुवना-ल्लोका-दिदमस्तु तिलोदकम्॥

(जो समस्त नरकों तथा वहाँ की यातनाओं में दुःख भोग रहे हैं, उनको पुष्ट तथा शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूँ। 

जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में बान्धव रहे हों, अथवा किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सब तथा इनके अतिरिक्त भी जो मुझसे जल पाने की इच्छा रखते हों, वे भी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हों।

ब्रह्माजी से लेकर कीटों तक जितने जीव हैं, वे तथा देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और माता, नाना आदि पितृगण-ये सभी तृप्त हों।

 मेरे कुलकी बीती हुई करोडों पीढियों में उत्पन्न हुए जो-जो पितर ब्रह्मलोकपर्यन्त सात द्वीपोंके भीतर कहीं भी निवास करते हों, उनकी तृप्ति के लिये मेरा दिया हुआ यह तिलमिश्रित जल उन्हें प्राप्त हो। 

वस्त्रनिष्पीडन-

 तत्पश्चात् वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर जल में डुबावे अपनी बाईं ओर ये मंत्र कहकर भूमि पर निचोड़े -

ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृता। ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम्।।


 यदि घरमें किसी मृत पुरुषका वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो वस्त्र-निष्पीडन नहीं करना चाहिये ।


(७.) भीष्मतर्पण -


इसके बाद दक्षिणाभिमुख हो पितृतर्पणके समान ही, अनेऊ अपसव्य करके, हाथमें कुश धारण किये हुए ही बालब्रह्मचारी भक्तप्रवर भीष्मजीके लिये पितृतीर्थसे तिलमिश्रित जलके द्वारा तर्पण करे । 


उनके लिये तर्पण का मन्त्र निम्नाङ्कित श्लोक है–


वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्कृतिप्रवराय च।

गङ्गापुत्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम्।अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे॥


प्रमुख देवताओं को अर्घ्यदान-


फिर शुद्ध जलसे आचमन करके प्राणायाम करे।  तदनन्तर यज्ञोपवीत सव्य (बायें कंधे पर) करके एक पात्र में शुद्ध जल भरकर उसमें श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प तथा तुलसीदल छोड़ दें। 


फिर दूसरे पात्रमें चन्दन् से षड्दल-कमल बनाकर उसमें पूर्वादि दिशा के क्रम से ब्रह्मादि देवताओंका आवाहन-पूजन करे 

तथा पहले पात्र के जल से उन पूजित देवताओं के लिये अर्घ्य अर्पण करे -

ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद् विसीमत: सुरुचो व्वेन ऽआव:। स बुध्न्याऽ उपमाऽ अस्य व्विष्ठा: सतश्च योनिमसतश्च व्विव:॥

 ॐ ब्रह्मणे नम:। 


ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य पां सुरे स्वाहा॥

ॐ विष्णवे नम:।


ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽउतो त ऽइषवे नम:। बाहुभ्यामुत ते नम:॥

 ॐ रुद्राय नम:। 


ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्॥

 ॐ सवित्रे नम:।


ॐ मित्रस्य चर्षणीधृतोऽ वो देवस्य सानसि। द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम् ॥

ॐ मित्राय नम:।


ॐ इमं मे व्वरुण श्रुधी हवमद्या च मृडय।   त्वामवस्युराचके ॥

ॐ वरुणाय नम: ।


अब उसी पात्र में सूर्यार्घ्य भी दें -

एहि सूर्य सहस्त्राशो तेजो राशे जगत्पते।

अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर।


अब हाथों को उपर करके उपस्थान मंत्र पढ़ें–


ॐ चित्रं देवाना-मुद-गादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आ प्रा-द्यावा-पृथ्वी ऽअन्तरिक्षं सूर्यऽ आत्मा-जगतस् - तस्थुषश्च।

खड़े होकर वहीं घूमते हुए सात बार सूर्य की प्रदक्षिणा करें।


फिर पूर्वादिक्रम से दिग्देवताओं को दसों दिशाओं में नमस्कार करें-


ॐ प्राच्यै नमः, इन्द्राय नमः। 

ॐ आग्नेयायै नमः,आग्नेय नमः। 

ॐ दक्षिणायै नमः, यमाय नमः। 

ॐ नैर्ऋत्यै नमः, निर्ऋतये नमः। 

ॐ पश्चिमायै नमः, वरूणाय नमः। 

ॐ वायव्यै नमः, वायवे नमः। 

ॐ उदीच्यै नमः, कुवेराय नमः।

ॐ ऐशान्यै नमः, ईशानाय नमः। 

ॐ ऊर्ध्वायै नमः,ब्रह्मणे नमः। 

ॐ अधरायै नमः, अनन्ताय नमः।


इस तरह दिशाओं और देवताओंको नमस्कार कर , बैठकर नीचे लिखे मन्त्रोंसे पुनः देवतीर्थसे तर्पण करें।


ॐ ब्रह्मणे नमः। 

ॐ अग्नये नमः। 

ॐ पृथिव्यै नमः। 

ॐ औषधिभ्यो नमः। 

ॐ वाचे नमः। 

ॐ वाचस्पतये नमः। 

ॐ महद्भ्यो नमः। 

ॐ विष्णवे नमः। 

ॐ अद्भ्यो नमः। 

ॐ अपांपतये नमः। 

ॐ वरुणाय नमः। 


फिर तर्पणके जलको मुखपर लगायें और कहें -

 अच्युताय नमः। अनंताय नमः। गोविंदाय नमः।

विसर्जन -

निम्न मंत्र पढ़ें -

ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित। मनसस्पत इमं देव यज्ञं स्वाहा वाते धाः॥ (यजुर्वेद ८।२१)

"हे यज्ञवेत्ता देवताओं ! आप लोग हमारे इस तर्पण-रूपी यज्ञ को समाप्त जानकर अपने गन्तव्य मार्ग को पधारें। हे चित्त के प्रवर्तक परमेश्वर! मैं इस यज्ञ को आपके हाथ में अर्पण करता हूं। आप इसे वायु देवता में स्थापित करें।"

समर्पण- उपरोक्त समस्त तर्पण कर्म भगवान को समर्पित करें।

अनेन यथा - शक्ति -कृतेन देवर्षि - मनुष्य-पितृ - तर्पणाख्येन कर्मणा भगवान्‌ मम॒ समस्तपितृ-स्वरूपी जनार्दन-वासुदेवः प्रीयतां न मम।

ॐ तत्सदब्रह्मार्पणमस्तु। 

ॐ विष्णवे नमः ॐ विष्णवे नमः 

       ॐ विष्णवे नमः



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