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वताओं, ऋषियों तथा पितृगणों के तर्पण की सरल विधि यहाँ प्रस्तुत है। यह एक ऐसा सरल कर्म है जिसके माध्यम से देवऋण, ऋषिऋण व पितृऋण से हम उऋण हो सकते हैं।
वेदमंत्रों द्वारा तर्पणकर्म जिनका उपनयन संस्कार हो गया है उनके द्वारा ही किया जाता है। जिनका जनेऊ संस्कार नहीं हुआ है यदि उन्हें तर्पण करना है तो यह सावधानी रखनी होगी कि वे इसमें गायत्रीमंत्र, वेदमंत्रों व ॐ का उच्चारण न करें और जनेऊ की जगह अंगोछा प्रयोग करें। उनके द्वारा अंगोछे को बाएं-दायें करने से भी सव्य/अपसव्य हो जाता है।
हमने इस विधि में तर्पण मन्त्रों को लिखित में तो दिया ही है। परन्तु आपकी सुविधा के लिए कुछ जगह तर्पणमंत्रों का फोटो भी दे दिया है, ताकि एक ही स्क्रीन पर सारे मंत्र आ जाएं और तर्पण करने में सुविधा हो। यदि पितृगणों की कृपा ना हो तो जीवन में कई बाधायें आती हैं। पितृदोष दूर करने का व पितृगण को प्रसन्न करने का सबसे सरल उपाय तर्पण ही है। प्रत्येक मास की अमावास्या को तो यह किया ही जाता है।
परन्तु आश्विन मास के कृष्ण पक्ष अर्थात् पितृपक्ष में प्रत्येक दिन तर्पण किया जाता है।
विशेष रूप से सर्व - पितृ अमावास्या अर्थात् पितृपक्ष की अमावास्या को तो अवश्य ही तर्पण करना चाहिए।
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| तर्पण करने से पहले हाथों में स्थित तीर्थों की जानकारी प्राप्त करें। कायतीर्थ को ही प्राजापत्य तीर्थ भी कहते हैं। |
पितृ तर्पण हेतु सामग्री -
१. दो त्रिकुश => तीन - तीन कुशों के बना लें।
२. दो पवित्री भी बना लें।
३. स्वच्छ जल - बड़े बर्तन में पर्याप्त ले लें। उपलब्ध हो सके तो गंगाजल भी लें। साथ ही एक अलग बड़ा बर्तन रखें ताकि ताम्र की प्लेट भर जाने पर वह तर्पण का पानी उसमें डाल सकें।
४. तांबे का अर्घ्य लें। संभव हो तो तर्पणलोटा- रामझारा लें। अन्यथा एक तांबे का सामान्य लोटा लें इसमें जल भरकर पुष्प, चंदन, तुलसीदल डाल लें।
५. आचमनी व आचमनपात्र, एक तांबे की छोटी या बड़ी थाली।
६. थोड़े - जौ , अक्षत व काले तिल
७. तुलसीदल, चंदन, सफेद/पीले पुष्प।
पितृ तर्पण विधान
प्रातः स्नान, संध्यावंदन से निवृत्त हो लें। पूजागृह में सारी सामग्री रख लें। स्वच्छ श्वेत धोती अंगोछा पहन लें। तीन आचमन करें।
गायत्री मंत्र से शिखा बांध कर, तिलक लगाकर, दोनों हाथों की अनामिका अंगुली में कुशों की पवित्री (पैंती) धारण करें ।
सव्य हो जाये - जनेऊ व अंगोछे को वाम कंधे पर रखें।
फिर हाथ में त्रिकुश , जौ, अक्षत और जल लेकर संकल्प कर लें -
ॐ विष्णवे नम:
ॐ विष्णवे नम:
ॐ विष्णवे नम:
हरि: ॐ तत्सदद्य श्रीमद्भावतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्री ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशति-तमे कलियुगे कलि-प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे
- - - प्रदेशे , ----- ग्रामे / नगरे/ क्षेत्रे,
----- नाम्नि संवत्सरे, - - - - मासे _______ पक्षे ______तिथौ _____वासरे ______गोत्रोत्पन्न: ___(नाम )__शर्मा (वर्मा, गुप्तो) ऽहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्षि-मनुष्य-पितृणां अक्षय तृप्ति निमित्तकं देवर्षि-मनुष्य-पितृणां-तर्पणं करिष्ये।
एक ताँबे अथवा चाँदी के थाली जैसे बड़े पात्र को सामने रखें, फिर उस पात्र में थोड़ा-सा जल अक्षत डाल दें।
एक त्रिकुश को पकड़कर निम्न मंत्र को तीन बार कहें-
ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगीभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः॥
फिर उस पात्र में त्रिकुश को रखें। अब पात्र को दायें हाथ में लेकर, बायें हाथ से उसे ढक लें और निम्न मंत्रों का उच्चारण करके देवों-ऋषियों का आवाहन करें-
ब्रह्मादयः सुराः सर्वे ऋषयः सनकादयः।
आगच्छन्तु महाभागा ब्रह्माण्डोदरवर्तिन:॥
ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म इमं हवम्। एदं वर्हि र्निषीदत॥
'हे विश्वेदेवगण ! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आवाहन को सुनें, और इस कुश के आसन पर विराजें।'
पूर्व दिशा की ओर मुँह करके, दाहिना घुटना जमीन पर लगाकर बैठें। एक तांबे के लोटे में श्वेत चन्दन, जौ, तिल, चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल युक्त जल ले लें।
एक अन्य त्रिकुश द्वारा दायें हाथ की समस्त अङ्गुलियों के अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिये पूर्वोक्त पात्र में से एक-एक आचमनी करके जल को सामने के पात्र में त्रिकुशों पर गिराते जाएं।
और उन-उन देवताओं के मन्त्र पढ़ते जायें-
(अक्षत युक्त जल)
(१.) देवतर्पण-
ॐगणपति-स्तृप्यताम्। ॐब्रह्मातृप्यताम्। ॐविष्णुस्तृप्यताम्।
ॐरुद्रस्तृप्यताम्। ॐप्रजापति-स्तृप्यताम्। ॐदेवास्तृप्यन्ताम् । ॐछन्दांसि तृप्यन्ताम्। ॐवेदास्तृप्यन्ताम्।
ॐऋषय-स्तृप्यन्ताम्। ॐपुराणाचार्या-स्तृप्यन्ताम्। ॐगन्धर्वास्तृप्यन्ताम्। ॐइतराचार्या-स्तृप्यन्ताम्। ॐसंवत्सरः सावयव-स्तृप्यताम्। ॐदेव्यस्तृप्यन्ताम्। ॐअप्सरस-स्तृप्यन्ताम्। ॐदेवानुगा-स्तृप्यन्ताम् । ॐनागास्तृप्यन्ताम्। ॐसागरास्तृप्यन्ताम्।
ॐपर्वतास्तृप्यन्ताम्। ॐसरितस्तृप्यन्ताम्। ॐमनुष्यास्तृप्यन्ताम्। ॐयक्षास्तृप्यन्ताम्।
ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम्। ॐपिशाचा-स्तृप्यन्ताम्। ॐसुपर्णा-स्तृप्यन्ताम्। ॐभूतानि तृप्यन्ताम्। ॐपशवस्तृप्यन्ताम्। ॐवनस्पतय-स्तृप्यन्ताम्। ॐओषधय-स्तृप्यन्ताम्। ॐभूतग्राम-श्चतु-र्विध-स्तृप्यताम्।
(२.) ऋषितर्पण-
इसी प्रकार देवतीर्थ से ही मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अञ्जलि जल दें—
ॐ मरीचिस्तृप्यताम् ।
ॐ अत्रिस्तृप्यताम् ।
ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् ।
ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् ।
ॐ पुलहस्तृप्यताम् ।
ॐ क्रतुस्तृप्यताम् ।
ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् ।
ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् ।
ॐ भृगुस्तृप्यताम् ।
ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥
(३.) दिव्य मनुष्य तर्पण-
उत्तर दिशा की ओर मुँह करें।जनेऊ व गमछे को माला की भाँति गले में धारण करें। कोई भी घुटना जमीन पर नहीं लगायें - सीधे बैठे। निम्न मन्त्रों को दो-दो बार पढते हुए
प्रत्येक के लिये दो-दो अञ्जलि जौ सहित जल प्राजापत्य (काय)तीर्थ (कनिष्ठिका के मूल-भाग) से अर्पण करें-
ॐ सनकस्तृप्यताम् -2 बार
ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् –2
ॐ सनातनस्तृप्यताम् -2
ॐ कपिलस्तृप्यताम् -2
ॐ आसुरिस्तृप्यताम् -2
ॐ वोढुस्तृप्यताम् -2
ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् -2
(४.) पितृतर्पण-
दक्षिण की ओर मुँह करे। कुशों के मूल ,और अग्रभागको दक्षिणकी ओर करके अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे।
बायें घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्य हो जायें - जनेऊ को दायें कंधे पर रखकर बाँये हाथ के नीचे ले जायें।
पात्रस्थ जल में काले तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगूठे और तर्जनी के मध्यभाग से ) दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्कित मन्त्र-वाक्यों को पढ़ते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें—
ॐ कव्यवाड-नल-स्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3 बार
ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3 बार
ॐ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा)तस्मै स्वधा नम: – 3 बार
ॐ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3 बार
ॐ अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3 बार
ॐ सोमपा: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3
ॐ बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3
(५.) यमतर्पण-
इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्रों को पढ़ते हुए चौदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन बार काल तिल सहित जल दें—
ॐ यमाय नम: – 3
ॐ धर्मराजाय नम: – 3
ॐ मृत्यवे नम: – 3
ॐ अन्तकाय नम: – 3
ॐ वैवस्वताय नमः – 3
ॐ कालाय नम: – 3
ॐ सर्वभूतक्षयाय नम: – 3
ॐ औदुम्बराय नम: – 3
ॐ दध्नाय नम: – 3
ॐ नीलाय नम: – 3
ॐ परमेष्ठिने नम: – 3
ॐ वृकोदराय नम: – 3
ॐ चित्राय नम: – 3
ॐ चित्रगुप्ताय नम: – 3
ध्यातव्य- १.) जिनके पिता जीवित हों, वे लोग मात्र यहीं तक तर्पण करें, इससे आगे का तर्पण नहीं करें। वे इसके बाद नीचे वस्त्रनिष्पीडन से आगे का कर्म करें।
२.) जिनके पिता नहीं हैं वे लोग इससे आगे का भी तर्पण करें, परन्तु यदि माता आदि जीवित हों तो विशेष ध्यान देकर उन-उन मंत्रों को छोड़कर के अन्यों का तर्पण करें।
(६.) मनुष्य-पितृ तर्पण -
पूर्वोक्त प्रकार से बैठें। बायें घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्य हों - जनेऊ को दायें कंधे पर रखकर बाँये हाथके नीचे ले जायें।
इसके पश्चात् निम्न मन्त्रों से पितरों का आवाहन करें-
ॐ उशन्तस्त्वा निधीम-ह्युशन्तः समिधीमहि। उशन्नु-शत आवाह पितॄन् हविषे अत्तवे॥(यजु० १९।७०)
'हे अग्ने ! तुम्हारे यजन की कामना करते हुए हम तुम्हें स्थापित करते हैं। यजन की ही इच्छा रखते हुए तुम्हें प्रज्वलित करते हैं। हविष्य की इच्छा रखते हुए तुम भी तृप्ति की कामना वाले हमारे पितरों को हविष्य भोजन करने के लिये बुलाओ।'
आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः । अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥ (यजु० १९। ५८)
'हमारे सोमपान करने योग्य अग्निष्वात्त पितृगण देवताओं के साथ गमन करने योग्य मार्गों से यहाँ आवें और इस यज्ञ में स्वधा से तृप्त होकर हमें मानसिक उपदेश दें तथा वे हमारी रक्षा करें।'
[जिनके शरीर का अग्नि ने आस्वादन किया है अर्थात् इस लोक में मृत्यु के पश्चात् जिनका शरीर दग्ध किया गया है, वे अग्निष्वात्त पितर कहलाते हैं।]
ॐ आगच्छन्तु मे पितर इमं ग्रहणन्तु जलाञ्जलिम्।।
'हे पितरों! पधारिये तथा जलांजलि ग्रहण कीजिए।'
तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें-
..(गोत्र का नाम).. गोत्रीय अस्मत्पिता (पिताका नाम) शर्मा वसुरूप-स्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
.... गोत्रीय अस्मत्पितामह: [दादा का नाम ]शर्मा रुद्ररूप-स्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
.... गोत्रीय अस्मत्प्रपितामह: (परदादा का नाम) शर्मा आदित्य-रूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3
जिनकी माता न हो -
.... गोत्रीय अस्मन्माता [माँ का नाम] देवी वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम:: – 3
.... गोत्रीय अस्मत्पितामही (दादी का नाम) देवी रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3*
.... गोत्रीय अस्मत्प्रपितामही (परदादी का नाम) देवी आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: – 3
इसके बाद वेदमंत्रों से जलधारा दी जाती है -
ॐ पितृभ्य:स्वधायिभ्य: स्वधा नम:। पितामहेभ्य: स्वधायिभ्य:।
स्वधा नम: प्रपितामहेभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधा नम: ।
अक्षन्पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितर: पितर:शुन्धध्वम् ॥
मधुनक्त मुतोषसो मधुमत्पार्थिव गुं रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता।
मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँऽअस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥
ॐ मधु । मधु। मधु । तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम् । तृप्यध्वम् ।
अब हाथ जोड़कर पाठ करें-
ॐ नमो वः पितरो रसाय नमो वः पितरः शोषाय नमो वः पितरो जीवाय नमो वः पितरः स्वधायै नमो वः पितरो घोराय नमो वः पितरो मन्यवे नमो वः पितरः पितरो नमो वो गृहान्नः पितरो दत्त सतो व: पितरो देष्मेतद्वः पितरो वास आधत्त।
इसके बाद द्वितीय गोत्र तर्पण करें ,द्वितीय गोत्र तर्पण अपने पिता माता आदि की तरह ही होगा, परन्तु गोत्र का नाम नाना-नानी आदि के यहाँ वाला आयेगा।
नाना, परनाना, वृद्धपरनाना, नानी , परनानी एवं वृद्धपरनानीको तीन-तीन अंजलि तिल मिश्रित जल से दें-
इसके बाद नाम गोत्रका उच्चारण करते हुए अन्य संबंधी (जो लोग मृत हो गए हों) उनके लिए भी एक-एक अंजलि दी जाती है। इन्हें एकोद्दिष्टगण कहते हैं जैसे- पत्नी, पुत्र, पुत्री, पिताके भाई, मामा, अपना भाई, सौतेला भाई, बुआ, मौसी, बहन, सौतेली बहन, श्वशुर, गुरु, आचार्य पत्नी, शिष्य, मित्र, आप्तपुरुष आदि जो जो मृत हुए हों उन प्रियजनों का तर्पण करें-
इसके बाद सव्य (जनेऊ व अंगोछा बायें कंधे पर) होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढ़ते हुए जल गिरावे—
देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसा:।
पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव: खगा:॥
जलेचरा भूमिचराः वाय्वा-धाराश्च जन्तव:। तृप्तिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला:॥
अर्थ- : ‘देवता, असुर , यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध, कूष्माण्ड, वृक्षवर्ग, पक्षी, जलचर जीव और वायु के आधार पर रहनेवाले जन्तु-ये सभी मेरे दिये हुए जल से शीघ्र तृप्त हों ।
अब फिर से दक्षिणाभिमुख व अपसव्य(जनेऊ व अंगोछा दायें कंधे पर) हों। पितृतीर्थ से तिल युक्त जलधारा गिराए-
नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिता:। तेषा-माप्या-यनायै-तद्दीयते सलिलं मया॥
येऽबान्धवा बान्धवाश्च येऽन्यजन्मनि बान्धवा:।
ते तृप्तिमखिला यान्तु यश्चा-स्मत्तोऽभि-वाञ्छति॥
आब्रह्म-स्तम्बपर्यन्तं देवर्षि-पितृ-मानवा:।
तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृ-माता-महादय:॥
अतीत-कुल-कोटीनां सप्तद्वीप-निवासिनाम्।
आ ब्रह्मभुवना-ल्लोका-दिदमस्तु तिलोदकम्॥
(जो समस्त नरकों तथा वहाँ की यातनाओं में दुःख भोग रहे हैं, उनको पुष्ट तथा शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूँ।
जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में बान्धव रहे हों, अथवा किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सब तथा इनके अतिरिक्त भी जो मुझसे जल पाने की इच्छा रखते हों, वे भी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हों।
ब्रह्माजी से लेकर कीटों तक जितने जीव हैं, वे तथा देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और माता, नाना आदि पितृगण-ये सभी तृप्त हों।
मेरे कुलकी बीती हुई करोडों पीढियों में उत्पन्न हुए जो-जो पितर ब्रह्मलोक पर्यन्त सात द्वीपोंके भीतर कहीं भी निवास करते हों, उनकी तृप्ति के लिये मेरा दिया हुआ यह तिलमिश्रित जल उन्हें प्राप्त हो।
वस्त्र - निष्पीडन-
तत्पश्चात् वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर जल में डुबाकर अपनी बाईं ओर ये मंत्र कहकर भूमि पर निचोड़े -
ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृता। ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्र-निष्पीडनोदकम्।।
यदि घर में किसी मृत पुरुषका वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो यह वस्त्र-निष्पीडन नहीं करना चाहिये ।
(७.) भीष्मतर्पण -
इसके बाद दक्षिणाभिमुख हो पितृतर्पण के समान ही, जनेऊ को अपसव्य करके, हाथों में कुश धारण किये हुए ही बालब्रह्मचारी श्री भीष्म जी के लिये पितृतीर्थ से तिलमिश्रित जल के द्वारा तर्पण करें -
वैयाघ्रपद-गोत्राय साङ्कृत्य-प्रवराय च।
गङ्गापुत्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम्।अपुत्राय ददाम्येतत्-सलिलं भीष्मवर्मणे॥
प्रमुख देवताओं को अर्घ्यदान-
पूर्वाभिमुख हो जायें। त्रिकुशा सहित सामने के तर्पण पात्र का जल हटाकर अन्य बर्तन में डाल दें। शुद्ध जल से आचमन करके प्राणायाम करें। तदनन्तर यज्ञोपवीत सव्य (बायें कंधे पर) करके ताम्र के लोटे में शुद्ध जल भरकर उसमें श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प डाल दें।
फिर एक ताम्र की छोटी थाली में चन्दन से षड्दल-कमल बनाकर उसमें पूर्वादि दिशा के क्रम से ब्रह्मादि देवताओंका पूजन करें।
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| षड्दल कमल अर्घ्यदान हेतु |
अब ताम्र लोटे के जल से 'तांबे के अर्घ्य' द्वारा उन पूजित देवताओं के लिये अर्घ्य अर्पण करें -
ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद् विसीमत: सुरुचो व्वेन ऽआव:। स बुध्न्याऽ उपमाऽ अस्य व्विष्ठा: सतश्च योनिमसतश्च व्विव:॥
ॐ ब्रह्मणे नम:।
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य पां सुरे स्वाहा॥
ॐ विष्णवे नम:।
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽउतो त ऽइषवे नम:। बाहुभ्यामुत ते नम:॥
ॐ रुद्राय नम:।
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्॥
ॐ सवित्रे नम:।
ॐ मित्रस्य चर्षणीधृतोऽ वो देवस्य सानसि। द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम् ॥
ॐ मित्राय नम:।
ॐ इमं मे व्वरुण श्रुधी हवमद्या च मृडय। त्वामवस्युराचके ॥
ॐ वरुणाय नम: ।
अब उसी पात्र में सूर्यार्घ्य भी दें -
एहि सूर्य सहस्त्राशो तेजो राशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर।
अब हाथों को उपर करके उपस्थान मंत्र पढ़ें–
ॐ चित्रं देवाना-मुद-गादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आ प्रा-द्यावा-पृथ्वी ऽअन्तरिक्षं सूर्यऽ आत्मा-जगतस् - तस्थुषश्च।
खड़े होकर वहीं घूमते हुए सात बार सूर्य की प्रदक्षिणा करें।
फिर पूर्वादिक्रम से दिग्देवताओं को दसों दिशाओं में नमस्कार करें-
ॐ प्राच्यै नमः, इन्द्राय नमः।
ॐ आग्नेयायै नमः, अग्नये नमः।
ॐ दक्षिणायै नमः, यमाय नमः।
ॐ नैर्ऋत्यै नमः, निर्ऋतये नमः।
ॐ पश्चिमायै नमः, वरूणाय नमः।
ॐ वायव्यै नमः, वायवे नमः।
ॐ उदीच्यै नमः, कुबेराय नमः।
ॐ ऐशान्यै नमः, ईशानाय नमः।
ॐ ऊर्ध्वायै नमः,ब्रह्मणे नमः।
ॐ अधरायै नमः, अनन्ताय नमः।
इस तरह सब दिशाओं और देवताओं को नमस्कार कर , बैठकर नीचे लिखे मन्त्रों से पुनः देवतीर्थ से तर्पण करें।
ॐ ब्रह्मणे नमः।
ॐ अग्नये नमः।
ॐ पृथिव्यै नमः।
ॐ औषधिभ्यो नमः।
ॐ वाचे नमः।
ॐ वाचस्पतये नमः।
ॐ महद्भ्यो नमः।
ॐ विष्णवे नमः।
ॐ अद्भ्यो नमः।
ॐ अपांपतये नमः।
ॐ वरुणाय नमः।
फिर तर्पण के जल को नेत्रों पर लगायें और कहें -
अच्युताय नमः। अनंताय नमः। गोविंदाय नमः।
विसर्जन -
निम्न मंत्र पढ़ें -
ॐ देवा गातुविदो गातुं वित्वा गातुमित। मनसस्पत इमं देव यज्ञं स्वाहा वाते धाः॥ (यजुर्वेद ८।२१)
"हे यज्ञवेत्ता देवताओं ! आप लोग हमारे इस तर्पण-रूपी यज्ञ को समाप्त जानकर अपने गन्तव्य मार्ग को पधारें। हे चित्त के प्रवर्तक परमेश्वर! मैं इस यज्ञ को आपके हाथ में अर्पण करता हूं। आप इसे वायु देवता में स्थापित करें।"
अब हाथ में जल लेकर पात्र में छोड़कर उपरोक्त समस्त तर्पण कर्म भगवान को समर्पित करें।
अनेन यथा - शक्ति -कृतेन देवर्षि - मनुष्य-पितृ - तर्पणाख्येन कर्मणा भगवान् मम॒ समस्तपितृ-स्वरूपी जनार्दन-वासुदेवः प्रीयतां न मम। ॐ तत्सद्-ब्रह्मार्पणमस्तु।
प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्य-वेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णम् स्यादिति श्रुतिः।
(प्रमाद से किए गए यज्ञ या कर्म में जो भी कमी रह जाए, वह श्रीविष्णु के स्मरण मात्र से पूरी हो जाती है ऐसा शास्त्र कहते हैं)
ॐ साम्ब-सदाशिवाय नमः।
ॐ विष्णवे नमः ॐ विष्णवे नमः ॐ विष्णवे नमः॥
इस प्रकार से यह तर्पण की सरल प्रक्रिया होती है। आश्विन मास में पितृपक्ष के बाद नवरात्रि प्रारम्भ हो जाती है। इससे आशय इतना है कि पहले हम अपने पितृगणों का आशीर्वाद प्राप्त करें उसके बाद मां भगवती की साधना - उपासना में लग जाएं तो जीवन सफल हो जाएगा।
सभी पितृगणों को हमारा प्रणाम है।











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