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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

श्रीनृसिंहचतुर्दशीव्रत दिलाता है सनातन मोक्ष

ब स्वयंप्रकाश परमात्मा अपने भक्तों को सुख देने के लिये अवतार ग्रहण करते हैं, तब वह तिथि और मास भी पुण्य के कारण बन जाते हैं। जिनके नाम का उच्चारण करने वाला पुरुष सनातन मोक्ष को प्राप्त होता है, वे परमात्मा कारणों के भी कारण हैं। सम्पूर्ण विश्व के आत्मा, विश्वस्वरूप और सबके प्रभु हैं। वे ही भगवान् भक्त प्रह्लाद का अभीष्ट सिद्ध करने के लिये श्रीनृसिंहावतार के रूप में प्रकट हुए थे और जिस तिथि को भगवान् नरसिंहजी का प्राकट्य हुआ था, वह तिथि वैशाख शुक्ला चतुर्दशी एक महोत्सव बन गयी।

 दयासिन्धो! आपको नमस्कार है। आप तेईस तत्वों के साक्षी चौबीसवें, तत्त्वरूप हैं । काल, रुद्र और अग्नि आपके ही स्वरूप हैं। यह जगत् भी आपसे भिन्न नहीं है। नर और सिंह का रूप धारण करने वाले आप भगवान् को नमस्कार है।


     जब हिरण्यकशिपु नामक दैत्य का वध करके देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् नृसिंहजी सुखपूर्वक विराजमान हुए, तब उनकी गोद में बैठे हुए ज्ञानियों में श्रेष्ठ प्रह्लादजी ने उनसे इस प्रकार प्रश्न किया-'सर्वव्यापी भगवान नारायण!  नृसिंह  का अद्भुत रूप धारण करने वाले प्रभु, आपको नमस्कार है। सुरश्रेष्ठ! मैं आपका भक्त हूँ अत: यथार्थ बात जानने के लिये आपसे पूछता हूँ। स्वामिन्! आपके प्रति मेरी अभेद- भक्ति अनेक प्रकार से स्थिर हुई है । प्रभो! मैं आपको इतना प्रिय कैसे हुआ? इसका कारण बताइये ।'

    नृसिंहजी बोले-'वत्स! तुम पूर्वजन्म में ब्राह्मण के पुत्र थे । फिर भी तुमने वेदों का अध्ययन नहीं किया । उस समय तुम्हारा नाम वसुदेव था। उस जन्म में तुमसे कुछ भी पुण्य नहीं बन सका । केवल मेरे व्रत के प्रभाव से मेरे प्रति तुम्हारी भक्ति हुई। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने सृष्टि-रचना के लिये इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया था। मेरे व्रत के प्रभाव से ही उन्होंने चराचर जगत् की रचना की है और भी बहुत-से देवताओं, प्राचीन ऋषियों तथा परम बुद्धिमान् राजाओं ने मेरे उत्तम व्रत का पालन किया है और उस व्रत के प्रभाव से उन्हें सब प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हुई हैं। स्त्री या पुरुष जो कोई भी इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें मैं सौख्य, भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करता हूँ।'

     प्रह्लाद ने  पूछा-'देव ! मैं आपकी प्रीति और भक्ति प्रदान करनेवाले नृसिंहचतुर्दशी नामक उत्तम व्रत की विधि को सुनना चाहता हूँ। प्रभो! किस महीने में और किस दिन को  यह व्रत आता है? आप बताने की कृपा कीजिये।'

 धनहीन व्यक्तिओं को भी चाहिये कि वे इस व्रत का अनुष्ठान करें और अपनी शक्ति के अनुसार कुछ न कुछ दान दें। नृसिंहजी के व्रत में सभी वर्ण के मनुष्योंका अधिकार है। नृसिंहजी की शरण में आये हुए भक्तों को विशेष रूपसे इसका अनुष्ठान करना चाहिये ।

     भगवान् नृसिंह बोले-'पुत्र प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। एकाग्रचित्त होकर इस व्रत को श्रवण करो। यह व्रत मेरे प्रादुर्भाव से संबन्ध रखता है, अत: वैशाख मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी तिथि को इसका अनुष्ठान करना चाहिये। इससे मुझे बड़ा संतोष होता है । पुत्र! भक्तों को सुख  देने के लिये जिस प्रकार मेरा आविर्भाव हुआ, वह  प्रसंग सुनो। पश्चिम दिशा में एक विशेष कारण से मैं प्रकट हुआ था। वह स्थान 'मूलस्थान'(मुलतान)-क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है, जो परम पवित्र और समस्त पापों का नाशक है। उस क्षेत्र में हारीत नामक एक प्रसिद्ध ब्राह्मण रहते थे, जो वेदों के पारगामी विद्वान और ज्ञान-ध्यान में सदा तत्पर रहने वाले थे। उनकी पत्नी का नाम लीलावती था। वह भी परम पुण्यमयी, सतीरूपा तथा स्वामी के अधीन रहने वाली थी।
     उन दोनो ने बहुत समय तक बड़ी भारी तपस्या की। तपस्या में ही उनके अनेकों वर्ष बीत गये । तब उस क्षेत्र में प्रकट होकर मैंने उन दोनों को प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस समय उन्होंने मुझसे कहा- 'भगवन्! यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो इसी समय आपके समान पुत्र मुझे प्राप्त हो।' हे पुत्र प्रह्लाद! उनकी बात सुनकर मैंने उत्तर दिया-'ब्रह्मन्! निस्संदेह मैं आप दोनों का पुत्र हूँ किंतु मैं सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करने वाला साक्षात् परात्पर परमात्मा हूँ। सदा रहने वाला सनातन पुरुष हूँ; अतः गर्भ में नहीं निवास करूँगा।' तब हारीत ने कहा- 'अच्छा, ऐसा ही हो।' तब से मैं भक्त के कारण उस क्षेत्र में ही निवास करता हूँ। मेरे श्रेष्ठ भक्त को चाहिये कि उस तीर्थ में आकर मेरा दर्शन करे। इससे उसकी सारी बाधाओं का मैं निरन्तर नाश करता रहता हूँ। जो हारीत और लीलावती के साथ मेरे बालरूप का ध्यान करके रात्रि में मेरा पूजन करता है, वह नर से नारायण हो जाता है।'

जो चन्दन, कपूर, रोली, सामयिक पुष्प तथा तुलसीदल नृसिंहजी को अर्पण करता है, वह निश्चय ही मुक्त हो जाता है। समस्त कामनाओं की सिद्धि के लिये जगद्गुरु श्रीहरि को सदा कृष्णागरु का बना हुआ धूप निवेदन करना चाहिये; क्योंकि वह उन्हें बहुत प्रिय है।

     इस व्रत का दिन आने पर भक्त प्रात:काल दन्तधावन करके इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए श्रीनृसिंहजी के सामने व्रत का इस प्रकार संकल्प करे-'भगवन्! आज मैं आपका व्रत करूँगा। इसे निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण कराइये।' व्रत में स्थित होकर दुष्ट व्यक्ति से वार्तालाप आदि नहीं करना चाहिये। फिर मध्याह्नकाल में नदी आदि के निर्मल जलमें, घरपर, देवसम्बन्धी कुण्ड में अथवा किसी सुन्दर तालाब पर वैदिक मन्त्रों से मिट्टी, गोबर, आँवले का फल और तिल लेकर उनसे सब पापों की शान्ति के लिये विधिपूर्वक स्नान करे।

     तत्पश्चात दो सुन्दर वस्त्र धारण करके संध्या-तर्पण आदि नित्यकर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। उसके बाद पूजा-स्थल लीपकर उसमें सुन्दर अष्टदल कमल बनाये। कमल पर पञ्चरत्न सहित ताँबे का कलश स्थापित करे। कलश के ऊपर चावलों से भरा हुआ पात्र रखे और पात्र में अपनी शक्ति के अनुसार सोने/तांबे/पीतल की लक्ष्मीजी सहित नृसिंहजी[या विष्णुजी] की प्रतिमा स्थापित करे। तत्पश्चात् उसे पञ्चामृत से स्नान कराये। इसके बाद शास्त्रज्ञ और लोभहीन ब्राह्मण को बुलाकर अथवा स्वयं पूजन करे। पूजा के स्थान पर एक मण्डप बनवाकर उसे फूल के गुच्छों से सजा दे। फिर उस ऋतु में सुलभ होने वाले फूलों से और षोडशोपचाऱ सामग्रियों से विधिपूर्वक नृसिंहजी का पूजन करे।

     पूजा में नियमपूर्वक रहकर नृसिंहजी से सम्बन्ध रखने वाले पौराणिक मंत्रों एवं स्तोत्रादि का 'पाठ करें। जो चन्दन, कपूर, रोली, सामयिक पुष्प तथा तुलसीदल नृसिंहजी को अर्पण करता है, वह निश्चय ही मुक्त हो जाता है। समस्त कामनाओं की सिद्धि के लिये जगद्गुरु श्रीहरि को सदा कृष्णागरु का बना हुआ धूप निवेदन करना चाहिये; क्योंकि वह उन्हें बहुत प्रिय है। एक बड़ा दीप जलाकर रखना चाहिये, जो अज्ञानरूपी अन्धकार का नाश करने वाला है। फिर घण्टे की आवाज के साथ आरती उतारनी चाहिये। तदनन्तर नैवेद्य निवेदन करे, जिसका मन्त्र इस प्रकार है-
नैवेद्यं शर्करां चापि भक्ष्यभोज्यसमन्वितम्।
ददामि ते रमाकान्त सर्वपापक्षयं कुरु॥
(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड १७०।६२)

अर्थात् हे लक्ष्मीकान्त! मैं आपके लिये भक्ष्य-भोज्यसहित नैवेद्य तथा शर्करा निवेदन करता हूँ। आप मेरे सब पापों का नाश कीजिये।

नास्तिकों के घोर शत्रु भगवान नरसिंहजी की जयंती पर प्रारम्भ हुए इस ब्लॉग  का आज  एक वर्ष पूर्ण हुआ है, इस अवसर पर भगवान नृसिंहजी को हमारा अनेकों बार प्रणाम.....

     तत्पश्चात्  भगवान से इस प्रकार प्रार्थना करे-'हे नृसिंह! अच्युत! देवेश्वर ! आपके शुभ जन्मदिन को मैं सब भोगों का परित्याग करके उपवास करूँगा। स्वामिन्! आप इससे प्रसन्न हों तथा मेरे पाप और जन्म के बन्धन को दूर करें।' यों कहकर व्रत का पालन करे। रात में गीत और वाद्यों के साथ जागरण करना चाहिये। भगवान् नृसिंहजी की कथा से सम्बन्ध रखने वाले पौराणिक प्रसंगों का पाठ भी करना उचित है। भक्त इस दिन रात्रिकाल होने पर स्नान के अनन्तर विधि से यत्नपूर्वक नृसिंहजी की पूजा करे। उसके बाद स्वस्थचित्त होकर भी संभव हो तो नृसिंहजी के समक्ष वैष्णव श्राद्ध करे।

     तदनन्तर इस लोक और परलोक दोनों पर विजय पाने की इच्छा से सुपात्र ब्राह्मणों को गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, ओढ़ने-बिछौने आदि के सहित चारपाई, सप्तधान्य तथा अन्यान्य वस्तुएँ भी अपनी शक्ति के अनुसार दान करनी चाहिये । शास्त्रोक्त फल पाने की इच्छा हो तो धन की कृपणता नहीं करनी चाहिये । अन्त में ब्राह्मणों को भोजन कराये और उन्हें उत्तम दक्षिणा दे। धनहीन व्यक्तिओं को भी चाहिये कि वे इस व्रत का अनुष्ठान करें और अपनी शक्ति के अनुसार कुछ न कुछ दान दें। नृसिंहजी के व्रत में सभी वर्ण के मनुष्योंका अधिकार है। नृसिंहजी की शरण में आये हुए भक्तों को विशेष रूपसे इसका अनुष्ठान करना चाहिये ।

     इसके बाद व्रत करने वाले को इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये- 'विशाल रूप धारण करनेवाले भगवान् नृसिंह! करोड़ों कालों के लिये भी आपको परास्त करना कठिन है। बालरूपधारी प्रभो! आपको नमस्कार है। बालावस्था तथा बालकरूप धारण करने वाले श्रीनृसिंहभगवान् को नमस्कार है। जो सर्वत्र व्यापक, सबको आनन्दित करने वाले, स्वत: प्रकट होने वाले, सर्वजीवस्वरूप, विश्व के स्वामी, देवस्वरूप और सूर्यमण्डल में स्थित रहने वाले हैं, उन भगवान् को प्रणाम है। दयासिन्धो! आपको नमस्कार है। आप तेईस तत्वों के साक्षी चौबीसवें, तत्त्वरूप हैं । काल, रुद्र और अग्नि आपके ही स्वरूप हैं। यह जगत् भी आपसे भिन्न नहीं है। नर और सिंह का रूप धारण करने वाले आप भगवान् को नमस्कार है।
     देवेश! मेरे वंश में जो मनुष्य उत्पन्न हो चुके हैं और जो उत्पन्न होने वाले हैं, उन सबका दुःखदायी भवसागर से उद्धार कीजिये। जगत्पते! मैं पातक के समुद्र में डूबा हुआ हूँ। नाना प्रकार की व्याधियाँ ही इस समुद्र की जलराशि हैं। इसमें रहने वाले जीव मेरा तिरस्कार करते हैं । इस कारण मैं महान दुःख में पड़ गया हूँ। शेषशायी देवेश्वर! मुझे अपने हाथों का सहारा दीजिये और इस व्रत से प्रसन्न हो मुझे भोग-मोक्ष प्रदान कीजिये।'

जगत्पते! मैं पातक के समुद्र में डूबा हुआ हूँ। नाना प्रकार की व्याधियाँ ही इस समुद्र की जलराशि हैं। इसमें रहने वाले जीव मेरा तिरस्कार करते ह । इस कारण मैं महान दुःख में पड़ गया हूँ। शेषशायी देवेश्वर! मुझे अपने हाथों का सहारा दीजिये और इस व्रत से प्रसन्न हो मुझे भोग-मोक्ष प्रदान कीजिये।

     इस प्रकार प्रार्थना करके विधिपूर्वक देवताओं का विसर्जन करे। उपहार आदि की सभी वस्तुएँ दक्षिणा से ब्राह्मणों को संतुष्ट करके विदा करे । फिर भगवान का चिन्तन करते हुए परिवार के साथ भोजन करे। जो मध्याह्नकाल में यथाशक्ति इस व्रत का अनुष्ठान करता है और लीलावतीदेवी  के साथ हारीतमुनि एवं भगवान नृसिंहजी का पूजन करता है, वह श्रीनृसिंहजी के प्रसाद से सदा मनोवाञ्छित वस्तुओँ को प्राप्त करता रहता है । इतना ही नहीं, उसे सनातन मोक्ष की प्राप्ति होती है। नास्तिकों के घोर शत्रु भगवान नरसिंहजी की जयंती पर प्रारम्भ हुए इस ब्लॉग  का आज  एक वर्ष पूर्ण हुआ है, इस अवसर पर भगवान नृसिंहजी को हमारा अनेकों बार प्रणाम.....



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