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दी
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मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह।
यमुना जी यमराज की बहन हैं इसलिये धनतेरस के दिन यमुना-स्नान का भी विशेष माहात्म्य है। यदि पूरे दिन का व्रत रख सकें तो अत्युत्तम है, किंतु संध्या के समय दीपदान अवश्य करना चाहिये जो कि अपमृत्युनाशक है-
कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे।
यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति॥
कथा है कि एक बार यमराज ने अपने दूतों से कहा कि 'तुम लोग मेरी आज्ञा से मृत्युलोक के प्राणियों के प्राण हरण करते हो, क्या ऐसा करते समय तुम्हें कभी दुःख भी हुआ है या दया भी आयी है?' इस पर यमदूत बोले- 'महाराज! हम लोगों का कर्म अत्यन्त क्रूर जरूर है परंतु किसी युवा प्राणी की असामयिक मृत्यु पर उसका प्राण हरण करते समय वहाँ का करुणक्रन्दन सुनकर हम लोगों का पाषाण-हृदय भी विगलित हो जाता है। एक बार हम लोगों को एक राजकुमार के प्राण उसके विवाह के चौथे दिन ही हरण करने पड़े। उस समय वहाँ का करुणक्रन्दन, चीत्कार और हाहाकार देख-सुनकर हमें अपने कृत्य से अत्यन्त घृणा हो गयी। उस मङ्गलमय उत्सव के बीच हम लोगों का यह कृत्य अत्यन्त घृणित था, इससे हम लोगों का हृदय अत्यन्त दुःखी हो गया कृपा करके कोई ऐसी युक्ति बताइये जिससे ऐसी असामयिक मृत्यु न हो।'
इस पर यमराज ने कहा कि जो धनतेरस के पर्व पर मेरे उद्देश्य से दीपदान करेगा, उसकी असामयिक मृत्यु नहीं होगी। धनत्रयोदशी पर यमदेव को नमन...
भगवान धन्वन्तरि का जन्मोत्सव
भगवान धन्वन्तरि का जन्मोत्सव भी आज कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है। समुद्रमन्थन के समय भगवान धन्वन्तरिजी का प्राकट्य हुआ माना जाता है। देव-दानवों द्वारा क्षीरसागर का मन्थन करते समय भगवान धन्वन्तरि संसार के समस्त रोगों की औषधियों को कलश में भरकर प्रकट हुए थे। उस दिन त्रयोदशी तिथि थी। इसलिये उक्त तिथि में सम्पूर्ण भारत में तथा अन्य देशों में (जहां हिंदुओं का निवास है) भगवान धन्वन्तरि का जयन्ती-महोत्सव बनाया जाता है। विशेषकर आयुर्वेद के विद्वान तथा वैद्यसमाज की ओर से सर्वत्र भगवान धन्वन्तरि की प्रतिमा प्रतिष्ठित की जाती है और उनका पूजन श्रद्धाभक्तिपूर्वक किया जाता है एवं प्रसाद वितरण करके लोगों के दीर्घ जीवन तथा आरोग्यलाभ के लिये मङ्गलकामना की जाती है। दूसरे दिन संध्या समय जलाशयों में प्रतिमाओं का विसर्जन भजन-कीर्तन करते हुए किया जाता है। उन भगवान धन्वन्तरि को बार-बार प्रणाम जो प्राणियों को रोग-मुक्त करने के लिये भव-भेषजावतार के रूप में प्रकट हुए थे।
गोत्रिरात्र-व्रत
यह व्रत कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से दीपावली के दिन तक किया जाता है। इसमें उदयव्यापिनी तिथि ली जाती है। यदि वह दो दिन हो तो पहले दिन व्रत करें। हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार इस व्रत के लिये गोशाला या गायों के आने-जाने के मार्ग में आठ हाथ लंबी एवं चार हाथ चौड़ी वेदी बनाकर उस पर सर्वतोभद्र बनाये और उसके ऊपर छत्र के आकार का वृक्ष एवं उसमें विविध प्रकार के फल-पुष्प और पक्षी चित्रित करे।
वृक्ष के नीचे मण्डल के मध्य भाग में गोवर्धन भगवान की और उनके वामभाग में रुक्मिणी, मित्रवृन्दा, शैव्या और जाम्बवती की, दक्षिण में सत्यभामा, लक्ष्मणा, सुदेवा और नाग्नजिती की; उनके अग्रभाग में नन्दबाबा; पृष्ठभाग में बलभद्र और यशोदा तथा श्रीकृष्ण के सामने सुरभी, सुनन्दा, सुभद्रा और कामधेनु गौ- इनकी धातु/मिट्टी की प्रतिमा स्थापित करें या श्रीकृष्ण/शालग्राम में ही इन सब का रूप मानकर अथवा एक-एक पूगीफल को ही इनका प्रतीक मान यथास्थान रख दें। इन सबका नाम-मन्त्र [जैसे-'गोवर्धनाय नमः', 'नाग्नजित्यै नमः', 'सुभद्रायै नमः', 'कामधेनवे नमः' आदि] से पूजन करें। इसके पश्चात-
गवामाधार गोविन्द रुक्मिणीवल्लभ प्रभो।
गोपगोपीसमोपेत गृहाणार्घ्य नमोऽस्तुते॥
-मन्त्र से भगवान को और-
रुद्राणां चैव या माता वसूनां दुहिता च या ।
आदित्यानां च भगिनी सा नः शान्तिं प्रयच्छतु ॥
- से गौ को अर्घ्य दे। तथा इसके बाद -
सुरभी वैष्णवी माता नित्यं विष्णुपदे स्थिता ।
प्रतिगृह्णन्तु मे ग्रासं सुरभी मे प्रसीदतु ॥
-से गौ को ग्रास दे। विविध फल-पुष्प-पक्वान्न-रसादि से पूजन करके पात्रों [बांस के हों तो उत्तम] में सप्तधान्य भरकर सौभाग्यवती स्त्रियों को दे। इस प्रकार तीन दिन व्रत करके चौथे दिन प्रातः स्नानादि करके गायत्री-मन्त्र से तिलों की १०८ आहुति देकर व्रत का विसर्जन करे तो स्कन्दपुराण के अनुसार इससे पुत्र, सुख और संपत्ति का लाभ होता है।
भविष्योत्तर-पुराण के अनुसार गोत्रिरात्र-व्रत का फल पुत्र-प्राप्ति, सुख-भोग और अन्त में गोलोक की प्राप्ति बताया गया है। गोत्रिरात्र व्रत के अवसर पर भगवान श्रीकृष्ण जी को, गौमाता को अनेकों बार प्रणाम....
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