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हायोगीश्वर दत्तात्रेय जी भगवान विष्णुजी के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को को प्रदोषकाल में हुआ था। अतः इस दिन बड़े समारोह से दत्तजयन्ती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत (२।७।४) में आया है कि पुत्रप्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रि के तप करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः' “मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया” - श्रीविष्णुजी के ऐसा कहे जाने से भगवान् विष्णु ही अत्रि के पुत्ररूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाये। अत्रिपुत्र होने से ये ‘आत्रेय’ कहलाते हैं। दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका 'दत्तात्रेय' नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनुसूया है, जो सतीशिरोमणि हैं तथा उनका पातिव्रत्य संसार में प्रसिद्ध है।
यह बात सुनकर प्रथम तो देवी अनुसूया अवाक् रह गयीं, किन्तु आतिथ्यधर्म की महिमा का लोप न हो जाय - इस दृष्टि से उन्होने नारायण का ध्यान किया, अपने पतिदेव का स्मरण किया और इसे भगवान की लीला समझकर वे बोलीं- “यदि मेरा पातिव्रत्यधर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छः-छः मास के शिशु हो जायें।” इतना कहना ही था कि तीनों देव छः मास के शिशु हो रुदन करने लगे। तब माता ने उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया फिर पालने में झुलाने लगीं। ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गया।
इधर देवलोक में जब तीनों देव वापस न आये तो तीनों देवियाँ अत्यन्त व्याकुल हो गयीं। फलतः नारदजी आये और उन्होंने पूरा हाल कह सुनाया। तीनों देवियाँ सती अनुसूया के पास आयीं और उन्होंने उनसे क्षमा माँगी। देवी अनुसूया ने अपने पातिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर दिया। इस प्रकार प्रसन्न हो तीनों देवों ने अनुसूया से वर मांगने को कहा तो वो बोलीं- “आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों।” तब ‘तथास्तु’ - कहकर तीनों देव और देवियाँ अपने-अपने लोक को चले गये।
कालान्तर में ये ही त्रिदेव अनुसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्माजी के अंश से चन्द्रमा, शंकरजी के अंश से दुर्वासा और विष्णुजी के अंश से दत्तात्रेयजी का जन्म हुआ। इस प्रकार अत्रि तथा अनुसूया के पुत्ररूप में श्रीदत्तात्रेयजी, श्रीविष्णुभगवान् के ही अवतार हैं और इन्हीं के आविर्भाव की तिथि श्रीदत्तात्रेय जयन्ती कहलाती है। भगवान् दत्तात्रेय कृपा की मूर्ति कहे जाते हैं। मान्यता है कि परम भक्तवत्सल दत्तात्रेयजी भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुँच जाते हैं। इसीलिये इन्हें ‘स्मृतिगामी’ तथा ‘स्मृतिमात्रानुगन्ता’ कहा गया है। हिन्दू धर्मग्रन्थों में बतलाया गया है कि ये श्रीविद्या के परम आचार्य हैं। श्रीमद्भागवत आदि में वर्णन है कि इन्होंने चौबीस गुरुओं से शिक्षा पायी थी।
भगवान् दत्त जी के नाम पर दत्तसम्प्रदाय दक्षिणभारत में विशेष प्रसिद्ध है। गिरनारक्षेत्र श्रीदत्तात्रेयजी का सिद्धपीठ है। इनकी गुरुचरणपादुकाएँ वाराणसी के मणिकर्णिकाघाट तथा आबूपर्वत आदि कई स्थानों पर हैं। दक्षिणभारत में इनके अनेक मंदिर हैं। वहाँ दत्तजयन्ती के दिन इनकी विशेष आराधना-पूजा के साथ महोत्सव सम्पन्न होता है। इस दिन भगवान् दत्तात्रेय के उद्देश्य से व्रत करने एवं उनके मंदिर में जाकर दर्शन-पूजन करने का विशेष महत्त्व है।
भगवान दत्तात्रेय जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हैं और आज भी योगबल से संसार में भ्रमण करते हैं। मान्यता है कि दत्तात्रेयजी प्रतिदिन प्रातः काशी में गंगा-स्नान करते हैं, कोल्हापुर में नित्य जप और माहुरीपुर में भिक्षा ग्रहण करते हैं तथा सह्याद्रि की कन्दराओं में विश्राम किया करते हैं। भगवान् दत्तात्रेयजी को दत्त जयन्ती पर हमारा अनन्त बार प्रणाम...
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