- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
भा
|
द्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को भगवान के वाराहावतार की जयंती या प्रादुर्भाव तिथि कही गयी है। वही ये वैष्णवावतार वाराह हैं जिन्होंने हिरण्याक्ष नामक असुर का वध कर समूची पृथ्वी का उद्धार किया था। भगवान का वाराह अवतार वेदप्रधान यज्ञस्वरूप अवतार है। दिन तथा रात्रि इनके नेत्र हैं, हविष्य इनकी नासिका है। सामवेद का गंभीर स्वर इनका उद्घोष है। यूप इनकी दाढ़ें हैं, चारों वेद इनके चरण हैं, यज्ञ इनके दाँत हैं। श्रुतियाँ इनका आभूषण हैं, चितियाँ मुख हैं। साक्षात अग्नि ही इनकी जिह्वा तथा कुश इनकी रोमावली है एवं ब्रह्म इनका मस्तक है।
हमारे हिंदू धर्म ग्रंथों में वाराह भगवान की उत्पत्ति की कथा मिलती है कि भगवान विष्णु जी के धाम श्वेतद्वीप में, जय और विजय नामक दो द्वारपाल थे। एक समय जब भगवान का दर्शन करने के लिए सनकादि योगीश्वर आए तो उन्हें जय-विजय ने बीच में ही रोक लिया। इससे क्रुद्ध होकर सनकादि ने उन्हें शाप दिया,"द्वारपालों! तुम दोनों भगवान के इस धाम का परित्याग करके भूलोक में चले जाओ।"भगवान को जब ये बात पता चली तो उन्होंने जय-विजय और सनकादि महात्माओं को बुलाया और बोले,"द्वारपालों ! तुम लोगों ने महात्माओं का अपराध किया है अतः तुम इस शाप का उल्लंघन नहीं कर सकते। तुम यहाँ से जाकर या तो सात जन्मों तक मेरे पापहीन भक्त रहो या तीन जन्मों तक मेरे प्रति शत्रुभाव रखते हुए समय बिताओ।"
यह सुनकर जय-विजय ने कहा कि,"प्रभु! अधिक समय तक हम आपसे अलग पृथ्वी पर रह पाने में असमर्थ हैं। अतः केवल तीन जन्मों तक ही शत्रुभाव धारण करके रहेंगे।"
इसके पश्चात जय-विजय कश्यप और दिति के असुर पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। उनमें से छोटे पुत्र का नाम हिरण्याक्ष व बड़े पुत्र का नाम हिरण्यकशिपु था। हिरण्याक्ष मद से उन्मत्त रहता था। उसका शरीर कितना बड़ा था या हो सकता था - इसका कोई मापदण्ड नहीं था। एक बार बड़ा रूप बनाकर उसने अपनी हजारों भुजाओं से पर्वत, समुद्र, द्वीप और सम्पूर्ण प्राणियों सहित समस्त पृथ्वी को गेंद की तरह सर पर रखकर रसातल में चला गया। यह देखकर सभी देवता भय से पीड़ित हो हाहाकार करने लगे और रोग-शोक से रहित श्रीहरि नारायण की शरण में गये। उस अद्भुत वृत्तान्त को सुनकर विश्वरूपधारी जनार्दन ने वाराहरूप धारण किया। उस समय उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें और विशाल भुजाएँ थीं।
उन परमेश्वर वाराह ने अपनी एक दाढ़ से उस दैत्य पर आघात किया। इससे उसका विशाल शरीर कुचल गया और वह अधम दैत्य तुरंत ही मर गया। पृथ्वी को रसातल में पड़ी हुई देखकर भगवान वाराह ने उसे अपनी दाढ़ पर उठाकर यथावत पहले की भांति व्यवस्थित कर दिया। वाराहरूपधारी महाविष्णु को देखकर समस्त देवगण और मुनि भक्ति से मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करके गंध, पुष्प आदि से उन श्रीहरि का अर्चन करने लगे।
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना।
शशिनि कलङ्ककलेव निमग्ना॥
केशव धृतसूकररूप, जय जगदीश हरे॥
चंद्रमा में निमग्न हुई कलङ्करेखा के समान यह पृथ्वी आपके दाँत की नोंक पर अटकी हुई सुशोभित हो रही है, ऐसे सूकररूपधारी जगत्पति श्रीहरि केशव की जय हो।
तब भगवान वाराह ने उन सभी को मनोवाञ्छित वरदान दिया और महर्षियों के मुख से अपनी स्तुति सुनकर अंतर्धान हो गए।
पाठकों, समयाभाव के कारण अभी इतनी ही जानकारी दी जा सकी है, मतान्तर से आश्विन शुक्ला सप्तमी को भी इनकी जयंती कही गयी है..
"श्री वराहावताराय नमः" से पंचोपचार या षोडशोपचार पूजन किया जाना चाहिये.. समस्त जीवों के हितैषी, समूची पृथ्वी के उद्धारक भगवान यज्ञवाराह के श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
कृपया टिप्पणी करने के बाद कुछ समय प्रतीक्षा करें प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है। अंतर्जाल (इन्टरनेट) पर उपलब्ध संस्कृत में लिखी गयी अधिकतर सामग्री शुद्ध नहीं मिलती क्योंकि लिखने में उचित ध्यान नहीं दिया जाता यदि दिया जाता हो तो भी टाइपिंग में त्रुटि या फोंट्स की कमी रह ही जाती है। संस्कृत में गलत पाठ होने से अर्थ भी विपरीत हो जाता है। अतः पूरा प्रयास किया गया है कि पोस्ट सहित संस्कृत में दिये गए स्तोत्रादि शुद्ध रूप में लिखे जायें ताकि इनके पाठ से लाभ हो। इसके लिए बार-बार पढ़कर, पूरा समय देकर स्तोत्रादि की माननीय पुस्तकों द्वारा पूर्णतः शुद्ध रूप में लिखा गया है; यदि फिर भी कोई त्रुटि मिले तो सुधार हेतु टिप्पणी के माध्यम से अवश्य अवगत कराएं। इस पर आपकी प्रतिक्रिया व सुझाव अपेक्षित हैं, पर ऐसी टिप्पणियों को ही प्रकाशित किया जा सकेगा जो शालीन हों व अभद्र न हों।