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ज यानि भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को ही भगवान श्री हरि ने वामन अवतार धारण किया था। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन से महाबाहु बलि का जन्म हुआ। दैत्यराज बलि धर्मज्ञों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, बलवान, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरि के प्रिय भक्त थे। यही कारण था कि उन्होंने इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्गणों को जीतकर तीनों लोकों को अपने अधीन कर लिया था। इस प्रकार राजा बलि समस्त त्रिलोकी पर राज्य करते थे। इंद्रादिक देवता दासभाव से उनकी सेवा में खड़े रहते थे। परम भक्त तो थे राजा बलि किन्तु बलि को अपने बल का अभिमान था। इन्द्र आदि देवों का अधिपत्य हड़प चुके थे वो। कितना ही बड़ा भक्त हो कोई अभिमान आ जाय तो सारी भक्ति व्यर्थ है। तब महर्षि कश्यप ने अपने पुत्र इन्द्र को राज्य से वंचित देखकर तप किया और भगवान विष्णु से बलि को मायापूर्वक परास्त करके इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य प्रदान करने का वरदान माँगा।
तदनन्तर एक हज़ार वर्ष बीतने पर महर्षि कश्यप की भार्या अदिति के गर्भ से वामनरूपधारी भगवान विष्णु का जन्म हुआ। श्रीवामन ब्रह्मचारी का वेष धारण किए हुए थे और मेखला, मृगचर्म और दण्ड आदि चिह्नों से उपलक्षित हो रहे थे। सम्पूर्ण वेदाङ्गों में उन्हीं का तत्व दृष्टिगोचर होता है। इन्द्र आदि सभी देवता उनका दर्शन करके महर्षियों के साथ वामन भगवान की स्तुति करने लगे।
पीताम्बरोत्तरीयोऽसौ,
मौञ्जीकौपीन-धृग्धरि:।
कमण्डलुं च दध्यन्नं,
दण्डं छत्रं करैर्दधत्।
यज्ञोपवीती नीलाभो,
ध्यातव्यश्छद्मवामन:॥
मौञ्जीकौपीन-धृग्धरि:।
कमण्डलुं च दध्यन्नं,
दण्डं छत्रं करैर्दधत्।
यज्ञोपवीती नीलाभो,
ध्यातव्यश्छद्मवामन:॥
अर्थात् हम वामन का रूप धारण करने वाले उन भगवान् विष्णु का ध्यान करते हैं जो नीली आभा से शोभायमान हैं, जिन्होंने उत्तरीय के रूप में पीताम्बर धारण कर रखा है, जो मौञ्जी-कौपीन धारण किए हुए हैं तथा जिनके हाथों में कमण्डल, दही-अन्न को ग्रहण करने वाला पात्र, दण्ड एवं छत्र है।
तब भगवान् ने स्तुति से प्रसन्न होकर कहा-"देवगण! बताइये इस समय मुझे क्या करना है?"
देवता बोले-"मधुसूदन! इस समय राजा बलि का यज्ञ हो रहा है। ऐसे अवसर पर वह कुछ देने से इन्कार नहीं कर सकता। प्रभो! आप ही दैत्यराज बलि से तीनों लोक माँगकर इन्द्र को देने की कृपा करें।"
ऐसा सुनकर भगवान् वामन यज्ञशाला में महर्षियों के साथ बैठे हुए राजा बलि के पास आये। ब्रह्मचारी को आया देखकर दैत्यराज सहसा उठकर खड़े हो गये और मुसकराते हुए बोले-"अभ्यागत सदा विष्णु का ही स्वरूप है। अतः आप साक्षात् विष्णु ही यहाँ पधारे हैं।" ऐसा कहकर उन्होंने ब्रह्मचारी वामन जी को फूलों के आसन पर बिठाकर उनका विधिपूर्वक पूजन किया और चरणों में गिरकर प्रणाम करके गद्गद वाणी में कहा-"विप्रवर! आपका पूजा करके आज मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। मेरा जीवन सफल हो गया। कहिए आपका कौन सा कार्य करूँ? द्विजश्रेष्ठ! आप जिस वस्तु को पाने के उद्देश्य से मेरे पास पधारे हैं, उसे शीघ्र बतायें। वह मैं अवश्य दूंगा।"
वामन जी बोले- "महाराज! मुझे तीन पग भूमि दे दीजिये; क्योकि भूमिदान सब दानों में श्रेष्ठ है। जो भूमि का दान करता और जो उस दान को ग्रहण करता है, वे दोनों पुण्यात्मा स्वर्गगामी होते हैं। अतः आप मुझे तीन पग भूमि का दान कीजिये।"
यह सुनकर राजा बलि ने प्रसन्न होकर विधिपूर्वक भूमिदान का विचार किया। दैत्यराज को ऐसा करते देख उनके पुरोहित शुक्राचार्य बोले-"राजन् ! ये साक्षात् परमेश्वर विष्णु हैं। देवताओं की प्रार्थना से यहाँ पधारे हैं और तुम्हें चकमे में डालकर सारी पृथ्वी हड़प लेना चाहते हैं। अतः इन महात्मा को पृथ्वी का दान न देना। मेरे कहने से कोई और ही वस्तु दे दो, भूमि न दो।"
यह सुन राजा बलि हंस पड़े और गुरु से बोले-"ब्रह्मन्! मैंने सारा पुण्य भगवान् वासुदेव की प्रसन्नता के लिये किया है। अतः यदि स्वयं विष्णु ही यहाँ पधारे हैं , तब तो आज मैं धन्य हो गया। उनके लिये तो आज यह परम सुखमय जीवन तक दे डालूँ तो भी संकोच न होगा। अतः इन ब्राह्मणदेवता को आज मैं तीनों लोकों का भी निश्चय ही दान कर दूँगा।"
ऐसा कहकर राजा बलि ने बड़ी भक्ति के साथ ब्राह्मण के दोनों चरण बड़ी ही भक्ति के साथ पखारे और हाथ में जल लेकर विधिपूर्वक भूमिदान का संकल्प किया। दान दे, नमस्कार करके दक्षिणारूप से धन दिया और प्रसन्नता से कहा-"ब्रह्मन्! आज आपको भूमिदान देकर मैं स्वयं को धन्य एवं कृतकृत्य मानता हूँ। आप अपनी इच्छानुरूप इस पृथ्वी को ग्रहण कीजिये।"
तब श्रीवामनरूपधारी भगवान विष्णु बोले-"राजन्! अब मैं तुम्हारे सामने ही पृथ्वी को नापता हूँ।" ऐसा कहकर परमेश्वर ने वामन ब्रह्मचारी का रूप त्याग दिया और विराट् रूप धारण करके समस्त पर्वत, समुद्र, द्वीप, देवता, असुर और मनुष्यों सहित इस पचास कोटि योजन की पृथ्वी को एक ही पैर से नाप लिया। फिर दैत्यराज से उन भगवान् मधुसूदन ने पूछा-"राजन्! अब क्या करूँ?" भगवान् का यह अति विराट् रूप महान् तेजस्वी था और महात्मा ऋषियों तथा देवताओं के हित के लिये प्रकट हुआ था। स्वयं महादेव और ब्रह्माजी भी उस स्वरूप को नहीं देख सकते थे। सनातन भगवान् का वह पग सारी पृथ्वी को लाँघकर सौ योजन तक आगे बढ़ गया। तब वामन भगवान् ने बलि को दिव्यचक्षु प्रदान किया और उन्हें अपने स्वरूप का दर्शन कराया। भगवान् के विश्वरूप का दर्शन करके दैत्यराज के हर्ष की कोई सीमा रही। उनकी आँखों से आनन्द के आँसू छलक आये। उन्होंने भगवान् को नमन करके स्तोत्रों द्वारा स्तुति की और गद्गद स्वर में कहा-"परमेश्वर! आपका दर्शन करके मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया। आप इन तीनों ही लोकों को ग्रहण कीजिये।"
तब सर्वेश्वर विष्णु ने अपने द्वितीय पग को ऊपर की ओर फैलाया। प्रभु नारायण का वह पग नक्षत्र, ग्रह और देवलोक को लाँघता हुआ ब्रह्मलोक के अन्त तक पहुँच गया; किन्तु फिर भी पूरा न पड़ा। उस समय पितामह ब्रहमाजी ने भगवान् के चक्र-कमलादि चिह्नों से अंकित चरण को देखकर हर्षयुक्त चित्त से स्वयं को धन्य मानते हुए अपने कमण्डलु के जल से भक्तिपूर्वक भगवान वामन के उस चरण को धोया। श्रीविष्णु के प्रभाव से वह चरणोदक अक्षय हो गया। वह निर्मल जल मेरुपर्वत के शिखर पर गिरा और जगत् को पवित्र करने के लिये चारों दिशाओं में बह चला। वे चारों धाराएँ क्रमशः सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा के नाम से प्रसिद्ध हुईं। मेरु के दक्षिण की ओर चलने वाली धारा का नाम अलकनन्दा हुआ। वह तीन धाराओं में विभक्त होने से त्रिपथगा और त्रिस्रोत्रा कहलायी। दिशाभेद से वह लोकपावनी गङ्गा तीन नामों से प्रसिद्ध हुईं। ऊपर-स्वर्गलोक में मंदाकिनी, नीचे-पाताललोक में भोगवती तथा मध्य अर्थात् मर्त्यलोक में वेगवती गङ्गा कहलाने लगी। ये गङ्गा मनुष्यों को पवित्र करने के लिये प्रकट हुई हैं। ये कल्याणमय स्वरूप वाली गङ्गा जब मेरुपर्वत से नीचे गिर रही थीं, उस समय महादेवजी ने स्वयं को पवित्र करने के लिये गङ्गा को मस्तक पर धारण कर लिया और कहा-"जो श्रीविष्णुचरणों से निकली हुई गङ्गा का पावन जल अपने मस्तक पर धारण या उनके जल का पान करेगा, वह निःसंदेह सम्पूर्ण जगत् का पूज्य होगा।"
तदनन्तर राजा भागीरथ और महातपस्वी गौतम ने तपस्या के द्वारा शिवजी की पूजा करके गङ्गाजी के लिये उनसे याचना की। तब शिवजी ने सम्पूर्ण विश्व का हित करने के लिये कल्याणमयी वैष्णवी गङ्गा का जल उन दोनों महानुभावों के लिये प्रसन्नतापूर्वक दान किया। महर्षि गौतम जिस गङ्गा को ले गये, वे गौतमी(गोदावरी) कही गयी हैं और राजा भागीरथ ने जिनको भूमि पर उतारा, वे भागीरथी गङ्गा के नाम से प्रसिद्ध हुईं।
तीसरा पग नापने के लिये कुछ शेष ही नहीं रह गया था। तब भगवान वामन बोले "तृतीय पग कहाँ रखूँ दैत्यराज!" यह सुन बलि हाथ जोड़कर बोले "प्रभु! यह पग मेरे मस्तक पर रख दीजिये।" भगवान वामन ने यही किया और बलि के मस्तक पर तृतीय पग रखते ही वह धरती में समाते हुए पाताल लोक को चले गये। श्री भगवान् ने फिर से कश्यपनन्दन वामन का वेष धारण किया।
श्री हरि ने बलि को वर भी दिया कि चातुर्मास में श्रीहरि का एक स्वरूप तो क्षीरसागर में शयन करेगा किन्तु दूसरा स्वरूप राजा बलि के द्वार पर पहरा देगा। तदनन्तर भक्तवत्सल भगवान् नारायण ने दैत्यराज बलि को रसातल का उत्तम लोक प्रदान किया और उन्हें सब दानवों, नागों तथा जल-तन्तुओं का कल्पभर के लिये राजा बना दिया। बलि से तीनों लोक लेकर उन्हें इन्द्र को दे दिया। तब सभी देवताओं ने भगवान् का स्तवन और पूजन किया और भगवान श्री हरि अन्तर्धान हो गये।
त्रैलोक्यराज्यमाक्षिप्य बलेरिन्द्राय यो ददौ।
श्रीधराय नमस्तस्मै छद्मवामनरूपिणे॥
अर्थात् जिन्होंने बलि से [भूमि , स्वर्ग और पाताल-इन] तीनों लोकों के राज्य को छीनकर इन्द्र को दे दिया, उन मायामय वामनरूपधारी और लक्ष्मी को हृदय में धारण करने वाले श्री विष्णुजी को नमस्कार है।
छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुतवामन
छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुतवामन
पदनख नीरजनितजनपावन।
केशव धृत वामनरूप
जयजगदीशहरे॥
अर्थात् हे आश्चर्यमय वामनरूपधारी केशव! आपने पैर बढ़ाकर राजा बलि को छलने की लीला की तथा अपने चरण-नखों के जल से लोगों को पवित्र किया, ऐसे आप जगत्पति श्रीहरि की जय हो।
वामन जी का मंत्र
॥ॐ नमो भगवते त्रिविक्रमाय॥
भगवान वामन के त्रिविक्रम स्वरूप का ध्यान करते हुए उपरोक्त मंत्र का एकाग्र मन से किया गया मानस जप भगवान की कृपा व आपदाओं, बाधाओं से मुक्ति दिलाने वाला है। यदि राजा बलि चाहते तो अपने गुरु की बात मान तीन पग भूमि नहीं देते, पर उन्होंने भक्ति-दान-धर्म के मार्ग से न डिगकर विराट रूप के दर्शन पाकर अपने जीवन को धन्य-धन्य किया। धन्य हैं भक्त राजा बलि जो वामन भगवान का दर्शन कर सके।
प्रस्तुत है हिंदी व्याख्या सहित श्रीवामन जी का एक सुंदर स्तोत्र -
श्रीदधिवामनस्तोत्रम्
हेमाद्रि-शिखराकारं शुद्धस्फटिक-सन्निभम्।
पूर्ण-चन्द्रनिभं देवं द्विभुजं वामनं स्मरेत्॥१॥
हिमालय की चोटी के समान ऊँचे, स्वच्छ स्फटिक समान निर्मल, पूर्णचन्द्र के समान शोभायुक्त, द्विभुज भगवान श्रीवामन का स्मरण करना चाहिए।
पद्मासनस्थं देवेशं चन्द्रमण्डल-मध्यगम्।
ज्वलत्कोटि-तडित्प्रख्यं तटित्कोटिसमप्रभम्।।२।।
जो देवेश पद्मासन पर स्थित हैं, चन्द्रमण्डल के मध्य में विराजमान हैं, जिनकी आभा करोड़ों विद्युत्पुंज के समान जगमगाती है- उनका ध्यान करना चाहिए।
सूर्य-कोटि-प्रतीकाशं चन्द्र-कोटि-सुशीतलम्।
चन्द्रमण्डल-मध्यस्थं विष्णुमव्ययमच्युतम्।।३।।
जिनका प्रकाश करोड़ों सूर्यों के समान है, शीतलता करोड़ों चन्द्रमाओं जैसी है, जो चन्द्रमण्डल के मध्य में स्थित हैं, उन अविनाशी अच्युत विष्णु का ध्यान करें।
श्रीवत्स-कौस्तुभोरस्कं दिव्यरत्न-विभूषितम्।
पीताम्बर-मुदाराङ्गं वनमाला-विभूषितम्।।४।।
जिनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स और कौस्तुभमणि शोभित हैं, दिव्य रत्नाभूषणों से विभूषित हैं, पीताम्बरधारी हैं और जिनके उदार अंग वनमाला से सुशोभित हैं।
सुन्दरं पुण्डरीकाक्षं किरीटेन विराजितम्।
षोडश-स्त्रीवृतं सम्यगप्सरोगण-सेवितम्।।५।।
सुन्दर कमलनयन, किरीटधारी भगवान, जो सोलह दिव्य स्त्रियों से घिरे हैं और अप्सराओं द्वारा सेवा किए जाते हैं।
ऋग्यजुस्सामाथर्वाद्यैर्गीयमान जनार्दनम्।
चतुर्मुखादि-देवेशै-र्गीयमानं मुदा सदा।।६।।
ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेद जिनका गुणगान करते हैं, और ब्रह्मा, रुद्र आदि देवता जिनका सदा आनन्दपूर्वक स्तवन करते हैं- ऐसे जनार्दन।
दधि-मिश्रान्न-कबलं रुक्मपात्रं च दक्षिणे।
करे तु चिन्तयेद्ध्यायेत्पीयूष-ममृतं सुधीः।।७।।
बुद्धिमान साधक भगवान को इस प्रकार ध्यान करे कि वे दक्षिण हाथ में दधि-मिश्रित अन्न से भरा सुवर्ण पात्र धारण किए हुए हैं और उसका सेवन कर रहे हैं।
साधकानां प्रयच्छन्त-मन्नपान-मनुत्तमम्।
ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय ध्यायेद्द्येय-मधोक्षजम्।।८।।
वे साधकों को उत्तम अन्न और जल प्रदान करते हैं। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर उस अदृश्य-अद्भुत प्रभु का ध्यान करना चाहिए।
अत्र पुमलगात्रं रुक्म-पात्रस्थमन्नं
सकलशदधिखण्डं पणिना दक्षिणेन।
कलश-ममृतपूर्णं वामहस्ते दधानं
तरति सकल-दुःखाद्वामनं भावयेद्यः।।९।।
जो साधक भगवान वामन का ऐसा ध्यान करता है कि वे दधि-भात से भरे रुक्मपात्र और दक्षिण हाथ में दधि-कलश लिए हुए, तथा बाएँ हाथ में अमृत से भरा कलश धारण किए हुए हैं, वह समस्त दुखों से तर जाता है।
अन्नदाता भवेदन्नं अन्नमन्नाद एव च।
क्षीरमन्नं घृतं चैव आयु-रारोग्यमेव च।।१०।।
वे अन्नदाता हैं, वे स्वयं अन्न हैं और अन्न के भोग करने वाले भी। वे क्षीर (दूध), अन्न और घृतस्वरूप भी हैं। वे आयु और आरोग्य प्रदान करते हैं।
पुरस्तादन्न-माप्तव्यं पुनरावृत्ति-वर्जितम्।
आयु-रारोग्यमैश्वर्यं लभते चान्न-सम्पदम्।।११।।
उनकी आराधना से जीवन में अन्न की प्राप्ति होती है और पुनः-पुनः जन्म का बन्धन नहीं रहता। साथ ही दीर्घायु, आरोग्य, ऐश्वर्य और अन्न-समृद्धि भी मिलती है।
एवं स्तोत्रं पठेद्यस्तु प्रातः काले द्विजोत्तमः।
अक्लेशादन्न-सिद्ध्यर्थं ज्ञान-सिद्ध्यर्थमेव च।।१२।।
इस स्तोत्र का प्रातःकाल पाठ करने से बिना किसी क्लेश के अन्न की और ज्ञान की सिद्धि प्राप्त होती है।
॥श्रीवामनपुराणे श्रीदधिवामन स्तोत्रं शुभमस्तु॥
इन्द्रदेव की रक्षा कर तीनों लोकों का महान् ऐश्वर्य लौटाने वाले भगवान श्रीवामन को जयंती तिथि पर हमारा अनंत बार प्रणाम....
भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि में वामन अवतार (ना कि कृष्ण पक्ष में)
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मित्र, त्रुटि को सुधार लिया है..... आभारी हूँ.... ॐ नमो भगवते त्रिविक्रमाय...
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