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कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

शारदीय नवरात्र में शक्ति आराधना [सप्तश्लोकी दुर्गा]

मारे हिन्दू धर्म के अनुसार मुख्य रूप से दो नवरात्र होते हैं- वासन्तिक और शारदीयइनके अलावा दो गुप्त नवरात्रियाँ भी होती हैं। जहाँ वासन्तिक नवरात्रि में विष्णुजी की उपासना का प्राधान्य होता है वहीं शारदीय नवरात्र में शक्ति की उपासना की प्रधानता रहती है। वस्तुतः दोनों ही नवरात्र मुख्य एवं व्यापक हैं और दोनों में विष्णु जी व शक्ति की उपासना उचित है। आस्तिक जनता दोनों नवरात्रियों में दोनों की उपासना किया करती है। इस उपासना में वर्ण, जाति की विशिष्टता भी अपेक्षित नहीं है, अतः सभी वर्ण एवं जाति के लोग अपने इष्टदेव की उपासना करते हैं। देवी की उपासना व्यापक है

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः  स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि। दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या  सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥ २ ॥   माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिंतन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं । दुःख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो ॥२॥

     आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक के समय 'शारदीय नवरात्र' में दुर्गापूजक व्रत रखते हैं। कुछ लोग अन्न त्याग देते हैं। कुछ एकभुक्त व्रत रखकर शक्ति की उपासना करते हैं। कुछ 'श्रीदुर्गासप्तशती' का सकाम या निष्कामभाव से पाठ करते हैं। संयत रहकर पाठ करना आवश्यक है, अतः यम-नियम का पालन करते हुए भगवती दुर्गा का आराधन या पाठ करना चाहिये। नवरात्र व्रत का अनुष्ठान करने वाले जितने संयत, नियमित, अन्तर्बाह्य शुद्ध रहेंगे उतनी ही मात्रा में उन्हें सफलता मिलेगी-इसमें संशय नहीं करना चाहिये।
      यह नवरात्र व्रत सभी वर्णों के लिए है। नवरात्र व्रत में यदि कोई श्रद्धालु पूरे नौ दिन व्रत न रख सकें तो उनको अपनी सामर्थ्य के अनुसार सप्तरात्र, पंचरात्र, त्रिरात्र, युग्मरात्र अथवा एकरात्र व्रत का सहारा ले लेना चाहिए-

१- प्रतिपदा से सप्तमी तिथि तक व्रत रखने से सप्तरात्र-व्रत पूरा होता है।
२- पंचमी को एकभुक्त-व्रत (एक समय भोजन), षष्ठी को नक्त-व्रत(दिन में कुछ न खाकर केवल रात्रि में ही खाना), सप्तमी को अयाचित-व्रत (बिना माँगे स्वयं मिला भोजन ग्रहण करना), अष्टमी को उपवास (निराहार) और नवमी को पारण(व्रत खोलना) करने से पंचरात्र व्रत पूरा होता है।
३- सप्तमी, अष्टमी और नवमी को एक भुक्त रहने से त्रिरात्र व्रत पूरा होता है. 
४- नवरात्रि के प्रारंभ के दिन(प्रतिपदा) और अंतिम दिन(नवमी) व्रत रखने से, युग्मरात्र व्रत होता है।
५- नवरात्र के आरंभ या समाप्ति के दिन केवल एक दिन व्रत करने से एकरात्रि व्रत पूर्ण हो जाता है.


     अपनी शक्ति के अनुसार मां दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए इनमें से एक व्रत तो सबको अवश्य ही करना चाहिए। इस प्रकार व्रत रखने के साथ-साथ नित्य भगवती की आराधना करने से मनुष्य को माँ की कृपा से निश्चित ही अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है, इसमें संशय नहीं है।

     प्रतिपदा से नवरात्र प्रारम्भ होता है पर अमावास्या युक्त प्रतिपदा ठीक नहीं मानी जाती। नौ रात्रियों तक व्रत रखने से 'नवरात्र व्रत' पूर्ण होता है। तिथि की ह्रास-वृद्धि से इसमें न्यूनाधिकता नहीं होती। प्रारम्भ करते समय यदि चित्रा और वैधृति योग हो तो उनकी समाप्ति के बाद व्रत प्रारम्भ करना चाहिये। परन्तु देवी का आवाहन, स्थापन और विसर्जन-ये तीनों प्रातःकाल में ही होने चाहिये। अतः यदि चित्रा, वैधृति अधिक समय तक हों तो उसी दिन अभिजित् मुहूर्त अर्थात् दिन के आठवें मुहूर्त यानी दोपहर के एक घड़ी पहले से लेकर दोपहर के एक घड़ी बाद तक के समय में आरम्भ करना चाहिये।

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि । एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥७॥   सर्वेश्वरी! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो॥७॥

घटस्थापन

     आरम्भ में पवित्र स्थान की मिट्टी से वेदी बनाकर [अथवा किसी मिठाई आदि का डिब्बा भी मिट्टी से भरकर काम में ला सकते हैं] उसमें जौं बो दिये जाते हैं। फिर उस पर सामर्थ्य के अनुसार सोने/ताँबे या मिट्टी के कलश को सप्तमृत्तिका, सर्वौषधि, गंगाजल डालकर नारियल, पञ्च्पल्लव सहित विधिपूर्वक स्थापित करें। कलश के ऊपर देवी की मूर्ति अथवा चित्र को स्थापित किया जाता है। कागज/मिट्टी या सिंदूर से बनी मूर्ति हो तो स्नानादि से उसमें विकृति न आ जाये इसलिये उसके ऊपर शीशा/काँच लगा दें। मूर्ति न हो तो कलश के पीछे स्वस्तिक तथा उसके दोनो पार्श्वों में त्रिशूल बनाकर सामने की ओर दुर्गाजी का चित्र, सप्तशती पुस्तक रखें व माँ का अर्चन करें। साथ ही वहाँ शालग्राम को तुलसी पत्रों के साथ विराजित करके विष्णुपूजन करें। पूजन सात्विक हो राजस व तामस नहीं। 
कलश स्थापना की विधि जानने के लिए यहाँ क्लिक करें। नवरात्र व्रत के प्रारम्भ में स्वस्तिवाचन-शान्तिपाठ करके व्रतपूजन का संकल्प करें और तब सबसे पहले गणपति पूजन कर मातृका, लोकपाल, नवग्रह एवं वरुण का सविधि पूजन करें। फिर प्रधानमूर्ति का षोडशोपचार पूजन करें। अपने इष्टदेव- राम, कृष्ण, लक्ष्मी-नारायण या भगवती दुर्गाजी आदि की मूर्ति ही प्रधानमूर्ति कही जाती है। पूजन वेद-विधि या सम्प्रदाय-निर्दिष्ट विधि से होना चाहिये। दुर्गादेवी की आराधना में महाकाली जी, महालक्ष्मी जी और महासरस्वती जी का पूजन तथा मार्कण्डेयपुराणान्तर्गत निहित 'श्री दुर्गासप्तशती' का पाठ करना चाहिये।
     'श्री दुर्गासप्तशती' पुस्तक का-

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥

-इस मन्त्र से पञ्चोपचार पूजन कर यथाविधि पाठ करें। सम्पूर्ण सप्तशती पाठ कर सकने में असमर्थ जन सप्तश्लोकी दुर्गा, सिद्ध कुंजिका स्तोत्र, राम रक्षा स्तोत्र आदि का श्रद्धापूर्वक अधिकाधिक(नित्य 11 या 21 बार) पाठ करें। इस अवसर पर शारदा माँ की मुख्य रूप से अर्चना की जाती है इसीलिये यह शारदीय नवरात्रि कहलाती है। शारदीय नवरात्र की षष्ठी तिथि को इन  विद्यादायिनी माँ का आवाहन किया जाता है, सप्तमी तिथि को इनका पूजन किया जाता है, अष्टमी तिथि को इनके निमित्त बलिदान किया जाता है और नवमी को इन वाक्सिद्धिदायिनी देवी की स्तोत्रात्मक  स्तुति कर दशमी तिथि को माँ सरस्वती का विसर्जन कर दिया जाता है।

साधकजन महाविद्या क्रम से प्रतिपदा को काली द्वितीया तिथि को तारा, तृतीया को छिन्नमस्ता, चतुर्थी को षोडशी, पञ्चमी को भुवनेश्वरी, षष्ठी को त्रिपुरभैरवी, सप्तमी को धूमावती, अष्टमी को वगलामुखी, नवमी को मातङ्गी और दशमी को कमला - इन दसों महाविद्याओं की आराधना करते हैं।


सप्तश्लोकी दुर्गा
शिव उवाच-
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ हि कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः॥ 
शिव जी बोले - हे देवि! तुम भक्तों के लिए सुलभ हो और समस्त कर्मों का विधान करने वाली हो। कलियुग में कामनाओं की सिद्धि-हेतु यदि कोई उपाय हो तो उसे अपनी वाणी द्वारा सम्यक् रूप से व्यक्त करो।

देव्युवाच-
शृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥
देवी ने कहा-हे देव! आपका मेरे ऊपर बहुत स्नेह है। कलियुग में समस्त कामनाओं को सिद्ध करने वाला जो साधन है वह बतलाऊँगी, सुनो! उसका नाम है 'अम्बास्तुति'।

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकी-स्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ॠषिः, अनुष्टुप्छन्दः, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वत्यो देवताः, श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः।
[हाथ में जल लेकर विनियोग करें- ॐ इस दुर्गासप्तश्लोकी स्तोत्रमन्त्र के नारायण ऋषि हैं, अनुष्टुप् छन्द है, श्रीमहाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवता हैं, श्रीदुर्गा की प्रसन्नता के लिए सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ में इसका विनियोग किया जाता है। विनियोग पढ़कर जल छोड़ दें]

ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥१॥
वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं॥१॥


दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥२॥ 
माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ व्यक्तियों द्वारा चिंतन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरने वाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो ॥२॥

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥३॥ 
नारायणि! आप सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करने वाली मङ्गलमयी हैं। कल्याणदायिनी शिवा हैं। सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हैं ;आपको नमस्कार है॥३॥

शरणागतदीनार्त-परित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥४॥
शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सब की पीड़ा दूर करनेवाली नारायणी देवि! आपको नमस्कार है॥४॥

सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥५॥
सर्व स्वरुपा सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा कीजिये; आपको नमस्कार है॥५॥

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा 
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥६॥ 
देवि! आप प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हैं और कुपित होने पर मनोवाञ्च्छित सभी कामनाओं का नाश कर देती हैं। जो लोग आपकी शरण में हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। आपकी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं॥६॥

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि-विनाशनम्॥७॥
सर्वेश्वरि! आप इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करें और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहें॥७॥

शारदीय नवरात्र की षष्ठी तिथि को इन  विद्यादायिनी माँ का आवाहन किया जाता है, सप्तमी तिथि को इनका पूजन किया जाता है, अष्टमी तिथि को इनके निमित्त बलिदान किया जाता है और नवमी को इन वाक्सिद्धिदायिनी देवी की स्तोत्रात्मक  स्तुति कर दशमी तिथि को माँ सरस्वती का विसर्जन कर दिया जाता है।


कुमारी पूजन

     इस देवीव्रत में कुमारी-पूजन परम आवश्यक माना गया है। सामर्थ्य हो तो नवरात्रि में प्रतिदिन अथवा समाप्ति के दिन नौ कुमारियों के चरण धोकर उन्हें देवी का स्वरूप मानकर गन्ध-पुष्पादि से अर्चन कर आदर के साथ यथारुचि मिष्टान्न भोजन कराना चाहिये एवं दक्षिणा-वस्त्रादि से सत्कृत करना चाहिये। हिन्दू धर्मग्रन्थों में वर्णन आया है कि एक कन्या की पूजा से ऐश्वर्य की, दो की पूजा से भोग-मोक्ष की, तीन की अर्चना से धर्म, अर्थ, काम- त्रिवर्ग की, चार की अर्चना से राज्यपद की, पाँच की पूजा से विद्या की, छः की पूजा से षट्कर्म सिद्धि की, सात की पूजा से राज्य की, आठ की अर्चा से सम्पदा की और नौ कुमारी कन्याओं की पूजा से पृथ्वी के प्रभुत्व की प्राप्ति होती है। कुमारी-पूजन में दस वर्ष तक की कन्याओं का अर्चन विहित है। दस वर्ष से ऊपर  आयु की कन्याओं का कुमारी-पूजन में वर्जन किया गया है। दो वर्ष की कन्या कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्तिनी, चार वर्ष की कल्याणी,पाँच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की काली, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा - स्वरूपा होती है।

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥६॥   देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवाञ्च्छित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो |जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं॥६॥


     दुर्गा-पूजा में प्रतिदिन का वैशिष्ट्य रहना चाहिये।  नवरात्र में कुछ विद्वान साधकजन महाविद्या क्रम से दसों महाविद्याओं की आराधना करते हैं। व्रती को चाहिए कि वह नवरात्र की प्रतिपदा तिथि को शैलपुत्री माँ की पूजा करे और दुर्गा माँ को प्रतिपदा को केशसंस्कारक द्रव्य आँवला, सुगंधित तैल आदि केश प्रसाधन संभार अर्पित करे। आज भगवती को घी का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये। और महाविद्या उपासक काली महाविद्या की उपासना करे।

नवरात्र की द्वितीया को ब्रह्मचारिणी जी की स्तुति करे। साथ ही  माँ को द्वितीया तिथि के दिन बाल बाँधने-गूँथने वाले रेशमी सूत, फीते आदि अर्पित करे। आज जगदम्बिका माँ को चीनी का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इस प्रसाद को ब्राह्मण को दान दे दें।महाविद्या उपासक द्वितीया तिथि को तारा, महाविद्या की स्तुति करे।

तृतीया तिथि को चंद्रघण्टा माँ का स्तवन-अर्चन करे। साथ ही तृतीया तिथि को सिंदूर और दर्पण आदि अर्पित करे। आज दुर्गा माँ को दूध का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसका ब्राह्मण को दान करें।तृतीया तिथि को छिन्नमस्ताजी की स्तुति करे।

नवरात्र की चतुर्थी तिथि को कूष्माण्डा जी की पूजा करके नवरात्रि के इस चतुर्थ दिन में देवी को मधुपर्क, तिलक और नेत्राञ्जन अर्पित करे। आज माँ को अपूप(पुए/मालपुए) का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसका ब्राह्मण को दान करें। महाविद्या उपासक वर्ग चतुर्थी को षोडशी जी की उपासना करे।

पञ्चमी को स्कंदमाता जी की आराधना करें। नवरात्र के पाँचवें दिन माँ को अङ्गराग-चन्दनादि एवं आभूषण समर्पित करे। आज केले का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसका ब्राह्मण को दान करें। महाविद्या उपासक पञ्चमी को भुवनेश्वरी जी का स्तवन करें।

षष्ठी तिथि को कात्यायनी जी की उपासना करें। छठे दिन माँ को पुष्पमालादि समर्पित करें। आज माँ को मधु का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इस शहद को ब्राह्मण को प्रसाद रूप में दे दें। महाविद्या उपासक  षष्ठी को त्रिपुरभैरवी जी की स्तुति करे।

सप्तमी को कालरात्रि जी की पूजा करे, सप्तमी को ग्रहमध्यपूजा करे अर्थात् पहले भगवती के चारों ओर नौ ग्रहों की स्थापना करके उनकी पूजा करे और तत्पश्चात् ग्रहों के मध्य स्थित देवी माँ की आराधना करे। आज गुड़ का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसका ब्राह्मण को दान करें। महाविद्या उपासक वर्ग सप्तमी को धूमावती जी की स्तुति करे।

नवरात्रि के अष्टम दिन  महागौरी जी को पूजें। अष्टमी को उपवासपूर्वक माँ का पूजन करे और दुर्गा माँ को नारियल का नैवेद्य अर्पित करना चाहिये और पूजन के पश्चात इसका ब्राह्मण को दान करें। महाविद्या के उपासक अष्टमी को वगलामुखी जी का स्तवन करें।

एवं नवमी तिथि को सिद्धिदात्री नामक दुर्गा देवी का पूजन किया जाना उत्तम है। नवरात्र के नवम दिन महापूजा और कुमारीपूजा करें। आज धान का लावा(खील) के नैवेद्य अर्पण व दान करना चाहिये। महाविद्या उपासक वर्ग नवरात्र के नवम दिन मातङ्गी जी की स्तुति करे।

दशहरे अर्थात नवरात्र के दसवें दिन पूजन के अनन्तर सप्तशती पाठ का समापन करके आरती करके विसर्जन करें।  महाविद्या उपासक दशमी को कमला महाविद्या का आराधन करे। श्रवण नक्षत्र में नवरात्र का विसर्जनाङ्ग-पूजन ही प्रशस्त कहा गया है। दशमांश हवन, तर्पण, मार्जन और ब्राह्मण/कन्या भोज यथाशक्ति कराकर नवरात्रि व्रत का समापन करें। अपनी संतान पर सब कुछ लुटा देने वाली करुणामयी माँ आदिशक्ति माँ दुर्गा जी के श्री चरणों में नवरात्रि पर हमारा अनंत बार प्रणाम....


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