सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कमला महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना

महालय पर जानिये श्राद्ध एवं पितृपक्ष के महत्व को

जी
वन का अन्तिम पड़ाव है मृत्यु। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार मनुष्य मृत्यु के पश्चात पितर(मृत पूर्वज) होकर पितृलोक जाते हैं। पितृलोक के पश्चात कर्मानुसार या तो वह व्यक्ति स्वर्ग/नरक/मुक्ति पाता है या उसका पुनर्जन्म होता है। श्राद्ध से तात्पर्य है पितृगणों की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म। पितरों का ऋण श्राद्धों द्वारा चुकाया जाता है। दिवंगत हुए व्यक्ति का सपिण्डीकरण व वार्षिक श्राद्ध किया जाता है। इसके पश्चात भी प्रतिवर्ष उस जीवात्मा की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जाता है। विशेष बात यह है कि अगला जन्म लेकर वह मनुष्य अपने कर्मानुसार देवता, गंधर्व, मनुष्य या पक्षी आदि जिस भी योनि का हो जाता है, उसी के अनुरूप उसे श्राद्धकर्म तृप्ति देता है। 
इसलिए मृत पूर्वज का  श्राद्ध अवश्य करे इस परम्परा को कभी न तोड़े।
भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन की अमावास्या तक पितृपक्ष कहलाता है। दो अवसरों पर मुख्यतः हर वर्ष श्राद्ध किया जाता है; एक बार - जिस मास की जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु हुई हो तबदूसरी बार पितृपक्ष पर-जिनकी मृत्यु जिस तिथि को हुई हो इस पितृपक्ष के अंतर्गत आने वाली उसी तिथि को उनका श्राद्ध किया जाता है। 
गया में विष्णुजी के पदचिह्न। पितरों की मुक्ति के निमित्त श्राद्ध के लिये सबसे पवित्र स्थान वाराणसी गया नामक तीर्थ है। गया में श्राद्ध करने से निश्चय ही पितृऋण से मुक्ति मिल जाती है।
     पितृपक्ष पितरों के लिये पर्व का अवसर है अतएव इस पक्ष में श्राद्ध किये जाते हैं। भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को पूर्णिमा का श्राद्ध किया जाता है और इसी दिन से महालय का प्रारम्भ माना जाता है। 
     इसी तरह आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर द्वितीया, तृतीया आदि तिथियों से लेकर अमावस्या तक की तिथियों पर मृत्युतिथि के आधार पर श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष की नवमी माता के श्राद्ध के लिये पुण्यदायी होती है। आश्विन चतुर्दशी को चतुर्दशी के श्राद्ध के अलावा दुर्मरण श्राद्ध किया जाता है, जिसके अंतर्गत शस्त्र-जल-अग्नि-विष-दुर्घटना से अकालमृत्यु को प्राप्त हुए व्यक्ति का श्राद्ध किया जाता है। आश्विन आमावस्या के दिन अमावास्या के श्राद्ध सहित सभी तिथियों का श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष में श्राद्ध तो मुख्य तिथियों को होते हैं पर तर्पण प्रतिदिन किया जा सकता है।
काठियावाड़ का सिद्धपुर स्थान माता के श्राद्ध के लिये परम फलदायी माना गया है। इस पुण्यक्षेत्र में माता का श्राद्ध करके पुत्र अपने मातृ-ऋण से सदा-सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। यह स्थान मातृगया के नाम से भी प्रसिद्ध है।
     पितरों की मुक्ति के निमित्त श्राद्ध के लिये सबसे पवित्र स्थान वाराणसी में स्थित 'गया' नामक तीर्थ है। किसी भी मृतक का गया में श्राद्ध करने के पश्चात फिर उस मृत व्यक्ति का पुनः श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है क्योंकि गया में श्राद्ध करने से श्राद्धकर्ता को निश्चय ही पितृऋण से मुक्ति मिल जाती है। काठियावाड़ का सिद्धपुर स्थान माता के श्राद्ध के लिये परम फलदायी माना गया है। इस पुण्यक्षेत्र में माता का श्राद्ध करके पुत्र अपने मातृ-ऋण से सदा-सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। यह स्थान मातृगया के नाम से भी प्रसिद्ध है।

पितृपक्ष में श्राद्ध की महिमा

     आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्॥
तथा-
आयुः प्रजां धनं वित्तं स्वर्गं मोक्षं सुखानि च।
प्रयच्छन्ति तथा राज्यं प्रीता नृणां पीतामहाः॥

     इनका भाव है कि पितरों को पिण्डदान करने वाला दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्यादि की प्राप्ति करता है। यही नहीं पितरों की कृपा से उसे सब प्रकार की समृद्धि, सौभाग्य, राज्य तथा मोक्ष की प्राप्ति होती हैआश्विन मास के पितृपक्ष में पितृगणों को आशा लगी रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्डदान तथा तिलाञ्जलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वी पर आते हैं। अतएव प्रत्येक हिन्दू विशेषकर सदगृहस्थ का कर्तव्य है कि वह पितृपक्ष में पितरों के निमित्त श्राद्ध एवं तर्पण अवश्य करे तथा अपनी सामर्थ्य से फल-मूल जो भी संभव हो पितृगणों के निमित्त प्रदान करे।

महालया (पितृविसर्जनी अमावास्या)

     यद्यपि प्रत्येक अमावास्या पितरों की पुण्यतिथि है तथापि आश्विन कृष्ण अमावास्या या पितृविसर्जनी अमावास्या को सभी पितरों का विसर्जन किया जाता है। जो व्यक्ति पितृपक्ष के पंद्रह दिनों तक श्राद्ध तर्पण आदि नहीं कर पाते हैं, वे इस आश्विन अमावास्या को ही अपने पितरों के निमित्त श्राद्धादि सम्पन्न करते हैं। जिनकी मरण तिथि ज्ञात न हो उनका श्राद्ध-तर्पण-दान आदि भी इसी अमावास्या को किया जाता है। हिंदू धर्म-शास्त्रों का कथन है कि इस आश्विन अमावास्या के दिन सभी पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्धादि की आशा में जाते हैं, यदि वहाँ उनको पिण्डदान या तिलाञ्जलि आदि नहीं मिलती है तो वे शाप देकर चले जाते हैं जिससे पितृदोष की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। अतएव पितरों को संतुष्ट अवश्य करें, भले ही उनको दक्षिणाभिमुख होकर तिल युक्त जल की अञ्जलि दे दें पर एकदम श्राद्ध का परित्याग न करें।

श्राद्ध में ब्राह्मण

सर्वलक्षणसंयुक्तैर्विद्याशीलगुणान्वितैः
पुरुषत्रयविख्यातैः सर्वं श्राद्धं प्रकल्पयेत्॥
     समस्त लक्षणों से सम्पन्न, विद्या, शील एवं सद्गुणों से सम्पन्न तथा तीन पुरुषों (पीढ़ियों) से विख्यात ब्राह्मण के द्वारा श्राद्ध सम्पन्न करें। 

श्राद्ध में वर्जित ब्राह्मण

खञ्जो वा यदि वा काणो दातुः प्रेष्योऽपि वा भवेत्।
हीनातिरिक्तगात्रो वा तमप्यपनयेद् बुधः॥
     लँगड़ा, काना, दाता का दास, अङ्गहीन व अधिक अङ्ग वाला ब्राह्मण श्राद्ध में निषिद्ध है।

न ब्राह्मणं परीक्षेत देवकार्येषु प्रायशः।
पितृकार्ये परीक्षेत ब्राह्मणं तु विशेषतः॥ (निर्णयसिन्धु)
     देवकार्य, पूजा-पाठ आदि में ब्राह्मणों की परीक्षा न करे, किंतु पितृकार्य में अवश्य करे।

श्राद्धकर्ता के लिये वर्जित

     जो श्राद्ध करने के अधिकारी हैं उनको पितृपक्ष में क्षौरकर्म नहीं कराना चाहिये। पंद्रह दिनों में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन व प्रतिदिन स्नान के बाद तर्पण करना चाहिये। तेल (सरसों का लगा सकते हैं) , उबटन प्रयोग नहीं करने चाहिये। ध्यातव्य हो कि पितृपक्ष में व श्राद्ध तिथि को नयी वस्तु या वस्त्र  नहीं खरीदे जाने की मान्यता भी है । कहा गया है-
"माता, पिता, गुरु, देवता"
     अतः पितृ गणों की महत्ता सर्वप्रथम होने से श्राद्ध तिथि को यदि कोई भी व्रत-उपवास (वार/तिथि संबंधी या कोई मासिक व्रत) पड़ जाये तो उसे नहीं रखना चाहिये।

श्राद्ध में पवित्र

त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः।
वर्ज्याणि प्राह राजेन्द्र क्रोधोऽध्वगमनं त्वरा॥
     निर्णयसिन्धु के अनुसार दौहित्र(पुत्री का पुत्र), कुतप(मध्याह्न का समय) और तिल - ये तीन श्राद्ध में अत्यंत पवित्र हैं और क्रोध, अध्वगमन(श्राद्ध करके एक स्थान से अन्यत्र दूसरे स्थान में जाना) एवं श्राद्ध करने में शीघ्रता करना - ये तीन वर्जित हैं।

आश्विन मास के पितृपक्ष में पितृगणों को आशा लगी रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्डदान तथा तिलाञ्जलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वी पर आते हैं। अतएव प्रत्येक हिन्दू विशेषकर सदगृहस्थ का कर्तव्य है कि वह पितृपक्ष में पितरों के निमित्त श्राद्ध एवं तर्पण अवश्य करे तथा अपनी सामर्थ्य से फल-मूल जो भी संभव हो पितृगणों के निमित्त प्रदान करे।

श्राद्ध में अन्न

यदन्नं पुरुषोऽश्नाति तदन्नं पितृदेवताः।
अपक्वेनाथ पक्वेन तृप्तिं कुर्यात्सुतः पितुः॥
     मनुष्य जिस अन्न को स्वयं भोजन करता है, उसी अन्न से पितर व देवता भी तृप्त होते हैं। पकाया हुआ अथवा बिना पकाया हुआ अन्न प्रदान करके पुत्र अपने पितरों को तृप्त करे।

अनुपनीत क्या करें ?
जिनका यज्ञोपवीत नहीं हुआ है (तथा स्त्री, शूद्र, व्रात्य ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) वे भी नीचे लिखी संकल्पात्मक अन्नबलिदान विधि कर सकते हैं। परन्तु ध्यान रहे उनको ॐ नहीं बोलना होगा तथा वे पंचबलि के वेदमंत्र भी नहीं बोलें केवल 'गोभ्यो नमः', 'श्वभ्यां नमः', 'वायसेभ्यो नमः', 'देवादिभ्यो नमः', 'पिपीलिकादिभ्यो नमः' कहें।
इसके अलावा सव्य/अपसव्य में जनेऊ की जगह वे लोग अंगोछे को दायें या बायें करेंगे।

सव्य/अपसव्य क्या है?

जिनको नहीं पता उनके लिए लिख रहा हूँ। तर्पण व श्राद्ध पद्धति की पुस्तकों में जहाँ सव्य लिखा हो उसका अर्थ है जनेऊ बायें कंधे पर करना है इस अवस्था में देव - ऋषि तर्पणादिक कर्म किये जाते हैं। 
अपसव्य का अर्थ है जनेऊ को दायें कंधे में करना है इस अवस्था में पितृ कर्म किये जाते हैं।
दिव्य मनुष्यों (सनक, सनंदन आदि) के तर्पण आदि में जनेऊ व अंगोछे को किसी भी कंधे पर नहीं करते बल्कि कण्ठी माला की तरह करते हैं।
सव्य/अपसव्य होने के बाद आचमन करना चाहिये।

पितृपक्ष में श्राद्ध

     श्राद्ध के पहले दिन एक समय भोजन करके तब अगले दिन श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष में पिता की तिथि को पार्वणश्राद्ध करना चाहिये- 'पर्वणि भवः पार्वणः।' महालय में एकोद्दिष्टश्राद्ध नहीं होता। जो पार्वणश्राद्ध न कर सके, वह कम से कम पञ्चबलि निकालकर ब्राह्मण-भोजन ही कराये, जिसका विधान नीचे लिखा जाता है-
     श्राद्ध के निमित्त पाक तैयार होने पर एक थाली में पाँच जगह थोड़े-थोड़े सभी प्रकार के पाक परोसकर हाथ में जल, अक्षत, पुष्प, चन्दन लेकर निम्न संकल्प करें-

     ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: ॐ तत्सत् श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे भूप्रदेशे------प्रदेशे ----- नगरे,(......ग्रामे)..... नाम्नि सम्वत्सरे, सूर्य (दक्षिणायने/),-----ऋतौ,--(आश्विन)---मासे ----(कृष्ण)--पक्षे , ----तिथौ, -----वासरेअद्य (गोत्र का नाम बोलें) गोत्रीय (श्राद्धकर्ता का नाम कहें) शर्मा/दास/गुप्त अहं (पितर का गोत्र) गोत्रस्य मम पितुः [मातुः/भ्रातुः या पितामहस्य] वार्षिकश्राद्धे (महालयश्राद्धे) कृतस्य पाकस्य शुद्धयर्थं पञ्चसूना-जनित-दोष-परिहारार्थं च पञ्च-बलिदानं करिष्ये।

पञ्चबलि - विधि

यदि मन्त्र याद न रहे तो केवल 'गोभ्यो नमः', 'श्वभ्यां नमः', 'वायसेभ्यो नमः', 'देवादिभ्यो नमः', 'पिपीलिकादिभ्यो नमः' बोलकर भी बलि के अन्न को प्रदान कर सकते हैं।

(१) गोबलि (पत्ते पर)- मण्डल के बाहर पश्चिम की ओर निम्न मन्त्र पढ़कर  एक पत्ते पर गाय के निमित्त अन्न रखें-
ॐ सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पुण्यराशयः।
प्रतिगृह्णंतु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः॥
इदं गोभ्यो न मम।

(२) श्वानबलि (पत्ते पर)- जनेऊ को कण्ठी करके निम्न मन्त्र से कुत्तों के लिये बलि रखें-
द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ वैवस्वतकुलोद्भवौ।
ताभ्यामन्नं प्रयच्छामि स्यातामेतावहिंसकौ॥
इदमन्नं श्वभ्यां न मम।

(३) काकबलि (पृथ्वी पर)- अपसव्य होकर(दाहिनी जनेऊ करके) निम्न मन्त्र से कौओं के लिये भूमि पर अन्न रखें-
ॐ ऐन्द्रवारुणवायव्या याम्या वै नैर्ऋतास्तथा।
वायसाः प्रतिगृह्णन्तु भूमौ पिण्डं मयोज्झितम्॥
इदमन्नं वायसेभ्यो न मम।

(४) देवादिबलि (पत्ते पर)- सव्य होकर(बायींजनेऊ करके) निम्न मन्त्र से देवतादि के लिये अन्न दें-
ॐ देवा मनुष्याः पशवो वयांसि
सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसङ्घाः।
प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता
ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्॥
इदमन्नं देवादिभ्यो न मम।


(५) पिपीलिकादिबलि (पत्ते पर)- निम्न मन्त्र से चींटी आदि के लिये अन्न रखें-
पिपीलिकाः कीट+पतङ्गकाद्या
बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः।

तेषां हि तृप्त्यर्थमिदं मयान्नं

तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥

इदमन्नं पिपीलिकादिभ्यो न मम।


     पञ्चबलि के बाद एक थाली में अन्न परोसकर अपसव्य(जनेऊ दायें कन्धे पर) एवं दक्षिणाभिमुख होकर निम्न संकल्प करें-
 ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: ॐ तत्सत् श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे भूप्रदेशे-------प्रदेशे ----- नगरे,(......ग्रामे)..... नाम्नि सम्वत्सरे, सूर्य (दक्षिणायने/),-----ऋतौ,--(आश्विन)---मासे ----(कृष्ण)--पक्षे -----वासरे, अद्य (गोत्र का नाम बोलें) गोत्रीय (श्राद्धकर्ता का नाम कहें) शर्मा/दास/गुप्त अहं (पितर का गोत्र) गोत्रस्य मम पितुः(मृत पिता के लिए) [यहाँ मृत माँ के लिए संकल्प करना हो तो मातुः कहें और मृत भाई के लिए भ्रातुः कहें अगर मृत दादा के लिए संकल्प कर रहे हों तो पितामहस्य कहें] वार्षिकश्राद्धे (महालयश्राद्धे) अक्षय-तृप्त्यर्थमिदमन्नं तस्मै स्वधा।
     इसके बाद 'ॐ इदमन्नम्', 'इमा आपः', 'इदमाज्यम्', 'इ .दं हविः' कहकर अन्न, जल, घी तथा पुनःअन्न को दाहिने हाथ के अंगूठे से स्पर्श करे।
इसके बाद ब्राह्मण भोजन का संकल्प करें-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: ॐ तत्सत् श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराह-कल्पे वैवस्वत-मन्वन्तरे, अष्टाविंशति-तमे कलियुगे, कलि-प्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे भूप्रदेशे------प्रदेशे ----- नगरे,(.....ग्रामे)..... नाम्नि सम्वत्सरे, सूर्य (दक्षिणायने/),-----ऋतौ,--(आश्विन)---मासे ----(कृष्ण)--पक्षे -----वासरे, अद्य (गोत्र का नाम बोलें) गोत्रीय (श्राद्धकर्ता का नाम कहें) शर्मा/दास/गुप्त अहं (पितर का गोत्र) गोत्रस्य मम पितुः [मातुः भ्रातुः या पितामहस्य] वार्षिकश्राद्धे (महालयश्राद्धे) यथासंख्यकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये।
इस अमावास्या के दिन सभी पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्धादि की आशा में जाते हैं, यदि वहाँ उनको पिण्डदान या तिलाञ्जलि आदि नहीं मिलती है तो वे शाप देकर चले जाते हैं जिससे पितृदोष की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। अतएव पितरों को संतुष्ट अवश्य करें, भले ही उनको दक्षिणाभिमुख होकर तिल युक्त जल की अञ्जलि दे दें पर एकदम श्राद्ध का परित्याग न करें।
इसके बाद पञ्चबलि में से कौए का अन्न कौए को, कुत्ते का अन्न कुत्ते को और बाकी सब गाय को दे दें। फिर निम्न मन्त्र से ब्राह्मण के पैर धोकर भोजन करायें-
यत् फलं कपिलादाने कार्तिक्यां ज्येष्ठपुष्करे।
तत्फलं पाण्डवश्रेष्ठ विप्राणां पादसेचने॥
     इसके बाद उन्हें नमस्कार करके अन्न-वस्त्र-दक्षिणा देकर तिलक करके नमस्कार करें। फिर श्राद्धकर्ता यजमान बोले-"शेषान्नेन किं कर्तव्यम्?"(श्राद्ध में बचे अन्न का क्या करूँ?) 
तब ब्राह्मण यह बोले-"इष्टैः सह भोक्तव्यम्।"(अपने इष्ट-मित्र-परिवार के साथ भोजन करें।)
तत्पश्चात् परिवार के साथ स्वयं भोजन करें तथा निम्न मन्त्र से भगवान को नमन करें-
प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्ण स्यादिति श्रुतिः॥
     वस्तुतः श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम् ।
अर्थात् श्रद्धा से जो कुछ दे दिया जाता है वही श्राद्ध है। पितृपक्ष पर सभी पितृगणों को अनेकों बार नमन।


टिप्पणियाँ

  1. aapne print karne ki option nahi rakhi hai yadi koi post print karna chahe to possible hona chahiye

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. इस सुंदर सुझाव के लिए धन्यवाद मित्र, अब हर आलेख के नीचे प्रिंट बटन लगा दिया गया है। भगवान की कृपा आप पर सदा बनी रहे।
      ॥ॐ॥

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

कृपया टिप्पणी करने के बाद कुछ समय प्रतीक्षा करें प्रकाशित होने में कुछ समय लग सकता है। अंतर्जाल (इन्टरनेट) पर उपलब्ध संस्कृत में लिखी गयी अधिकतर सामग्री शुद्ध नहीं मिलती क्योंकि लिखने में उचित ध्यान नहीं दिया जाता यदि दिया जाता हो तो भी टाइपिंग में त्रुटि या फोंट्स की कमी रह ही जाती है। संस्कृत में गलत पाठ होने से अर्थ भी विपरीत हो जाता है। अतः पूरा प्रयास किया गया है कि पोस्ट सहित संस्कृत में दिये गए स्तोत्रादि शुद्ध रूप में लिखे जायें ताकि इनके पाठ से लाभ हो। इसके लिए बार-बार पढ़कर, पूरा समय देकर स्तोत्रादि की माननीय पुस्तकों द्वारा पूर्णतः शुद्ध रूप में लिखा गया है; यदि फिर भी कोई त्रुटि मिले तो सुधार हेतु टिप्पणी के माध्यम से अवश्य अवगत कराएं। इस पर आपकी प्रतिक्रिया व सुझाव अपेक्षित हैं, पर ऐसी टिप्पणियों को ही प्रकाशित किया जा सकेगा जो शालीन हों व अभद्र न हों।

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

एकादशी व्रत के उद्यापन की विस्तृत विधि

व्र त एक तप है तो उद्यापन उसकी पूर्णता है। उद्यापन वर्ष में एक बार किया जाता है इसके अंग हैं- व्रत , पूजन , जागरण , हवन , दान , ब्राह्मण भोजन , पारण । समय व जानकारी के अभाव में कम लोग ही पूर्ण विधि - विधान के साथ उद्यापन कर पाते हैं। प्रत्येक व्रत के उद्यापन की अलग - अलग शास्त्रसम्मत विधि होती है। इसी क्रम में शुक्ल और कृष्ण पक्ष की एकादशियों का उद्यापन करने की विस्तृत शास्त्रोक्त विधि आपके समक्ष प्रस्तुत है। वर्ष भर के 24 एकादशी व्रत किसी ने कर लिये हों तो वो उसके लिए उद्यापन करे। जिसने एकादशी व्रत अभी नहीं शुरु किये लेकिन आगे से शुरुआत करनी है तो वह भी पहले ही एकादशी उद्यापन कर सकते हैं और उस उद्यापन के बाद 24 एकादशी व्रत रख ले। कुछ लोग साल भर केवल कृष्ण पक्ष के 12 एकादशी व्रत लेकर उनका ही उद्यापन करते हैं तो कुछ लोग साल भर के 12 शुक्ल एकादशी व्रत लेकर उनका ही उद्यापन भी करते हैं। अतः जैसी इच्छा हो वैसे करे लेकिन उद्यापन अवश्य ही करे तभी व्रत को पूर्णता मिलती है। कृष्ण पक्ष वाले व्रतों का उद्यापन कृष्ण पक्ष की एकादशी-द्वादशी को करे , शुक्ल पक्ष वाले व्रतों का उ

श्री त्रिपुरसुन्दरी षोडशी महाविद्या की स्तोत्रात्मक उपासना [श्रीविद्या खड्गमाला]

प्र त्येक धर्मशील जिज्ञासु के मन में ये प्रश्न उठते ही हैं कि जीव का ब्रह्म से मिलन कैसे हो? जीव की ब्रह्म के साथ एक-रूपता कैसे हो? इस हेतु हमारे आगम ग्रंथों में अनेक विद्याएँ उपलब्ध हैं। शक्ति-उपासना में इसी सन्दर्भ में दश-महाविद्याएँ भी आती हैं। उनमें महाविद्या भगवती षोडशी अर्थात श्रीविद्या का तीसरा महत्त्व-पूर्ण स्थान है, श्रीविद्या को सामान्य रूप से,  श्री प्राप्त करने की विद्या कह सकते हैं और आध्यात्मिक रूप से इसे मोक्ष प्राप्त करने की अत्यन्त प्राचीन परम्परा कहा जा सकता है। शब्दकोशों के अनुसार श्री के कई अर्थ हैं- लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु, कुबेर, त्रिवर्ग(धर्म-अर्थ व काम), सम्पत्ति, ऐश्वर्य, कान्ति, बुद्धि, सिद्धि, कीर्ति, श्रेष्ठता आदि। इससे भी श्रीविद्या की महत्ता ज्ञात हो जाती है। राजराजेश्वरी भगवती ललिता की आराधना को सम्पूर्ण भारत में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जगद्गुरु श्री शंकराचार्य के चारों मठों में ( 1 . गुजरात के द्वारका में, 2. उत्तराखंड के जोशीमठ में स्थित शारदा पीठ, 3. कर्नाटक के श्रृंगेरी पीठ व 4. उड़ीसा के पुरी में) इन्हीं का यजन-पूजन

महाकाली महिमा तथा काली एकाक्षरी मन्त्र पुरश्चरण

का ल अर्थात् समय/मृत्यु की अधिष्ठात्री भगवती महाकाली हैं। यूं तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि योगमाया भगवती आद्याकाली के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाई जाती है। परंतु तान्त्रिक मतानुसार आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन ' काली जयंती ' बतलायी गयी है। जगत के कल्याण के लिये वे सर्वदेवमयी आद्या शक्ति अनेकों बार प्रादुर्भूत होती हैं, सर्वशक्ति संपन्न वे भगवान तो अनादि हैं परंतु फिर भी भगवान के अंश विशेष के प्राकट्य दिवस पर उन स्वरूपों का स्मरण-पूजन कर यथासंभव उत्सव करना मंगलकारी होता है। दस महाविद्याओं में प्रथम एवं मुख्य महाविद्या हैं भगवती महाकाली। इन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविद्याएँ हैं। विद्यापति भगवान शिव की शक्तियां ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टि से  भी कालतत्व की प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओं की आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकाल की प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपों में दस महाविद्याओं के नाम से विख्य

गायत्री वेदमाता की महिमा (कवच, 108 नाम स्तोत्र)

श्रा वण शुक्ल पूर्णिमा के दिन  रक्षाबंधन, संस्कृत दिवस, लव-कुश जयंती    के साथ-साथ "भगवती गायत्री जयंती" मनाई जाती है। वेदमाता कहलाने वाली ये भगवती माँ अपने गायक/जपकर्ता का पतन से त्राण कर देती हैं; इसीलिए वो 'गायत्री' कहलाती हैं। जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही धर्म-कर्म के लिये योग्य कहलाता है और दान, जप, होम व पूजा सभी कर्मों के लिये वही शुद्ध पात्र है। पंचमुखी देवी गायत्री श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन श्रावणी उपाकर्म किया जाता है जिसके अंतर्गत  प्रायश्चित संकल्प करके दशविध स्नान के बाद  फिर शुद्ध स्नान कर नवीन यज्ञोपवीत का मंत्रों से संस्कार करके उस यज्ञोपवीत का पूजन कर उसे धारण किया जाता है फिर  पुराने यज्ञोपवीत का त्याग कर दिया जाता है । फिर गायत्री पूजन करें।  तत्पश्चात् यथाशक्ति गायत्री मंत्र जपा जाता है।  इसके बाद सप्तर्षि पूजन करके हवन करके  ऋषि तर्पण, पितृ तर्पण करते हैं।  चूंकि इस दिन गायत्री जयंती है अतः सच्चे मन से वेदजननी माँ गायत्री से संबन्धित स्तोत्रों का पाठ करना, गायत्री मंत्र से हवन, मन ही मन गायत्री मंत्र स्मरण वेदमाता की विशेष कृप

तारा महाविद्या करती हैं भयंकर विपत्तियों से भक्तों की रक्षा

भ गवती आद्याशक्ति के दशमहाविद्यात्मक दस स्वरूपों में एक स्वरूप भगवती तारा का है।   क्रोधरात्रि में भगवती तारा का प्रादुर्भाव हुआ था । चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को महाविद्या तारा की जयन्ती तिथि बतलाई गई है। महाविद्या काली को ही नीलरूपा होने के कारण तारा भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि ये सर्वदा मोक्ष देने वाली, तारने वाली हैं इसलिये इन्हें तारा कहा जाता है-  तारकत्वात् सदा तारा सुख-मोक्ष-प्रदायि नी।  महाविद्याओं के क्रम में ये द्वितीय स्थान पर परिगणित की जाती हैं।  रात्रिदेवी की स्वरूपा शक्ति  भगवती  तारा दसों  महाविद्याओं में  अद्भुत प्रभाववाली और  सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी  कही गयी हैं। भगवती तारा के तीन रूप हैं-  तारा, एकजटा और नीलसरस्वती।  श्री तारा महाविद्या के  इन   तीनों रूपों के रहस्य, कार्य-कलाप तथा ध्यान परस्पर भिन्न हैं किन्तु भिन्न होते  हुए भी सबकी शक्ति समान और एक ही है।   1. नीलसरस्वती अनायास ही वाक्शक्ति प्रदान करने में समर्थ हैं, इसलिये इन्हें नीलसरस्वती भी कहते हैं ।  जिन्होंने नीलिमा युक्त रूप में प्रकट होकर विद्वान

हाल ही की प्रतिक्रियाएं-