नोट - यहाँ प्रकाशित साधनाओं, स्तोत्रात्मक उपासनाओं को नियमित रूप से करने से यदि किसी सज्जन को कोई विशेष लाभ हुआ हो तो कृपया हमें सूचित करने का कष्ट करें।

⭐विशेष⭐


23 अप्रैल - मंगलवार- श्रीहनुमान जयन्ती
10 मई - श्री परशुराम अवतार जयन्ती
10 मई - अक्षय तृतीया,
⭐10 मई -श्री मातंगी महाविद्या जयन्ती
12 मई - श्री रामानुज जयन्ती , श्री सूरदास जयन्ती, श्री आदि शंकराचार्य जयन्ती
15 मई - श्री बगलामुखी महाविद्या जयन्ती
16 मई - भगवती सीता जी की जयन्ती | श्री जानकी नवमी | श्री सीता नवमी
21 मई-श्री नृसिंह अवतार जयन्ती, श्री नृसिंहचतुर्दशी व्रत,
श्री छिन्नमस्ता महाविद्या जयन्ती, श्री शरभ अवतार जयंती। भगवत्प्रेरणा से यह blog 2013 में इसी दिन वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को बना था।
23 मई - श्री कूर्म अवतार जयन्ती
24 मई -देवर्षि नारद जी की जयन्ती

आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष।
यहाँ आप सनातन धर्म से संबंधित किस विषय की जानकारी पढ़ना चाहेंगे? ourhindudharm@gmail.com पर ईमेल भेजकर हमें बतला सकते हैं अथवा यहाँ टिप्पणी करें हम उत्तर देंगे
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श्री काली ककारादि सहस्रनाम स्तोत्र

गवान महाकाल की अभिन्न शक्ति हैं महाकाली। उपासकों के कल्याण के लिये भगवती पार्वती के दो रूप हो गये लालिमा लिया हुआ रूप भगवती त्रिपुर सुंदरी का है, और कृष्ण वर्ण का रूप भगवती काली का है। सभी देवियों में एकत्व है। देवी के सभी रूपों में अभेद रहता है। पूजा - अर्चना करने से व मंत्र जाप द्वारा मां काली की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है। मंत्र द्वारा भगवती काली की उपासना करने के लिये मंत्र दीक्षा की आवश्यकता होती है। लेकिन सामान्य आराधकों को, अदीक्षितों को स्तोत्रों का ही पाठ करना चाहिये। 
यूं तो भगवती महाकाली को प्रसन्नता देने वाले बहुत से स्तोत्र हैं, परन्तु श्री काली सहस्रनाम स्तोत्र का महत्व इन सबमें श्रेष्ठ है।
दीक्षित साधक भी पूर्णता हेतु अपनी साधना में सहस्रनाम स्तोत्र पढ़ते ही हैं। सहस्रनाम या शतनाम स्तोत्राें के माध्यम से सरलता पूर्वक साधना हो जाती है। इसमें नाम रूपी मंत्रों का जप तो चलता ही है; साथ ही एक ही देव के विभिन्न नामों को पढ़ते—पढ़ते मन में उन नामों का अर्थ चिंतन होने से उस देवता के स्वरूप गुण के विषय में कई भाव प्रकट होते हैं, देवता के बारे में कई विशिष्ट बातें ज्ञात होती हैं।
किन्हीं देवी देवता के एक से अधिक सहस्रनाम स्तोत्र भी होते हैं। सहस्रनामों में भी यह 'क' कारादि सहस्रनाम स्तोत्र है। ककारादि काली सहस्रनाम स्तोत्र की यह विशेषता है कि इसमें हर नाम क अक्षर से ही शुरू होता है। यह सर्व साम्राज्य व मेधा प्रदान करने वाला स्तोत्र कहा गया है।
माँ काली वरदान देने में बहुत चतुर हैं अर्थात् माता वही वरदान देंगी जो साधक के लिये योग्य होगा इसीलिये वे "दक्षिणा काली" कहलाती हैं। भगवती काली की आराधना करने से मेधा अर्थात् स्मरणशील बुद्धि प्राप्त होती है। सर्वत्र भगवती महाकाली का ही तो साम्राज्य है जिसने उनके भक्त होने का पद पा लिया उसे सब कुछ प्राप्त हो ही जाता है। भगवती महाकाली ने भगवती त्रिपुरसुंदरी को ये सहस्रनाम कहे थे। इसके पाठ से कुशलता , स्थिरता, आयु, आरोग्य की वृद्धि होती है, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त होते हैं।फलश्रुति में यह भी लिखा है कि इसके पाठ करने से या सुनने से भी व्यक्ति काली रूप हो जाता है इससे अभिप्राय है कि वह भगवत् तत्व को, आत्म तत्व के ज्ञान को समझ लेता है, कहाँ देवी की व्याप्ति है समझ पाता है।



कब पाठ करें - नवरात्र में पढ़ें।  विशेष रुप से जन्माष्टमी, नरक चतुर्दशी, दीपावली की रात्रि में, महाष्टमी, सप्तमी व अष्टमी की सन्धि में जब सप्तमी समाप्त होने वाली हो अष्टमी लगने वाली हो तब पढ़ें। इसके अलावा  कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि, शुक्ल या कृष्ण अष्टमी, चतुर्दशी, अमावास्या, संक्रान्ति, मंगलवार, सायंकाल, ब्रह्म मुहूर्त में, अर्धरात्रि, शुक्रवार, शनिवार को या सुविधा अनुसार कभी भी पढ़ सकते हैं।

ककारादि काली सहस्रनाम स्तोत्र

पाठ विधि

स्वच्छ हो जाये और पूजा स्थल में साफ आसन पर बैठ जाये तीन आचमन तथा तीन प्राणायाम करें। दीपक जला हुआ हो। सामने देवी महाकाली की प्रतिमा या चित्र रखे। लाल फूल रखे, गुड़हल माँ को विशेष प्रिय है। पुष्प अक्षत हाथों में जल सहित लें और संकल्प करें-

संकल्प
श्रीगणपतिर्जयति विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराह-कल्पे वैवस्वत-मन्वन्तरे, अष्टाविंशति-तमे कलियुगे, कलि-प्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे पुण्य-भूप्रदेशे------प्रदेशे ----- नगरे (......ग्रामे), ..... नाम्नि सम्वत्सरे, सूर्य (उत्तरायणे/दक्षिणायने)-----ऋतौ,------मासे --------पक्षे , ----तिथौ, -----वासरे ------गोत्रोत्पन्नो ------(नाम) अहं अद्य श्री महाकाल शिव सहिता श्री कालिका महाविद्या प्रीत्यर्थं श्री ककारादि काली सहस्रनाम स्तोत्रैः स्तुतिं करिष्ये।


महागणपति पूजन- पुष्प या अक्षत अर्पित करे-• ऐं आत्म तत्व व्यापकाय महा-गणपतये श्री पादुकां पूजयामि नमः।
• ह्रीं विद्या तत्व व्यापकाय महा-गणपतये श्री पादुकां पूजयामि नमः।
• क्लीं शिव तत्व व्यापकाय महा-गणपतये श्री पादुकां पूजयामि नमः।


गुरु पूजन- अपने गुरू का पूजन करे गुरु न हों तो पुष्प शिव जी को चढ़ा दे-
होत्राग्नि-होत्राग्नि-हविष्य-होतृ
होमादि-सर्वाकृति-भासमानम्
यद्ब्रह्म तद्बोध वितारिणीभ्यां
नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥
श्री दक्षिणामूर्ति गुरवे नमः श्रीगुरुपादुकां पूजयामि नमः

गुरु को नमस्कार करे-
• गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः,
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।
• अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया, चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।


महाकाल शिव पूजन- शिवजी पर पुष्प या अक्षत अर्पित करे- श्री महाकाल शिवाय नमो नमः श्रीपादुकां पूजयामि।

अब हाथों में जल लेकर विनियोग करें-

विनियोग - अस्य सर्व-साम्राज्य-मेधा-नाम ककारात्मक श्री काली-सहस्रनाम स्तोत्रस्य श्री महाकाल ऋषिः, उष्णिक्‌ छन्दः, श्रीदक्षिणाकाली देवता, ह्रीं बीजं, हूं शक्तिः, क्रीं कीलकं, मम-क्षेम - स्थैर्यायु - रारोग्या - भिवृद्ध्यर्थं मोक्षादि चतुर्वर्ग साधनार्थं च श्री परमार्थ दायिनी परमेश्वरी आद्या महाकाली प्रीतये पाठे विनियोगः


जल भूमि पर छोड़ें।

ऋष्यादि-न्यासः -

श्री महा-काल-ऋषये नमः शिरसि – बोलकर सिर का स्पर्श करे।

उष्णिक्‌-छन्दसे नमः मुखे – कहकर मुख का स्पर्श करे।

श्रीदक्षिणा- काली देवतायै नमः हृदि, दाहिने हाथ से हृदय का स्पर्श करे।

ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये,
बायें हाथ से नितम्ब का स्पर्श करे।

हूं शक्तये नमः पादयोः,
पैरों का स्पर्श करे।

क्रीं कीलकाय नमः नाभौ - नाभि का स्पर्श करे।

मम-क्षेम-स्थैर्यायु-रारोग्याभि-वृद्ध्यर्थं मोक्षादि चतुर्वर्ग साधनार्थं च श्री परमार्थ दायिनी परमेश्वरी आद्या महाकाली प्रीतये पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे। - सभी अंगों का स्पर्श करे।


ध्यानम्

शवारूढां महा-भीमां, घोर-दंष्ट्रां हसन्मुखीम्‌।
चतुर्भुजां खड्ग-मुण्ड-वराऽभय-करां शिवाम्‌॥
मुण्ड-माला-धरां देवीं, ललज्जिह्वां दिगम्बराम्‌।
एवं सञ्चिन्तये कालीं, श्मशानालय-वासिनीम्‌॥


(जो शव पर आरूढ़ हैं, अत्यंत भयानक हैं, भयानक दांतों वाली, प्रसन्न मुख वाली हैं, चार भुजाओं में खड्ग, मुंड, वर मुद्रा, अभय मुद्रा धारण करने वाली शिवा हैं, मुंड माला धारण करने वाली देवी हैं, लपलपाती जिह्वा वाली, दिगंबरा हैं,ऐसी श्मशान रूपी घर में वास करने वाली भगवती काली का मैं चिंतन करता हूं।)

पंचोपचार पूजा

लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्री महाकाल शिव सहिता श्रीदक्षिणा-कालिका-प्रीतये समर्पयामि नमः। (अंगूठे से कनिष्ठा का स्पर्श करके नीची करके बनी गंध मुद्रा दिखायें)

हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री महाकाल शिव सहिता श्रीदक्षिणा-कालिका-प्रीतये समर्पयामि नमः। (अंगूठे से तर्जनी का स्पर्श करके नीची करके दिखाये)

यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री महाकाल शिव सहिता श्रीदक्षिणा-कालिका-प्रीतये घ्रापयामि नमः। (अंगूठे से तर्जनी छूकर ऊपर की ओर करके दिखाये)

रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्री महाकाल शिव सहिता श्री दक्षिणा-कालिका-प्रीतये दर्शयामि नमः

(अंगूठे से मध्यमा का स्पर्श करके दिखाये)


वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री महाकाल शिव सहिता श्री दक्षिणा-कालिका-प्रीतये निवेदयामि नमः। (अंगुष्ठ अनामिका को मिलाकर दिखाये)

सौं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्री महाकाल शिव सहिता श्रीदक्षिणा-कालिका-प्रीतये समर्पयामि नमः। (सभी अंगुलियों को मिला कर दिखायें)

(उपरोक्त उपचार मुद्राओं को समझने के लिये यहाँ क्लिक करें)

श्रीकाली सहस्रनाम स्तोत्रम्


क्रीं-काली क्रूं-कराली च, कल्याणी कमला कला।
कलावती कलाढ्या च, कला-पूज्या कलात्मिका॥१॥

कला-हृष्टा कला-पुष्टा, कलामस्ता कलाकरा।
कला-कोटि-समाभासा, कला-कोटि-प्रपूजिता॥२॥

कला-मयी कलाधारा, कलापारा कला-गमा।
कलाराध्या कमलिनी! ककारा करुणाकरा॥३॥

ककार - वर्ण-सर्वाङ्गी, कला - कोटि - विभूषिता।
ककार - कोटि - गुणिता, ककार - कोटि - भूषणा॥४॥

ककार - वर्ण - हृदया, ककार - मनु - मण्डिता।
ककार - वर्ण - निलया, काक - शब्द - परायणाः॥५॥


ककार - वर्ण - मुकुटा, ककार - वर्ण - भूषणा
ककार - वर्ण - रूपा च, कक-शब्द - परायणाः॥६॥

कक-वीरास्फाल - रता, कमलाकर - पूजिता।
कमलाकर - नाथा च, कमलाकर - रूप - धृक्‌॥७॥

कमलाकर - सिद्धिस्था, कमलाकर - पारदा।
कमलाकर - मध्यस्था, कमलाकर - तोषिता॥८॥

कथङ्कार - पदालापा, कथङ्कार - परायणा।
कथङ्कार - पदान्तस्था, कथङ्कार - पदार्थ - भूः॥९॥

कमलाक्षी कमलजा, कमलाक्ष - प्रपूजिता।
कमलाक्ष - वरोद्युक्ता ककारा कर्बुराक्षराः॥१०॥

कर-तारा करच्छिन्ना, कर - श्यामा करार्णवा।
कर - पूज्या कर - रता, करदा कर-पूजिता॥११॥

कर-तोया करामर्षा, कर्म - नाशा कर-प्रिया।
कर - प्राणा करकजा, करका करकान्तरा॥१२॥


करकाचल - रूपा च, करकाचल - शोभिनी।
करकाचल - पुत्री च, करकाचल - तोषिता॥१३॥

करकाचल - गेहस्था, करकाचल - रक्षिणी।
करकाचल - सम्मान्या, करकाचल - कारिणी॥१४॥

करकाचल - वर्षाढ्या, करकाचल - रञ्जिता।
करकाचल - कान्तारा, करकाचल - मालिनी॥१५॥

करकाचल - भोज्या च
, करामलक – रूपिणी।

करामलक - संस्था च, करामलक - सिद्धिदा॥१६॥

करामलक - सम्पूज्या, करामलक - तारिणी।

करामलक - काली च, करामलक - रोचिनी॥१७॥

करामलक-माता च, करामलक - सेविनी।

करामलक–वद्-ध्येया, करामलक-दायिनी॥१८॥

कञ्ज – नेत्रा, कञ्ज - मतिः, कञ्जस्था कञ्ज - धारिणी

कञ्ज-माला-प्रिय-करी, कंज-रूपा च कञ्जजा॥१९॥

कञ्ज - जातिः कञ्ज – गतिः, कञ्ज - होम - परायणा।

कञ्ज - मण्डल - मध्यस्था, कञ्जाभरण - भूषिता॥२०॥

कञ्ज - सम्मान - निरता, कञ्जोत्पत्ति - परायणा।

कञ्ज - राशि - समाकारा, कञ्जारण्य - निवासिनी॥२१॥


करञ्ज - वृक्ष - मध्यस्था, करञ्ज – वृक्ष - वासिनी।

करञ्ज - फल - भूषाढ्या, करञ्जारण्य - वासिनी॥२२॥

करञ्ज - मालाभरणा,
करवाल - परायणा।

करवाल - प्रहृष्टात्मा, करवाल – प्रियागतिः॥२३॥

करवाल - प्रिया - कन्था, करवाल - प्रहारिणी।

करवालमयी - कर्मा, करवाल - क्रिया - करा॥२४॥




कबन्ध-मालाभरणा, कबन्ध-राशि-मध्यगा।

कबन्धारूढ-संस्थाना,कबन्धानन्त-भूषिता॥२५॥

कबन्ध-नाद-सन्तुष्टा, कबन्धासन-धारिणी।

कबन्ध-गृह-मध्यस्था,कबन्धवन-वासिनी॥२६॥

कबन्धकाञ्ची–करणी,कबन्ध-राशिभूषणा।

कबन्धमाला-जयदा,कबन्ध-देहवासिनी॥२७॥
कबन्धासन-मान्या च,
कपाल- माल्यधारिणी।
कपालमाला - मध्यस्था , कपालव्रत - तोषिता॥२८॥
कपाल - दीप - सन्तुष्टा, कपाल - दीप - रूपिणी।
कपाल - दीप - वरदा, कपाल-कज्जल-स्थिता॥२९॥
कपाल - माला - जयदा, कपाल - जप - तोषिणी।
कपाल - सिद्धि - संहृष्टा, कपाल-भोजनोद्यता॥३०॥
कपाल – व्रत - संस्थाना, कपाल-कमलालया।

कवित्वामृत - सारा च, कवित्वामृत - सागरा॥३१॥
कवित्व-सिद्धि-संहृष्टा, कवित्व- दान-कारिणी।
कवि-पूज्या कवि-गतिः, कवि- रूपा कवि-प्रिया॥३२॥
कवि - ब्रह्मानन्द - रूपा, कवित्व-व्रत-तोषिता।
कवि-मानस-संस्थाना, कवि-वाञ्छा - प्रपूरिणी॥३३॥
कवि-कण्ठ-स्थिता कं-ह्रीं-कं-कं-कं कवि- पूर्तिदा।

कज्जला कज्जलादान - मानसा कज्जल - प्रिया॥३४॥
कपाल - कज्जल - समा, कज्जलेश - प्रपूजिता।
कज्जलार्णव - मध्यस्था, कज्जलानन्त - रूपिणी॥३५॥
कज्जल - प्रिय - संतुष्टा, कज्जल - प्रिय-तोषिणी।
कपाल - मालाभरणा, कपाल - कर - भूषणा॥३६॥
कपाल - कर - भूषाढ्या, कपाल - चक्र-मण्डिता।
कपाल - कोटि - निलया , कपाल - दुर्ग - कारिणी॥३७॥
कपाल - गिरि - संस्थाना, कपाल-चक्र - वासिनी!
कपाल - पात्र - सन्तुष्टा, कपालार्घ्य - परायणा॥३८॥
कपालार्घ्य - प्रिय - प्राणा, कपालार्घ्य - वरोद्यता।
कपाल - चक्र - रूपा च, कपाल - रूप - मात्रगा॥३९॥

कदली कदली - रूपा, कदली - वन - वासिनी।
कदली - पुष्प संप्रीता, कदली - फल - मानसा॥४०॥
कदली - होम - सन्तुष्टा, कदली - दर्शनोद्यता।
कदली - गर्भ - मध्यस्था, कदली - वन - सुन्दरी॥४१॥

कदम्ब - पुष्प - निलया, कदम्ब - वन - मध्यगा।
कदम्ब कुसुमामोदा, कदम्ब - वन - तोषिणी॥४२॥
कदम्ब पुष्प सम्पूज्या, कदम्ब पुष्प - होमदा।
कदम्ब - पुष्प - मध्यस्था , कदम्ब - फल - भोजिनी॥४३॥
कदम्ब - काननान्तःस्था, कदम्बाचल - वासिनी।

कक्षपा कक्षपाराध्या, कक्षपासन - संस्थिता॥४४॥
कर्णपूरा कर्णनासा, कर्णाढ्या कालभैरवी।

कलप्रीता कलहदा, कलहा कलहातुरा॥४५॥
कर्णयक्षी कर्णवार्ता, कथिनी कर्ण-सुन्दरी।
कर्ण - पिशाचिनी कर्ण - मञ्जरी कवि-कक्षदा॥४६॥

कवि - कक्ष - विरूपाढ्या, कवि-कक्ष-स्वरूपिणी।
कस्तूरी मृग - संस्थाना, कस्तूरीमृग - रूपिणी॥४७॥
कस्तूरीमृग – सन्तोषा, कस्तूरीमृग - मध्यगा।
कस्तूरीरस - नीलाङ्गी, कस्तूरी - गन्ध - तोषिता॥४८॥
कस्तूरी - पूजक - प्राणा, कस्तूरी - पूजकप्रिया।
कस्तूरीप्रेम - सन्तुष्टा , कस्तूरी - प्राण - धारिणी॥४९॥
कस्तूरी - पूजकानन्दा, कस्तूरी - गन्ध - रूपिणी।
कस्तूरी - मालिका - रूपा, कस्तूरी - भोजन - प्रिया॥५०॥
कस्तूरी – तिलकानन्दा, कस्तूरी - तिलक – प्रिया।
कस्तूरी - होम सन्तुष्टा, कस्तूरी - तर्पणोद्यता॥५१॥

कस्तूरी मार्जनोद्युक्ता, कस्तूरी - चक्र – पूजिता।
कस्तूरीपुष्प-सम्पूज्या, कस्तूरी - चर्वणोद्यता॥५२॥

कस्तूरीगर्भ-मध्यस्था,कस्तूरी-वस्त्रधारिणी।

कस्तूरी-कामोदरता,कस्तूरीवन - वासिनी॥५३॥

कस्तूरी-वनसंरक्षा, कस्तूरीप्रेम - धारिणी।

कस्तूरी-शक्तिनिलया,कस्तूरी-शक्तिकुण्डगा॥५४॥

कस्तूरीकुण्ड-संस्नाता,कस्तूरी-कुण्ड-मज्जना।

कस्तूर्यर्घ्य-सन्तुष्टा,कस्तूरीजीव-धारिणी॥५५॥

कस्तूरी–परमामोदा, कस्तूरी - जीवनक्षमा।

कस्तूरीजाति-भावस्था,कस्तूरी-गन्ध-चुम्बना॥५६॥


कस्तूरी-गन्धसंशोभा-विराजित-कपालभूः।

कस्तूरी-मदनान्तस्था,कस्तूरीमदहर्षदा॥५७॥

कस्तूरी-कवितानाढ्या कस्तूरीगृह-मध्यगा।

कस्तूरी-स्पर्शक-प्राणा, कस्तूरी -निन्दकान्तका॥५८॥

कस्तूर्य्यामोद-रसिका कस्तूरी-क्रीडनोद्यता।

कस्तूरीदान-निरता कस्तूरी-वरदायिनी॥५९॥

कस्तूरी-स्थापनासक्ता,कस्तूरी -स्थानरञ्जिनी।

कस्तूरी-कुशलप्रश्ना,कस्तूरीस्तुतिवन्दिता॥६०॥

कस्तूरी-वन्दकाराध्या कस्तूरीस्थान-वासिनी।


कहरूपा कहाढ्या च कहानन्दा कहात्मभूः॥६१॥

कहपूज्या कहेत्याख्या च कहहेषा कहात्मिका।

कहमाला-कण्ठभूषा कहमन्त्र–जपोद्यता॥६२॥

कहनाम-स्मृतिपरा कहनाम-परायणा।

कह-पारायणरता कहदेवी कहेश्वरी॥६३॥

कहहेतुः कहानन्दा कहनाद-परायणा।

कहमाता कहान्तस्था कहमन्त्रा कहेश्वरी॥६४॥

कहगेया कहाराध्या कहध्यान-परायणा।

कहतन्त्रा कहकहा कहचर्य्या-परायणा॥६५॥

कहाचारा कहगतिः कह-ताण्डवकारिणी।

कहारण्या कहमतिः कहशक्ति-परायणा॥६६॥

कहराज्य-रता
कर्म-साक्षिणी कर्मसुन्दरी।

कर्मविद्या कर्मगतिः कर्मतन्त्र-परायणा॥६७॥

कर्ममात्रा कर्म - गात्रा, कर्म–धर्मपरायणा।

कर्म–रेखा-नाशकर्त्री, कर्मरेखा-विभेदिनी॥६८॥

कर्म रेखा - मोह - कारी, कर्म - कीर्ति परायणा

कर्म – धात्री कर्म-सारा, कर्माधारा च कर्म-भूः॥६९॥




कर्म-कारी कर्म - हारी, कर्म - कौतुक – सुन्दरी।

कर्म-काली कर्म - तारा, कर्मच्छिन्ना च कर्मदा॥७०॥

कर्म-चाण्डालिनी कर्म-वेद-माता च कर्म-भूः।

कर्म - काण्ड रताऽनन्ता, कर्म - काण्डानुमानिता॥७१॥

कर्म काण्ड - परीणाहा,
कमठी कमठा-कृतिः।

कमठाराध्य हृदया, कमठा - कण्ठ - सुन्दरी ॥७२॥

कमठासन - संसेव्या, कमठी - कर्म - तत्परा।

करुणाकर - कान्ता च करुणाकर - वन्दिता॥७३॥

कठोरा कर - माला च, कठोर कुच - धारिणी।

कपर्दिनी कपटिनी, कठिनी कङ्क भूषणा॥७४॥

करभोरूः कठिनदा, करभा करभालया।

कल-भाषा-मयी कल्पा, कल्पना कल्प-दायिनी॥७५॥

कमलस्था कला-माला, कमलास्या क्वणत्‌ - प्रभा।


ककुद्मिनी कष्टवती, कक्षा कक्षार्चिता कजा॥७६॥

कचार्चिता कच तनुः, कच - सुन्दर धारिणी।

कठोर - कुच - संलग्ना, कटि - सूत्र - विराजिता॥७७॥

कण-भक्ष-प्रियाकन्दा, कथा कन्द-गतिः कविः।

कलिघ्नी कलिहन्त्री च, कवि-नायक-पूजिता॥७८॥

कषा कक्षा-नियन्त्री च, कश्चित्‌-कवि-वरार्चिता।

कर्त्री कर्तृकाभूषा, करिणी कर्ण-शत्रुपा॥७९॥

करणेशी करणपा, कलनाम्बा कला - निधिः।

कलना कलनाधारा, कारिका करका करा॥८०॥


कल-गेया कर्कराशिः,कर्क-राशि-प्रपूजिता!

कन्या-राशिः कन्यका च, कन्यका-प्रिय-भाषिणी॥८९॥

कन्यका - दान - सन्तुष्टा, कन्यका - दान - तोषिणी।

कन्या - दान - कराऽनन्दा, कन्या दान - ग्रहेष्टदा॥८२॥

कर्षणा कक्ष - दहना, कामिता कमलासना।


कर - मालानन्द - कर्त्री, कर - माला - प्रतोषिता॥८३॥

कर - मालाशयानन्दा, कर - माला - समागमा।

कर - माला - सिद्धि - दात्री, कर - माला कर-प्रिया॥८४॥

कर - प्रिया कर - रता, कर - दान – परायणा।


कलानन्दा कलि-गतिः, कलि-पूज्या कलि - प्रसूः॥८५॥

कल - नाद - निनादस्था, कलनाद - वरप्रदा।

कल - नाद - समाजस्था, कहोला च कहोलदा॥८६॥

कहोल - गेह - मध्यस्था, कहोल - वर - दायिनी।

कहोल -कविताधारा, कहोल - ऋषि - मानिता॥८७॥

कहोल - मानसाराध्या, कहोल - वाक्य - कारिणी।


कर्तृ - रूपा कर्तृ - मयी, कर्तृ - माता च कर्तरी॥८८॥

कनीया कनकाराध्या, कनीनक - मयी तथा।

कनीयानन्द - निलया, कनकानन्द - तोषिता॥८९॥

कनीयक-करा काष्ठा , कथार्णव-करी- करी।

करि-गम्या करि-गतिः, करि-ध्वज-परायणा॥९०॥

करि-नाथ-प्रिया कण्ठा , कथानक-प्रतोषिता।


कमनीया कमनका, कमनीय - विभूषणा॥९१॥

कमनीय - समाजस्था, कमनीय - व्रत - प्रिया।

कमनीय - गुणाराध्या, कपिला कपिलेश्वरी॥९२॥

कपिलाराध्य - हृदया, कपिला - प्रिय - दायिनी।

कह - चक्र - मन्त्रवर्णा , कह - चक्र – प्रसूनका॥९३॥

कएईलह्रीं - स्वरूपा च, कएईलह्रीं - वर-प्रदा।

कएईलह्रीं - सिद्धिदात्री, कएईलह्रीं - स्वरूपिणी॥९४॥

कएईलह्रीं- मन्त्र - वर्णा, कएईलह्रीं - प्रसू - कला।

क - वर्गजा कपाटस्था, कपाटोद्घाटन - क्षमा॥९५॥

कङ्काली च कपाली च, कङ्काल-प्रिय-भाषिणी।

कङ्काल - भैरवाराध्या, कङ्काल - मानस - स्थिता॥९६॥

कङ्काल - मोह - निरता, कङ्काल - मोह दायिनी।

कलुषघ्नी कलुषहा, कलुषार्ति - विनाशिनी॥९७॥

कलि-पुष्पा कला - दाना, कशिपुः कश्यपार्चिता।


कश्यपा कश्यपाराध्या, कलि - पूर्ण - कलेवरा॥९८॥

कलेवर - करी क-च-ट - वर्गा च करालिका।

कराल - भैरवाराध्या, कराल - भैरवेश्वरी॥९९॥

कराला कलनाधारा, कपर्दीश - वरप्रदा।

कपर्दीश - प्रेमलता, कपर्दि - मालिका - युता॥१००॥


कपर्दि - जप - मालाढ्या, करवीर - प्रसूनदा।

करवीर - प्रिय - प्राणा, करवीर - प्रपूजिता॥१०१॥

कर्णिकार - समाकारा, कर्णिकार - प्रपूजिता।


करीषाग्नि - स्थिता कर्षा , कर्ष - मात्र - सुवर्णदा॥१०२॥

कलशा कलशाराध्या कषाया करि - गानदा।


कपिला कल-कण्ठी च, कलि-कल्प-लता-मता॥१०३॥

कल्प-लता कल्प-माता , कल्पकारी च कल्प-भूः।

कर्पूरामोद - रुचिरा, कर्पूरामोद - धारिणी॥१०४॥

कर्पूर - मालाभरणा, कर्पूर वास - पूर्तिदा।

कर्पूर - माला - जयदा, कर्पूरार्णव - मध्यगा॥१०५॥

कर्पूर - चर्वण - रता
, कटकाम्बर - धारिणी।

कपटेश्वर - सम्पूज्या, कपटेश्वररूपिणी॥१०६॥

कद्रुः कपि-ध्वजाराध्या, कलाप-पुष्प - धारिणी

कलाप-पुष्प-रुचिरा, कलाप - पुष्प - पूजिता॥१०७॥


क्रकचा क्रकचाराध्या , कथम्ब्रूमा करालजा।

कथङ्कार-विनिर्मुक्ता, काली काल-प्रिया क्रतुः॥१०८॥

कामिनी कामिनी-पूज्या, कामिनी-पुष्प-धारिणी।

कामिनी-पुष्प-निलया, कामिनी पुष्प पूर्णिमा॥१०९॥

कामिनी-पुष्प-पूजार्हा, कामिनी - पुष्प - भूषणा।

कामिनी-पुष्प - तिलका, कामिनी - कुण्ड - चुम्बना॥११०॥

कामिनी - योग - सन्तुष्टा, कामिनी-योग-भोगदा।

कामिनी-कुण्ड-सम्मग्ना, कामिनी-कुण्ड-मध्यगा॥१११॥

कामिनी - मानसाराध्या, कामिनी - मान - तोषिता।

कामिनी-मान-सञ्चारा , कालिका काल-कालिका॥११२॥

कामा च काम-देवी च, कामेशी काम-सम्भवा।

काम -भावा काम-रता, कामार्त्ता काम-मञ्जरी॥११३॥

काम-मञ्जीर-रणिता, काम - देव - प्रियान्तरा।

कामकाली कामकला , कामी काम-कलाभिधा॥११४॥


कादि - काम - कला-काली , कालानल-सम - प्रभा।

कल्पान्त-दहना कान्ता, कान्तार-प्रिय-वासिनी॥११५॥

काल-पूज्या काल-रता, काल-माता च कालिनी।

काल-वीरा काल-घोरा , काल-सिद्धा च कालदा॥ ११६॥

कालाञ्जन - समाकारा, कालिञ्जर - निवासिनी।

काल-ऋद्धिः काल-वृद्धिः , कारागृह-विमोचिनी॥११७॥

कादि-विद्या कादि-माता, कादिस्था कादि-सुन्दरी।

काशी काञ्ची च काञ्चीशा, काशीश-वर-दायिनी॥११८॥


क्रीं-बीजा चैव क्रां-बीजा, हृदयाय नमः स्मृता।

काम्या काम्य-गतिः काम्य-सिद्धिदात्री च काम-भूः॥११९॥

कामाख्या काम-रूपा च, काम - चाप - विमोचिनी।

काम-देव-कला-रामा, काम - देव - कलालया॥१२०

काम-रात्रिः कामदात्री, कान्ताराचल - वासिनी।

कालरूपा काल-गतिः, काम-योग-परायणा॥१२१


काम-सम्मर्दन-रता, काम-गेह-विकासिनी।

कालभैरव-भार्या च, कालभैरव-कामिनी॥१२२॥

काल - भैरव योगस्था, काल - भैरव - भोगदा।


काम-धेनुः काम-दोग्ध्री , काम-माता च कान्तिदा॥१२३॥

कामुका कामुकाराध्या , कामुकानन्द-वर्द्धिनी।

कार्त्तवीर्या कार्त्तिकेया, कार्त्तिकेय-प्रपूजिता॥१२४॥

कार्या कारणदा कार्यकारिणी कारणान्तरा।

कान्ति-गम्या कान्ति-मयी, कात्या कात्यायनी च का॥१२५॥


काम-सारा च काश्मीरा, काश्मीराचार-तत्परा।

कामरूपाचार - रता, कामरूप-प्रियम्वदा॥१२६॥

काम - रूपा कामसिद्धा, कामरूप-मनो-मयी।

कार्तिकी कार्तिकाराध्या
, काञ्चनार - प्रसूनभूः॥१२७॥

काञ्चनार प्रसूनाभा, काञ्चनार - प्रपूजिता।

काञ्च-रूपा काञ्च-भूमिः, कांस्य-पात्र-प्रभोजिनी॥१२८॥

कांस्य - ध्वनि-मयी काम-सुन्दरी काम-चुम्बना।

काश पुष्प - प्रतीकाशा, काम-द्रुम-समागमा॥१२९॥


काम-पुष्पा काम-भूमिः , काम-पूज्या च कामदा।

काम-देहा काम गेहा, काम-बीज-परायणा॥१३०॥

काम - ध्वज-समारूढा , काम - ध्वज-समास्थिता।


काश्यपी काश्यपाराध्या , काश्यपानन्द दायिनी॥१३१॥

कालिन्दी - जल - सङ्काशा , कालिन्दी - जल - पूजिता।

कादेव - पूजा - निरता, कादेव परमार्थदा॥१३२॥

कार्मणा कार्मणाकारा , काम-कार्मण-कारिणीऽ।

कार्मण त्रोटन-करी, काकिनी कारणाह्वया॥१३३॥


काव्यामृता च कालिङ्गा, कालिङ्ग मर्दनोद्यता।

कालागरु - विभूषाढ्या, कालागरु – विभूतिदा॥१३४॥

कालागरु - सुगन्धा च, कालागरु - प्रतर्पणा।

कावेरी - नीर - सम्प्रीता, कावेरी - तीर – वासिनी॥१३५॥

काल - चक्र - भ्रमाकारा, काल - चक्र-निवासिनी।

कानना काननाधारा, कारु: कारुणिका-मयी॥१३६॥


काम्पिल्य-वासिनी काष्ठा, काम पत्नी च काम-भूः।

कादम्बरी - पान - रता, तथा कादम्बरी – कला॥१३७॥

काम-वन्द्या च कामेशी, काम-राज-प्रपूजिता।

काम - राजेश्वरी-विद्या, काम - कौतुक-सुन्दरी॥१३८॥

काम्बोजजा कांक्षितदा ,
कांस्य-काञ्जन-कारिणी।

काञ्चनाद्रि - समाकारा, काञ्चनाद्रि प्रदानदा॥१३९॥

काम-कीर्तिः कामकेशी, कारिका कातराश्रया।

काम-भेदी च कामार्त्ति-नाशिनी काम-भूमिका॥१४०॥


काल-निर्णाशिनी काव्य-वनिता काम-रूपिणी।

कायस्था काम-सन्दीप्तिः, काव्यदा काल-सुन्दरी॥१४१॥

कामेशी कारण-वरा, कामेशी – पूजनोद्यता।

काञ्ची - नूपुर - भूषाढ्या, कुंकुमाभरणान्विता॥१४२॥

काल-चक्रा काल-गतिः, काल-चक्र-मनोभवा।

कुन्द-मध्या कुन्दपुष्पा, कुन्द-पुष्प-प्रिया कुजा॥१४३॥

कुज-माता कुजाराध्या, कुठार-वर-धारिणी।

कुञ्जरस्था कुश-रता, कुशेशय-विलोचना॥१४४॥


कुलटी कुररी क्रुद्धा च कुरङ्गी कुटजाश्रया

कुम्भीनस - विभूषा च, कुम्भीनस - वधोद्यता॥१४५॥

कुम्भ-कर्ण-मनोल्लासा , कुल-चूडामणिःऽकुला।


कुलाल-गृह-कन्या च, कुल - चूडामणि - प्रिया॥१४६॥

कुल-पूज्या कुलाराध्या, कुल-पूजा-परायणा।

कुल-भूषा तथा कुक्षिः, कुररी-गण-सेविता॥१४७॥

कुल-पुष्पा कुल-रता, कुल-पुष्प-परायणा।

कुल-वस्त्रा कुलाराध्या , कुल-कुण्ड-सम-प्रभा॥१४८॥

कुल-कुण्ड-समोल्लासा
, कुण्ड-पुष्प-परायणा।

कुण्ड-पुष्प-प्रसन्नास्या, कुण्ड-गोलोदभवात्मिका॥१४९॥

कुण्ड-गोलोद्भवाधारा, कुण्ड-गोल-मयी कुहूः।

कुण्ड-गोल-प्रिय-प्राणा, कुण्ड-गोल-प्रपूजिता॥१५०॥

कुण्ड-गोल-मनोल्लासा, कुण्ड-गोल-वर-प्रदा।

कुण्डदेव-रता कुण्ड्क/काञ्ची, कुल-सिद्धि-करा-परा॥१५१॥

कुल-कुण्ड-समाकारा, कुल-कुण्ड-समान-भूः।

कुण्ड-सिद्धि: कुण्ड-ऋद्धिः
, कुमारी-पूजनोद्यता॥१५२॥

कुमारी - पूजक - प्राणा, कुमारी - पूजकालया।

कुमारी - काम - सन्तुष्टा, कुमारी-पूजनोत्सुका॥१५३॥

कुमारी - व्रत-सन्तुष्टा , कुमारी-रूप-धारिणी।

कुमारी-भोजन-प्रीता, कुमारी च कुमार-दा॥१५४॥

कुमार-माता कुलदा, कुल-योनिः कुलेश्वरी।


कुल-लिङ्गा कुलानन्दा , कुल-रम्या कुतर्क-धृक॥१५५॥

कुन्ती च कुल-कान्ता च, कुल-मार्ग-परायणा।

कुल्ला च कुरु-कुल्ला च, कुल्लुका कुल-कामदा॥१५६॥

कुलिशाङ्गी कुब्जिका च, कुब्जिकानन्द-वर्द्धिनी।

कुलीना कुञ्जर-गतिः, कुञ्जरेश्वर-गामिनी॥१५७॥

कुल-पाली कुल-वती, तथैव कुल-दीपिका।

कुल-योगेश्वरी कुण्डा,
कुंकुमारुण-विग्रहा॥१५८॥

कुंकुमानन्द - सन्तोषा, कुंकुमार्णव - वासिनी।

कुसुमा कुसुम-प्रीता कुल-भूः कुल-सुन्दरी॥१५९॥

कुमुद्वती कुमुदिनी,
कुशला कुलटालया।

कुलटालय - मध्यस्था, कुलटा - सङ्ग - तोषिता॥१६०॥

कुलटा-भुवनोद्युक्ता, कुशावर्त्ता| कुलार्णवा।

कुलार्णवाचार-रता, कुण्डली कुण्डलाकृतिः॥१६१॥

कु-मती च कुल-श्रेष्ठा, कुल-चक्र-परायणा।

कूटस्था कूट-दृष्टिश्च , कुन्तला कुन्तलाकृतिः॥१६२॥

कुशलाकृति-रूपा च, कूर्च - बीज-धरा च कूः।

कुं-कुं-कुं-कुं-शब्द-रता, क्रूंक्रूंक्रूं-क्रूंपरायणा॥१६३॥

कुंकुंकुं-शब्द-निलया, कुक्कुरालय - वासिनी।

कुक्कुरासङ्ग - संयुक्ता, कुक्कुरान्त - विग्रहा॥१६४॥


कूर्चारम्भा कूर्च - बीजा, कूर्च-जाप-परायणा।

कुलिनी कुल-संस्थाना , कूर्च-कण्ठ-परा-गतिः॥१६५॥

कूर्च - बीजं-भाल-देशा, कूर्च-मस्तक-भूषिता।

कुल-वृक्ष-गता कूर्मा, कूर्माचल-निवासिनी॥१६६॥


कुल-विन्दुः कुल-शिवा, कुल-शक्ति-परायणा।

कुल-विन्दु-मणि-प्रख्या, कुंकुम-द्रुम-वासिनी॥१६७॥

कुच - मर्दन - सन्तुष्टा, कुच - जप - परायणा।

कुच - स्पर्शन - सन्तुष्टा, कुचालिङ्गन - हर्षदा॥१६८॥

कु-गतिघ्नी कुबेरार्चा कुच-भूः कुल-नायिकाः।

कु-गायना कुच-धरा , कु-माताः कुन्द-दन्तिनी॥१६९॥

कु-गेया कुहराभासा, कु-देया कुघ्नदारिका।

कीर्ति: किरातिनी क्लिन्ना , किरणा किन्नरी-क्रिया॥१७०॥

क्रीं-कारा क्रीं-जपासक्ता , क्रां-क्रीं-क्रूं-मन्त्र-रूपिणी।

क्रिर्म्मीरित-दृशापाङ्गी , किशोरी च किरीटिनी॥१७१॥


कीट-भाषा कीट-योनिः, कीट-माता च कीटदा।

किंशुका कीर-भाषा च, क्रिया-सारा क्रिया-वती॥१७२॥

कीं-कीं-शब्द-परा क्लांक्लींक्लूंक्लैंक्लौं मन्त्र-रूपिणी।

क्रांक्रींक्रूंक्रैं-स्वरूपा च, क्र: फट्‌-मन्त्र-स्वरूपिणी॥१७३॥

केतकी - भूषणानन्दा, केतकी - भरणान्विताः।

कै-करा केशिनी केशी, केशी-सूदन-तत्परा॥१७४॥


केश-रूपा केश-मुक्ता, कैकेयी कौशिकी तथा।

कैरवा कैरवाह्लादा, केशरा केतु-रूपिणी॥१७५॥

केशवाराध्य - हृदया, केशवासक्त - मानसा।

क्लैव्य-विनाशिनी क्लीं च, क्लैं-बीज-जप-तोषिता॥१७६॥

कौशल्या कोशलाक्षी च, कोशा च कोमला तथा।

कोलापुर - निवासा च, कोलासुर - विनाशिनी॥१७७॥

कोटि-रूपा कोटि-रता, क्रोधिनी क्रोध-रूपिणी।

केका च कोकिला कोटिः , कोटि-मन्त्र-परायणा॥१७८॥

कोट्यनन्त-मन्त्र-रूपा, कै-रूपा केरलाश्रया।

केरलाचार - निपुणा, केरलेन्द्र - गृह - स्थिता॥१७९॥

केदाराश्रम - संस्था च, केदारेश्वर - पूजिताः।

क्रोध-रूपा क्रोध-पदा, क्रोध-माता च कौशिकी॥१८०॥

कोदण्ड-धारिणी क्रौञ्ञा, कौशिल्या कौल-मार्गगा।

कौलिनी कौलिकाराध्या , कौलिकागार-वासिनी॥१८१॥

कौतुकी कौमुदी-कौला च कौमारी-कौरवार्चिता।

कौण्डिन्या कौशिकी क्रोध-ज्वाला-भास्वर-रूपिणी॥१८२॥

कोटि-कालानल-ज्वाला , कोटि-मार्तण्ड-विग्रहा।

कृत्तिका कृष्ण-वर्णा च, कृष्णा कृत्या-क्रियातुरा॥१८३॥

कृशाङ्गी कृत-कृत्या क्रः फट्‌-वह्निजाया-रूपिणी

क्रोंक्रौंहूंफट्-मन्त्र-वर्णा, क्रींह्रींहूं-फट्‌-नमस्‍स्वधा।

क्रींक्रीं-ह्रीं-ह्रीं, हूं-हूं-फट्‌-वह्निजाया-मन्त्र-रूपिणी॥१८४॥


॥फल-श्रुति॥

इति श्रीसर्व - साम्राज्य - मेधा - नाम-सहस्रकम्‌।

सुन्दरी - शक्ति - दानाख्यं, स्वरूपाभिधमेव च॥१॥


इस प्रकार यह "श्री सर्व साम्राज्य मेधा" नामक सहस्रनाम स्तोत्र है। “सुंदरी शक्ति दान” नाम से भी प्रसिद्ध है।

कथितं दक्षिणा-काल्याः, सुन्दर्य्यै प्रीति-योगतः।

वरदान - प्रसङ्गेन, रहस्यमपि दर्शितम्‌॥२॥


भगवती श्रीदक्षिणा काली द्वारा भगवती त्रिपुरसुंदरी के लिये प्रसन्न होकर यह स्तोत्र कहा गया और उनको वरदान प्राप्ति करवाने का रहस्य प्रसंग इसमें प्रदर्शित हुआ है।

गोपनीयं सदा भक्त्या, पठनीयं परात्परम्‌।

प्रातर्मध्याह्न - काले च, सन्ध्यार्द्ध - रात्रयोरपि॥३॥


यह सदा गोपनीय व भक्ति पूर्वक पढ़ने योग्य श्रेष्ठातिश्रेष्ठ है, इसका प्रातः काल, मध्याह्न काल, सायं संध्या और अर्धरात्रि में भी पाठ करे…

पूजा - काले जपान्ते च, पठनीयं विशेषतः।
यः पठेत्‌ साधको धीरः, काली - रूपो हि वर्षतः॥४॥


…तथा पूजा काल, दैनिक मंत्रजप के अंत में विशेष रूप से पढ़े। जो धैर्यवान साधक इसे पढ़ता है वर्ष भर में काली रूप ही हो जाता है।

पठेद्वा पाठयेद्वाऽपि, श्रृणोति श्रावयेदपि।
वाचकं तोषयेद्वापि, स भवेत्‌ कालिका-तनुः॥५॥


इसे पढ़े या पढ़ाये सुनता है या सुनाता भी है या इसके पाठकर्ता को प्रसन्न भी करे तो वह काली रूप हो जाता है।

स - हेलं वा स - लीलं वा, यश्चैनं मानवः पठेत्‌।
सर्व - दुःख-विनिर्मुक्तः, त्रैलोक्य-विजयी कविः॥६॥


क्रीडाशील/विनोदप्रिय होकर या स्वेच्छाचारी/श्रृंगारप्रिय होकर भी जो कोई मानव इस स्तोत्र को पढ़ता है, सभी दुःखों से मुक्त होकर तीनों लोकों में विजयी, कवि(वाक् कुशल) हो जाता है।

मृत-वन्ध्या काक-वन्ध्या, कन्या-वन्ध्या च वन्ध्यका।
पुष्प-वन्ध्या शूल-वन्ध्या, श्रृणुयात्‌ स्तोत्रमुत्तमम्‌॥७॥

मृत वंध्या, काक वन्ध्या, कन्या वन्ध्या या बांझ स्त्री, पुष्प वन्ध्या, शूल वन्ध्या यह उत्तम स्तोत्र सुनें।

सर्व - सिद्धि-प्रदातारं, सत्कविं चिर-जीवितम्‌।
पाण्डित्यं कीर्ति - संयुक्तं, लभते नाऽत्र संशयः॥८॥


यह स्तोत्र सब सिद्धि देने वाला है, पाठकर्ता सत्कवि, चिरंजीवी, विद्वान, कीर्तियुक्त हो जाता है इसमें संशय नहीं|

यं यं काममुपस्कृत्य, कालीं ध्यात्वा जपेत्‌ स्तवम्‌॥
तं तं कामं करे कृत्वा, मन्त्री भवति नाऽन्यथा॥९॥

जो-जो इच्छा करके काली जी का ध्यान करते हुए यह स्तोत्र रूपी मंत्र जपता है वह-वह कामना हस्तगत करके पाठकर्ता मन्त्रमय हो जाता है, यह असत्य नहीं है।

॥श्रीमदादिनाथ-महाकाल-विरचितायां महा-काल-संहितायां सर्व-साम्राज्य-मेधा-नाम ककारादि काली सहस्रनाम स्तोत्रम्‌ शुभमस्तु॥

क्षमा प्रार्थना- फूल लेकर हाथ जोड़कर कहे -

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि ,
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।
स्तोत्रहीनं, मन्त्र हीनं, पूजाहीनं, क्रिया हीनं, विधि हीनं, देश-काल हीनं, भक्ति हीनं यत् कृतं तत् सर्वं परिपूर्णमस्तु।

फूल चढ़ा दे।



जप समर्पण – देवी को आचमनी से जल चढ़ाये -
गुह्यातिगुह्य गोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपं सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरी॥
अनेन मया कृतेन सर्व-साम्राज्य-मेधा-नाम श्री ककारादि काली सहस्रनाम स्तोत्रपाठाख्य कर्मणा श्री महाकाल शिव सहिता श्री महाकाली महाविद्या देवता सुप्रसन्ना वरदा भवतु।

सर्वं श्री शिव-गुरु-परदेवता-परब्रह्मार्पण-मस्तु।

अंत में कहे -

श्रीविष्णवे नमः। श्रीविष्णवे नमः। 
श्रीविष्णवे नमः। हरि स्मरणात् परिपूर्णता अस्तु।

वैसे तो इस स्तोत्र की फलश्रुति इससे भी बड़ी है लेकिन उसे यहाँ नहीं दिया जा रहा क्योंकि इससे बाद का भाग विधि-परक है अर्थात उसमें स्तोत्र पाठ से जुड़े गूढ़ प्रयोग(प्रायः वामाचार के) दिये हैं, लेकिन हर कोई उनको करने का अधिकारी नहीं है। गुरु दीक्षा लेकर गुरु से पूछकर ही उनको निर्देशानुसार करना चाहिये अन्यथा विपत्ति में फंस सकते हैं। 1000 नामों को बतलाने वाले मूल स्तोत्र से पूर्व के भाग में भी पूर्व पीठिका के रूप में एक कथा भी दी गई है लेकिन उसे भी पढ़ने से स्तोत्र बड़ा हो जाता है, उसका पाठ छोड़ा भी जा सकता है। इसलिये सुविधा के लिये जितना पाठ योग्य है उतना ही स्तोत्र ऊपर दिया है। पुस्तकों से मिलाकर शुद्ध किया गया है। पाठ करके माँ की कृपा का लाभ उठायें।

यदि श्रीकाली सहस्रनाम स्तोत्र को एक से अधिक बार पढ़ना हो तो पहले पाठ में फलश्रुति पढ़ेंगे ही लेकिन २ , 3 या 5 बार पाठ की आवृत्ति करनी हो तो उस पाठ में केवल नाम पढ़े। लेकिन जो अन्तिम बार पाठ करेंगे उसमें फलश्रुति भी पढ़नी होगी। जैसे माना हमने 5 पाठ करने हैं तो पहले व पाँचवे पाठ में हम फल श्रुति भी पढ़ेंगे।

भगवती महाकाली आपका कल्याण करें। श्री काली महाविद्या को अनेकों बार प्रणाम।

टिप्पणियाँ

  1. अति सुंदर ‌
    जब संसार में शून्य था कुछ भी नहीं था तब माँ काली ने ही संसार का प्रादुर्भाव किया उनसे ही सब उत्पन्न होता है उनमें ही समाहित हो जाता है।।
    ऎसी माँ काली की आराधना करने वाला भला कैसे दुःखी रह सकता है।।
    जय माँ काली ।।
    अद्भुत स्त्रोत ।।
    कृपया ऎसे ही नयी नयी स्त्रोतात्मक उपासनाये लाते रहें प्रिय अग्रज
    सादर नमन् ।।

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    1. सही कहा आपने।
      आपने समय निकाल कर आलेख पढ़ा व पसंद किया इस हेतु धन्यवाद| उपरोक्त स्तोत्र में अलग-अलग पुस्तकों में श्लोकों में बहुत अंतर था, इसे सुधार करने में बहुत समय लगा|
      जी हां, जरूर आगे और भी स्तोत्रात्मक उपासनायें प्रस्तुत की जायेंगी।
      जय महाकाली।

      हटाएं
  2. मैं अपने संपूर्ण जीवन में एकादशी का व्रत करना चाहता हूं और अपने जीते जी इस व्रत का उदयन करना चाहता हूं क्या ऐसा हो सकता है

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    उत्तर
    1. जीवन का क्या भरोसा इसीलिये एकादशी के लिये नियम है कि या तो पहले उद्यापन कर ले और १ वर्ष तक व्रत करे। या फिर १ वर्ष पूरा होते ही उद्यापन करे। उद्यापन हर साल करना जरूरी है। जब व्यक्ति बहुत वृद्ध हो जाय तो पहले उद्यापन करवाये फिर वर्ष भर व्रत करेI लेकिन प्रायः देखा जाता है कि अधिक वृद्धावस्था में या अधिक बीमार या मरणासन्न व्यक्ति व्रत नहीं ले सकता है तो उसको व्रत लेना आवश्यक नहीं है। व्रत न ले सके तो भजन करे भगवान का नाम जप करे।

      हटाएं

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