नोट - यहाँ प्रकाशित साधनाओं, स्तोत्रात्मक उपासनाओं को नियमित रूप से करने से यदि किसी सज्जन को कोई विशेष लाभ हुआ हो तो कृपया हमें सूचित करने का कष्ट करें।

⭐विशेष⭐


10 मई - श्री परशुराम अवतार जयन्ती
10 मई - अक्षय तृतीया,
⭐10 मई -श्री मातंगी महाविद्या जयन्ती
12 मई - श्री रामानुज जयन्ती , श्री सूरदास जयन्ती, श्री आदि शंकराचार्य जयन्ती
15 मई - श्री बगलामुखी महाविद्या जयन्ती
16 मई - भगवती सीता जी की जयन्ती | श्री जानकी नवमी | श्री सीता नवमी
21 मई-श्री नृसिंह अवतार जयन्ती, श्री नृसिंहचतुर्दशी व्रत,
श्री छिन्नमस्ता महाविद्या जयन्ती, श्री शरभ अवतार जयंती। भगवत्प्रेरणा से यह blog 2013 में इसी दिन वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को बना था।
23 मई - श्री कूर्म अवतार जयन्ती
24 मई -देवर्षि नारद जी की जयन्ती६ जून - श्री शनि जयन्ती (ज्येष्ठ अमावास्या) पर शनि देव के निमित्त पूजन, स्तोत्र पाठ मंत्र जप, हवन-दान करें
७ जून से १६ जून तक - ज्येष्ठ शु. दशमी को गंगा दशहरा।ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा से दस दिन तक गंगा जी की उपासना करें - प्रतिपदा को एक बारपाठ, द्वितीया को दो बार पाठ ऐसे करके नित्य एक-एक पाठ की वृद्धि करते हुए क्रम से इन दस दिनों में "गंगा दशहरा स्तोत्र" पढ़े।
१४ जून - श्री धूमावती महाविद्या जयन्ती, श्री धूमावती महाविद्या की शतार्चन उपासना विधि
१७ जून : वेदमाता गायत्री जयन्ती(ज्येष्ठ शुक्ल11)


आज - कालयुक्त नामक विक्रमी संवत्सर(२०८१), सूर्य उत्तरायण, वसन्त ऋतु, ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष।
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भगवान कालभैरव की महिमा [कालभैरवाष्टक]

गवान भैरव अधर्म मार्ग को अवरुद्ध कर, धर्म-सेतु की प्रतिष्ठापना करते हैं। देवराज इन्द्र भगवान कालभैरव के पावन चरणकमलों की भक्तिपूर्वक निरन्तर सेवा करते हैं। भगवान भैरव व्यालरूपी विकराल यज्ञसूत्र धारण करने वाले हैं। शिवपुराण में कहा गया है- 'भैरवः पूर्णरूपो हि शङ्करस्य परात्मन:।'(शतरुद्र० ८।२) स्वभक्तों को अभीष्ट सिद्धि प्रदान करने वाले, काल को भी कँपा देने वाले, प्रचण्ड तेजोमूर्ति, अघटितघटन-सुघट-विघटन-पटु, कालभैरवजी भगवान् शङ्कर के पूर्णावतार हैं, जिनका अवतरण ही पञ्चानन ब्रह्मा एवं विष्णु के गर्वापहरण के लिये हुआ था। भैरवी-यातना-चक्र में तपा-तपाकर पापियों के अनन्तानन्त पापों को नष्ट कर देने की विलक्षण क्षमता इन्हें प्राप्त है।
देवराजसेव्यमान-पावनाङ्घ्रिपङ्कजं व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरम्। नारदादियोगिवृन्दवन्दितं दिगम्बरं काशिकापुराधिनाथ-कालभैरवं भजे॥१॥ मैं काशी नगरी के स्वामी कालभैरवजी की आराधना करता हूँ। जिनके पवित्र चरणकमलों की देवराज इन्द्र सेवा करते हैं। जो कृपानिधि हैं, और जिन्होंने सर्पों का यज्ञोपवीत धारण किया है, और चन्द्रमा जिनका शिरोभूषण है। जो दिगम्बर योगीश्वर हैं और नारद आदि योगियों का समूह जिनकी वन्दना करता है।
     देवमण्डली सहित देवराज इन्द्र और ऋषिमण्डली सहित देवर्षि नारद इनकी स्तुति कर स्वयं को धन्य मानते हैं। भगवान कालभैरव की महिमा अद्भुत है और विस्मयकारिणी हैं इनकी लीलाएं। महामहिमावान भैरवजी के श्रीचरणों में शीश नवाते हुए शिवपुराण में वर्णित उनका आख्यान संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत है
     अति प्राचीनकाल में एक बार सुमेरू पर्वत के मनोरम शिखर पर ब्रह्माजी व शिवजी विराजमान थे। परम-तत्त्व की जिज्ञासा से प्रेरित होकर समस्त देव और ऋषिगण वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने श्रद्धा-विनयपूर्वक शीश झुकाकर, हाथ जोड़कर ब्रह्माजी से निवेदन किया- "देवाधिदेव! प्रजापति! लोकपिता! लोकपालक! कृपा कर हमेँ परम अविनाशी तत्व का उपदेश दें। हमारे मन मेँ उस परम-तत्व को जानने की प्रबल अभिलाषा है।"
     भगवान् शङ्कर की विश्व विमोहिनी माया के प्रभाव से मोहग्रस्त हो ब्रह्माजी यथार्थ तत्त्वबोध न कराकर आत्मप्रशंसा में प्रवृत्त हो गये। वे कहने लगे-
"जगद्योनिरहं धाता स्वयम्भूरज ईश्वर:।
अनादिभागहं ब्रह्म ह्येक आत्मा निरञ्जनः॥
प्रवर्तको हि जगतामहमेव निवर्तक:।
संवर्तको मदधिको नान्य: कश्चित् सुरोत्तमा:॥
(शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता ८।१३-९४)
हे समुपस्थित देव एवं ऋषिगण! आदरपूर्वक सुनें- मैं ही जगच्चक्र का प्रवर्तक, संवर्तक और निवर्तक हूँ। मै धाता, स्वयम्भू, अज, अनादि ब्रह्म तथा एक निरञ्जन आत्मा हूँ। मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है।"
     सभा में विद्यमान भगवान् विष्णु को उनकी आत्मश्लाघा नहीं रुची। अपनी अवहेलना क्रिस्ने अच्छी लगती है? अमर्ष भरे स्वर में उन्होंने प्रतिवाद किया-"हे धाता! आप कैसी मोह भरी बातें कर रहे हैं, मेरी आज्ञा से ही तो आप सृष्टि कार्य में प्रवृत्त हैं। मेरे आदेश की अवहेलना कर किसी की प्राणरक्षा सम्भव नहीं! कदापि सम्भव नहीं-
ममाज्ञया त्वया ब्रह्मन् सृष्टिरेषा विधीयते।
जगतां जीवनं नैव मामनादृत्य चेश्वरम्।।
(शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता ८ । १८)"
    शिवमाया से पारस्परिक विवाद-क्रम में आरोप-प्रत्यारोप का स्वर उत्तरोत्तर तीखा होता गया। विवाद-समापन-क्रम में जब वेदों का साक्ष्य माँगा गया तो उन्होंने शिव को परमतत्त्व अभिहित किया। माया से विमोहित हुए ब्रह्मा तथा विष्णु- किसी को भी वेद-साक्ष्य रास नहीं आया। वे बोल पड़े-"अरे वेदो! तुम्हारा ज्ञान नष्ट हो गया है क्या? भला धूलिधूसर, पीतवर्ण, दिगम्बर शिव कभी परमतत्त्व कैसे हो सकते हैं?" उन्होंने शिवजी की वेषभूषा और शिव-शिवा पर भी अनुचित टिप्पणी की। वाद-विवाद के कटुत्व को समाप्त करने हेतु प्रणव ने मूर्तरूप धारण कर भगवान् शिव की महिमा प्रकट करते हुए कहा- "लीलारूपधारी भगवान् शिव सदा ही अपनी 'शिवा' से युक्त हैं। वे परमेश्वर शिवजी स्वयं सनातन ज्योतिस्वरूप हैं और उनकी आनन्दमयी यह 'शिवा' नामक शक्ति आगन्तुकी न होकर शाश्वत है। अत: आप दोनों अपने भ्रम का परित्याग करें।" ॐकार के निर्भ्रान्त बचनों को सुनकर भी प्रबल भवितव्यता से विवश ब्रह्मा एवं विष्णु का मोह दूर नहीं हुआ तो उस स्थल पर एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई, जो भूमण्डल से लेकर आकाश तक परिव्याप्त हो गयी। उसके मध्य मेँ दोनों ने एक ज्योतिर्मय पुरुष को देखा। उस समय ब्रह्मा के पाँचवें मुख ने कहा-"हम दोनों के बीच में यह तीसरा कौन है जो पुरुष रूप धारण किये है?" विस्मय को और अधिक सघन करते हुए उस ज्योतिपुरुष ने त्रिशूलधारी, नीललोहित स्वरूप धारण कर लिया। ललाट पर चन्द्रमा से विभूषित उस दिव्य स्वरूप को देखकर भी ब्रह्माजी का अहंकार पूर्ववत् रहा। पहले की तरह ही वे पांचवें मुख से बोल पड़े-"आओ, आओ वत्स चन्द्रशेखर, आओ। डरो मत। मैं तुम्हें जानता हूँ। पहले तुम मेरे मस्तक से पैदा हुए थे। रोने के कारण मैंने तुम्हारा नाम 'रुद्र' रखा है। मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा।"
भगवान कालभैरव ने अपनी बायीं उँगली के नख से शिवनिन्दा में प्रवृत्त ब्रह्माजी के उस पाँचवें मुंख को काट दिया, यह विचार कर कि पापी अङ्ग का ही शासन अभीष्ट है।

     ब्रह्माजी की गर्वमयी बातें सुनकर भगवान् शिव कुपित हुए और उन्होंने भयङ्कर क्रोध मेँ आकर 'भैरव' नामक पुरुष को उत्पन्न किया, जिन्हें ब्रह्मा को दण्डित करने का प्रथम कार्य सौंपा गया-
'प्राक्च पङ्कजजन्मासौ शास्यते कालभैरव'
(शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता ८ । ४६ )
     उनका नामकरण करते हुए भगवान् शिव ने उनको व्यवस्था दी-'त्वत्तो भेष्यति कालोsपि ततस्त्वं कालभैरव:।'
(शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता ८ । ४७)
     हे महाभाग ! काल भी तुमसे डरेगा, इसलिये तुम्हारा विख्यात नाम 'कालभैरव' होगा। उनके अपर नामों का उल्लेख करते हुए भगवान सदाशिव ने कहा-"हे वत्स! तुम काल के समान शोभायमान हो, इसलिये तुम्हारा नाम 'कालराजरहेगा। तुम कुपित होकर दुष्टों का मर्दन करोगे, इसलिये तुम्हारा नाम 'आमर्दक' होगा। भक्तों के पापों को तत्काल भक्षण करने की सामर्थ्य युक्त होने के कारण तुम्हारा नाम 'पापभक्षण' होगा। तदनन्तर भगवान् शिव ने उसी क्षण उन्हें काशीपुरी का आधिपत्य भी सौंप दिया और कहा-मेरी जो मुक्तिदायिनी काशीनगरी है, वह सभी नगरियों से श्रेष्ठ है, हे कालराज! आज से वहाँ तुम्हारा सदा ही आधिपत्य रहेगा-
या मे मुक्तिपुरी काशी सर्वाभ्योsहि गरीयसी।
आधिपत्यं च तस्यास्ते कालराज सदैव हि॥"
(शिवपुराण शतरुद्रसंहिता ८ । ५०)


भगवान् शिव शाक्त साधकों के भी परमाराध्य हैं। ये ही भक्तों की प्रार्थना भगवती दुर्गा के पास पहुँचाते हैं। देवी के प्रसिद्ध ५१ पीठों की रक्षा मेँ ये भिन्न-भिन्न नाम-रूप धारण कर अहर्निश साधकों की सहायता में तत्पर रहते हैं।

     भगवान शिव से इस प्रकार वरदान प्राप्त कर भगवान कालभैरव ने अपनी बायीं उँगली के नख से शिवनिन्दा में प्रवृत्त ब्रह्माजी के उस पाँचवें मुंख को काट दिया, यह विचार कर कि पापी अङ्ग का ही शासन अभीष्ट है।
'यदङ्गमपराध्नोति कार्यं तस्यैव शासनम्'
     वह पाँचवाँ मुख (कपाल) उनके हाथ में आ चिपका। इस घटना से भयभीत विष्णुजी और ब्रह्माजी शतरुद्री का पाठ कर भगवान् शिव से कृपा-याचना करने लगे। दोनों का अभिमान नष्ट हो गया। उन्हें यह भलीभाँति ज्ञात हो गया कि साक्षात् शिव ही सच्चिदानन्द परमेश्वर गुणातीत परब्रह्म हैं। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर शिवजी ने भैरव जी को ब्रह्मा-विष्णु के प्रति कृपालु होने की सलाह दी-'त्वया मान्यो विष्णुरसौ तथा शतधृतिः स्वयम्।'
(शिवपुराण शतरुद्रसंहिता ८ । ६९)
    "हे नीललोहित! तुम ब्रह्मा और विष्णु का सतत सम्मान करना। ब्रह्माजी को दण्ड देने के क्रम में हे भैरव! तुम्हारे द्वारा उन्हें कष्ट पहुंचा है, अत: लोकशिक्षार्थ तुम प्रायश्चित्तस्वरूप ब्रह्महत्यानिवारक कापालिकव्रत का आचरण कर भिक्षावृत्ति धारण करो" -
'चर त्वं सततं भिक्षां कपालव्रतमाश्रित:।'
(शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता ८ । ६२)
     भगवान् भैरव प्रायश्चित्ताचरण-लीला में तत्काल प्रवृत्त हो गये। ब्रह्महत्या विकराल स्त्री का रूप धारण कर उनका अनुगमन करने लगी।

     त्रैलोक्यभ्रमण करते हुए जब भगवान् भैरव वैकुण्ठ पहुँचे तो भगवान विष्णु ने उनका स्वागत-सत्कार करते हुए भगवती लक्ष्मी से उन्हें भिक्षा दिलवायी

    तदनन्तर भिक्षाटन करते हुए भगवान् भैरव वाराणसीपुरी के 'कपालमोचन' नामक तीर्थ पर पहुंचे, जहाँ आते ही उनके हाथ में संसक्त कपाल छूटकर गिर गया और वह ब्रह्महत्या पाताल में प्रविष्ट हो गयी। अपना प्रायश्चित्त पूरा कर वे वाराणसीपुरी की पूर्ण सुरक्षा का दायित्व सँभालने लगे। बटुकभैरव, आसभैरव, आनन्दभैरव, स्वर्णाकर्षण भैरव आदि उनके विविध अंश-स्वरुप हैं। उनकी महिमा वर्णनातीत है। वे भगवान् शिव के आदेश- 'तत्र(वाराणस्यां) ये पातकिनरास्तेषां प्राप्त स्वमेव हि।' का अनुपालन कर रहे हैं । उनकी महिमा के विषय में भगवान् विष्णु कहते हैं-
अयं धाता विधाता च लोकानां प्रभुरीश्वरः।
अनादि: शरण: शान्त: पुर: षड्विंशसम्मित:॥
सर्वज्ञ: सर्वयोगीश: सर्वभूतैकनायक:।
सर्वभूतान्तरात्मायं सर्वेषां सर्वद: सदा॥
(शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता ९ । ११-१२)
     ये धाता, विधाता, लोकों के स्वामी और ईश्वर हैं। ये अनादि, सबके शरणदाता, शान्त तथा छब्बीस तत्वों से युक्त हैं। ये सर्वज्ञ, सब योगियों के स्वामी, सभी जीवों के नायक सभी भूतों(प्राणियों) की आत्मा और सबको सब कुछ देने वाले हैं।
भूतसङ्घनायकं विशालकीर्तिदायकं काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुम्। नीतिमार्गकोविदं पुरातनं जगत्पतिं काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥८॥  जो समस्त प्राणियों के स्वामी हैं, भक्तों को अतुल कीर्ति प्रदान करने वाले हैं, काशीवासियों के पाप-पुण्य का शोधन करने वाले हैँ, जो सर्वव्यापी, पुरातन पुरुष नीतिमार्ग के ज्ञाता और सारे संसार के स्वामी हैँ, उन काशी नगरी के अधीश्वर कालभैरव की मैं उपासना करता हूँ।

     मान्यता है कि भगवान् भैरव का अवतरण अगहन(मार्गशीर्ष) मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को हुआ था, अत: यह कालभैरवाष्टमी तिथि अर्थात् श्री कालभैरव जी की जयन्ती धूम-धाम से मनायी जाती है-
कृष्णाष्टम्यां तु मार्गस्य मासस्य परमेश्वरः।
आविर्बभूव सल्लीलो भैरवात्मा सतां प्रिय:॥
(शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता ९ । ६३)
     भैरव जयंती पर भक्तिभावपूर्वक भैरव जी की पूजा करने से जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं। भैरव जयन्ती पर भैरवजी की प्रसन्नता प्राप्ति के लिए श्रद्धालु भक्त व्रत रखते हैं। स्वयं भगवान शिव ने भैरव-उपासना की महिमा बताते हुए पार्वती जी से कहा है- "हे देवि! भैरव का स्मरण पुण्यदायक है। यह स्मरण समस्त विपत्तियों का नाशक, समस्त कामनाओँ की पूर्ति करने वाला तथा साधकों को सुखी रखने वाला है, साथ ही लम्बी आयु प्रदान करता है और यशस्वी भी बनाता है।"


बटुकभैरव, आसभैरव, आनन्दभैरव, स्वर्णाकर्षण भैरव आदि उनके विविध अंश-स्वरुप हैं। उनकी महिमा वर्णनातीत है। वे भगवान् शिव के आदेश- 'तत्र(वाराणस्यां) ये पातकिनरास्तेषां प्राप्त स्वमेव हि।' का अनुपालन कर रहे हैं ।

    मंगलवार युक्त अष्टमी और चतुर्दशी को कालभैरव जी के दर्शन का विशेष महत्व है -

कालराजं न यः काश्यां प्रतिभूताष्टमी-कुजम्भजेत्तस्य क्षयं पुण्यं कृष्णपक्षे यथा शशी॥

(मंगलवार, चतुर्दशी तथा अष्टमी के दिन काशी में रहकर भी जो कालराज का भजन नहीं करता है, उसका पुण्य कृष्णपक्ष के चन्द्रमा के समान क्षीण हो जाता है)


वाराणसीपुरी की अष्ट दिशाओ में स्थापित अष्टभैरवों- भीषण भैरव, रुरुभैरव, चण्डभैरव, असिताङ्गभैरव, कपालभैरव, क्रोधभैरव, उन्मत्तभैरव तथा संहारभैरव का दर्शन-आराधन करना अभीष्ट फ़लप्रद है। रोली, सिन्दूर रक्तचन्दन का चूर्ण, लाल फूल, गुड़, उड़द का बड़ा, धान का लावा, ईख का रस, तिल का तेल, लोहबान, लाल वस्त्र, भुना केला, सरसों का तेल - ये भैरवजी की प्रिय वस्तुएँ हैं, अत: इन्हें कालभैरवजी को भक्तिपूर्वक समर्पित करना चाहिये।

भैरवजी की प्रसन्नता प्राप्ति के लिए अर्थ समझते हुए कालभैरवाष्टक सदृश स्तोत्रों का अधिकाधिक पाठ करना चाहिए। कालभैरवाष्टक हिंदी भावार्थ सहित यहाँ प्रस्तुत है-


श्रीकालभैरवाष्टकम्
देवराज-सेव्यमान-पावनाङ्घ्रि-पङ्कजं
व्याल-यज्ञसूत्र-मिन्दु-शेखरं कृपा-करम्।
नारदादि-योगिवृन्द-वन्दितं दिगम्बरं
काशिका-पुराधिनाथ-कालभैरवं भजे॥१॥
मैं काशी नगरी के स्वामी कालभैरवजी की आराधना करता हूँ। जिनके पवित्र चरणकमलों की देवराज इन्द्र सेवा करते हैं। जो कृपानिधि हैं, और जिन्होंने सर्पों का यज्ञोपवीत धारण किया है, और चन्द्रमा जिनका शिरोभूषण है। जो दिगम्बर योगीश्वर हैं और नारद आदि योगियों का समूह जिनकी वन्दना करता है।

भानुकोटि-भास्वरं भवाब्धि-तारकं परं
नीलकण्ठ-मीप्सितार्थ-दायकं त्रिलोचनम्।
काल-काल-मम्बुजाक्ष-मक्ष-शूलमक्षरं
काशिका-पुराधिनाथ-कालभैरवं भजे॥२॥
मैं काशी के अधीश्वर कालभैरव की आराधना करता हूँ। जो करोड़ों सूर्यों के समान दीप्तिमान् हैं और संसार-सागर से तारने वाले परमेश्वर हैं। वे त्रिलोचन नीलग्रीव अभीष्ट फलदाता हैं और काल के भी महाकाल हैँ। उनके कमल के समान नेत्र हैं, और उन्होंने अक्षमाला और त्रिशूल धारण किया हुआ है।
(यहाँ संसार की उपमा लहरों के थपेड़ों और मगरमच्छों से क्षुब्ध महासागर अथवा घने जंगल से की गई है। भगवान् शिव इस भवसागर से पार लगाने वाले हैं।
भगवान् शिव ने समुद्रमंथन से निकले हुए कालकूट विष को, देव-दानवों की रक्षा के लिये पी लिया। उनके उदर में सृष्टि स्थित है इसलिये उसे अपने कण्ठ में ही रोक लिया। गले में विष की नीलिमा होने से वे नीलकण्ठ कहलाये
भगवान् शिव की तीसरी आँख ज्ञानचक्षु है। शिवशंकर काल के महाकाल-मृत्युञ्जय हैं, क्योंकि वे उस परमज्ञान को देते हैँ जिससे मृत्यु का भय नहीं रहता। 'अक्ष' का एक अर्थ सर्प भी है। वे रुद्राक्ष व सर्पों की माला धारण करते हैँ।)

शूल-टंक-पाश-दण्ड-पाणिमादिकारणम्
श्याम-कायमादि-देवमक्षरं निरामयम्।
भीम-विक्रमं प्रभुं विचित्र-ताण्डव-प्रियं
काशिकापुराधिनाथ-कालभैरवं भजे॥३॥
मैं काशीनाथ कालभैरव जी की आराधना करता हूँ जिनके हाथों में शूल, कुठार, पाश और दण्ड है। वे आदिदेव, अविनाशी और आदिकारण हैं। त्रिविध तापों से ऊपर वे महान् पराक्रमी हैं। वे सर्वसमर्थ हैं और विचित्र ताण्डवनृत्य उन्हें प्रिय है।
(यहाँ भगवान शिव को, जो 'कर्पूरगौर' और 'रजतगिरिनिभं', 'पूर्णेन्दुकोटिप्रभम्' प्रसिद्ध हैं, 'श्यामकायं' कालभैरव के रूप में बताया गया है।)

भुक्तिमुक्ति-दायकं प्रशस्त-चारु-विग्रहं
भक्त-वत्सलं स्थिरं समस्त-लोक-विग्रहम्।
विनिक्वणन्मनोज्ञ-हेम-किङ्किणी-लसत्कटिं
काशिका-पुराधिनाथ-कालभैरवं भजे॥४॥
मैं भुक्तिमुक्तिदायक, सुन्दर प्रशंसनीय अंगों वाले, भक्तप्रिय, समस्त संसार के स्थिर विग्रह, कटिप्रदेश में सोने की रुनझुन करली सुन्दर करधनी पहने हुए, काशीनगरी के अधीश्वर कालभैरव की आराधना करता हूँ।

धर्मसेतु-पालकं त्वधर्ममार्ग-नाशकं
कर्मपाश-मोचकं सुशर्म-दायकं विभुम्।
स्वर्णवर्ण-केशपाश-शोभिताङ्गनिर्मलं
काशिका-पुराधिनाथ-कालभैरवं भजे॥५॥
मैं धर्म-सेतु-पालक एवं अधर्म मार्ग नाशक और कर्मपाश से मुक्त करने वाले काशी के अधिपति कालभैरव की आराधना करता हूँ। वे शुभ आनन्ददायक हैं, और सर्वव्यापी हैं। उनके अङ्ग स्वर्ण वर्ण वाले केशपाश से सुशोभित हैं।

('धर्म-सेतु' से अभिप्राय है कि धर्म के पुल से संसार-सागर पार किया जा सकता है। भगवान शिव इस धर्म-सेतु के रक्षक हैं। वे धर्मपालन करने वालों की सदा रक्षा करते हैं।
कर्मपाश से अभिप्राय कर्मफल, कर्मपरिणाम, कर्मविपाक से है। हम जो भी अच्छा-बुरा कर्म करते हैं, उसका फल हमें भोगना पड़ता है। 'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मं शुभाsशुभम्'। भगवान् शिव ज्ञान द्वारा कर्मविपाक का नाश कर मुक्ति प्रदान करते हैं।
तीसरे श्लोक में 'श्यामकाय' बताने के बाद यहाँ भैरव जी को सोने की करधनी और स्वर्ण वर्ण के केशपाश से सुशोभित बताया गया है।)

रत्नपादुका-प्रभा-भिराम-पादयुग्मकं
नित्यमद्वितीय-मिष्टदैवतं निरञ्जनम्।
मृत्युदर्प-नाशनं करालदंष्ट्र-मोक्षणम्
काशिका-पुराधिनाथ-कालभैरवं भजे॥६॥
मैं कराल दाढ़ों से सुशोभित काशीपुरी के अधिनाथ कालभैरव की उपासना करता हूँ। जिनके चरणयुगल रत्नजड़ित पादुकाओँ की कान्ति से सुशोभित हैं। वे अविनाशी, अद्वितीय, निरञ्जन इष्टदेव हैं। वे यमराज/मृत्यु का गर्व चूर करने वाले और काल की कराल दाढ़ों से मुक्ति दिलाने वाले हैं।

अट्टहास-भिन्न-पद्मजाण्डकोश-सन्ततिं
दृष्टिपात-नष्ट-पापजालमुग्र-शासनम्।
अष्टसिद्धि-दायकं कपालमालिकन्धरं
काशिका-पुराधिनाथ-कालभैरवं भजे॥७॥
मैं उन कपालमाला धारी कालभैरव की आराधना करता हूँ, जिनके अट्टहास से ब्रह्माण्डों के समुद्र विदीर्ण हो जाते हैं, जिनकी कृपादृष्टि मात्र से पापों के समूह का कठोर शासन नष्ट हो जाता है। जो आठों प्रकार की- अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व सिद्धि प्रदान करने वाले हैं।

भूतसङ्घ-नायकं विशाल-कीर्ति-दायकं
काशिवास-लोक-पुण्यपाप-शोधकं विभुम्।
नीतिमार्ग-कोविदं पुरातनं जगत्पतिं
काशिका-पुराधिनाथ-कालभैरवं भजे॥८॥

जो समस्त प्राणियों के स्वामी हैं, भक्तों को अतुल कीर्ति प्रदान करने वाले हैं, काशीवासियों के पाप-पुण्य का शोधन करने वाले हैँ, जो सर्वव्यापी, पुरातन पुरुष नीतिमार्ग के ज्ञाता और सारे संसार के स्वामी हैँ, उन काशी नगरी के अधीश्वर कालभैरव की मैं उपासना करता हूँ।

कालभैरवाष्टकं पठन्ति ये मनोहरं
ज्ञानमुक्ति-साधकं विचित्र-पुण्य-वर्धनम्।
शोकमोह-दैन्य-लोभ-कोपताप-नाशनं
ते प्रयान्ति काल-भैरवाङ्घ्रि-संनिधिं ध्रुवम्॥९॥
जो लोग ज्ञान और मुक्ति प्राप्त करने के साधनरूप भक्तों के पुण्य की वृद्धि करने वाले, शोक-मोह-दीनता-लोभ-क्रोध-ताप को नष्ट करने वाले इस मनोहर 'कालभैऱवाष्टक' का पाठ करते हैं, वे निश्चय ही भगवान कालभैरव के चरणों का आश्रय प्राप्त करते हैं।

॥श्रीमच्छङ्कराचार्य विरचितम् कालभैरवाष्टकम् शुभमस्तु॥

     भगवान् शिव शाक्त साधकों के भी परमाराध्य हैं। ये ही भक्तों की प्रार्थना भगवती दुर्गा के पास पहुँचाते हैं। देवी के प्रसिद्ध ५१ पीठों की रक्षा मेँ ये भिन्न-भिन्न नाम-रूप धारण कर अहर्निश साधकों की सहायता में तत्पर रहते हैं। प्रतिदिन भैरवजी की आठ बार प्रदक्षिणा करने से मनुष्यों के सर्वविध पाप विनष्ट हो जाते हैं-
अष्टौ प्रदक्षिणीकृत्य प्रत्यहं पापभक्षणम्।
नरो न पापैर्लिप्येत मनोवाक्कायसम्भवै:॥
(काशीखण्ड ३१ । १५१)
मंगलवार युक्त अष्टमी और चतुर्दशी को कालभैरव के दर्शन का विशेष महत्व है। वाराणसीपुरी की अष्ट दिशाओ मैं स्थापित अष्टभैरवों- रुरुभैरव, चण्डभैरव, असिताङ्गभैरव, कपालभैरव, क्रोधभैरव, उन्मत्तभैरव तथा संहारभैरव का दर्शन-आराधन अभीष्ट फ़लप्रद है।

    महाप्रभु भैरव समस्त जनों के पाप-ताप का शमन करें इसी प्रार्थना के साथ भगवान कालभैरव को हमारे अनेकों प्रणाम.....

टिप्पणियाँ

  1. आप द्वारा भगवान काल भैरव बाबा के विषय में दिये गये तत्वज्ञान से मुझे बहुत खुशी मिली हैं।

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    1. श्री कालभैरव भगवान की महिमा सदा ही आनंदित करने वाली है...यह तो बस आलेख मात्र है..भैरवजी के अनेक स्वरूप हैं और उन सबके तत्व का विस्तृत वर्णन लिखना तो दूर उसे जान पाना भी किसी वश में नहीं.. भगवत्कृपा से उनके तत्व को जिसने जान लिया वह निश्चित ही धन्य है...आपने यह आलेख पढ़ा इस हेतु हार्दिक धन्यवाद...
      जय श्री महाकाल

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  2. अत्यंत कृपा आपकी महोदय इस महापवित्र महाभागवत कालभैरवाष्टक का भावार्थ सहित वर्णन करने के लिये।

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    1. हार्दिक धन्यवाद महोदय कि आपने यह आलेख व स्तोत्र पढ़ा... श्री भैरव भगवान की जय हो जय श्री महाकाल..

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