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कमला महाविद्या हैं सिद्धिदात्री-स्वरूपिणी वैष्णवी शक्ति

श्री की अधिष्ठात्री शक्ति महाविद्या कमला की जयन्ती तिथि दीपावली के दिन ही बतलाई गई है।  श्रीमद्भागवत के आठवें स्कन्ध के आठवें अध्याय में भगवती कमला के उद्भव की विस्तृत कथा आई है। देवताओं एवं असुरों द्वारा अमृत-प्राप्ति के उद्देश्य से किये गये समुद्र-मन्थन के फलस्वरूप इनका प्रादुर्भाव हुआ था । इन्होंने भगवान् विष्णु को पतिरूप में ग्रहण किया था। महाविद्याओं में ये दसवें स्थान पर परिगणित हैं। भगवती कमला वैष्णवी शक्ति हैं तथा भगवान विष्णु की लीला-सहचरी हैं अतः इनकी उपासना जगदाधार-शक्ति की उपासना है। 


दीपावली में भगवती महालक्ष्मी का पूजन विधान

का र्तिक कृष्ण अमावास्या को दीपावली की अद्भुत वेला में श्रीमहालक्ष्मी एवं भगवान गणेश की नूतन प्रतिमाओं का प्रतिष्ठापूर्वक विशेष पूजन किया जाता है। कुछ भक्तजन इस दिन 'कमला जयंती' पर महालक्ष्मी जी के लिए व्रत भी रखते हैं। महालक्ष्मी पूजन के लिये किसी चौकी अथवा कपड़े के पवित्र आसन पर गणेश जी के दाहिने भाग मेँ माता महालक्ष्मी को स्थापित करना चाहिये। पूजन के दिन घर को स्वच्छ कर पूजन-स्थान को भी पवित्र कर लेना चाहिये एवं स्वयं भी पवित्र होकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सायंकाल इनका पूजन करना चाहिये। मूर्तिमयी श्रीमहालक्ष्मीजी के पास ही किसी पवित्र पात्र मेँ केसरयुक्त चन्दन से अष्टदल कमल बनाकर उस पर द्रव्य-लक्ष्मी (रुपयों) - को भी स्थापित करके एक साथ ही दोनों की पूजा करनी चाहिये। पूजन करने वाले को चाहिये कि वह पूजन के लिये पूजाघर में सामग्री लेकर जल्दी (सायं पांच बजे के आसपास कोई शुभ मुहूर्त हो तो उसी समय) उपस्थित हो क्योंकि लक्ष्मीपूजन आदि के बाद दीपमालिका पूजन करके ही घर के प्रत्येक कोने में दीप सजाने होते हैं, इस दिन शाम को अंधेरा होते ही घर व घर के चारों ओर प्रकाश की सुंदर व्...


गोवत्स द्वादशी व्रत का विधान

का र्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी ' गोवत्सद्वादशी ' के नाम से जानी जाती है। इस व्रत में भक्तिपूर्वक गोमाता का पूजन किया जाता है। इस व्रत में प्रदोषव्यापिनी तिथि ग्रहण की जाती है। यदि प्रदोषव्यापिनी तिथि दोनों दिन हो तो ' वत्सपूजा व्रतश्चैव कर्तव्यौ प्रथमेsहनि ' के अनुसार, 'पूर्वा' को ग्रहण करना चाहिए, यह बहुतों का कहना है किन्तु कोई 'परा'(दूसरी) भी कहते हैं। दोनों दिन प्रदोषव्यापिनी न हो तो 'परा' तिथि लेनी चाहिये। 


रमा एकादशी का माहात्म्य

ए कादशी २६ प्रकार की बतलाई गई हैं। उन्हीं छब्बीस एकादशियों में से कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का माहात्म्य पद्म पुराण में वर्णित किया गया है। एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा कि हे जनार्दन! मुझ पर आपका स्नेह है; अतः कृपा कर बताइये कि कार्तिक के कृष्ण पक्ष में कौन सी एकादशी होती है? भगवान श्रीकृष्ण बोले कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम 'रमा' है। 'रमा' परम उत्तम और बड़े-बड़े पापों को हरने वाली है ।


एकादशी व्रत का पवित्र विधान

सं कल्प शब्द ' व्रत ' का ही दूसरा नाम है। मन को उचित दिशा प्रदान करके दृढ़ बनाने के विधि-विधान का शुभ संकल्प ही व्रत है। भारतीय संस्कृति के अंतर्गत हमारे ऋषि-मुनियों ने धार्मिक व्रतों के अनुपालन का आदेश दिया है ताकि मानवमात्र व्रतों के  पालन से अनेक प्रकार के रोगों से मुक्त होकर स्वस्थ जीवन-यापन करते हुए भगवत्प्राप्ति का सहज सुलभ साधन कर सके। सभी व्रतों का विधान अलग होते हुए भी ध्येय सबका समान ही है। मन पर नियन्त्रण और शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य की प्राप्ति व्रत का प्रतिफल है । मन सभी क्रियाक्रलापों का आधार है और संकल्प-विकल्प का उद्गम स्थान भी।


स्त्री के अखण्ड सुहाग का प्रतिमान है 'करवाचौथ'

भा रतीय हिन्दू स्त्रियों के लिये करवाचौथ का व्रत अखण्ड सुहाग को देने वाला माना जाता है । विवाहित स्त्रियाँ इस दिन अपने पति की दीर्घ आयु एवं स्वास्थ्य की मङ्गल-कामना करके रजनीश अर्थात् चन्द्रमा  को अर्घ्य अर्पित  कर व्रत पूर्ण करती हैं। स्त्रियों में इस दिन के प्रति इतना अधिक श्रद्धाभाव होता है कि वे कई दिन पूर्व से ही इस व्रत की तैयारी प्रारम्भ कर देती हैं। यह व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी को किया जाता है, यदि यह दो दिन चन्द्रोदयव्यापिनी हो या दोनों ही दिन न हो तो पूर्वविद्धा लेनी चाहिये। करकचतुर्थी को ही 'करवाचौथ' भी कहा जाता है ।


चातुर्मास्य व्रत की महिमा

  स मय-समय पर आते रहने वाले उन अवसरों का लाभ हमें अवश्य उठाना चाहिये जिनका हिन्दू धर्म ग्रन्थों में महत्व बताया गया है। हमारे हिन्दू धर्म ग्रन्थों में चातुर्मास का बहुत महत्व बताया गया है, जिसमें सूर्य के मिथुन राशि में आने पर भगवान् विष्णु जी की प्रतिमा को शयन कराते हैं और चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के पहुँचने पर उनको उठाया जाता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका  है कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी को चातुर्मास के नियमों को ग्रहण करके चातुर्मास्य व्रत का प्रारम्भ किया जाता है । किसी कारणवश एकादशी या द्वादशी को यदि चातुर्मास का नियम पालन संकल्प न हो पाये तो इन नियमों के पालन का संकल्प पूर्णिमा को भी किया जा सकता है। इस तरह चातुर्मास का अनुष्ठान आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी, द्वादशी से द्वादशी तक या आषाढ़ की पूर्णिमा से कार्तिक की पूर्णिमा तक किया जाता है।


छिन्नमस्ता महाविद्या हैं वज्र वैरोचनीया व शिवभाव-प्रदा

भ गवती आद्याशक्ति से उत्पन्न दस महाविद्याओं में अनेक गूढ़ रहस्य छिपे हुए हैं। इन्हीं में से एक हैं भगवती छिन्नमस्ता, जिनकी जयंती वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को बतलाई गई है। माँ छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यन्त ही गोपनीय है। जिसको कोई अधिकारी साधक ही जान सकता है। परिवर्तनशील जगत् का अधिपति कबन्ध को बतलाया गया है और उसकी शक्ति ही भगवती छिन्नमस्ता कहलाती हैं। विश्व में वृद्धि-ह्रास तो सदैव होता ही रहता है। जब ह्रास  की मात्रा कम और विकास की मात्रा अधिक होती है तब भुवनेश्वरी माँ का प्राकट्य होता है। इसके विपरीत जब निर्गम अधिक और आगम कम होता है तब छिन्नमस्ता माँ का प्राधान्य होता है।


श्रीनृसिंहचतुर्दशीव्रत दिलाता है सनातन मोक्ष

ज ब स्वयंप्रकाश परमात्मा अपने भक्तों को सुख देने के लिये अवतार ग्रहण करते हैं, तब वह तिथि और मास भी पुण्य के कारण बन जाते हैं। जिनके नाम का उच्चारण करने वाला पुरुष सनातन मोक्ष को प्राप्त होता है, वे परमात्मा कारणों के भी कारण हैं । सम्पूर्ण विश्व के आत्मा, विश्वस्वरूप और सबके प्रभु हैं। वे ही भगवान् भक्त प्रह्लाद का अभीष्ट सिद्ध करने के लिये श्रीनृसिंहावतार के रूप में प्रकट हुए थे और जिस तिथि को भगवान् नरसिंहजी का प्राकट्य हुआ था, वह तिथि वैशाख शुक्ला चतुर्दशी एक महोत्सव बन गयी।


वगलामुखी महाविद्या हैं ब्रह्मास्त्र-स्वरूपिणी और भोग-मोक्ष-दायिनी

भ गवती वगलामुखी को  वल्गा,  पीताम्बरा या बगला भी कहा जाता है। व्यष्टि रूप में शत्रुओं को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली तथा समष्टि रूप में परमात्मा की संहार शक्ति ही भगवती वगला हैं। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को इनकी जयंती बतलाई गई है। पीताम्बरा विद्या के नाम से विख्यात माँ वगलामुखी की साधना-आराधना प्रायः शत्रुभय से मुक्ति और वाक्-सिद्धि के लिये की जाती है। इनकी उपासना में हरिद्रामाला, पीत-पुष्प एवं पीतवस्त्र प्रयुक्त करने का विधान है। महाविद्याओं में इनका आठवाँ स्थान है। इनके ध्यान में बताया गया है कि ये सुधासमुद्र के मध्य में स्थित मणिमय मण्डप में रत्नमय सिंहासन पर विराज रही हैं। ये पीतवर्ण के वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले षुष्पों की ही माला धारण करती हैं। इनके एक हाथ में शत्रु की जिह्वा और दूसरे हाथ में मुद्गर है।


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