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भैरव जयंती पर जानें भैरवाष्टमी व्रत की विधि

मि त्रों, मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को होती है भक्तों की हर प्रकार से रक्षा करने वाले भगवान  भैरवनाथजी की जयन्ती ।   भगवान शिव के दो स्वरूप हैं- १- भक्तों को अभय देने वाला विश्वेश्वर स्वरूप और २- दुष्टों को दण्ड देने वाला कालभैरव स्वरूप।  जहाँ विश्वेश्वर अर्थात् काशी विश्वनाथ जी का स्वरूप अत्यन्त सौम्य और शान्त है , वहीं उनका भैरवस्वरूप अत्यन्त रौद्र , भयानक , विकराल तथा प्रचण्ड है। श्री आनन्द भैरव श्री कालभैरव


प्रबोधिनी एकादशी पर करें तुलसी विवाह

आ ज कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तुलसी - विवाह   का भी आयोजन किया जाता है। हिन्दू धर्मग्रन्थों की मान्यता के अनुसार तुलसी श्रीहरि को अतिप्रिय है जिस कारण तुलसी चढ़ाए बिना मधुसूदन भगवान की  कोई भी पूजा अधूरी मा नी जाती है। तुलसी के पत्ते मंगलवार, शुक्रवार, रविवार, संक्रांति (नये महीने या वर्ष का पहला दिन), अमावास्या, पूर्णिमा, द्वादशी, श्राद्ध तिथि (पूर्वजों की पुण्यतिथि)  और   दोपहर [12बजे] के बाद नहीं तोड़ने चाहिए अन्यथा भगवान के सिर को काटने का पाप मिलता है। तुलसी पत्र/दल तोड़ना यदि बहुत आवश्यक हो तो फिर निम्न मंत्र पढ़कर तोड़ लेना चाहिये- तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया। चिनोमि केशवस्यार्थे वरदा भव शोभने।। अथवा [और] त्वदंगसंभवै: पत्रै: पूजयामि यथा हरिम्। तथा कुरु पवित्राङ्गि! कलौ मलविनाशिनी।।


देवोत्थापनी एकादशी - सुप्तावस्था से जगने का पर्व

य द्यपि भगवान् क्षणभर भी नहीं सोते , फिर भी भक्तों की भावना- ‘ यथा देहे तथा देवे ’ के अनुसार भगवान् चार मास तक शयन करते हैं। भगवान् विष्णु के क्षीरसागर में  शयन के विषय में कथा है कि भगवान ने  भाद्रपदमास की शुक्लपक्षीय एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को मारा था और उसके बाद थकावट दूर करने के लिये क्षीर-सागर में जाकर सो गये। वे वहाँ चार मास तक सोते रहे और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे। इसी से इस एकादशी का नाम ‘ देवोत्थापनी ’ या ‘ प्रबोधिनी एकादशी ’ पड़ गया। 


दीपावली का महत्व

भा रतवर्ष में मनाये जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टियों से अप्रतिम महत्व है। समाजिक दृष्टि से इस पर्व का महत्व इसलिए है कि दीपावली आने से पूर्व ही लोग अपने घर-द्वार की स्वच्छता पर ध्यान देते हैं, घर का कूड़ा-करकट साफ़ करते हैं, टूट-फूट सुधारवाकर घर की दीवारों पर सफेदी, दरवाजों पर रंग-रोगन करवाते हैं, जिससे उस स्थान की न केवल आयु ही बढ़ जाती है, बल्कि आकर्षण भी बढ़ जाता है। वर्षा-ऋतु में आयी अस्वच्छता का भी परिमार्जन हो जाता है।


नरक चतुर्दशी हर लेती है नरक का भय

का र्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी ' नरक चतुर्दशी ' कहलाती है। सनत्कुमार संहिता के अनुसार इसे पूर्वविद्धा लेना चाहिये। इस दिन अरुणोदय से पूर्व प्रत्यूषकाल में स्नान करने से मनुष्य को यमलोक का दर्शन नहीं करना पड़ता । यद्यपि कार्तिकमास में तेल नहीं लगाना चाहिये, फिर भी इस तिथिविशेष को शरीर में तेल लगाकर स्नान करना चाहिये । जो व्यक्ति इस दिन सूर्योदय के बाद स्नान करता है, उसके शुभ कार्यों का नाश हो जाता है । स्नान से पूर्व शरीर पर अपामार्ग/चिरचिटा का प्रोक्षण करना चाहिये। निम्न मन्त्र पढ़कर अपामार्ग को अथवा लौकी को मस्तक पर घुमाकर नहाने से नरक का भय नहीं रहता - सीतालोष्ठसमायुक्तं सकण्टकदलान्वितम् । हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणःपुनः पुनः ॥


श्रीहनुमत्स्तुति का महापर्व - हनुमान जयन्ती [द्वादश नाम स्तोत्र]

ह नुमान जी की श्रीराम भक्ति जग प्रसिद्ध है। पञ्चमुखी -एकमुखी- एकादशमुखी और गदा धारण करने वाले महापराक्रमी अखण्ड ब्रह्मचारी हनुमान जी को उनकी अनन्य श्री राम जी की भक्ति ने समस्त जगत में पूजनीय अमर भगवान बना दिया। सूर्यदेव के शिष्य एवं  बल-बुद्धि-सिद्धि देने वाले हनुमान जी के विषय में जितना कहा जाय कम ही है। कलयुग में इन्हीं महाबलशाली बजरंगबलीजी का सान्निध्य प्रत्यक्ष और सहज ही प्राप्त हो जाता है। अन्य सभी भगवान के लीलावतार तो अपनी लीला करके वापस अपने धाम को लौट चुके हैं, परन्तु रुद्रावतार हनुमान जी ही एक ऐसे अजर-अमर देव हैं जो अब तक राम नाम का जप करते हुए इसी धरा पर उपस्थित हैं। यदि मन में सच्ची श्रद्धा   हो तो हनुमान जी की कृपा सहज ही प्राप्त हो जाती है। जिनके कृपाकटाक्ष मात्र से सभी भूत-प्रेत बाधाओं, त्रिविध कष्ट, भय-दुर्घटना, बुरे तन्त्र-अभिचार कर्मों का कुप्रभाव साधक पर क्रियाहीन हो जाता है, इन्हीं हनुमान जी की जयन्ती आज मनाई जाती है।


धनतेरस, श्रीधन्वन्तरि जयन्ती एवं गोत्रिरात्र व्रत का पावन महत्व

दी पावली के दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही दीपमालाएं सजने लगती हैं। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी ' धनतेरस ' कहलाती है। आज के दिन नयी वस्तुएँ विशेषकर चाँदी का बर्तन खरीदना अत्यन्त शु भ माना गया है, परंतु वस्तुतः यह यमराज से संबंध रखने वाला व्रत है। इस दिन सायंकाल घर के बाहर मुख्य दरवाजे पर एक पात्र में अन्न रखकर उसके ऊपर यमराज के निमित्त दक्षिणाभिमुख दीपदान करना [दक्षिण दिशा की ओर दिया रखना] चाहिये। दीपदान करते समय निम्न प्रार्थना करनी चाहिये - मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह। त्रयोदश्यां  दीपदानात्सूर्यजः प्रीयतामिति।


शरत्पूर्णिमा पर जानिये कोजागर व्रत का महत्व

श रद ऋतु की शीतल हवाओं के साथ ही आगमन होता है आश्विन पूर्णिमा का, जो दीपावली आने वाली है ऐसी एक सूचना-सी दे जाती है। हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार मान्यता है कि आश्विनमास की पूर्णिमा को भगवती महालक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिये पृथ्वी पर घूमती हैं कि कौन जाग रहा है। लक्ष्मी जी के ' को जागर्ति ? ' कहने के कारण इस दिन किए जाने वाले व्रत का नाम कोजागरी है। निशीथे वरदा लक्ष्मीः को जागर्तीति भाषिणी। जगति भ्रमते तस्यां लोकचेष्टावलोकिनी॥ तस्मै वित्तं प्रयच्छामि यो जागर्ति महीतले॥ अर्थात कोजागरी की रात्रि को लक्ष्मी माँ " कौन जागता है? " ऐसा बोलती हुईं संसार में उनके निमित्त कौन जागने की चेष्टा कर रहा है यह देखने हेतु जगत में भ्रमण करती हैं। साथ ही जो भी जागता है उसे धन-प्राप्ति का आशीर्वाद माँ कमला दे जाती हैं।


सिद्धि-प्रदा सिद्धिदात्री जी की महिमा - नवरात्र का नवम दिन

माँ सिद्धिदात्री   दुर्गाजी की  नवीं शक्ति हैं। माता सिद्धिदात्री सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। मार्कण्डेयपुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व - ये आठ सिद्धियाँ होती हैं। ब्रह्मवैवर्त्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय छः में महादेव शिव जी द्वारा सिद्धियों की संख्या अट्ठारह बतायी गयी है। इन अट्ठारह तरह की सिद्धियों के नाम इस प्रकार कहे जाते हैं-       १- अणिमा , २- लघिमा , ३- प्राप्ति , ४- प्राकाम्य, ५- महिमा , ६- ईशित्व और वशित्व , ७- सर्वकामावसायिता , ८- सर्वज्ञत्व , ९- दूरश्रवण , १०- परकायप्रवेशन , ११- वाक्सिद्धि , १२- कल्पवृक्षत्व , १३- सृष्टि , १४- संहारकरणसामर्थ्य , १५- अमरत्व , १६- सर्वन्यायकत्व , १७- भावना और १८- सिद्धि ।


महागौरी जी की महिमा - नवरात्र का आठवां दिन महाष्टमी

म हागौरी माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति हैं। हिंदू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार माता महागौरी का वर्ण पूर्णतः गौर है। महागौरी माता की इस गौरता की उपमा शङ्ख, चन्द्र और कुन्द के फूल से दी गयी है। ' अष्टवर्षा भवेद् गौरी ' के अनुसार  महागौरी भगवती की आयु सर्वदा आठ वर्ष  की ही मानी गयी है। महागौरी जी के समस्त वस्त्र एवं आभूषण भी श्वेत हैं। देवी महागौरी की चार भुजाएँ हैं। महागौरी माँ का वाहन वृषभ है। महागौरी जी के ऊपर के दाहिने हाथ में अभय-मुद्रा और नीचे के बायें हाथ में वर-मुद्रा है। महागौरी माता की मुद्रा अत्यन्त शान्त है।


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