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शाकंभरी भगवती हैं करुणहृदया व कृपाकारिणी (श्री शाकम्भरी साधना)

भ गवती शाकंभरी को शताक्षी देवी के नाम से भी जाना जाता है। पौष मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को इन्हीं शाकम्भरी माँ की जयन्ती मनाई जाती है । देवी भागवत में वर्णन है कि राजा जनमेजय के पूछने पर व्यास जी ने देवी शताक्षी के प्रकट होने की कथा सुनायी थी। शाकम्भरी  माता के स्मरण मात्र से ही  दुखों से छुटकारा मिलकर  सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है ।देवी भागवत के अनुसार भुवनेश्वरी महाविद्या ही भगवती शाकम्भरी के रूप में प्रादुर्भूत हुईं थीं । कथा इस प्रकार है कि प्राचीन समय में हिरण्याक्ष वंशीय दुर्गम नामक दैत्य ने वेदों को नष्ट करने के उद्देश्य से हिमालय पर तप किया सोचा कि वेद न रहेंगे तो देवता भी न रहेंगे। जब एक हजार वर्ष बाद ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा तो दुर्गमासुर बोला- " सुरेश्वर! सब वेद मेरे पास आ जायें। मुझे वह बल दीजिये जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ। " ब्रह्माजी " ऐसा ही हो । " कहकर सत्यलोक चले गये। तब से ब्राह्मणों को वेद विस्मृत हो गये। इससे स्नान, संध्या, नित्य-होम-यज्ञ, श्राद्ध, जप आदि वैदिक क्रियायें नष्ट हो गईं। सारे भूमण्डल ...


पवित्र माघ मास का माहात्म्य

भा रतीय संवत्सर का ग्यारहवाँ चान्द्रमास और दसवाँ सौरमास 'माघ' कहलाता है।  इस महीने में मघा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने से इसका नाम माघ पड़ा। हिन्दू  धर्म के दृष्टिकोण से इस माघ मास का बहुत अधिक महत्व है। मान्यता है कि इस मास में शीतल जल में डुबकी लगाने-नहाने वाले मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्गलोक जाते हैं- माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥       माघ में प्रयाग  में स्नान, दान, भगवान् विष्णु के पूजन और हरिकीर्तन के महत्त्व का वर्णन तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में भी किया है- माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥ देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥ पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥


मकर-संक्रान्ति का महापर्व [श्री सूर्य स्तोत्राणि]

सू र्य ही पञ्चदेवों में एकमात्र ऐसे देव हैं जिनके दर्शन सर्वसुलभ और नित्य ही हुआ करते हैं । हनुमान जी इनके शिष्य तथा यमराज-शनिदेव इन्हीं के पुत्र हैं ।  जगत्  की समस्त घटनाएँ तो सूर्यदेव की ही लीला-विलास हैं। भगवान् सूर्य अपनी कर्म-सृष्टि-रचनाकाल की लीला से श्रीब्रह्मा-रूप में प्रात:काल में जगत् को प्रकाशित कर संजीवनी प्रदान कर प्रफुल्लित करते हैं। मध्याह्नकाल में ये आदित्य भगवान अपनी ही प्रचण्ड रश्मियों के द्वारा श्रीविष्णुरूप से सम्पूर्ण दैनिक कर्म-सृष्टि का आवश्यकतानुसार यथासमय पालन-पोषण करते हैं, ठीक इसी प्रकार भगवान् आदित्य सायाह्नकाल में अपनी रश्मियों के द्वारा श्रीमहेश्वररूप से सृष्टि के दैनिक विकारों को शोषित कर कर्म-जगत् को हृष्ट-पुष्ट, स्वस्थ और निरोग बनाते हैं ।


अनूठे सिद्धयोगी श्री तैलंगस्वामी जी के संस्मरण

ब हुत वर्ष पूर्व आंध्रप्रदेश के विशाखापत्तनम जिले के होलिया गाँव में एक उदार व प्रजावत्सल जमींदार हुए जिनका नाम था- श्रीनृसिंहधर । ये कट्टर ब्राह्मण थे - तीनों समय संध्या किया करते थे। इनकी पत्नी श्रीमती विद्यावती इनसे बढ़कर धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। गृह-देवता शंकर की पूजा में अधिक समय व्यतीत करती थीं और अधिक व्रत-उपवास किया करती थीं। अपनी मनोकामना व्रत-उपवास-पूजा से पूरी न होती समझकर एक दिन उन्होंने आपने पति से कहा- “ शायद मेरे भाग्य में संतान सुख नहीं , मेरा अनुरोध है कि आप ‘ धर-वंश ’ की रक्षा के लिये एक विवाह और कर लें। ”


त्रिपुरभैरवी महाविद्या जगत् के मूल कारण की अधिष्ठात्री देवी हैं

क्षी यमान विश्व के अधिष्ठान श्री  दक्षिणामूर्ति कालभैरव हैं। त्रिपुरा माँ या भगवती त्रिपुरभैरवी उनकी ही शक्ति हैं। ये ललिता या महात्रिपुरसुन्दरी की रथवाहिनी हैं। ब्रह्माण्डपुराण में इन्हें गुप्त योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में चित्रित किया गया है। मत्स्यपुराण में इनके  त्रिपुरभैरवी, कोलेशभैरवी, रुद्रभैरवी, चैतन्यभैरवी तथा नित्याभैरवी आदि स्वरूपों का वर्णन प्राप्त होता है। इन्द्रियों पर विजय और सर्वत्र उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु  त्रिपुरभैरवी महाविद्या की उपासना का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। महाविद्याओं  में इनका छठा स्थान है। मुख्यतः घोर कर्मों में  त्रिपुरभैरवीजी के मंत्रो का प्रयोग किया जाता है।


श्रीदत्तात्रेय-जयन्ती - भगवान दत्तात्रेय जी की महिमा

म हायोगीश्वर दत्तात्रेय जी भगवान विष्णुजी के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को को प्रदोषकाल में हुआ था। अतः इस दिन बड़े समारोह से दत्तजयन्ती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत (२।७।४) में आया है कि पुत्रप्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रि के तप करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः ' “ मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया ” - श्रीविष्णुजी के ऐसा कहे जाने से भगवान् विष्णु ही अत्रि के पुत्ररूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाये। अत्रिपुत्र होने से ये ‘ आत्रेय ’ कहलाते हैं। दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका ' दत्तात्रेय ' नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनुसूया है, जो सतीशिरोमणि हैं तथा उनका पातिव्रत्य संसार में प्रसिद्ध है। 


गीता-जयन्ती पर जानें श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा

ज यन्ती तिथियों का हमारे हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्व रहा है। विश्व के किसी भी ग्रन्थ का जन्म - दिन नहीं मनाया जाता , जयन्ती मनायी जाती है तो केवल श्रीमद्भगवद्गीता की ; क्योंकि अन्य ग्रन्थ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किये गए हैं जबकि हमारे हिन्दू धर्म के इस पवित्रतम ग्रन्थ गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ है - या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥


भैरव जयंती पर जानें भैरवाष्टमी व्रत की विधि

मि त्रों, मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को होती है भक्तों की हर प्रकार से रक्षा करने वाले भगवान  भैरवनाथजी की जयन्ती ।   भगवान शिव के दो स्वरूप हैं- १- भक्तों को अभय देने वाला विश्वेश्वर स्वरूप और २- दुष्टों को दण्ड देने वाला कालभैरव स्वरूप।  जहाँ विश्वेश्वर अर्थात् काशी विश्वनाथ जी का स्वरूप अत्यन्त सौम्य और शान्त है , वहीं उनका भैरवस्वरूप अत्यन्त रौद्र , भयानक , विकराल तथा प्रचण्ड है। श्री आनन्द भैरव श्री कालभैरव


प्रबोधिनी एकादशी पर करें तुलसी विवाह

आ ज कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तुलसी - विवाह   का भी आयोजन किया जाता है। हिन्दू धर्मग्रन्थों की मान्यता के अनुसार तुलसी श्रीहरि को अतिप्रिय है जिस कारण तुलसी चढ़ाए बिना मधुसूदन भगवान की  कोई भी पूजा अधूरी मा नी जाती है। तुलसी के पत्ते मंगलवार, शुक्रवार, रविवार, संक्रांति (नये महीने या वर्ष का पहला दिन), अमावास्या, पूर्णिमा, द्वादशी, श्राद्ध तिथि (पूर्वजों की पुण्यतिथि)  और   दोपहर [12बजे] के बाद नहीं तोड़ने चाहिए अन्यथा भगवान के सिर को काटने का पाप मिलता है। तुलसी पत्र/दल तोड़ना यदि बहुत आवश्यक हो तो फिर निम्न मंत्र पढ़कर तोड़ लेना चाहिये- तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया। चिनोमि केशवस्यार्थे वरदा भव शोभने।। अथवा [और] त्वदंगसंभवै: पत्रै: पूजयामि यथा हरिम्। तथा कुरु पवित्राङ्गि! कलौ मलविनाशिनी।।


देवोत्थापनी एकादशी - सुप्तावस्था से जगने का पर्व

य द्यपि भगवान् क्षणभर भी नहीं सोते , फिर भी भक्तों की भावना- ‘ यथा देहे तथा देवे ’ के अनुसार भगवान् चार मास तक शयन करते हैं। भगवान् विष्णु के क्षीरसागर में  शयन के विषय में कथा है कि भगवान ने  भाद्रपदमास की शुक्लपक्षीय एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को मारा था और उसके बाद थकावट दूर करने के लिये क्षीर-सागर में जाकर सो गये। वे वहाँ चार मास तक सोते रहे और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागे। इसी से इस एकादशी का नाम ‘ देवोत्थापनी ’ या ‘ प्रबोधिनी एकादशी ’ पड़ गया। 


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