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षाढ़ व माघ मास के शुक्ल पक्ष से गुप्त नवरात्रियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं। यूं तो प्रत्येक मास के किसी भी पक्ष की प्रतिपदा तिथि से लेकर नवमी तिथि तक के समय को नवरात्र कहा जा सकता है परंतु इनमें से चार ही नवरात्रियां श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार हमारे हिन्दू धर्म ग्रंथों में चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ इन चार हिन्दू महीनों में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नवमी तिथि तक का समय बड़े महत्व का बताया गया है । इनमें से चैत्र मास की नवरात्रि को वासंतिक नवरात्रि, आश्विन मास की नवरात्रि को शारदीय नवरात्रि और आषाढ़ व माघ मास की नवरात्रि को गुप्त नवरात्रियों की संज्ञा दी गयी है। वासंतिक व शारदीय नवरात्रि तो विश्वप्रसिद्ध हैं पर गुप्त नवरात्रि नाम के ही अनुसार गुप्त हैं अर्थात् बहुत कम लोग इनके विषय में जानकारी रखते हैं। इसके साथ ही दूसरी बात यह ध्यातव्य है कि देवी के पूजक आराधक चैत्र व आश्विन नवरात्र में तो प्रकट रूप से उपासना करते हैं। अर्थात बड़े ही धूमधाम से उत्सव मनाते हुए नौ दिन उपवास और चण्डी पाठ विस्तार से करके कन्या पूजन सहित विधि विधान से सभी अनुष्ठान करते हैं। लेकिन गुप्त नवरात्र में यह आवश्यक नहीं है। इन गुप्त नवरात्रों में किये जाने वाले तंत्र प्रयोग या मंत्र साधना को गुप्त रूप से ही किया जाता है। ये गुप्त नवरात्र विशेष रूप से तंत्र के साधकों के लिये ही हैं।
आषाढ़ तथा माघ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवमी तिथि तक की अवधि को गुप्त नवरात्र कहा जाता है। गुप्त नवरात्रियों में जानकार साधकजन कई प्रकार की तांत्रिक क्रियाएँ, शाक्त साधनाएँ, शैव साधनाएँ, योगिनी, भैरवी, महाकाल आदि से जुड़ी तंत्र साधनाएं सम्पन्न करते हैं व सफल होने पर गुप्त एवं दुर्लभ सिद्धियाँ पाते हैं। उत्तराखंड में आषाढ़ी नवरात्र के अंतर्गत ही कर्क संक्रांति के आठ दिन पहले ज्वारे बो दिये जाते हैं और नवें दिन कर्क संक्रान्ति को उन उगे हुए ज्वारों को काटकर आशीर्वाद के रूप में सबको बांटकर हरेला त्यौहार मनाया जाता है; जो कि लगभग आषाढ़ी नवरात्र की पवित्र तिथियों के ही आस-पास पड़ता है। कुछ लोग रीति के अनुसार यहाँ कर्क संक्रांति के पहले दिन पार्वती जी, नंदी सहित शिव परिवार की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाकर उनकी पूजा करते हैं। अगले दिन कर्क संक्रांति को, हरेला काटने के बाद बचे ज्वारों [हरेले] के साथ मूर्तियों को विसर्जित कर देते हैं। कुल मिला कर यह श्रावण के पूर्व व गुप्त नवरात्र के अंतर्गत ही होता है जिसका अर्थ यह भी है कि गुप्त नवरात्रों में शिव परिवार की आराधना करना शुभप्रद है। गुप्त नवरात्रियों में घटस्थापन व कन्या पूजन आवश्यक नहीं है। लेकिन कोई घट स्थापना करके साधना पूजा करना चाहे तो कर सकता है।
नवरात्रि अपने आप में एक सिद्ध मुहूर्त होती है अतः शारदीय व वासंतिक नवरात्रि की भांति गुप्त नवरात्रि में विधि विधान से पूजन-अर्चन घटस्थापन आदि यदि न भी किया जाये तो कोई उत्तम साधना की जानी चाहिए; यह भी न हो सके तो गुप्त नवरात्रि की प्रत्येक तिथि को नवदुर्गाओं के निर्धारित स्वरूप की पुष्पाक्षत से पूजन कर आराधना की जानी चाहिए। "नवरात्रि" में नव के दो अर्थ निकलते हैं- नौ की संख्या और नया या नवीन। नवदुर्गाएं, दुर्गा माँ के वो नौ रूप हैं जो नित्य ही नवीन हैं। नवदुर्गा की आराधना में स्तोत्रों का, ध्यान मंत्रों का यथाशक्ति निरंतर मानस पाठ करना उत्तम है।
दुर्गा माँ के नौ स्वरूप
देवी कवच में देवी की ९ मूर्तियों के विषय में बतलाया गया है-
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी,
तृतीयं चंद्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीतिचाष्टमम् ॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
१.शैलपुत्री
देवी की प्रथम मूर्ति का नाम शैलपुत्री है, जो गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती देवी हैं। यद्यपि ये सबकी अधीश्वरी देवी हैं तथापि पुराणों के अनुसार हिमालय की तपस्या-प्रार्थना से प्रसन्न होकर कृपापूर्वक उनकी पुत्री के रूप में प्रकट हुईं।
नवरात्रि के प्रथम दिन शैलपुत्री जी की आराधना की जाती है जिनका ध्यान ऐसे करें-
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥
अर्थात्
मैं मनोवाञ्छित लाभ के लिए मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण करने वाली, वृष पर आरूढ़ होने वाली, शूलधारिणी, यशस्विनी शैलपुत्री दुर्गा की वन्दना करता हूँ।
२.ब्रह्मचारिणी
नवरात्रि के द्वितीय दिन ब्रह्मचारिणी जी की आराधना शुभप्रद है, इनका ध्यान इस तरह करें-
दधाना कर पद्माभ्यामक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
अर्थात्
जो दोनों करकमलों में अक्षमाला व कमण्डलु धारण करती हैं, वे सर्वश्रेष्ठा ब्रह्मचारिणी दुर्गा देवी मुझ पर प्रसन्न हों।
चन्द्रः घण्टायां यस्याः सा चन्द्रघण्टिका
अर्थात् आह्लादकारी चन्द्रमा युक्त घण्टे को हाथ में धारण करने वाली देवी चन्द्रघण्टा हैं।
अर्थात् आह्लादकारी चन्द्रमा युक्त घण्टे को हाथ में धारण करने वाली देवी चन्द्रघण्टा हैं।
नवरात्रि के तृतीय दिन चंद्रघण्टा जी की पूजा करना उत्तम है इनका ध्यान इस प्रकार है-
पिण्डजप्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुतां मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥
अर्थात्
जो पक्षिप्रवर गरुड़ पर आरूढ़ होती हैं, उग्र कोप और रौद्रता से युक्त रहती हैं तथा चंद्रघण्टा नाम से विख्यात हैं,वे दुर्गा देवी मेरे लिए कृपा का विस्तार करें।
४.कूष्माण्डा
कुत्सितः ऊष्मा कूष्मा
अर्थात् कुत्सित ऊष्मा [त्रिविध ताप/कष्ट] से कूष्मा शब्द बना और त्रिविधतापयुत: संसार: स अण्डेमांसपेश्यामुदररुपायां यस्या: सा कूष्माण्डा।
अर्थात् त्रिविध ताप/कष्ट युक्त [पहला ताप है आध्यात्मिक ताप जो शारीरिक व मानसिक दो तरह का होता है, दूसरा कष्ट है भौतिक पदार्थों/जीव-जंतुओं के कारण मनुष्य को होने वाला आधिभौतिक ताप और तीसरा आधिदैविक ताप जो बाह्य कारण से उत्पन्न दु:ख हो जैसे भूकम्प,बाढ़ सूखे आदि से उत्पन्न कष्ट] संसार जिनके उदर में स्थित है, वे भगवती कूष्माण्डा कहलाती हैं।
अर्थात् कुत्सित ऊष्मा [त्रिविध ताप/कष्ट] से कूष्मा शब्द बना और त्रिविधतापयुत: संसार: स अण्डेमांसपेश्यामुदररुपायां यस्या: सा कूष्माण्डा।
अर्थात् त्रिविध ताप/कष्ट युक्त [पहला ताप है आध्यात्मिक ताप जो शारीरिक व मानसिक दो तरह का होता है, दूसरा कष्ट है भौतिक पदार्थों/जीव-जंतुओं के कारण मनुष्य को होने वाला आधिभौतिक ताप और तीसरा आधिदैविक ताप जो बाह्य कारण से उत्पन्न दु:ख हो जैसे भूकम्प,बाढ़ सूखे आदि से उत्पन्न कष्ट] संसार जिनके उदर में स्थित है, वे भगवती कूष्माण्डा कहलाती हैं।
नवरात्रि के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी की आराधना शुभप्रद है इनका ध्यान इस तरह करें-
सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधानाहस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे॥
अर्थात्
रुधिर से परिप्लुत व सुरा से परिपूर्ण कलश को दोनों करकमलों में धारण करने वाली कूष्मांडा दुर्गा मेरे लिए शुभदायिनी हों।
५. स्कन्दमाता
छान्दोग्य श्रुति के अनुसार भगवती की शक्ति से उत्पन्न हुए सनत्कुमार का नाम स्कन्द था और उनकी माता होने से वे स्कन्दमाता कहलाती हैं। ये षण्मुख स्कन्द कार्तिकेय रूपी बालक को सदा गोद में लिए रहती हैं। नवरात्रि के पंचम दिन स्कंदमाता जी की आराधना करें, जिनका ध्यान ऐसे करें-
सिंहासनगता नित्यं पद्माञ्चितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्द माता यशस्विनी॥
अर्थात्
जो नित्य सिंहासन पर विराजमान रहती हैं तथा जिनके दोनों हाथ कमलों से सुशोभित होते हैं, वे यशस्विनी दुर्गा देवी स्कन्दमाता सदा कल्याण दायिनी हों।
६.कात्यायनी
देवी का छठा रूप कात्यायनी माँ का है। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए देवी महर्षि कात्यायन के आश्रम में प्रकट हुईं और महर्षि ने उन्हें अपनी कन्या माना; अत: ये कात्यायनी नाम से प्रसिद्ध हुईं। नवरात्रि के अंतर्गत षष्ठी तिथि को कात्यायनी जी की पूजा उत्तम है इनका ध्यान इस प्रकार है-
चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवीदानव घातिनी॥
अर्थात्
जिनका हाथ उज्जवल चन्द्रहास नामक तलवार से सुशोभित होता है तथा सिंहप्रवर जिनका वाहन है, वे दानव संहारिणी कात्यायनी दुर्गादेवी मङ्गल प्रदान करें।
७. कालरात्रि
शक्ति का सातवाँ स्वरूप कालरात्रि माँ का है, सबको मारने वाले उस काल की भी विनाशिनी या रात्रि होने से ही इन देवी का नाम कालरात्रि है।
नवरात्रि के सप्तम दिन कालरात्रि जी की आराधना उत्तम है जिनका ध्यान ऐसे करें-
करालरूपा कालाब्जसमानाकृतिविग्रहा।
कालरात्रिः शुभं दद्याद् देवी चण्डाट्टहासिनी॥
अर्थात्
जिनका रूप विकराल है, जिनकी आकृति और विग्रह कृष्ण कमल-सदृश है तथा जो भयानक अट्टहास करने वाली हैं, वे कालरात्रि देवी दुर्गा मङ्गल प्रदान करें।
८.महागौरी
महागौरी के नाम से आठवाँ स्वरूप धारण करने वाली भगवती ने तपस्या द्वारा महान गौरवर्ण प्राप्त कर लिया था। अत: ये महागौरी कहलाईं।
नवरात्रि के आठवें दिन महागौरी जी की आराधना शुभप्रद है इनका ध्यान इस तरह करें-
श्वेतवृषेसमारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥
अर्थात्
जो श्वेत वृष पर आरूढ़ होती हैं, श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, सदा पवित्र रहती हैं तथा महादेव जी को आनन्द प्रदान करती हैं, वे महागौरी दुर्गा मङ्गल प्रदान करें।
९.सिद्धिदात्री
जिनकी सिद्ध, गंधर्व, यक्षादि भी स्तुति किया करते हैं। नवरात्रि के अंतिम दिन नवमी तिथि को सिद्धिदात्री जी की पूजा उत्तम है इनका ध्यान इस प्रकार है-
सिद्धगंधर्व-यक्षाद्यैर-सुरैरमरै-रपि।
सेव्यमाना सदाभूयात्सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥
अर्थात्
सिद्धों, गन्धर्वों, यक्षों, असुरों और देवों द्वारा भी सदा सेवित होने वाली सिद्धिदायिनी सिद्धिदात्री दुर्गा सिद्धि प्रदान करने वाली हों।
गुप्त नवरात्रि में मंत्र साधना करने का अधिक महत्व है इसके कई प्रकार हैं-
- सामान्य आराधक नमः श्री दुर्गायै का जप कर सकते हैं
- दीक्षा प्राप्त साधकजन गुरु से प्राप्त मंत्र का जप करें।
- योग्य गुरु से नवार्ण मंत्र ग्रहण करके विनियोग, न्यास, ध्यान सहित नवार्ण मंत्र (ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै) जपना चाहिये क्योंकि यह देवी माँ का प्रमुख व प्रभावशाली मन्त्र है।
- यदि आप यज्ञोपवीत धारी द्विज हैं तो गायत्री मंत्र भी प्रतिदिन 10 माला जप सकते हैं।
गुप्त नवरात्र पर नाम जप साधना
भगवान के नाम जो कि मंत्र स्वरूप ही हैं, जैसे- राम, कृष्ण, राधा, दुर्गा, उमा आदि) कोई एक नाम चुनकर नवरात्रि में उसका कभी भी, किसी भी अवस्था में यथासंभव मन में बारंबार स्मरण करना अति उत्तम है। स्वयं सिद्ध मुहूर्तों में सच्चे मन से किए गए मानसिक जप से वे मंत्र सिद्ध हो जाया करते हैं। बल्कि सरल, उत्तम व सिद्धिप्रद तो यह होगा कि इन नौ दिनों में शुद्ध होकर भगवान के समक्ष बैठकर भगवान के किसी भी नाम रुपी मंत्र का दस हजार जप या एक लाख या सवा लाख की संख्या में जप करने की साधना कर लें।
उदाहरण के लिये - "दुर्गा" यह नाम मन्त्र स्वरूप है। इसकी महिमा के बारे में माया तंत्र के पंचम पटल में लिखा है-
कथयेशान ! सर्वज्ञ ! दुर्गानामफलं प्रभो !
श्रुतं किञ्चिन्मया पूर्वं यदुक्तं सुरसंसदि॥1॥
श्रीपार्वती जी ने कहा- हे ईशान! एक बार कभी आपने देवताओं की सभा में 'दुर्गा' नाम की महिमा और इसके जप से प्राप्त होने वाले फल का कथन किया था। अब मैं इसे सुनना चाहती हूँ। कृपया आप पुन: बतायें।
श्रीईश्वर उवाच
शृणु प्रिये प्रवक्ष्यामि गुह्याद् गुह्यतरं महत् ।
यदुक्तं ब्रह्मणा पूर्वं देवासुरसङ्गरे ॥2॥
श्रीईश्वर(शिवजी) ने कहा- हे प्रिये! गोपनीय से भी गोपनीय भगवती दुर्गा के नाम की महिमा सुनो। इस नाम की महिमा का उल्लेख पहले कभी देवासुर-संग्राम में ब्रह्मा ने देवों के
बीच किया था।
धन्यं यशस्यमायुष्यं प्रजापुष्टिविवर्द्धनम्।
सहस्त्रनामभिस्तुल्यं दुर्गानाम वरानने॥३॥
हे पार्वति! भगवती दुर्गा के नाम का एक बार जप करना अन्य किसी भी देवता के नाम का हजार बार जप करने के बराबर है। 'दुर्गा' नाम का जप धन, कीर्ति, आयु, सन्तान और पुष्टि प्रदान करता है।
महापदि महादुर्गे आयुषो नाशमागते।
जातिध्वंसे कुलोच्छेदे महानिगडबन्धने॥4॥
व्याधिशरीर-सम्पाते दुश्भरिकित्सामयेऽपि वा।
शत्रुभिः समनुप्राप्ते बन्धुभिस्त्यक्तसौहृदे॥5॥
जपेद् दुर्गायुतं नाम ततस्तस्मात्प्रमुच्यते ।
हे देवि! किसी भी बड़ी आपत्ति में, दुःसाध्य कष्ट में अथवा मृत्यु का संकट आने पर, जातिनाश, कुलनाश, भयानक बन्धन, रोगों से शरीर नष्ट हो जाने की स्थिति उपस्थित होने पर, कष्टसाध्य रोग होने की दशा में, शत्रुओं से घिर जाने पर, सगे-सम्बन्धियों द्वारा सम्बन्ध त्याग देने की दशा में 'दुर्गा' नाम का अयुत(दस हजार) जप करने से व्यक्ति इन सभी बाधाओं से मुक्त हो जाता है।
...दुर्गेति मङ्गलं नाम यस्य चेतसि वर्तते॥६॥
स मुक्तो देवि संसारात् स नम्यः सुरैरपि।
दुर्गेति द्वयक्षरं मन्त्रं जपतो नास्ति पातकम्॥7॥
कार्यारम्भे स्मरेद्यस्तु तस्य सिद्धिरदूरतः।
हे पर्वतनन्दिनि ! "दुर्गा” नाम महामंगलमय है। यह नाम जिस व्यक्ति की चेतना में स्थिर हो जाता है, वह व्यक्ति संसार में रहते हुए भी मुक्त है। वह देवताओं द्वारा भी संपूज्य और नम्य है। हे भगवति! जो साधक "दुर्गा" इस द्वयक्षर मंत्र का जप करता है, उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं हे देवी! किसी भी कार्य को आरम्भ करते समय जो व्यक्ति दुर्गा नाम का स्मरण करता है, बहुत शीघ्र उसका वह कार्य सम्पन्न हो जाता है ।
दुर्गा नाम जप पुरश्चरण
दुर्गेति नामजप्तव्यं कोटिमात्रं सुरेश्वरि ॥8॥
तत्तद् दशांशतो हुत्वा तर्पयित्वा तदंशतः।
अभिषिंच्य च विप्रेन्द्रान् भोजयित्वा दशांशतः ॥9॥
असाध्यं साधयेद् देवि! साधको नात्र संशयः।
होमाद्य॒शक्तो देवेशि ! द्विगुणं जपमाचरेत्॥१०॥
अथवा ब्राह्मणान्तं च साधकानां च भोजनात्।
व्यङ्गं साङ्गं भवेत्सर्वं नात्र कार्या विचारणा॥११॥
हे सुरेश्वरि ! भगवती दुर्गा के नाम की साधना की सिद्धि(पुरश्चरण) के लिये इस नाम का एक करोड़ बार जप करे, दस लाख हवन करे तथा एक लाख तर्पण करके दस हजार बार मस्तक पर अभिषेक(जल छिड़के) करे। फिर एक हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने पर साधक असाध्य लक्ष्य भी प्राप्त कर सकता है, इसमें किंचित मात्र भी सन्देह नहीं।
हे देवि! साधक यदि होम-तर्पणादि में असमर्थ है, तो उसे उक्त निर्धारित संख्या से दोगुना जप कर लेना चाहिये, जैसे - हवनार्थ बीस लाख जप करें एवं तर्पणार्थ दो लाख जप करें, अभिषिंचनार्थ - बीस हजार जप करें।
अथवा ब्राह्मणों व साधकों को भोजन कराने से ही साधनाकाल में की गयी समस्त अंगों की पूर्ति हो जाती हैं इसमें संशय नहीं करे।
एतत् कल्पसमा देवि! नाश्वमेधादयः परे।
दुर्गानामजपात् तुल्यं नान्यदस्ति कलौ भुवि॥१२॥
हे भगवति! दुर्गा नाम के समान महिमाशाली अश्वमेधादि यागादि भी नहीं हैं। कलिकाल में दुर्गा नाम के जप के समान अन्य कोई भी साधना नहीं है।
शारदीय नवरात्र में तथा ग्रहण काल में दुर्गानाम जप की विधि-
शरत्काले तु दुर्गायाः पुरतो जपमाचरेत्।
अगणया च चन्द्रादिग्रहणे जपमाचरेत्॥१३॥
गणनं स्नानदानादौ न जपे परमेश्वरि!
रवीन्द्रोग्रहणे पृथ्व्यां जपतुल्या न च क्रिया॥१४॥
तस्मात्सर्व परित्यज्य जपमात्रं समाचरेत्॥
हे परमेश्वरि! साधक को चाहिये कि वह शरत्कालीन दुर्गोत्सव के दिनों में दुर्गा जी (मूर्ति/चित्र/यंत्र) के सामने बैठकर जप करे। इसके अतिरिक्त चन्द्र और सूर्य-ग्रहण के समय जितना हो सके, बिना गिने हुए, दुर्गा नाम का जप करे। परमेश्वरि ! स्नान और दान में तो गिनती की जाती है, लेकिन ग्रहण कालीन जप में गिनती की आवश्यकता नहीं होती। (अतः ग्रहण में जितना हो सके, अधिक से अधिक जप करना चाहिये।) सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के समय इस पृथ्वी में जप करने से बड़ी अन्य कोई भी क्रिया है ही नहीं।
अतएव गुप्त नवरात्रि पर कोई न कोई साधना, स्तोत्रात्मक उपासना, सप्तशती का पाठ, पूजन, भजन, भगवन्नाम-स्मरण आदि शुभ कार्य किए जाने चाहिये और अष्टोत्तरशत नाम स्तोत्र, सप्तशती में वर्णित विविध श्लोकों, देवी कवच, सिद्धकुञ्जिका स्तोत्र, सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र, देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र, दुर्गा मानस पूजा सहस्रनाम स्तोत्र आदि विभिन्न देवी स्तोत्रों का पाठ किया जाना अति उत्तम है।
श्री दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला
दुर्गा दुर्गार्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी ।
दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी॥
दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा ।
दुर्गमज्ञानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला॥
दुर्गमादुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी।
दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता ॥
दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी ।
दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी॥
दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी ।
दुर्गमांगी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी ॥
दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी ।
नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानव: ॥
पठेत् सर्वभयान्मुक्तो भविष्यति न संशय: ॥
इस संकटहारिणी नामावली के पाठ से अनेकानेक लाभ हैं। जो कोई भी माँ दुर्गा की इस नामावली को पढ़ता है वह निःसंदेह सब प्रकार की विपत्तियों और भयों से मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार यह 32 नामों वाला माँ दुर्गा का स्तोत्र है। भय की स्थिति कभी उत्पन्न ही न हो, इसके लिए नित्य ही इस नाममाला का यथासंभव श्रद्धापूर्वक पठन किया जाना चाहिए। पाठ करते समय इन नामों के अर्थ के अनुसार माँ भगवती का चिंतन भी होता रहे तो अति उत्तम है। इसके पाठ का एक अन्य प्रकार यह है कि नवरात्रि के पहले दिन एक माला(१०८) जपे, दूसरे दिन दो, तीसरे दिन तीन, चौथे दिन चार माला, पंचमी को 5, षष्ठी को 6, सप्तमी को 7 माला, अष्टमी को 8 माला जपे। इस तरह से जपते-जपते नवें दिन नौ माला यह स्तोत्र जपने से यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है और तत्पश्चात विघ्न के समय पाठ करने से साधक उस विपत्ति से अवश्य मुक्त होता है। अतः यह साधना भी इन गुप्त नवरात्रियों में की जा सकती है। गुप्त नवरात्रि पर माँ भवानी के श्री चरणों में हमारा बारंबार प्रणाम।
Ma bhuvneshvari jayanti kab hoti hai.......ek jagah bhadrapad Shukla dwadashi ,dusari jagah Krishna dwadashi aapne likha hai
जवाब देंहटाएंनमस्कार महोदय, भुवनेश्वरी महाविद्या की जयंती भाद्रपद मास के शुक्ल द्वादशी को होती है .... जहाँ टंकण की गलती थी उसे अब सुधार लिया गया है...इस ओर ध्यान दिलाने हेतु धन्यवाद..
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